बहस इस बात पर हो रही है कि भारतीय एसोसियेशन के द्वारा आयोजित किये जाने वाले समारोह में कौन सी फ़िल्मों के दृष्यों को चुना जाये. सोचा कि गम्भीर बातों को भी कुछ हल्के तरीके से प्रस्तुत किया जा सकता है. "भारतीय नारी बोलीवुड के सिनेमा के माध्यम से", नाम दिया गया है इस समारोह को और हम खोज रहे हैं ऐसे दृष्य जिनसे भारत में स्त्री पुरुष के सम्बंधों के बारे में विभिन्न पहलुओं पर विचार किया जा सके. दृष्य छोटा सा होना चाहिये, और हर दृष्य के बाद उस पहलू पर बहस की जायेगी.
मुझे प्रजातंत्र में विश्वास है, यानि कुछ भी करना हो तो सबकी राय ले कर करना ठीक लगता है, लेकिन जब बात प्रिय हिंदी फ़िल्मों पर आ कर अटक जाये तो प्रजातंत्र की कमी समझ में आती है. हर किसी की अपनी अपनी पसंद है और हर कोई चाहता है कि उसी की पसंद का दृष्य दिखाया जाये.
खैर समारोह में अभी करीब दो महीने का समय है और इस समय में कुछ न कुछ निर्यण तो लिया ही जायेगा. ऊपर से चुनी फ़िल्मों के दृष्यों को काटना, जोड़ना और मिला कर उनकी एक डीवीडी बनाने की जिम्मेदारी मेरी ही है और अगर किसी निर्यण पर न पहुँचे तो अंत में मैं अपनी पसंद के दृष्य ही चुनुँगा.
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इतना सुंदर दिन था, हल्की सी धूप बहुत अच्छी लग रही थी. तापमान भी बढ़िया था, करीब 20 डिग्री, न गरमी न ठँडी. क्यों न पिकनिक की जाये? हमारी बड़ी साली साहिबा आई हुईं थीं, पत्नी बोली कि उन्होंने खरीदारी करने के लिए जाने का सोचा है इसलिए पिकनिक के प्रोग्राम में वे दोनो शामिल नहीं होंगी पर बेटे और बहू ने तुरंत उत्साहित हो कर तैयारी शुरु कर दी.
बेडमिंटन के रैकेट, घास पर बिछाने के लिए चद्दर, पढ़ने के लिए किताबें, कुछ खाने का सामान, काला चश्मा, गाने सुनने के लिए आईपोड. यानि जिसके मन में जो आया रख लिया और हम लोग घर के सामने वाले बाग में आ गये.
बाग में पहुँचते ही मन में "रंग दे बसंती" के शब्द घूम गये. लगा कि यश चोपड़ा की किसी फ़िल्म के सेट पर आ गये हों. चारों तरफ़ पीले और सफ़ेद फ़ूल. लगा कि किसी भी पल "दिल वाले दुल्हनिया ले जायेंगे" के शाहरुख खान और काजोल "तुझे देखा तो यह जाना सनम" गाते गाते सामने आ जायेंगे. करीब के गिरजाघर की घँटियाँ भी फ़िल्म के सेट का हिस्सा लग रही थीं.
दोपहर बहुत अच्छी बीती. बाग लोगों से भरा जो हमारी तरह ही अच्छा मौसम देख कर घरों से निकल आये थे. आसपास से बच्चों के खेलने की आवाज़ आ रही थी. हमने भी गरमागरम पराँठों जैसी यही की रोटी जिसे पियादीना कहते हें खायी और घास पर अखबार पढ़ते पढ़ते ऊँघने लगे.
थोड़े से दिनों की बात है, एक बार गरमी आयी तो धूप में इस तरह बाहर निकलना कठिन होगा. तब इस दिन की याद आयेगी जैसे भूपेंद्र ने गाया था, "दिल ढूँढ़ता है फ़िर वही फुरसत के रात दिन"!
प्रस्तुत हैं हमारी पिकनिक की कुछ तस्वीरें.
8 टिप्पणियां:
सुनील भाई,
हिन्दी चलचित्रोँ का फलक बहोत विशाल है -- प्यासा के गुरुदत्त से मिलने को बैचैन वहीदा जी का गीत,
" आज सजन मोहे अँग लगा लो, जनम सफल हो जाये"
या, साहिब बीबी गुलाम का " पिया ऐसे जिया मेँ समाई गयो रे, के मैँ तन मन की सुधबुध गँवा बैठी "
गीतोँ के माध्यम से समर्पण के भाव को बखूबी उभारते हैँ --
और नरगिसजी मधर इँडीया मेँ मिटटी उठाकर, हल काँधोँ पे उठाये अमरीकन "गोन वीथ ध वीन्ड "े होड लेती मालूम होती है -
और बोबी के ही द्रश्य ले लीजिये ...अब याद करते समय, कई सारे चित्रपट यादा आ रहे हैँ !
यकीनन्` आप सही चुनाव करेँगेँ --
Good Luck !! & aah yes, your BLOG is truly Inspiring !! Keep up the good work ..
rgds,
Lavanya
क्या लाइफ है! :)
आपकी उम्र का होने पर यही करना चाहुंगा. वैसे आप तो अभी युवा हैं. ;)
आह! क्या हरियाली !
बहुत बढिया. मौसम का लुत्फ उठायें. यहाँ भी मौसम सुंदर हो गया है अब!!
साहब बीवी और गुलाम का दृश्य मुझे कभी नहीं भूलता जब गुरूदत्त आंखे झुका कर मीना कुमारी के सामने बैठे बातें कर रहे हैं पर चेहरा देखेने की हिम्मत नहीं कर पा रहे हैं।
अपना नाम शर्माते से बताते हैं 'भूतनाथ'
इस पर मीना जी कहतीं है 'ये तो भगवान के नामों में से एक नाम है।'
गुरुदत्त अपने नाम का इतना अच्छा जिक्र सुन अचानक उपर देखते हैं तो मीना जी के खूबसूरत चेहरे को देखते रह जाते हैं।
WAW BASANTI ,
REALY A VERY GOOD LOCATION TO GO FOR PICNIC,
AND WHO ENJOYED THE MOST?
इस प्रसंग में मदर इंडिया का जिक्र करना जरुरी होगा।
बाग बहुत ही सुंदर है, शानदार तस्वीरें।
मिर्च मसाला और मंथन को जरूर शामिल करें । इन फिल्मों का कोई एक-दो नही वरन कई दृश्य महिलाओं पर बखूबी ध्यान केंद्रित करते हैं
और फिल्में ध्यान आयेंगी तो बताऊंगा...
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