मंगलवार, अगस्त 19, 2008

अँग्रेज भगवान

सलमान खान की नयी फ़िल्म "गोड तुस्सी ग्रेट हो" की तस्वीरें देख रहा था तो समझ में आया कि यह फ़िल्म अँग्रेजी में बनी अमरीकी फ़िल्म "ब्रूस आलमाईटी" का हिंदी रूप है और इसमें अमिताभ बच्चन जी भगवान का रूप निभा रहे हैं जो कि कुछ दिनों के लिए भगवान की सभी ताकतें एक नवयुवक यानि सलमान खान को दे देते हैं.

विदेशी फ़िल्मों से प्रभावित हो कर उन पर हिंदी फिल्म बनाना, उसकी फ्रेम टू फ्रेम नकल करना और फ़िर साक्षात्कार देना कि नहीं हमने तो केवल प्रेरणा ली है, बहुत से फ़िल्म निर्माताओं की पुरानी आदत है. पर इतनी लापरवाही कि फ़िल्म लो पर उसे भारतीय वातावरण में ढालने की रत्ती भर कोशिश भी न करो, इसका क्या अर्थ हो सकता है?

कोट पैंट पहनने वाले आफिस के मैनेजर जैसे लगने वाले भगवान भारत में किस धर्म में होते हैं भला? मैंने फ़िल्म नहीं देखी, इसलिए यह नहीं कह सकता कि सारी फ़िल्म में भगवान का यही रूप है या फ़िर जब भगवान जी धरती पर आते हैं और अपना सही रूप छुपाने के लिए कोट पैंट जैसे कपड़े पहनते हैं, जिसे वैचारिक तौर पर समझा जा सकता है क्योंकि शायद आज अगर राम या कृष्ण धरती पर आयें तो अपने पुराने रूप में नहीं आ सकते.

कुछ इसी तरह की बात लगी थी कुछ समय पहले जब यश चोपड़ा की फ़िल्म "थोड़ा प्यार थोड़ा मैजिक" देखी थी, जो कहानी थी स्वर्ग से धरती पर आयी पर एक परी की. इस फ़िल्म में यह परी भारतीय स्वर्ग में नहीं अमरीकी स्वर्ग में रहती है, गाऊन पहनती है, साइकल पर घूमती है, न उसके परियों जैसे पँख हैं, न भारतीय परिकल्पना की परियों जैसे बातें. वह पश्चिमी सभ्यता में बड़ी हुई आधुनिक युवती है जो धरती पर आती है तो भी लंदन में उतरी मेरी पोपिनस ही लगती है.

फ़िल्मों में इस तरह के चरित्र बनाये जायें इसका अर्थ है कि इसे बनाने वाले उसी दुनिया में रहते हैं, और इन फ़िल्मों को देखने वाले भी उसी दुनिया में रहते हैं जहाँ सब कुछ यूरोप या अमरीका से उधार लिया गया हो जहाँ अपना कुछ भी न हो, चेहरा और नाक नक्श छोड़ कर.

रंग भेद में तो अपना हिंदी जगत पहले से ही माहिर है, थोड़ा सा भी साँवला रंग वाले हीरो हिरोइन, उनके माता पिता, दोस्त सखियाँ, खोज कर ही शायद कोई इक्का दुक्का मिलती हैं. फ़िल्मों में देखो तो भारत के रहने वाले सब गोरे चिट्टे लोग हैं. असली भारत का कालापन इन फ़िल्मों की लुक न बिगाड़े इसलिए आम जनता वाले दृश्य विदेशों में शूट कर लेते हैं.

बस एक ही दिक्कत है इन बेचारे फ़िल्मकारों की, अपनी फ़िल्में भारत में काले, पिछड़े लोगों को ही दिखानी पड़ती हैं.

8 टिप्‍पणियां:

  1. बिल्कुल यही खयाल मुझे भी आया था.
    मुझे लगता था की विदेशी स्थलों पर फ़िल्माने की वजह सुंदर परिवेश होता होगा - आपका विचार दिलचस्प है, आजकल के गानों मे भी विदेशी कन्याओं को नचवाने का दौर चल पडा है शायद यही वजह है.

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  2. thok me film banayenge to kahani kahan se layenge.chori nahi karenge to kya kare bechaare

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  3. अब फिल्मे इस बात को ध्यान में रख कर बनाई जाती है की उन्हे ब्रिटेन, अमेरीका, कनाडा, मिडल इस्ट वगेरे में दिखाई जानी है. याद रखें चोपड़ा की फिल्मो में इसीलिए एक पंजाबी एक गुजराती होते ही है, हिरोइन चर्च जाती है...वगेरे वगेरे...भारतीय दर्शको का ध्यान रखने की जरूरत ही कहाँ है, वह कहाँ जाएगा? देखेगा ही. बस विदेश में बसे लोगो को अपना-सा लगना चाहिए.

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  4. भारतीयों की रंगभेदी मानसिकता को हम बेहद सुविधाजनक तरीके से नजरअंदाज करते रहे हैं। केवल जाति आधारित भेदभाव वाला ही नहीं वरन खांटी काले गोरे का नस्‍लवाद और इसे सिर्फ कोलोनियल लीगेसी भर कहकर मटियाया नहीं जा सकता, इसे जूतियाने की जरूरत है।

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  5. Sanjay ji ki baat se bilkul sahmat.. moti kamai ke liye yeh sabhi filme bahra rahne wale bhartiyo ke liye banayi jati hai.. jisse moti kamai ho sake.. mujhe to kabhi kabhi samajh nahi aata bahar rahne wale bhartiya kaisi kaisi filmo ki moti kamai karwa dete hai.:-)

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    मेरी पहली कविता...... अधूरा प्रयास

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  6. क्षमा कीजिए, "गॉड तुसी ग्रेट हो" मुझे काफी अच्छी लगी थी, बावजूद इसके कि " ब्रूस ऑलमाइटी" मेरी मनपसंद फिल्म है. "गॉड तुसी.." ने वाकई एक हॉलीवुड फिल्म का केन्द्र बिन्दु उठा कर उसका भारतीयकरण करके पेश किया था। उदाहरण, फिल्म के अंतिम क्षणों में सोहेल खान से सलमान द्वारा अपनी बातें कहलवाना "ब्रूस ऑल्माइटी" के एक दृश्य की सिद्धांतत: नकल थी, हू-ब-हू नकल नहीं। लगभग पूरी फिल्म ऎसी ही थी। मुझे तो मजा आया फिल्म देखने में। लेकिन पसंद अपनी अपनी:) जैसे किसी को धोनी तो किसी को दादा पसंद हैं:)

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  7. मैंने भी लिखा था कि मैंने गाड तुसी ग्रेट हो नहीं देखी, केवल तस्वीरें देख कर सोचा है.

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"जो न कह सके" पर आने के लिए एवं आप की टिप्पणी के लिए धन्यवाद.

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