बुधवार, जून 24, 2009

अपनी भाषा

पिछले कई वर्षों से किताबें खरीदना बंद कर दिया है मैंने.

कहाँ रखो और एक बार पढ़ कर उनका क्या करो, यही दुविधा थी जिसका उत्तर नहीं मिला. किताबें रखने की जगह सीमित हो और जब अलमारी किताबों से भरी हो तो नयी किताबें कहाँ रखी जायें? खरीदी किताबों को रद्दी के कूड़े में फ़ैंकने से दुख होता था, लेकिन इसके अतिरिक्त चारा भी नहीं था. कुछ किताबें तो हमारे घर के पास वाले पुस्तकालय में दे दीं, पर बाकी बहुत सी किताबें पहले बेसमैंट में रखीं और जब बेसमैंट की छोटी सी कोठरी में जगह की आवश्कता हुई तो बहुत सी किताबें फैंकनीं ही पड़ीं.

तो निर्णय लिया कि अब से अँग्रेज़ी, इतालवी जैसी भाषाओं में कोई किताब नहीं खरीदूँगा क्योंकि इन सब भाषाओं की नयी किताबें हमारे स्थानीय पुस्तकालय में तुरंत मिल जाती हैं. अगर कोई पुस्तक पुस्तकालय में नहीं हो, तो उसको खरीदने के लिए फार्म भर देने से, कुछ दिन में पुस्तकालय उसे खरीद लेता है. तो सोचा कि केवल पुस्तकालय से ले कर पढ़ूँगा. पर हिंदी की किताबें पढ़ने के लिए क्या किया जाये, वह तो इटली के किसी पुस्तकालय में नहीं मिलती? अंत में यही सोचा कि हर वर्ष भारत यात्रा में कुछ सीमित हिंदी की किताबें खरीदी जायें, पर इस निर्णय का पालन करना भी कठिन है.

प्रश्न है कि हिंदी की किताबें कहाँ से खरीदी जायें और कौन सी?

पहले क्नाटप्लेस में मद्रास होटल में आयर्वेदिक डिस्पेंसरी के पीछे हिंदी किताबों की दुकान थी, पर वह भी कुछ साल पहले बंद हो गयी. कुछ दिन पहले भाँजा बता रहा था कि दरियागंज में हिंदी किताबों के विभिन्न प्रकाशकों के शो रूम हैं पर अगर आप को कोई किताब चाहिये तो उसी प्रकाशक के पास मिलेगी जिसने छापा हो और ऐसी कोई जगह नहीं जहां आप विभिन्न प्रकाशकों की किताबें खरीद सकें. विश्वास नहीं होता कि इतने बड़े सुपरपावर बनने वाले भारत की राजधानी दिल्ली में रहने वाले लाखों लोगों में इतने हिंदी की किताबें खरीदने वाले लोग नहीं कि उनके लिए इसकी दुकानें हों, एक भी दुकान हो?

फ़िर झँझट कि कौन सी किताब खरीदी जाये. कुछ पत्रिकाओं में नयी किताबों की समीक्षा छपती रहती हैं लेकिन जिस तरह नियमित रूप से अँग्रेज़ी की सबसे अधिक बिकने वाली किताबों की टाप टेन जैसी लिस्ट छपती हैं, जिससे आप देख सकते हें कि इस समय कौन सी नयी किताबें चर्चित हैं या पसंद की जा रही हैं, वैसा हिंदी में नहीं होता. या शायद मुझे मालूम नहीं? अगर पुस्तकालय से किताब लो तो सब कुछ पढ़ सकते हें, अगर न पसंद आये तो वापस दे दीजिये और किसी अन्य नये लेखक को पढ़ने के लिए ले लीजिये. लेकिन अगर मेरी तरह, साल में एक बार भारत आते हैं और कुछ गिनी चुनी किताबें खरीदना चाहते हैं तो इस तरह नहीं कर सकते. नतीजा यही होता है कि हर बार पहले से जाने पहचाने पुराने लेखकों की किताबें खरीदये.

ऐसा क्यों है?

कुछ दिन पहले अँग्रेजी दैनिक इंडियन एक्सप्रेस में तवलीन सिंह ने अपने लेख "आयतुल्लाह के पाठ" (Lessons from Ayatullah) में लिखा था:

"अपने प्राचीन हिंदू भारत के विषय में बहुत सी बातें हें जिन्हें हमें समझने और सम्भालने की कोशिश करनी चाहिये. मुझे दुख होता है जब मैं दक्षिण पूर्वी एशिया के किसी देश में जाती हूँ और देखती हूँ कि भारत की प्राचीन सभ्यता का कितना गहरा असर था जो आज भी बना हुआ है और जो अपने यहाँ खोया जा चुका है. अगर हम यह चाहते हैं कि भारत की सभ्यता बस बोलीवुड की सभ्यता मात्र बन कर न रह जाये तो हमें यह समझना चाहिये कि क्यों वह यहाँ खो गया है? हमें यह समझना चाहिये कि क्यों हमारे महानगरों में कोई दुकाने नहीं जहाँ भारतीय भाषाओं कि किताबें मिलें? अगर करोड़ों लोग प्रतिदिन हिंदी की अखबारें पढ़ रहे हैं तो वह हिंदी की किताबें क्यों नहीं खरीदते? क्यों छोटे शहरों में किताबों की कोई दुकान नहीं मिलती? क्यों हमारे गाँवों में कोई किताबें नहीं बेचता?"

स्थिति को समझने के लिए उसे विभिन्न दृष्टिकोणों से देखना होगा. जुलाई 2008 की "सामायिक वार्ता" पत्रिका में योगेंद्र यादव ने अपने सम्पादकीय में लिखा था:

"हाल ही में जारी इन आकंड़ों के मुताबिक सन् 2001 में देश भर में अंग्रेजी को अपनी मातृभाषा बताने वाले लोग सिर्फ 0.02 फीसदी थे, यानि हर दस हजार में से सिर्फ दो व्यक्ति अपने घर में पहली भाषा के रूप में अंग्रेजी बोलते थे. ... सन 2006 में देश भर में छह फीसदी बच्चे अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ रहे थे. ज्यादा चौकाने वाला आंकड़ा है कि सन् 2003 और 2006 के बीच सिर्फ तीन सालों में जहां भारतीय भाषाओं में पढ़ने वाले विद्यार्थियों की संख्या 24 फीसदी बढ़ी वहीं अंग्रेजी में पढ़ने वाले विद्यार्थियों की संख्या में 74 फीसदी की बढ़ोतरी हुई. अगर स्कूली शिक्षा देश के भविष्य का दर्पण है तो अंग्रेजी बढ़ रही है और भयावह दृष्टि से बढ़ रही है."

दूसरी ओर हिंदी तथा भारतीय भाषाओं में अखबार पढ़ने वालों की संख्या भी बढ़ी है. देश के 22 करोड़ अखबार पढ़ने वालों में से बीस करोड़ लोग हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं में अखबार पढ़ते हैं. टीवी पर हिंदी की चैनल देखने वाले लोगों के सामने, अंग्रेजी चैनल देखने वाले लोगों की संख्या बहुत कम है. इस स्थिति के बारे में यादव जी ने लिखा कि, "भारतीय भाषाँए अंगरेजी के साये तले सूखने या मरने वाली नहीं है लेकिन जहां उनका शरीर फल फूल रहा है वहीं उनका ओज घट रहा है, आत्मा सिकुड़ रही है." इसे वह भाषा की राजनीति को नये तरीके से परिभाषित करने के मौके के रूप में देखते है, और पुराने "अंग्रेजी हटाओ" के नारे को छोड़ कर, वह अंग्रेजी को भारतीय भाषा मानने की सलाह देते हैं और अंग्रेजी को कम करने की बात को छोड़ कर "हिंदी बनाओ" की बात पर जोर देने की सलाह देते हैं.

यह सच है कि आज की दुनिया में तकनीकी और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के क्षेत्रों में अंग्रेजी न जानने का अर्थ है कि इन क्षेत्रों में होने वाले विकास से कट जाना. कुछ दिन पहले मेरठ में हो रहे एक संस्कृत सम्मेलन की बात पढ़ी थी जिसमें लिखा था कि क्मप्यूटर की प्रोग्रामिंग की भाषा के रूप में संस्कृत बहुत उपयुक्त है, पर इस तरह की बात आज व्यावहारिक नहीं मानी जा सकती जहां फ्राँस, जर्मनी, स्पेन जैसे विकसित देश भी जो अन्य सब काम अपनी भाषा में करते हैं, इन क्षेत्रों में अंग्रेजी के वर्चस्व को मानने को मजबूर हैं.

मुझे ब्राजील, चीन और कोंगो जसे देशों का अनुभव है. जानता हूँ कि ब्राजील में पोर्तगीस भाषा में शौध कार्य में बहुत बढ़िया काम हुआ है, चीन में चीनी भाषा में काम हुआ है, कोंगो में फ्राँसिसी भाषा में काम हुआ है, पर इस काम को अपने देश की सीमा से बाहर दूसरे लोगों तक पहुँचाना कठिन है, और किसी भी अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक सभा में इन देशों की उपस्थिति नगण्य ही रहती है, वे लोग नये होने वाले विकासों से कटे रहते हैं. इटली में, जहाँ मैं रहता हूँ, पंद्रह साल पहले तक अंग्रेजी या फ्राँसिसी भाषा पढ़ने का मौका कुछ उसी तरह मिलता था जिस तरह हमें मिडिल स्कूल में तीन साल तक संस्कृत पढ़ने का मौका मिलता था. पर पंद्रह साल पहले फैसला लिया गया कि प्राईमरी विद्यालय से ले कर, हाई स्कूल तक, सब छात्रों को अंग्रेजी दूसरी भाषा के रूप में पढ़ायी जायेगी. हालैंड ने फैसला लिया कि सारी पढ़ाई अंग्रेजी में होगी और उनकी अपनी डच भाषा को केवल भाषा के रूप में पढ़ाया जायेगा.

अगर हिंदी में उच्चतम स्तर तक तकनीकी तथा वैज्ञानिक शिक्षा कि सुविधा हो भी जाये तो भी यह स्नातक बाकी विश्व से किस तरह से बात करेंगे, उनका काम किन अंतर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं में छपेगा, जबकि उनके क्षेत्रो में होने वाले नये विकासों को अनुवादित करके उन तक पहुँचाया जा सकता है? तो क्या इसका अर्थ है कि अंग्रेजी न जानने वालों को इन क्षेत्रों में उच्च स्तर पर पढ़ाई करने का मौका नहीं मिलना चाहिये? मैं सहमत हूँ कि यह मौका अवश्य मिलना चाहिये पर इस तरह के स्नातकों की सीमाओं को स्पष्ट माना जाना चाहिये और उनसे बाहर निकलने के साधनों को भी तैयार किया जाना चाहिये. इसका एक उदाहरण है कि इसी तरह का एक समाचार पढ़ा था कि इस बार के सिविल सर्विस इम्तहान में छह लोग भी हैं जिन्होंने हिंदी माध्यम से इन्तहान दिया और विदेश मंत्रालय के लिए चुने गये हैं, उनकी अंग्रेजी भाषा की जानकारी को सुदृढ़ करने के लिए कोर्स की सुविधा दी गयी है.

इस लिए मैं यादव जी के विचारों से सहमत हूँ कि बात अंग्रेजी से लड़ाई की नहीं बल्कि बात हिंदी को बनाने और दृढ़ करने की है, पर यह किस तरह हो, यह प्रश्न जटिल है. अन्य सब बातों को भूल भी जायें, एक बात के लिए ध्यान आवश्यक है कि यह बात गरीब, कमज़ोर वर्ग की भी है जो अंग्रेजी न जानने की वजह से दबाव सहता है क्योंकि शासन और ताकत की भाषा तो अंग्रेजी ही है. जो लोग इस दिशा में काम कर रहे हैं वह इस विषमता से किस तरह लड़ सकते हैं? क्या नयी तकनीकें कोई रास्ता दिखा सकती हैं जिनसे गरीब, कमजोर वर्ग का संशक्तिकरण हो जिसमें अंग्रेजी जानने या न जानने का उनके जीवन पर असर कम हो?

एक अन्य बात है प्राथमिक स्तर पर शिक्षा के माध्यम की बात. इस विषय में हुए शौध ने बताया है कि प्राथमिक शिक्षा अपनी मातृभाषा में ही होनी चाहिये. क्या ऐसा हो सकता है कि पूरे भारत में प्राथमिक स्तर पर सारी शिक्षा को अंग्रेजी माध्यम की बजाय स्थानीय भाषा में किया जाये और अंग्रेजी को केवल भाषा के रूप में पढ़ाया जाये?

हिंदी के लेखक, विचारक और शुभचिंतक जो नहीं कर पाये, उसे नीचा समझे जाने वाले बाज़ारी ताकत ने ही कर दिखाया है. जनसंस्कृति में हिंदी के महत्व को स्थापित करने में हिंदी अखबारों और पत्रिकाओं की बिक्री, हिंदी फिल्मों और फिल्मी संगीत ने, हिंदी टीवी चैनलों ने जितना किया है उतना शायद कोई सरकारी या गैरसरकारी संस्था नहीं कर पायी.

हिंदी और भारतीय भाषाओं के साहित्य का अंग्रेजी में अनुवाद और अंग्रेजी में छपने वाले विदेशी साहित्य का भारतीय भाषाओं में अनुवाद भी हो रहा है और शायद अगले कुछ वर्षों में और बढ़ेगा. अगर इतालवी, फ्राँसिसी, स्पेनिश, पोतर्गीस भाषाओं के प्रकाशक यह आसानी से जान सकें कि किन हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं में लिखने वाले लेखकों की किताबें सराही जा रही हैं, बिक रहीं हैं तो उनके लिऐ अन्य भाषाओं के बाज़ार खुल सकते हैं.

बालीवुड के सितारे, काम हिंदी फिल्मों के करते हैं पर बातचीत और साक्षात्कार और चिट्ठे अंगरेजी में देते हैं, लेकिन जब इंटरनेट पर भारतीय भाषाओं में पढ़ने वाले बढ़ेंगे तो वे लोग भी हिंदी में अपनी बात लिखने कहने की कोशिश करेंगे?

आजकल समाचार पत्र "देल्ही" का नाम "दिल्ली" में बदलने की बात भी कर रहे हैं. मुझे लगता है कि इस तरह की बातें वही लोग उठाते हैं जिनमें आत्मविश्वास नहीं, या जिन्हें सचमुच की समस्याओं से सरोकार नहीं, बल्कि अस्मिता की बात उठा कर उसका राजनीतिक लाभ उठाना चाहते हैं. मैंने तो आज तक कभी भी हिंदी पढ़ने लिखने वालों में देल्ही शब्द को नहीं देखा सुना, इसका उपयोग केवल अंग्रेजी बोलने वाले ही करते हैं. जब तक हिंदी सुरक्षित है तब तक दिल्ली को अपने नाम की अस्मिता को बचाने की कोई चिंता नहीं, हाँ अगर हिंदी ही नहीं रहेगी तो नाम देल्ही हो या दिल्ली, क्या फर्क पड़ेगा?

बात हिंदी किताबों को खरीदने से शुरु की थी. आखिर में पाया कि क्नाट प्लेस में प्लाज़ा सिनेमा वाली सड़क पर जैन बंधुओं की नयी दुकान खुली है जहाँ पहले माले पर कुछ हिंदी की किताबें भी हैं. इस बार भी मैंने पुराने जाने पहचाने लेखकों की किताबें ही खरीदी हैं. आशा है कि जनसत्ता जैसे दैनिक या फ़िर टीवी पर "भारत का सबसे बड़ा समाचार गुट" जैसा दावा करने वाला दैनिक भास्कर जैसे अखबार, हिंदी किताबें बेचने वाली दुकानों के सहयोग से नियमित रूप से अधिक बिकने वाली हिंदी की टाप टेन किताबों के बारे में छापेंगे, और हिंदी के बढ़ते फ़ैलते चिट्ठाजगत से जुड़े लोग हिंदी की किताबें बेचने वाली दुकानों पर जा कर नयी छपने वाली किताबों को खरींदेगे, उनके बारे में बात करेंगे, उनकी आलोचना और प्रशंसा करेंगे, और कभी मैं भी नये लेखकों की किताबें खरीदूँगा!

13 टिप्‍पणियां:

  1. यह कोशिश एक ब्लाग बना कर भी पूरी की जा सकती है। पर काम श्रम का है।

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  2. सामान्‍यत: आपकी बात से सहमति है। अंगेजी विरोध अधिक से अधिक एक पोश्‍चरिंग भर है जिससे कुछ हासिल होनेवाला नहीं।

    किंताबों के लिए आसफ अली रोड पर हिंदी बुक सेंटर एक ऐसी दुकान है जो सभी प्रकाशकों की किताबें रखते हैं। उनका संकलन भी खासा बड़ा है।

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  3. आदरणीय सुनील जी...
    सादर अभिवादन..ऐसा बहुत ही कम होता है की ब्लॉग पोस्ट पर कोई इतनी सार्थक ,विश्लेशान्त्मक,तथ्यात्मक, आलेख पढने को मिले..आपका पूरा आलेख पढ़ा...क्या कहूँ हिंदी के प्रचार प्रसार के नाम पर देश विएश में सम्मेल्लन करने वाले...हिंदी सप्ताह,पखवाडा, माह आदि मनाने वाले यदि इन बुनियादी बातों पर ध्यान दे पाती तो आज ..स्थिति कुछ और ही होती...मैं तो दिल्ली पुस्तक मेला में ही जम कर खरीद डारी करता हूँ...सही कहा आपने अब कहाँ रहे वो नयी किताबों को पढने और उनके बारे में दूसरों को बताने वाले..बहुत ही प्रभावित हुआ आपसे...

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  4. इस लेख में लिखी हुई सारी बातें बहुत अच्छी लगीं किन्तु एक बात खटक गयी। मुझे लगता है कि अंग्रेजी के बारे में एक बात बार-बार कही जाती है किन्तु तर्क की कसौटी पर वह खरी नहीं हो सकती। वही बात यहाँ भी "घुसेड़" दी गयी है-

    "यह सच है कि आज की दुनिया में तकनीकी और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के क्षेत्रों में अंग्रेजी न जानने का अर्थ है कि इन क्षेत्रों में होने वाले विकास से कट जाना."


    यह कथन न आज सत्य है न कभी था-

    * मौलिक काम हमेशा 'मौलिक' होता है। वह बहुत अधिक पढ़ने से नही आता - चाहे वह अंग्रेजी की ही पढ़ाई क्यों न हो।

    * अनेक साहित्यकार, वैज्ञानिक, इंजीनियर, डाक्टर, अन्वेषक, मैनेजर, उद्यमी, योद्धा/जनरल आदि हुए हैं जो बहुत कम पढ़े-लिखे थे। प्रेमचन्द्, जेम्स वाट, एडिशन, फैराडे, धीरूभाई, श्रीनिवास रामानुजम् और ऐसे ही हजारों उदाहरण हैं।

    * मौकिकता किसी भाषा की दासी नहीं है - पाणिनि ने अष्टाध्यायी जैसा महान व्याकरण ग्रन्थ रचा है। उनके समय में 'इंग्लिश' का कहीं अता-पता नहीं था। न्यूटन ने अपना ग्रन्थ 'प्रिन्स्पिया मैथेमैटिका' को अंग्रेजी में नहीं लैटिन में लिखा। पिछले वर्ष भौतिकी का नोबेल पुरस्कार पाने वाले जापानी सज्जन को अंग्रेजी आती ही नहीं है। वे इसके पहले जापान छोड़कर विदेश ही नहीं गये थे। 'डाइपोल एन्टेना' पर जो सबसे पहला शोधपत्र (पेपर) छपा वह जापानी में था। (जिसको गर्ज हो अंग्रेजी में करे)

    * जर्मनी, फ्रान्स, रूस, कोरिया ने अपनी भाषाओं में बहुत कुछ किया। आज चीन जो कर रहा है वह अमेरिका भी नहीं कर पा रहा है। (इंग्लैण्ड तो कब का पिछड़ गया है।)

    * हालैण्ड का उदाहरण भारत के लिये उचित नहीं है। दोनो की जनसंख्या का अनुपात क्या है?

    * भारत को अंग्रेजी पढ़ते हुए कम से कम २००९-१८३५ = १७४ वर्ष हो चुके हैं। अगर अंग्रेजी भाषा में इतना ही दम होता तो हम हर चीज के लिये दूसरों का मुंह नहीं देखते।

    सही बात यह है कि अंग्रेजी का महत्व 'नकल' करने तक है। मौलिक काम अपनी ही भाषा में हो सकता है और इसके लिये 'प्रतिभा' की जरूरत होती है। मौलिकता पर किसी भाषा का एकाधिकार नहीं है। मौलिकता सभी भाषाओं में होती रही है और सम्भव है। यहाँ तक कि मौलिकता के लिये बहुत अधिक 'शिक्षा' भी आवश्यक नहीं है।

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  5. अनुनाद जी, यह सच है कि किसी भी बात के अलग अलग पहलू होते हैं और हर बार लिखते समय, सब पहलुँओं का पूरा विश्लेषण नहीं हो पाता.

    मैं आप की टिप्पणी को पढ़ कर देर तक सोचता रहा. आप ठीक कहते हैं कि मौलिकता के लिए अंग्रेजी जानना आवश्यक नहीं, लेकिन मेरे कहने का तात्पर्य केवल मौलिकता से नहीं है. मेरे विचार में विज्ञान में, तकनीकी में, जो काम होता है वह पहले हुए बहुत से शौध की नींव पर बन कर बढ़ता है. नये शौध के दायरे, यहाँ मैं "नये" शब्द का प्रयोग बिल्कुल आधारभूत मौलिकता के बारे में नहीं, बल्कि अगले कदम की मौलिकता के संकरे संदर्भ में कर रहा हूँ, कैसे निर्धारित किये जायें, उसके लिए क्या यह जानना आवश्यक नहीं कि अन्य शौध कर्ता क्या काम कर रहे हैं? अंग्रेजी न जानने वाले के लिए, आज यह जानना कठिन नहीं होगा कि उसके कार्यक्षेत्र में, विदेशों की बात छोड़िये, अपने ही देश में अन्य क्या का हो रहा है?

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  6. सुनील जी, आपका लेख पढा और बहुत अच्छा लगा। मै काफी हद तक आपकी बातों से सहमत हूँ। और जहाँ तक क्नाट प्लेस वाली किताबों की दुकान कि बात है तो आपको बताना चाहुँगा कि अब वह दुकान करोल बाग में शिफ्ट हो चुकी है, देश्बंधु गुप्ता रोड पर ठीक थाने के सामने। यहाँ पर अभी भी आपको अनेक प्रकाशको कि हिदीं की किताबें मिल जायेगीं।

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  7. विश्वास नहीं होता कि इतने बड़े सुपरपावर बनने वाले भारत की राजधानी दिल्ली में रहने वाले लाखों लोगों में इतने हिंदी की किताबें खरीदने वाले लोग नहीं कि उनके लिए इसकी दुकानें हों, एक भी दुकान हो?

    मैं नहीं समझता कि ऐसा है। यह अवश्य मानता हूँ कि हिन्दी की पुस्तकें उस प्रकार हर जगह नहीं मिल जाती जिस प्रकार अंग्रेज़ी की मिल जाती हैं (अंग्रेज़ी के उपन्यासों की पॉयरेटिड कॉपियाँ चौराहों और लाल-बत्तियों पर भी बेचते मिल जाते हैं लोग) लेकिन ऐसा नहीं है कि ऐसी दुकानें नहीं है जहाँ आप उनको खरीद न सकें।

    आसिफ़ अली रोड पर मौजूद हिन्दी बुक सेन्टर के बारे में मसिजीवी ने बता ही दिया है। मेरी जानकारी अनुसार साकेत में स्थित ओम बुक शॉप के पास ठीक ठाक संकलन है विभिन्न हिन्दी पुस्तकों का। गुड़गाँव में एम्बियन्स मॉल में स्थित रिलायंस की बहुत बड़ी दुकान है किताबों की और उसमें हिन्दी पुस्तकों का अच्छा खासा स्टॉक है, अनूप जी की सुझाई "राग दरबारी" मैंने वहीं से ली थी। साथ ही गुड़गाँव में एमजी रोड पर स्थित लैन्डमार्क विशालकाय पुस्तकों की दुकान है और उनका हिन्दी पुस्तकों का संकलन भी काफ़ी बड़ा है।

    हो सकता है कि सारी पुस्तकें किसी एक दुकान के पास न हों, ऐसी अपेक्षा करना कदाचित्‌ बेमानी होगी लेकिन यह भी सत्य नहीं कि विभिन्न प्रकाशनों द्वारा प्रकाशित हिन्दी पुस्तकें एक ही दुकान में नहीं मिलती! :)

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  8. आदरणीय सुनील जी ,
    आपने बहुत ही सार्थक और सभी भारतीयों के लिए खासकर बुद्धिजीवियों और चिंतकों के लिए विवश कर देने वाले विषय पर अच्छा लेख लिखा है .इस मुद्दे पर काम किया जाना चाहिए .
    वैसे दिल्ली में यदि आप प्रकाशान विभाग या नेशनल बुक ट्रस्ट के शो रूम्स पर जाएँ तो वहां आपको अच्छा कलेक्शन मिलेगा . नेशनल बुक ट्रस्ट वाले किताबें अन्य प्रकाशकों से मंगवा भी देते हैं.
    हेमंत कुमार

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  9. hi sunil ji
    bhoot dinoo baad mae nae itne acche vichaar praha.

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  10. sahamat hoon . desh ke har mahaanagar kaa yahee haal hai . aisaa koee pustak-kendra naheen jahaan sabhee achchhee kitaaben upalabdh hon aur unhen naee pustakon kee soochanaa ho .

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  11. सुनील जी,

    आपके लेख मुझे सकारात्मक सोचने के लिए बहुत प्रेरित करते हैं, आपकी अंतरात्मा की आवाज़ आपके लेख में झलकती है, और एक मार्गदर्शन भी देती है.
    ऑनलाइन हिंदी पुस्तकों के लिए.
    http://pustak.org/bs/home.html

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  12. इस बार आपसे कई जगह असहमति है। अनुनाद जी की बात महत्वपूर्ण है। हालांकि एक अच्छी कोशिश की है आपने, भाषा के सवाल पर। लेकिन कुछ बातें और भी हैं। अंग्रेजी जानने से कुछ खास नहीं होता। हाँ, उसके न जानने से भी कुछ खास नहीं होता। जहाँ तक बात है बाहरी शोध और आविष्कारों की, तो यह काम निश्चित रूप से कुछ लोग कर सकते हैं। जैसे हमारे यहाँ अंग्रेजी एक विदेशी भाषा के रूप में पढ़ाई जाय न कि अनिवार्य, और अब जिन्हें शौक हो, वे पढ़ें। उनमें से कुछ लोग यह काम आसानी से कर सकते हैं कि अंग्रेजी में जो कुछ हो, वे भारत को भारत की भाषाओं में बताएँ। अब रूसी साहित्य से परिचय के लिए पूरे भारत को रूसी तो नहीं पढ़ाया जाना चाहिए। और आज हम अंग्रेजी की बात कर रहे हैं, कल अगर जर्मनी या चीन बहुत आगे निकल गये, तब? हम कहेंगे कि जर्मन और चीनी भाषा आवश्यक है सबके लिए? …विश्व के दो हजार प्रसिद्ध वैज्ञानिकों के नाम देखने पर पता चला कि एक हजार से अधिक वैज्ञानिकों का संबंध अंग्रेजी से नहीं है।


    और देल्ही ही क्यों? जब कानपुर का नाम Cawnpore लिखा जाता था तब कैसा लगता था? क्या यह उचित है कि हम अंग्रेजी में अपने शहरों और राज्यों का नाम भी रख लें। शहरों के नाम को तो अंग्रेजी में रटना होता है जैसे पंजाब, बंगाल, इलाहाबाद, दिल्ली आदि कई उदाहरण हैं। नाम जैसे बोले जायँ वैसे लिखे जायँ, इस पर तो मैं जिद्दी भी बन जाऊँ , तो गलत नहीं होगा। भला नाम का भी अनुवाद किया जाता है?

    अगर आपके पास समय हो तो मैं आपके पास एक अध्याय जो मेरी किताब का है, भेज सकता हूँ, उसमें अंग्रेजी सीखने आदि पर कई सवाल-जवाब हैं। एक बात तो आप अवश्य स्वीकार करेंगे कि जिस देश में जिस चीज का आविष्कार होगा, शुरू में तो उसकी प्रधानता, उसके भाषा की प्रधानता बनी रहेगी। यही हाल अमेरिका और प्रोग्रामिंग भाषाओं का है। और वैसे भी भारत जैसे देश में 120 करोड़ लोगों में कितने लोगों को प्रोग्रामिंग करनी है? जिन्हें करनी है, हम उन्हें तब तक अंग्रेजी पढ़ा सकते हैं, जब तक कोई विकल्प नहीं है। लेकिन यह ध्यान रहे कि प्रोग्रामिंग सीखने के लिए अंग्रेजी के इतने कम ज्ञान की जरूरत है कि दस दिन में आदमी सीख सकता है। मैं स्वयं प्रोग्रामिंग का छात्र रहा हूँ। और यह मानता हूँ कि माध्यम हमारी भाषा हो सकती है। और सौ बातों की एक बात, कि सिर्फ़ इंटरफ़ेस ही अपनी भाषाओं में चाहिए प्रसार के लिए, अन्दर की बात तो बाद की है।

    और अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर अगर हम चाहते हैं कि सब बात अंग्रेजी में ही हो, तो इसका अर्थ है क्या? आज न कल सब जानते हैं कि अंग्रेजी का यह आधिपत्य खत्म होगा ही। इंटरनेट यानि अन्तर्जाल पर तो 2015 तक अंग्रेजी का इस्तेमाल चीनी भाषा से कम हो चुका होगा। यह तो दावा किया जा सकता है। और फ़िर तब वैज्ञानिक या तकनीकी अनुवादकों को भूखा रखना है क्या? … इस बार बहुत बातें हो सकती हैं। आपको मालूम होगा ही कि चीन ने वेबसाइटों के डोमेन नामों तक से लैटिन लिपि की अनिवार्यता समाप्त करा दी है। अब वेबसाइटों के नाम तक अपनी भाषा में लिखे जा सकते हैं। एक देश में कुछ हजार या कुछ लाख लोग वर्तमान तकनीक को मूल भाषा में सीखकर औरों कि अपनी भाषा के इंटरफ़ेस पूरी तरह उपलब्ध करा सकते हैं। और अब तो भारत में हिन्दी में दो-तीन प्रोग्रामिंग आ चुकी हैं…

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  13. चंदन, तुम मेरे सारे पुराने आलेख पढ़ रहे हो, इसके लिए बहुत धन्यवाद. इस समय भागाभागी में तुम्हारी बातों के बारे में मैं क्या सोचता हूँ, नहीं लिख पा रहा हुँ. चिट्ठों के द्वारा बहस की यही बात मुझे सबसे बुरी लगती है कि बहस सही तरीके से नहीं हो पाती. कोशिश करूँगा कि कुछ दिनों में कुछ अन्य उत्तर लिख सकूँ.

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"जो न कह सके" पर आने के लिए एवं आप की टिप्पणी के लिए धन्यवाद.

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