अमरीका में जाह्न होपकिनस में एक कोर्स करने गया था, सन 1989 में. वह पहला मौका था कि एडस के रोगियों को करीब से देखने का मौका मिला था. तब तक पश्चिमी संसार में एडस के बारे में बहुत शोर हो रहा था. तब इस रोग का संक्रमण अधिकतर समलैंगिक यौन सम्बंधों के साथ जुड़ा था. उस समय यह तो समझता था कि समलैंगिक सम्बंध क्या होते हैं पर "समलैंगिक सभ्यता" क्या होती है यह पहली बार करीब से देखने का मौका मिला.
कोर्स के दौरान कुछ समलैंगिक युगलों से मिल कर बात करने का मौका मिला जिनमें से एक को एडस का रोग था. इन मुलाकातों ने मन में बने समलैंगिक रिश्तों के बारे में बैठे विश्वासों को हिला दिया था. सोचता था कि समलैंगिक सम्बंध रखने वाले युवक किसी के साथ प्रेम नहीं, बल्कि जितने अधिक शारीरिक सम्बंध हो सकते हैं सिर्फ वही खोजते हैं.
उस समय इस रोग के फ़ैलने के बारे में जानकारी बहुत अधिक नहीं थी, और बाहर से छुपाने की कोशिश करने के बावजूद, मन में किसी रोगी के करीब जाने या छूने में बहुत डर लगता था. रोगियों के प्रति कैसे अमानवीय व्यवहार हो रहे हैं, इसकी बात उठती तो मन में अपने डर के प्रति क्षोभ उठता पर फ़िर भी डर पर पूरा काबू नहीं कर पाता. ऐसे में जो रोगी नहीं थे उनका अपने रोगी साथियों के प्रति प्रेम देख कर विश्वास नहीं होता था कि उन्हें इस तरह रोगी के साथ रहने में डर नहीं लगता?
तब से विभिन्न देशों में एडस के रोगियों को करीब से देखने का मौका मिला है. आज एडस के बारे में सोचूँ तो मन में समलैंगिक शब्द नहीं आता, बल्कि अफ्रीका के गाँव आते हैं जहाँ नवजवान पीढ़ी की फसल को इस रोग ने काट दिया है और पूरे गाँव में केवल बूढ़े और बच्चे दिखते हैं जिनमें खेतों में काम करने की शक्ति नहीं है. कितने ही मित्र जो अफ्रीका में डाक्टर और नर्स थे, पिछले सालों इस रोग की वजह से खो चुके हैं. कुछ को आज यह बीमारी है और सबको एआरवी दवाईयाँ नहीं मिल पाती.
पर आज इस बीमारी का विश्व प्रतिमान भारत को मिल गया है, जहाँ दुनिया के सबसे अधिक रोगी हैं. निरंतर के माध्यम से मुझे इस स्थिति पर लिखने का मौका मिला है. नया निरंतर कल 7 अगस्त से अंतरजाल पर एक साल के अंतराल के बाद नया रुप ले कर फ़िर से आया है, उसे पढ़ना न भूलियेगा.
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आषीश, तुम्हारी टिप्पणी के लिए धन्यवाद. तुमने ठीक ही कहा है कि शब्द तो हैं, बात कहने का साहस चाहिए. पर मैंने सोचा कि जब यौन विषयों पर ऐसी बात लिखूँ जो केवल व्यस्कों के लिए हो, तो उसे चिट्ठे में लिखना ठीक नहीं होगा. इसलिए ब्राज़ील के यौन व्यवहार के सर्वेक्षण के बारे में जो लिखा है, उसे आप कल्पना पर पढ़ सकते हैं, वह "जो न कह सके" में नहीं कहा जायेगा.
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