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मंगलवार, मार्च 01, 2016

डा. राममनोहर लोहियाः आखिरी साल

सुश्री रमा मित्र का यह आलेख समाजवादी पत्रिका "जन" के मार्च-अप्रैल १९६८ के अंक से लिया गया है।‌ इस अंक के सम्पादक मेरे पिता श्री ओमप्रकाश दीपक थे। डा. राम मनोहर लोहिया की अक्टबर १९६७ में मृत्यु के बाद यह उनका पहला "स्मृति अंक" था जिसमें उन्हें जानने वालों के उनके बारे में आलेख थे.

रमा जी का यह आलेख उसमें ४२ से ५० तक पृष्ठों में छपा था. रमा जी और डा. लोहिया ने विवाह नहीं किया था, वे जीवनसाथी थे, करीब बीस वर्ष तक साथ रहे. जब १९६७ में डा. लोहिया की मृत्यु हुई उस समय रमा जी समाजवादी दल की अंग्रेज़ी पत्रिका "मैनकाइन्ड" की सम्पादक थीं और दिल्ली विश्वविद्यालय के मिराण्डा कॉलेज में इतिहास की प्रोफेसर भी थीं.

१९७५ में मेरे पिता की मृत्यु के बाद, कई वर्षों तक रमा जी का हमारे घर आना मुझे याद है. उनके इस आलेख में डा. लोहिया के व्यक्तित्व का व्यक्तिगत रूप दिखता है.

***
रमा मित्र

चौथे आम चुनाव से पहले कुछ दिन वह पूरे निखार पर थे। उन्होंने गैर कांग्रेसवाद के सिद्धांत का निरूपण कर दिया था। उनका नारा था - कांग्रेस हटाओ, देश बचाओ। पर इसकी कल्पना चुनाव के मौके पर ही उन्होने नहीं की थी. काफ़ी पहले तीसरे आम चुनाव के वक्त जनवरी १९६२ में उन्होंने बताया था कि समाजवादी, राष्ट्रीयतावाद और भाषा जैसे प्रश्नों पर जनसंघ के और सम्पत्ति तथा समता जैसे प्रश्नों पर साम्यवादियों के किस तरह निकट हैं? राष्ट्रीयतावाद और भाषा के मामलों में वे जनसंघ के ज़्यादा निकट थे और सम्पत्ति और भाषा के मामलों के बारे में साम्यवादियों के, ज़्यादा। पर ऐसा कोई भी सवाल नहीं था और न ही हो सकता था कि जिस पर समाजवादी कांग्रेस के निकट हो सकते।

"कांग्रेस हटाओ" का नारा बुलंद करते हुए वह देश का अनवरत दौरा करते रहे। उनका ख्याल था कांग्रेस के हटने से हालांकि विभिन्न राज्यों में तरह तरह के मेल की खट्मिट्ठी गंगाजमुनी सरकारें बनेंगी पर बदलाव की प्रक्रिया चल पड़ेगी। वह बदलाव चाहते थे। बदलाव के लिए वह इतना व्यग्र थे कि उन्हें धीरज न था - ऐसा बदलाव जो स्थिरता के नाम पर देश में चलने वाली जड़ता को खत्म करे। आंकड़ों तथा तथ्यों से वह लैस थे। देहाती जलसों में आंकड़ों तथा अर्थशास्त्र की पेचीदगियों को एक दम आसान, सहज और बोधगम्य ढंग से रखने की उनकी प्रतिभा पर हैरत होती थी। देहाती लोग अत्याधुनिक शहरी बुद्धजीवियों के अपेक्षा उनकी बातें ज़्यादा आसानी और स्पष्टता से समझ पाते थे। कार्यक्रम को तफसील से बताते - कृषि, उद्योग, खरच, भाषा, जाति, विदेशी नीति जैसे मामलों पर। हर प्रश्न पर कांग्रेस ने देश और जनता का कैसे बंटाधार किया है, साबित करते।

Dr Ram Manohar Lohia - Jan March-April 1968 cover

पर गैरकांग्रेसवाद का उनका मार्ग आसान नहीं था। कभी कभी वह हताश और दुखी हो जाया करते थे। चुनाव समझौतों व तालमेल का उनका कार्यक्रम इस तरह अमल नहीं आ रहा था जिससे कि गैरकांग्रेसवाद को पूरा फायदा मिलता। कांग्रेस के खिलाफ एकजुट लड़ाई में कुछ पार्टियों का घमण्ड और दम्भ कि वे अकेले कांग्रेस को हरा सकती हैं और साम्प्रदायिक व जातीय विद्वेष और पूर्वाग्रह अटकाव थे। उनके अपने निर्वाचन क्षेत्र से जो खबरें आ रहीं थीं वे भी उत्साहजनक नहीं थीं - यही नहीं कि जनसंघ ने एक खास जाति के वोट जीतने की उम्मीद में उनके खिलाफ़ उम्मीदवार खड़ा किया था, जिससे कांग्रेस को मदद मिलने वाली थी और मिली भी - इसलिए भी कि उनके निर्वाचन क्षेत्र में विधान सभा के लिए जो संगी उम्मीदवार चुने गये थे उनका चयन भी काफी दुखद था। मुझे अभी भी याद है कि वह अक्सर हँसी में , जिसमें उनकी आँखें चमक उठती थीं मुझे कहा करते, "तुम जानती हो रमा, हिन्दुस्तान की राजनीति में मैं बेठीक आदमी हूँ, कोई भी चीज़ तो मेरी ठीक नहीं - मेरा कोई राज्य (प्रांत) नहीं और मेरी जाति गलत है। मैं क्या करूँ। सारे देश को आधार बना कर खुद अपने क्षेत्र का चुनाव लड़ना कितना मुश्किल है।" मैंने कहा यह सही है, आपके साथ जो हैं वे भी गलत आदमी हैं। मुझे ही लो, मध्यवर्ग की बंगालन हूँ और यही नहीं कायस्थ भी हूँ और यहाँ पर हम सब जो बाकी लोग हैं वे भी बड़ी जातियों के हैं।" "इसीलिए तो मैं तुम्हें कहता रहता हूँ कि कुछ हरिजन होने चाहिए जो हर महीने हमारे साथ कुछ दिन रहें।" उनके निर्वाचन क्षेत्र की खबरें खराब आ रही थीं और वह अपने निर्वाचन क्षेत्र को समय नहीं दे पा रहे थे। जब उन दौरों के बीच एक दिन दिल्ली में रुके तो मैंने बड़े अनुनय से कहा कि बाकी के दस दिन वह अपने निर्वाचन क्षेत्र में लगायें। इस पर वह तैश खा कर बोले, "तुम इस उम्र में मुझे राजनीति सिखा रही हो। क्या तुम इस बात को समझती हो कि मैं अपना नहीं अपनी पार्टी और विरोधपक्ष का चुनाव भी लड़ रहा हूँ।" मेरा मुँह बन्द हो गया।

चुनावों से उन पर जबरदस्त बोझ पड़ रहा था - शारीरिक और मानसिक दोनों। बिना किसी केन्द्रीय कोष के चुनाव लड़ना अतिमानवीय कार्य था. पार्टी ने एक साल पहले केन्द्रीय कोष के लिए पैसा जमा करना का शानदार कार्यक्रम बनाया था - ऐसा कोष जिसमें विभिन्न राज्यों तथा दलित उम्मीदवारों - महिलाओं, पिछड़ा वर्ग, मुसलमान तथा अन्य अल्पसंख्यक, आदिवासियों, हरिजनों, आदि - को चुनाव लड़ने का पैसा दिया जा सके। पर हुआ कुछ नहीं। फैसला करने और उस पर अमल न करने से उन्हें सबसे ज़्यादा दुख होता था। वही एकमात्र व्यक्ति थे जिन्होंने केन्द्रीय कोष के लिए पैसा इक्ट्ठा किया। वह मुझे संदेशे भेजते रहे कि उनके कोष से फलां फलां उम्मीदवार को पैसे भेजूँ। उन उम्मीदवारों में से अधिकतर पिछड़े वर्गों को होते। कुछ ऊँची जातियों के भी होते पर ऐसे जो बिना किसी कोष, गाड़ी व जीप और इश्तहार व साहित्य के चुनाव लड़ रहे थे। अपने निर्वाचन क्षेत्र के बारे में उनका कड़ा निर्देश था कि जब तक वह स्पष्ट आदेश न दें तब तक कोई पैसा न भेजा जाये। एक बार उन्होंने मुझे तार दिया कि कहीं से एक टेपरिकार्डर खरीदो और मेरे निर्वाचन क्षेत्र को भेजो ताकि मेरे भाषण उन इलाकों में सुनाये जा सकें, जहाँ मैं नहीं पहुँच पाया। चुनाव दौरों में वह थक जाते थे पर हमेशा उत्सुकता और आशा बनी रहती थी। उनकी गाड़ी बिगड़ जाती, माइक्रोफोन खराब हो जाता, वह साइकल या बैलगाड़ियों पर चल पड़ते। पर रिक्शा पर कभी नहीं, उसका सवाल ही नहीं उठता था, क्योंकि नीम जवानी के दिनों में उन्होंने प्रतिज्ञा की थी कि वह कभी रिक्शा पर नहीं चढ़ेंगे, किसी दूसरे आदमी पर सवार नहीं होंगे। रिक्शे का खयाल ही उनमें जुगुप्सा भर देता था। उन्होंने रिक्शा चलाने वाले को आधा इन्सान आधा जानवर कहा था, भारत के पतन का प्रतीक।

अपने निर्वाचन क्षेत्र में मतदान से चार दिन पहले वह दिल्ली आये। अपने निर्वाचन क्षेत्र से निकलने की वजह थी कि वह किसी न किसी तरह सुदूर उड़ीसा जाना चाहते थे कि अन्तिम घड़ी के प्रयत्नों से कुछ हजार मतों को किशन पटनायक के पक्ष में मोड़ सकें। दीवार पर टँगे नक्शे, हवाई यात्रा और रेलवे की पंजिकाओं को उन्होंने देखा, किराए पर विषेश विमान लेने के सिवाय समय पर उड़ीसा पहुँचने का कोई और रास्ता नहीं था। किशन उनके बहुत नज़दीक थे। वह संसद में बहुत तेज़ी से उभर रहे थे और वे चाहते थे कि किशन जरूर जीतें।

जब चुनाव के नतीजे आने लगे तो उन्हें काफ़ी आशा थी। दिल्ली आने पर उन्होंने मतदाता सूची में अपना नाम दर्ज कराया और १९ फरवरी को रविवार था, ऐसा ही मुझे याद है, वह पहली मरतबा अपना मत देने गये. किसने उस समय सोचा था कि यह उनका अंतिम मतदान भी होगा। उनके कुछ दोस्त भी साथ थे। अपना मत देने के बाद मैं भी आ गयी। काफी हँसी मजाक और छींटाकसी चल रही थी। उनके कुछ दोस्त एक उम्मीदवार के पक्ष में मत देने को उनकी मनौवल कर रहे थे। वह उम्मीदवार कांग्रेसी नहीं था। मतदान के बाद हमने पूछा कि किसको मत दिया, पर वह बताने वाले नहीं थे। हंसी में उन्होंने हमें मत की गोपनीयता की याद दिलायी और हम भी हंसी में शामिल हो गये। चुनाव नतीजे तेजी से आने लगे तो आनन्दित और निराश होने का क्रम बंध गया - सारे वक्त रेडियो चलता रहता। फ़िर नतीजा सुन पड़ता, एक बड़ा कांग्रसी नेता धराशायी हो गया है या उनका कोई ऐसा साथी जिसके जीतने की पूरी उम्मीद थी, हार गया है। मुझे उनकी वह खिलखिलाहट अभी भी याद है, आधी रात बीत गयी थी कि उनके एक जवान दोस्त ने, जो अखबार में काम करता था, मुझे टेलीफोन किया। "इतनी रात बीते टेलीफोन कर आपको परेशान करने के लिए माफ़ी चाहता हूँ, पर एक मज़ेदार चीज़ हुई है - कामराज हार गये हैं।" मैं उनके कमरे में गयी - वह अभी भी पढ़ रहे थे, खबर सुनायी। उनका सारा चेहरा हंसी से भर गया, बोले "बढ़िया, बहुत बढ़िया।"

उनके खुद के चुनाव का नतीजा नहीं आ रहा था। अखबारों में कोई खबर नहीं थी, आगे हैं या पीछे। चुनाव क्षेत्र से एकदम चुप्पी थी। फ़िर उस शाम को जब हम लोग सब खाने के कमरे में बैठे चुनाव नतीजे की खबरें सुन रहे थे, उन दिनों हमारा चलन यही था, केन्द्रीय दफ्तर से फोन आया कि वह विधुना में कुछ हज़ार वोटों से आगे हैं. विधुना का विधान सभा निर्वाचन क्षेत्र उनके निर्वाचन क्षेत्र में हाल में ही जोड़ा गया था। यह भी खबर आयी कि दो और जगहों में उनके मतों की गणना हो रही है। इस टेलीफोन के आधे घँटे बाद एक और टेलीफोन आया कि वह पीछे हो गये हैं। अपनी स्वाभाविक परिपूर्णता के साथ उन्होंने कागज़ और पेंसिल ली और अपने निर्वाचन क्षेत्र के सभी संसदीय उम्मीदवारों के मतों का जोड़ करने लगे। नतीजा एकदम निराशाजनक था। एक एक करके सब लोग अपने अपने घर चले गये थे और मैं ही उनके साथ अलेके रह गयी थी। मैंने कहा कि वह थोड़ी देर आराम कर लें तब तक मैं उनके लिए खाना परस दूँ। खाते हुए उन्होंने मेरी ओर देखा, "मेरे हारने से तुम्हें बहुत दुख होगा। होगा न?" उस वक्त भी जब हार जीत के बीच लगभग फर्क नहीं रहा था वह अपने बारे में नहीं दूसरों की बाबत सोच रहे थे। यह उनका स्वभाव था, उनकी बात थी। बीस साल के सान्निध्य में मैंने कभी उन्हें अपने बारे में सोचते नहीं पाया। मैंने कहा, "कोई आसमान नहीं फट रहा है यह सोचो कि आप हार गये हो। अब जा कर सो जाओ।" मैंने उन्हें दवा की गोलियाँ दीं और खुद लगभग सारी रात टेलीफोन के पास बैठी रही। आखिरकार अगले दिन दोपहर को हमारे पास खबर आयी कि वह बहुत कम वोटों से जीत गये हैं। "तुम इसे जीतना कहती हो।" मैं क्या कहती।

उनकी भविष्यवाणी कि कांग्रस कुछ राज्यों में हार जायेगी सही साबित हुई, पर कुल नतीजे से वह प्रसन्न नही हुए. नतीजों का उन्होंने विश्लेषण शुरु किया - उत्तरप्रदेश में उनके खुद के इलाके में नतीजा अच्छा रहा नहीं कहा जा सकता। बिहार काफ़ी अच्छा रहा। जैसा कि उन्होंने कहा था द्रमुक को छोड़ कर कोई भी दल उन जगहों पर जहाँ कांग्रेस हार गयी अकेला खड़ा नहीं हुआ। इस बात से वह परेशान हुए कि कुछ राज्यों में जहां जनता ने कांग्रेस को विधान सभा में अल्पसंख्यक बना दिया था, वहां उसने केन्द्र में कांग्रेस को विजयी बनाया। यह रोग का मुख्य लक्षण था। चुनावों के बाद वह हिन्दुस्तानी राजनीति के रोग - राज्यीय गैरकांग्रेसवाद और केन्द्रीय कांग्रेसवाद - के बारे में मुखर हुए। रूपक उपस्थिक करने में वह माहिर थे। उन्होंने हिन्दुस्तान की राजनीति को उच्च रक्तचाप का मरीज बताया - डायस्टोल और सायसटोल का तुलनात्मक फरक जिससे अंततः रोगी के स्वास्थ्य पर असर पड़ता है और वह खत्म हो जाता है। केन्द्र को उन्होंने कलक्टर और गैरकांग्रेसी राज्य को पटवारी की भी उपमाएँ प्रदान कीं। इसलिए चुनावों के बाद इस रोग को दूर करने के लिए उनकी मुख्य चाल यह थी कि केन्द्र में गैरकांग्रेसी सरकार हो। इस चाल का पहला दाँव राष्ट्रपति का चुनाव था।

उस वक्त वह कुछ दिनों राज्यों में गैर कांग्रेसी मिली जुली सरकारों का कार्यक्रम बनाने में व्यस्त रहे। राष्ट्रीय समिति की भोपाल में बैठक हो रही थी। उन्होंने कार्यक्रम का मस्विदा बनाया जिसमें खास तौर पर यह बताया कि सत्तारूढ़ होने के पहले ६ महीनों के भीतर यह सरकारें क्या करें और ऐसा न कर पाने पर उनकी पार्टी बेहिचक सरकार से बाहर आ जाये। लोग कांग्रेसी और गैर कांग्रेसी सरकार के बीच फरक आँक सकें। इस तरह के कार्यक्रम में एक सर्वोपरि बात थी ६॥ एकड़ भूमि पर से लगाना हटाना।

भोपाल से हम उन्हें कुछ दिनों के वास्ते कन्याकुमारी ले गये। कन्याकुमारी उनका प्रिय रमणीक स्थान था। एक बार वहां से उन्होंने मुझे लिखा था कि उन्हें यह बात रह रह कर कोंचती है कि कन्याकुमारी पर जहाँ भूमि समाप्त होती है वहाँ चट्टान पर जब विवेकानन्द ने समाधी लगायी थी तो उनका मुख भारत की ओर था या समुद्र की ओर। इस बारे में उन्होंने विवेकानन्द सोसाइटी के लोगों से पूछताछ की लेकिन कोई उन्हें उत्तर नहीं दे सका। इस प्रस्न का उन्होंने खुद अपना उत्तर प्राप्त किया। विवेकानन्द जेसे थे उसे देखते हुए वह निश्चित ही भारत की ओर उन्मुख रहे होंगे। कन्याकुमारी में ही उन्हें खबर मिली कि हमारे एक सदस्य विंध्येश्वरी मण्डल जो लोकसभा के लिए चुन लिये गये थे, बिहार सरकार में मंत्री बन गये हैं। उनका गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ गया, अपनी पार्टी के लोगों से इतनी जल्दी पदलोलुपता की उन्होंने उम्मीद नहीं की थी। दिल्ली पहुँचने पर प्रेस बयान दे कर इस घोर सिद्धांतहीनता पर उन्होंने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की।

उन दिनों वह बहुत अनुत्साहित थे, स्वास्थ्य अच्छा नहीं था। रक्तचाप की अक्सर शिकायत रहती। आँखें काफ़ी दिनों से परेशान कर रही थीं. यह भी सुझाया गया कि ग्लोकोमा के वास्ते उनकी आँखों का आपरेशन किया जाये पर यह सुझाव टाल दिया गया और आँखों में रोज दवा डालते रहने से हालत और बिगड़ी नहीं। लगातार थकान और उनींदेपन की शिकायत करते रहे। अक्सर मुझे कहा करते कि उन्हें भी वही शिकायत है जो अश्वनी को थी। अश्वनी उनके बहुत अज़ीज़ दोस्त थे जिनकी डेढ़ साल पहले मृत्यू हो गयी थी। मैं उन्हें यकीन दिलाने की कोशिश करती कि यह केवल थकान की वजह से है, उन्हें गुर्दे की कोई शिकायत नहीं जैसी कि उनके दोस्त को थी। उनके सारे बदन में दर्द होता रहता। पर शारीरिक पीड़ा से अधिक मानसिक चिन्ता व परेशानी थी।

वह कहते "क्या तुम सोचती हो कि इस देश में कभी कुछ होगा। क्या मेरी सारी कोशिशे बेकार जायेंगी?" थोड़ी देर में उनकी आशा लौट आती, "क्या पता कुछ आश्चर्यजनक हो जाये।" इसके बाद थोड़ा रुक कर अपने तईं बोलने लगते, "जनता उठेगी, इसमें मुझे कोई शक नहीं पर वह क्या हिंसा का रास्ता अख्तियार करेगी?" यह द्वन्द, यह शँका और भय कि जनता हिंसा का रास्ता अख्तियार करेगी उन्हें लगातार चिंतित करता रहता। एक पल के लिए घोर निराशा में वह अहिंसा को मानने से इंकार करते पर अन्तिम दिन तक अहिंसा में उनकी आस्था बनी रही। राष्ट्रपति चुनाव पर उनका पूरा जोर था और इसमें वह पूरी तरह जुटे हुए थे। भारतीय राजनीति की अलगाव व विघटनकारी बुराई व रोग को दूर करना ही होगा। इस कार्य का पहला कदम था कांग्रेस के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार को हराना। यह ध्यान देने की बात है कि उनका प्रचार अभियान ही एकमात्र ऐसा प्रचार था जो परदे के पौछे नहीं वरन् खुल्लमखुल्ला जनता के बीच चला। सार्वजनिक प्रश्नों पर सार्वजनीन बहस-मुबाहिसा होना चाहिए - राजनीतिक अन्दोलन के लिए यही उनका नुस्खा था। चुनाव अभियान में उन्होंने सभाएँ की, अखबारों को भेंट दी और अंत में मतदाताओं से अपील की, कुछ भी उठा न रखा। यही नहीं वही एकमात्र नेता थे जिसने विरोधपक्ष के उपराष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार के लिए भी प्रचार किया। विरोधी पक्ष उम्मीदवार चुनने के बाद मौन साध गया। विरोध पक्ष हारा और बड़ी संख्या से हारा। इस हार से चौकन्ने हो कर कारणों का विश्लेषण करने बैठे। सूक्ष्म विश्लेषण की अपनी स्वाभाविक प्रतिभा से उन्होंने नतीजे के कारणों का रेशा रेशा उघाड़ लिया। गैर कांग्रेसवाद को केन्द्र में लाने का उनका पहला निशाना खाली गया - सभी विरोधी सदस्यों ने साथ जो नहीं दिया।

अप्रैल में हमने उन्हें विलिंगडन अस्पताल डाक्टरी जाँच के लिए भेजा। नवम्बर में भी जाँच के लिए वहाँ गये थे। अब डाक्टरों ने पौरुष ग्रंथि के आपरेशन की बात कही. आपरेशन की बात उन्हें नहीं भायी। वह खिन्न हो गये। मैंने उनसे कहा कि हम इसके बारे में दुबारा राय मालूम करेंगे और शल्य क्रिया के प्राध्यापक द्वारा जाँच कराने के लिए अखिल भारतीय चिकित्सा संस्थान ले गयी जिसकी राय थी कि आपरेशन की तात्कालिक ज़रूरत नहीं थी और इन्जेक्शनों वह दुरुस्त होने लगेंगे। वह काफी खुश हो गये और मैंने राहत महसूस की। जब वह विलिंगडन अस्पताल में थे तब भी राजनीति में एकदम बँधे हुए थे। इस बीच दिल्ली में पुलिस आन्दोलन भड़क उठा था। वह लगातार सलाह मशविरा और परामर्श देते रहते थे, अपने साथियों को भेजते और क्या कदम उठाये जायें सोचते। प्रेस वक्तव्य देते और अस्पताल के मैदान में उन्होंने एक सभा की जिसकी खबर एक दैनिक में भी छपी जिससे अस्पताल अधिकारी काफ़ी परेशान दीखे। अस्पताल से जा कर दिल्ली के मजदूर संघों की एक सभा में वह भाषण भी दे आये। दिल्ली के अधिकाँश मजदूरसंघों पर दक्षिणपंथी साम्यवादियों का नियंत्रण है। सभा में उन्होंने हड़ताली पुलिस सिपाहियों की सहानुभूति में आम हड़ताल की अपील की। उनको लगा कि यह एक ऐसा स्वर्णिम अवसर है जबकि जनता और पुलिस के बीच एका बैठाया जा सकता है। इस एक्य से दिल्ली में स्वयंमेव एक क्रांतिकारी स्थिति पैदा हो जायेगी जिसका असर देश भर पर पड़ेगा।

पर १८ नवम्बर १९६६ की छात्र कूच की तरह इस बार भी साम्यवादी यूनियन आगे नहीं बढ़े। उनके आगे बढ़ने से स्थिति बदल जाती। डा. साहब का तरीका यह नहीं था कि क्राति की बात को बहुत ज्यादा की जायेपर कोई आन्दोलन या उस पर अमल नहीं किया जाये। उनके लिए कार्य का असफल होना या उसका एकदम ही निष्प्रभाव होना कार्य न होने से बेहतर था। उन्होंने दिल्ली भर में कई सभाओं में भाषण दिये और जनता को आम पुलिस सिपाही के हाल के बारे में बताया - अफसरों और सिपाहियों के बीच की गहरी खाई और किस तरह सिपाहियों को मानवीय गुणों से च्युत कर पशु बनाया जा रहा है, बताया। साथ ही उन्होंने इन सभाओं में पुलिस जनता दोस्ती की कसम दिलवायी। वही एकमात्र नेता थे जिसने स्थिति की विस्भोटक संभावना को आंका था - केन्द्र पर प्रहार करने का एक बेहतरीन और अद्भुत मौका था. इस मौके के जाने से वह दुखी और निराश हुए थे।

मई की शुरुआत में मेरे एक आत्मीय की मृत्यू हो गयी। वह कितने कोमल और संवेदनशील थे। सार्वजनिक सभाओं में वह अक्सर भारतीय नारी की दुर्गति की चर्चा करते, भारतीय नारी जो हजारों साल से दबायी गयी। वह सभा में उपस्थित पुरुषों से कहते आप स्त्रियों की अधोगति जानने के लिए अर्धनारीश्वर बनो (उसी तरह जिस तरह वह आधा हिन्दू आधा मुसलमान होने की बात कहते), वह खुद इसी तरह थे। मैंने बार बार उनमें यह बात पायी है, ऐसी कोमलता पायी जो केवल माँ में ही मिलती है। जब भी मैं बीमार पड़ी हूँ या दुखी हुई हूँ, माँ की तरह उन्होंने मेरा जतन किया।

मई में पार्टी शिविर में वह त्रवेन्द्रम गये। वहाँ उन्होंने विभिन्न विषयों पर, जिनमें विदेश नीति भी थी, भाषण किये। व्यवहारिकता, प्रचार और दक्षिण भारतीय श्रोताओं के शोर मचा कर बैठा दिये जाने के भय जैसे कारणों ने उन्हें कभी अपनी मातृभाषा के बजाय दूसरी भाषा में बोलने को विचलित नहीं किया। दूसरी भाषा में बोलने के बजाय उन्हें मौन मंजूर था। जून के मध्य में मैं वाराणसी उनके साथ हो ली। रात वह गंगा में नाव पर बिताना चाहते थे। हम सभी नाव में थे। नौका ने मणिकर्णिका घाट के सामने सीध पर लंगर डाला. मणिकर्णिका घाट पर हमेशा कोई न कोई चिता जलती रहती है. मैंने पहली बार शमशान देखा। वह सोचमग्न हो गये, "मृत देह को ले कर इतना झमेला क्यों किया जाता है? प्राणों के बिना देह क्या है। मृत देह को नष्ट करने के वास्ते इतना ज्यादा खरच क्यों? मृतक के धनी होने पर कितना खरच होता होगा, यह सोचो। मृतदेह को जल्दी, आसान, स्वस्थ ढंग और कम खरच में नष्ट करना चाहिये।" मुझे याद आता है एक बार जब हम दिल्ली में रिंग रोड से गुजर रहे थे तो मैंने उनसे कहा था जब मैं मर जाऊँ आप मुझे बिजली के शमशान में ले जाइयेगा। इस पर वह हँसे, "देखो कौन किसको लाता है। मैं तुमसे बड़ा हूँ।"

वाराणसी से पार्टी विधायकों और कार्यकर्ताओं की सभा में भाषण देने लखनउ गये। अब वह गैर कांग्रेस सरकारों, कम से कम उत्तर प्रदेश की सरकार से उम्मीद हारने लगे थे। मार्च में जब उन्होंने चरणसिंह के संयुक्त विधायक दल में सामिल होने की बात सुनी तो उनके उत्साह और खुशी का कोई ठिकाना नहीं था और अपने स्वाभाविक अतिरेक में उन्होंने चरणसिंह की तारीफ के पुल बाँध दिये। उन्होंने उम्मीद की थी कि चरणसिंह जैसा पिछड़े वर्ग का आदमी जमीन पर लगाना हटाने, हिन्दी में कामकाज शुरु करने आदि जैसे कार्यक्रमों से राज्य में तुरंत बदलाव की ताकतों को बढ़ावा देगा। पर उन्हें अपनी पार्टी के विधायकों से कम निराशा नहीं थी। मेरे ख्याल में उनसे वह ज्यादा ही निराश थे। उस सभा में उन्होंने स्पष्ट कर दिया था कि वह अपनी पार्टी के विधायकों से क्या उम्मीद करते हैं, क्या कदम पार्टी के विधायक उठायें। उन्होंने कहा था कि आगे देखूँ कानून के मामले में वे कांग्रेस के साथ भी मत देने तक जा सकते हैं। अगर उदाहरण के लिए कांग्रेस लगान का खात्मा करने के लिए संशोधन रखे तो उसका सर्मथन करने में कोई हिचक या क्लेश नहीं होना चाहिये।

एक बार उन्होंने कहा था कि वह अच्छे काम के लिए शैतान के साथ भी मत देंगे। हालाँकि शैतान का इरादा उसके स्वाभाव के कारण शैतानियत का ही होगा। वह काम और नतीजे को महत्व देते थे। वह कभी इरादे ढूँढ़ निकालने की कोशिश न करते। काम और काम ही उनकी राजनीति की आधारशिला था।

हम दिल्ली लौट आये, अब काफी गरमी पड़ने लगी थी। वह बहुत मेहनत कर रहे थे और उनकी तबियत भी अच्छी नहीं रहती थी, पर भाषण देना, लिखना और असंख्य मुलाकातियों से मिलना और बातचीत करना जारी था। मेरे जानते वही अकेले नेता थे जो एक साथ ही जीवन का आन्नद भी लेते रहते थे - हँसते हुए, चिढ़ाते हुए, तरह तरह के काम करते हुए, ऐसे काम जो राजनीति के दायरे में नहीं आते।

गरमियों के उन दिनों में मैंने बहुत हिचकिचाते हुए कहा कि मैं एक रूम कूलर लेना चाहती हूँ। "माफ करो, मेरे कमरे के लिए नहीं। यह सुख सुविधाएँ मेरे लिए नहीं हैं हालाँकि इससे मुझे काम करने में ज्यादा मदद मिलेगी। नहीं, कतई नहीं।"

इससे काफी पहले जब वह पहली बार संसद के सदस्य चुने गये तो उनके कुछ दोस्तों ने उन्हें मोटर खरीद देने की बात रही। मोटर का आर्डर भी दे दिया गया। मैं मोटर देख कर आई और उन्हें बताया। उस बार वह नाराज नहीं हुए थे। उन्होंने मुझे बिठाया और मोटर के खर्च का अन्दाज लगाने लगे औेर फ़िर विजयोल्लास में कहा "टेक्सी सस्ती रहेगी"। उन्होंने इस संभावना की भी गवेषणा की कि ऐसे ६-७ दोस्त हो सकते हैं जो उन्हें एक महीने में चार बार मोटर देंगे, इस तरह २८ दिन मोटर वाले हो जायेंगे। पर वह एक दोस्त ही जुटा पाये और उसकी मोटर भी नियमित नहीं आ पायी। पैसों की बरबादी के बारे में वह बहुत ज्यादा आगाह रहते थे। जनता के बीच जो कहते उसी को हमेशा सबसे पहले अपने उपर लागू करते।

जुलाई के आरम्भ में इंजेक्शनों का कोर्स खत्म करने के बाद अखिल भारतीय चिकित्सा संस्थान में सर्जन ने उनकी फ़िर जाँच की। इस बार सर्जन की राय थी कि आपरेशन के सिवाय कोई चारा नहीं। यही नहीं, जितना जल्दी किया जाये उतना अच्छा। नहीं तो जिस तरह की ज़िन्दगी वह जीते हैं, जिसने देहातों में जाना होता है, उसमें नाना प्रकार की पेचदगियाँ पैदा हो सकती हैं, और काफ़ी पीड़ा और असुविधा हो सकती है। आपरेशन का ख्याल उन्हें खराब लगता था, वह सिद्धांततः इसके खिलाफ़ थे। आपरेशन के खयाल से ही उन्हें अरुचि थी। मैंने उनसे पूछा क्या वह छुरे से डरते हैं? यह सवाल मैंने ऐसे आदमी से किया था जिसे ज़िन्दगी में किसी तरह के डर का अहसास नहीं था. उन्होंने कहा कि "ऐसा नहीं है"।

वह चुप हो गये तो मैंने कहा क्या इसका हिंसा अहिँसा से तालुक है। उनका मुख स्नेह की अपूर्व मुस्कान में खिल गया। "तुमने बात ठीक पकड़ी। यह चीरने फाड़ने की बात मुझे पसन्द नहीं आती। मुझे समझ में नहीं आता तुम लोग किस तरह मुर्गी, मछली और जीवित जानवर खाते हो और फ़िर चटखारे भी भरते हो।" उन्हें पेड़ों की शाखाएँ काटना भी कभी नहीं भाया। बहुत दफ़े उन्होंने मुझसे शिकायत की कि माली डालें काट देता है। मैं उनसे कहा करती कि यह पेड़ों के भले के वास्ते है, काँट छाँट से वे बढ़ते हैं। "अगर तुम्हारे हाथ पाँव काट दिये जायें तो तुम्हें कैसा लगे।" आप की यह तुलना सही नहीं है, मैं कहती। जीवित प्राणी के प्रति किसी भी तरह की निर्ममता उनके स्वाभाव के प्रतिकूल थी। वही अकेले आदमी थे, जिन्होंने हिँसा को ले कर जान और माल के बीच फरक किया। माल इस देश में ज़्याद रक्षणीय रहा है, वह व्यंग में कहते, मनुष्य तो मक्खियों की तरह है सो उसके मरने की किसी को क्यों परवाह हो।

एक रात शायद अगस्त का महीना था, उन्होंने अपना हाथ मेरे आगे फैला दिया और कहा हाथ देखो। मैंने हाथ देखते हुए कहा, "आप प्रधान मंत्री नहीं बनोगे"। "तुम क्या सोचती हो मैं प्रधानमंत्रित्व की कामना करता हूँ, बस यह बताओ कि मैं क्या देश का भला, सही मायने में भला कर सकता हूँ। क्या लोग मेरी बात सुनेंगे और काम करेंगे?" इसके बाद फ़िर, "क्या जो होगा वह हिँसक होगा?", मैंने कहा, "कुछ न कुछ हो कर रहेगा। आप का आयुष्य दीर्घ है और सत्तर बरस तक जीयेंगे।" "केवल सत्तर, कुछ और बरस तो दो।"

विरोधी दलों और अपनी पार्टी पर से विश्वास उठने पर भी जनता में उनका विश्वास कभी नहीं डिगा। किस तरह जनता को, जो दो हज़ार साल से भी अधिक पशुओं जैसा जीवन जीती आ रही है, उठाया जाये, जगाया जाये। किस तरह जाति व्यवस्था का घृण्य प्रभाव दूर किया जाये. "तुम इतिहास की कैसी विद्यार्थी हो। क्या तुम्हें हमारे इतिहास की इस सचाई की पड़ताल करने की इच्छा नहीं होती। क्या हमारे प्रसिद्ध इतिहासकारों में एक भी आदमी ऐसा नहीं है जो हमारे इतिहास के बारे में वास्तविक अनुसंधान करे। एक नहीं तो इतिहासकारों की टीम ही सही। क्यों विदेशी शासन के आगे हमने बार बार आत्मसमर्पण किया। विश्व के इतिहास में इस तरह की कोई मिसाल नहीं।"

उन दिनों वह पूर्व जर्मनी के हाले स्थित मारटिन लूथर विश्वविद्यालय से मारटिन लूथर की ४५०वीं बरसी पर पूर्व जर्मनी आने का निमंत्रण पा कर उत्साहित थे। उनका उत्साह बढ़ रहा था। निमंत्रण पत्र अगस्त में उस दिन आया जिस दिन वह दिल्ली से कहीं दौरे पर जा रहे थे। "तुम क्या समझती हो, मुझे क्यों निमत्रित किया गया है। क्यों हमेशा निमंत्रण पूर्व जर्मनी से आता है, पश्चिमी जर्मनी से नहीं। तुम्हें पता है छात्रावस्था में मैंने एक बार हाले की एक सभा में भाषण दिया था. पौन घँटे के भाषण में २० बार तालियाँ बजी थीं। यूरोप के लोग तालियाँ बजाना जानते हैं। हम एशियाइयों की तरह मरी मरी ताली नहीं बजाते। अरे हमें तो ताली बजाना भी नहीं आता।" निमंत्रण से उनकी तबियत रंग पकड़ रही थी। "पूर्वी जर्मन साम्यवादियों से प्रोटेस्टैंट वाद पर बात करने में गजब का मजा आयेगा। आखिर मुझसे बड़ा प्रोटेस्टैंट है कौन। यहाँ पर मैं उस दिन कृष्ण पर बोला, वहाँ मैं लूथर पर बोलूँगा।"

दौरे से लौटने पर उन्होंने सबसे पहले पूछा कोई और उत्तर आया? "शायद वह नहीं चाहते कि मैं बोलूँ। मैं निमंत्रित अतिथि की हैसियत से वहाँ नहीं जाना चाहता। मैं बहस में भाग लेने ही जाउँगा।"

पटना, दंगाग्रस्त रांची और अन्य स्थानों का दौरा करने के बाद वह लौटे थे। वह जयप्रकाश से भी मिले थे। मैंने पूछा जे.पी. से क्या बातचीत हुई? "इस तरह की बातचीतों से कुछ होता है, हमारे देश में कुछ भी होता है क्या?" पर आखिर आप उनके साथ कई घँटे थे, आप दोनो ने एक दूसरे के चेहरे को ही तो नहीं देखा होगा और केवल मौसम के बारे में ही बातचीत नहीं की होगी। "हाँ हमने बातचीत की। जयप्रकाश ने एक लम्बा कार्यक्रम बनाया है जिसे बिहार सरकार को अमल में लाना चाहिये।" मैंने उनसे कहा बिखरे कार्यक्रम के बजाय सरकार को एक एक मामला, जैसे लगान का, लेना चाहिये और उस पर पूरी दृढ़ता से काम करना चाहिये। इसके बाद उन्होंने आन्दोलन की बात तिरस्कार व अवहेलनात्मक ढंग से कही, मुझे इस पर गुस्सा आया और मैंने उन्हें कहा, "देखो जयप्रकाश, मुझे भी आन्दोलन की खातिर आन्दोलन करना पसन्द नहीं और न ही जेल जाना पर ऐसी मजबूरियाँ होती हैं कि आन्दोलन जरूरी हो जाता है। उनके सिवाय कोई दूसरा चारा नहीं रहता। तुम कभी जेल नहीं गये हो", इस पर उन्होंने मेरी ओर आँखें चढ़ा कर देखा तो मैंने जोड़ा, "आजादी के बाद"! जयप्रकाश से यही मेरी बातचीत हुई। इस निकम्मे देश में कुछ भी नहीं होता।"

उन दिनों उनसे मिलने तरह तरह के बहुत से व्यक्ति, कांग्रेसी, साम्यवादी, स्वतंत्र, सब आया करते थे। एक बार वह लोकसभा के अध्यक्ष श्री संजीव रेड्डी के यहाँ रात दावत पर गये थे. दावत में वही अकेले मेहमान थे. मैंने दावत के बारे में और क्या बातचीत हुई, पूछा तो अनूत्साहित स्वर में उन्होंने कहा।

"एक गैर कांग्रेसी केन्द्र हो सकता था। दोनो किस्म के साम्यवादियों, जनसंघी और स्वतंत्र दल जैसे हैं, उन्हें देखते हुए मैं संजीव रेड्डी को क्या आश्वासन दे सकता था था कि मैं एक गैर कांग्रसी मिली जुली सरकार बना सकूँगा।"

अब उन्हें आपरेशन की जल्दी पड़ी थी क्योंकि डाक्टरों की यही सलाह थी। एक बार किसी बात को मान लेने पर उन्हें देर बरदाश्त नहीं होती थी। वह मुझे बार बार आपरेशन की तारीख तय करने को कहते। उनकी तबियत ठीक नहीं थी और वह जल्द चंगा होना चाहते थे, उन्हें बहुत कुछ करना था, विदेश जाना था और न जाने क्या क्या करना था। इस बात पर काफी बहस होती रही कि आपरेशन कहाँ हो और उसे कौन करे। जब वह कलकत्ता जा रहे थे तब मैंने कहा कि आप वहाँ किसी सरजन से जाँच कराना। "तुम जानती हो यह डाक्टर और सरजन कैसे एक दूसरे की बात को काटते हैं, और अपनी काटवाली बातों से आदमी को घपले में डाल देते हैं।" उनकी राय थी कि आपरेशन दिल्ली में हो या लखनऊ में। लखनऊ पर उनका मन ज्यादा था, क्योंकि उनका ख्याल था कि वहाँ आराम ज्यादा होगा। आखिर में उन्होंने विलिंगडन अस्पताल चुना। क्रूर नियति ही की बात है कि उन्हें विलिन्घडन अस्पताल के सुपरिन्टेडेंट ब्रिगेडियर लाल पर जबरदस्त भरोसा था। इससे पहले उन्होंने ब्रिगेडियर लाल को चाय पर बुलाया था और मुझे चेतावनी दी थी मैं उनसे उनके स्वास्थ्य की बात न करूँ। वह लाल को बहुत बड़ा डाक्टर मानते थे क्योंकि लाल ने एक बार हमारे एक कार्यकर्ता की जान बचायी थी। डा. साहब का स्वभाव अत्यंत उदार था और तारीफ़ व निन्दा दोनो में ही वह कंजूस न थे।

२८ सितम्बर को वह अस्पताल में दाखिल हुए, ३० को आपरेशन हुआ और ११ अक्टूबर को मध्य रात्री के थोड़ी देर बाद मृत्यू। वह हमेशा सफाई, सुथराई के कायल थे। अस्पताल आने पर उन्होंने बिस्तर की चादर देखी कि वह साफ़ है या नहीं। उन्होंने कहा कि मैं घर से तौलिये ले आऊँ पर हमें लगा कि घर के तौलिये स्वच्छता की दृष्टि से निर्दोष और निरापद नहीं रहेंगे, शायद उनसे छूत लगे। पर हुआ यह कि उनकी मृत्यू एक ऐसे घातक दोष से हुई जो ओज़ारों को निर्दोष करने की कमी के कारण छूत से पैदा हुआ। आपरेशन के मौके पर उन्होंने आपरेशन के बारे में फ़िर से पूछताछ की कि वह किस तरह होगा और कैसे होगा। जीवन में हर बात में उनका आग्रह तह तक जाने का था। इसके बाद उन्होंने कहा, "हंसी की बात है कि इस उमर में भी मुझे पता नहीं मेरा खून किस वर्ग का है।" जब मैंने कहा कि यह जानना कोई जरूरी नहीं, तो उन्होंने झिड़कते हुए कहा, "तुम्हारा पक्का एशियाई दिमाग है। हर यूरोप अमरीका वाला अपने रक्त का वर्ग जानता है।" मुझे इस पर एक घटना याद हो आयी। एक बार हमारे रसोईये ने माली को यह कह कर रसोई में नहीं घुसने दिया कि वह छोटी जात का है। जब उन्होंने यह बात सुनी तो रसोईये को बुलाया और इनसाइक्लोपीडिया की जिल्द निकाली और चित्रों के माध्यम से बड़े धीरज से रक्त रहस्य बताया - रक्त जाति से निर्धारित नहीं होता वरन उसके अंतर्निहित तत्वों से. इसके बाद रसोई बनाने वाले इस लड़के ने फिर कभी जाति की बात नहीं उठायी।

अपनी सक्षिप्त बीमारी के दौरान जब वह मौत से जूझ रहे थे मैंने देखा कि उनके दिमाग पर दो बोझ थे। इनमें अव्वल देश की हालत थी। बार बार भयानक पीड़ा और कराह में वह लगान के खात्मे, हिन्दु मुसलिम एकता, गरीब किसानों की दुर्दशा, भाषा तथा अन्य मामलों के बारे में बोलने लगते। मेरे खयाल में वह कभी भी पूरी तरह बड़बड़ाने या संज्ञाशून्य होने की स्थिति में नहीं थे। अपने आसपास के प्रति वह जागरूक दीखते थे। हममें से कुछ को उन्होंने हमेशा पहचाना - स्पर्श से या आवाज़ सुन कर या आँखें खोल कर। एक बार उन्होंने मेरा हाथ अपने हाथ में लिया और कहा, "बताओ, तुम मुझसे कभी झूठ नहीं बोलोगी - क्या हमारे देश में कोई बड़ी चीज़ हो रही है?" "यह पहला रिहर्सल है" - इसके बाद वह भारत पाक महासंघ की बात कहने लगे। हालांकि जब वे अस्पताल में दाखिल हुए तब उनको आसन्न मृत्यु का कोई आभास नहीं था पर शायद जब उनकी हालत खतरनाक हो गयी तो उन्हें लगा कि समय बीता जा रहा है। लिहाजा देश के भवितव्य को ले कर उनकी चिंता व क्लेश मुखर हो उठा। दूसरी बात यह दीख पड़ी कि उन्हें ऐसा लगा कि उनके शरीर में कहीं कोई भारी गड़बड़ हो गयी है। इतने ज्यादा डाक्टरों का जमा होना उन्हें जताता रहा कि वह कितने ज्यादा बीमार हैं। बार बार वह इतने ज्यादा डाक्टरों की मौजूदगी की चर्चा करते रहे, "इतने डाक्टरों का होना अच्छा नहीं"।

वह इतनी पीड़ा पा रहे थे और जबरदस्त बेचैनी थी, पर इसके बावजूद कभी पीड़ा में चिल्लाते हुए मैंने उन्हें नहीं देखा। बीमारी के दौरान मैं लगभग सारे समय उनके साथ थी। हमें इस बात का कभी पता नहीं लगेगा कि वह किस तरह और क्यों मरे? केवल मृत्यु के वक्त उनके चेहरे पर शांति विराज रही थी हालांकि भौंहें तनी थीं. उनके प्रिय चेहरे की यह परीचित भृकुटि थी।

क्या यह महज संयोग है कि जब वह बीमार पड़े थे और मृत्यु से संघर्ष कर रहे थे तभी गैरकांग्रेसवाद पर जबरदस्त प्रहार शुरु हुआ? कौन जानता है? गैरकांग्रेसवाद के जनक की मृत्यु के बाद एक एक कर गैरकांग्रेसी राज्य ढहने लगे। दिल्ली में मार्च अप्रैल के दौरान जब गैरकांग्रेसी सरकारें बन रहीं थीं एक चुटकला चालू था. इस चुटकले पर वह बाग बाग हो उठते - अमृतसर से हावड़ा तक गैरकांग्रेस राज्यों का बोलबाला है, बीच में कहीं कांग्रेसी इलाका नहीं आता। अब यह बात नहीं रही।

इस साल जाड़ा बड़ा सख्त था और बेहद लम्बा चला। दिल्ली की सरदी उन्हें बरदाश्त नहीं होती थी। अक्सर मुझे कहा करते "जाड़े में मुझे दिल्ली मत रहने दिया करो।" आग के आगे बैठने में उन्हें आनन्द आता। बिजली का हीटर भी रहता था, पर अपनी वैज्ञानिक भंगिमा में वह बतलाते कि किस प्रकार जलता हुआ काठ सारे घर को गरमा देता है। उन्हें उष्णता प्यारी थी, शायद भारतीय राजनीति में उन जितना कोई स्नेही नहीं था। अब डाक्टर साहब नहीं रह गये, अपने साथ वह सारा स्नेह और ममत्व ले गये हैं, और मेरी दुनिया निस्तेज, उदास और खोखली रह गयी है।

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टिप्पणी: मुझे रमा मित्र की कोई तस्वीर नहीं मिली. नीचे वाली तस्वीर १९४९-५० की है, इसमें नीचे मेरी माँ जो उस समय कमला दीवान होती थीं, वह बैठी हैं. उनके पीछे शायद रमा जी हैं, पर पक्का नहीं कह सकता. बीच में खड़े डा. लोहिया भी हैं.

Dr Ram Manohar Lohia, Rama Mitra and Kamala Deepak, 1949


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गुरुवार, दिसंबर 09, 2010

यादों के दर्पण

जुगनू जी को घर पर पहली बार कब देखा, यह ठीक से याद नहीं. पापा से जुड़े नवजवानों को हम लोग घर में "शिष्य" कहते थे, जुगनू शारदेय जी उनमें से ही थे. यह उनकी पहली तस्वीर हमारे दिल्ली के राजेन्द्र नगर वाले घर से है जो शायद 1984 में खींची गयी थी.

Jugnu Shardeya, Hindi writer, thinker

पिछले सालों में बीच बीच में उनसे मुलाकात होती रही है. पिछले वर्ष से उनकी तबियत ठीक नहीं चल रही थी, लेकिन कुछ सप्ताह पहले जब वह मिले तो उनका स्वास्थ्य कुछ ठीक लगा और बहुत अच्छा लगा. यह दूसरी तस्वीर इसी मौके से है.

Jugnu Shardeya, Hindi writer, thinker

उनको शुभकामनाओं के साथ, आज उनका एक पुराना लेख प्रस्तुत है जो उन्होंने करीब चालिस साल पहले लिखा था और "जन" पत्रिका में छपा उनका पहला आलेख था.

यादों के दर्पण में सिमटा हुआ अतीत

(आत्मकथा, ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार खाँ, हिन्द पाकेट बुक्स, शाहदरा दिल्ली)

एक सीधे साधे और सच्चे आदमी ने अपनी कहानी, अपनी ही जुबानी प्रस्तुत की है. न लाग, न लपेट, सिर्फ मन की पीड़ा, अतीत के स्मरण और भविष्य का सपना. इस इन्सान को हिन्दुस्तान की पुरानी पीढ़ी भूल गयी है और जिन्हें उसकी याद है वे विवश हैं और नयी पीढ़ी जो इतिहास कक्षाओं में पढ़ती है उसमें इस आदमी का कहीं जिक़र नहीं होता. इस इन्सान की कहानी "संयक्त भारत और बँटे हुए पाकिस्तान के लिए एक आलोक स्तम्भ है." जीवन भर संघर्षशील रहने वाले, हर जोर ज़ुल्म के ख़िलाफ़ आवाज उठाने वाले खान अब्दुल गफ़्फ़ार खाँ की आत्मकथा पहली बार किसी भाषा में प्रकाशित हुई है (मुझे खुशी है वह भाषा हिन्दी है)

एक ओर जहाँ अंग्रेजों के अत्याचार का भण्डाफोड़ है वहीं दूसरी ओर खिलाफ़त आन्दोलन, मुस्लिम लीग और पाकिस्तान की हकीकत का प्रस्तुत पुस्तक द्वारा पता चलता है. उस वक्त के समाज की सही स्थिति, पिछड़ापन, गरीबी और अशिक्षा के मूल कारणों का पता चलता है. ब्राह्मणवादी परम्पराएँ किसी भी समाज की वास्तविक प्रगति में बाधक रही हैं. इसका मर्मगाही उदाहरण पुस्तक में से दे रहा हूँ. पश्तनु बच्चे जब पढ़ने पाठशाला में जाते थे तबके ब्राह्मण अर्थात मुल्ला मौलवी कहते थेः

सबक चिः द मद्रसे वाई
द पराइ द पैसे वाई.
जन्नत के बः जाए नवी,
दोजख के बः धंसे वही.

(जो लोग मदरसे में सबक पढ़ते हैं, वे पैसों के लिए ऐसा करते हैं. उनको जन्नत में जगह नहीं मिलेगी. वे दोजख में धक्के खाते रहेंगे.)

सीमान्त गांधी लिखते हैं, "इस्लाम के प्रादुर्भाव से पहले पख्तून हिन्दू थे और हमारे समाज में भी वह गलत नियम नियम प्रचलित था कि विद्या केवल ब्राह्मणों के लिए है. इस नियम के अधीन हम भी उसी तरह विभिक्त हो गये, जैसे बाकी हिन्दू अलग अलग टुकड़ों और वर्गों में थे."

पुस्तक में आत्मकथ्य के साथ सीमांत गांधी के विचारों, आस्थाओं और सिद्धान्तों का दर्शन है. पन्द्रह वर्षों तक स्वाधीनता संग्राम में जेल में रहने वाले रहबर बादशाह को पाकिस्तान की तथाकथित इस्लामी सरकार ने भी पन्द्रह वर्षों तक जेल में रखा. इस्लाम और पाकिस्तान के सम्बंध में वह कहते हैं, "... इस्लाम जिस समय इस देश में आ रहा था, उस समय आँखों में वह आध्यात्मिक आलोक, ईश्वरीय विचार, त्याग और तपस्या का भाव बाकी नहीं रहा था, जो इस्लामी पैगम्बर लाये थे या जिनका प्रचार अबूबकर और उमर जैसे महान पुरुषों ने किया था. ... इस्लाम जब हमारे देश पहुँचा, अरब राज्य साम्राज्यशाही और निरंकुशता में उन्मत हो चुके थे. उनमें धर्म प्रचार की लगन और नेकी फैलाने के भाव का अभाव हो चुका था ... इन्हीं महान व्यक्तियों के बलिदान के कारण अब पाकिस्तान स्थापित हुआ है. यह बात अलग है कि जिन पठानों ने पाकिस्तान के पूर्वजों को इस्लाम में दीक्षित किया था, उनके साथ पाकिस्तान का बर्ताव क्या है?"

मातृभाषा के सच्चे भक्त बाचाखान कने एक बार अफगानिस्तान के शाह अमानुल्ला खाँ से साफ कहा, "कितने शर्म की बात है कि आप को अन्य भाषाएँ आती हैं पर पश्तो नहीं आती. ... जाति की उन्नति अपनी भाषा से होती है." पुस्तक पढ़ने से यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि अहिंसा, विषेश तौर से सिविल नाफ़रमानी के बल पर अन्याय को खत्म किया जा सकता है. भाचाखान ने खूँखार पठानों को अपने स्नेह और प्रेम के बल पर अहिंसक बना कर सत्याग्रह का मार्ग दिखाया. (अंग्रेजों ने कहा था, "अहिंसावादी पठान हिंसावादी पठान से अधिक खतरनाक होता है.")

पुस्तक की भाषा और शब्दावली में कहीं कोई जाल नहीं, अपने मन के विचार हैं जिसके कारण कुछ लोग इसे प्रचारात्मक भी कह सकते हैं. स्थान स्थान पर बाचाखान ने, पाकिस्तान, भारत और दुनिया के अन्य मुल्कों के प्रति अपने विचार प्रस्तुत किये हैं. यहाँ कुछ बातों को मैं रखना चाहता हूँ, "मेरे निकट पाकिस्तान से दोस्ती मुमकिन नहीं, क्योंकि पाकिस्तान की बुनियाद नफरत है. पाकिस्तान की घुट्टी में नफरत, जलन, द्वेष, दुश्मनी वैमनस्य आदि दुर्भाव सने हैं. इसकी पैदाइश अंग्रेजों की कृपा से हुई है. पाकिस्तान तो शांति और मैत्री की बात सोच भी नहीं सकता. वह श्रेय साधना, सलह, सफाई का घेर विरोधी है. वह फर्जी जिहादी नारों से जनता को काबू में रखना चाहता है."

"... कांग्रेस ने, जो भारत की प्रतिनिधि संस्था थी, हमें न केवल अपने से दूर फेंक गिया, अपितु शत्रुओं के हवाले कर दिया था ..."

रहबर बादशाह के विचार, दर्शन और आस्थाएँ पुस्तक में बड़ी सच्चाई के साथ प्रस्तुत किये गये हैं, इसमें कोई प्रचार नहीं है, किसी से शिकवा शिकायत नहीं, सिर्फ सपना है स्वतंत्र पख्तूनिस्तान का, और गुस्सा है, नामर्दगी पर (चाहे वह भारत सरकार की तथाकथित तटस्थता हो अथवा पाक सरकार द्वारा निहत्थे पठानों पर गोली वर्षा) और गरीबी और अन्याय के खिलाफ एक आवाज है जिसे सुनना "कांग्रेसी" पसंद नहीं करते. पुस्तक में तीन भाषण हैं जो अत्यंत ही महत्वपूर्ण और पख्तूनिस्तान की वास्तविक स्मस्या को रखने वाले हैं.

इस पुस्तक को लिपिबद्ध करने वाले श्री कुँवर भानु नारंग और श्रीराम सरन नगीना तथा हिन्दी रूपांतरकार श्री जगन्नाथ प्रभाकर बधाई के पात्र हैं, जिन्होंने यादों के दर्पण में बिखरे हुए अतीत को बाँधा है.

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शनिवार, नवंबर 27, 2010

भाषा की पूजा

अप्रैल 1967 में डा. राम मनोहर लोहिया और समाजवादी पार्टी से जुड़े बहुत से लेखकों तथा विचारकों ने मिल कर नियमित रूप से देश के विभिन्न प्रश्नों पर विचार विमर्श करने के लिए मासिक गोष्ठियों का आयोजन करने का निर्णय लिया था, और पहली गोष्ठी का विषय था हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं के भविष्य के बारे में. इस गोष्ठी के लिए श्री रघुवीर सहाय को आमान्त्रित किया गया था कि वह इस विषय पर लेख लिखें, जिस पर बहस की जाये. यह लेख और उस पर हुई बहस, मई 1967 की "जन" पत्रिका में छपे थे. वही विचारोत्तेजक लेख यहाँ प्रस्तुत है.

अपने पिता के पुराने साथियों में रघुवीर सहाय की याद मेरे मन में बहुत सालों बाद भी ताजा है. उनका सिगार पीना, उनकी मृदुल हँसी और उनका हम बच्चों से गम्भीरता से बात करना, सब याद है. उनके बच्चों में से, उनकी बड़ी बेटी मँजरी जो मेरी उम्र के कुछ करीब थी, की याद है, लेकिन छोटी बेटी और बेटे के नाम भी याद नहीं, पिता की अकस्मात मृत्यु के बाद उनसे सम्बंध नहीं रहे, लेकिन आज रघुवीर जी के इस लेख को प्रस्तुत करते समय सब याद आ गया.

भाषा की पूजा बन्द करो - रघुवीर सहाय

(यह लेख बहस के लिए लिखा गया है. इसमें लेखक ने अन्तिम विश्लेषण करके बहस खत्म कर देने का दावा नहीं किया है. पर वह यह मान कर चलता है कि भाषा पर बहस यह समझने के लिए की जा रही है कि भाषा के मामले में इस वक्त क्या करना है.)

भाषा के मामले पर पिछले 20 वर्षों में जो कुछ हुआ है, उसका जायज़ा एक वाक्य में लिया जा सकता हैः थोड़े से लोगों को, जो भाषा का इस्तेमाल करने की जरूरत से प्रतिश्रुत रहे हैं उन बहुत से लोगों के विरुद्ध संघर्ष करने को मजबूर किया गया है जो भाषा की पूजा करते रहे हैं. इस संघर्ष में वह लेखक - और इस लेखक की भी यही स्थिति है - जो थोड़े लोगों में शामिल रहा अब एक कोने में धकेल दिया गया है जहाँ उसे अपनी आखिरी जी तोड़ कोशिश के साथ छटपटाती हुई एक लड़ाई लड़नी है. बहस के लिए सच पूछिये तो उसके पास वक्त नहीं रह गया हैः बहस पुकार कर शायद कुछ एक अन्य लेखकों को पास बुला सकती है मगर पास खड़े हो जाने वाले अगर खुद छटपटा कर लड़ नहीं सकते तो बहस सिर्फ़ आततायी को और अधिक आक्रमण का मौका देने का साधन बनती है.

एक अच्छे योद्धा की तरह अपनी क्षति स्वीकार कर लेनी चाहिये - भाषा बुरी तरह टूट चुकी है. राजनीतिक दिमाग एक भाषा में वोट माँगता है, दूसरी में वक्तव्य देता है तीसरी में शपथ लेता है. कलाकार दिमाग़ एक भाषा में सोचता है, दूसरी में लिखता है और फ़िर पहली में यश प्राप्त करना चाहता है. बाकी लोग, किसी भाषा में सोच नहीं पाते, किसी भाषा में बोल नहीं पाते. उनके लिए दो व्यक्तियों के मध्य भाषा की एक बड़ी उपलब्धी - मतभेद संभव नहीं रह गया है, अधिक से अधिक वे एक अव्यक्त समझौता कर सकते हैं जो एक दूसरे के भ्रष्ट चरित्र के लिए चुपचाप हामी भरने का समझौता होता है. यह सब इतना जानते हुए कह रहा हूँ कि ये राजनीतिक, कलाकार और लोग कोई आदर्श नहीं हैं.

परन्तु कुछ आदर्श इन तीन वर्गों में कहीं न कहीं हैं. जो भी हैं वे भाषा को पूजा की नहीं इस्तेमाल की चीज़ बनाने के लिए लड़ते रहे हैं. इस लड़ाई में अब अंतिम दौर शुरु हो गया है. एक जगह हम देखते हैं कि सरिहन सरासर झूठ बोल कर अब उसे छिपाने की कोशिश चल भले ही कर जाये, सच्चाई को उजागर किया जा सकता है. दूसरी जगह विद्रोह को भटकाने में भाषा का सहारा लेने की चेष्टा, आकर्षण भले दिख ले, भले दिख ले, भाषा इसमें दग़ा जरूर दे जाती है, तीसरी जगह, कहने का कोई असर न हो और यहाँ तक न हो कि शब्द की जगह पत्थर ही एक रास्ता रह जाये, फिर भी विचार जनमत बन सकता है. ये सब मुक्ति के, विजय के लक्षण हैं. परन्तु लम्बी लड़ाई के दौरान पीछे हटते हुए प्रतिद्वन्द्वी ने इतनी बस्तियाँ उजाड़ दी हैं कि अब सारी दुनिया नये सिरे से बसानी होगी.

सबसे पहले तो राष्ट्रीय एकता को नये सिरे से समझना और बनाना पड़ेगा. यह एक चीज़ है जो सबसे ज़्यादा जलायी फ़ूँकी गयी है. एक से एक सूक्ष्म अस्त्र काम में लाये गये हैं जैसे यह कि सारे देश की एक राजभाषा जिस संविधान द्वारा स्थापित की गयी है उस सम्बन्ध में विहित समता के किसी भी आदेश का पालन नहीं किया गया है. जिस भाषा को राजभाषा बनाने का संकल्प किया गया है, उसके बहुमत का शोषण किया गया है, उसकी भाषा का नहीं. स्वामी शासक के जाने के बाद उसकी जगह उस बहुमत के समृद्ध प्रतिनिधियों ने ले ली है और शासक की भाषा के रूप में उस भाषा को बिठा दिया है जिसे आज़ादी भी नहीं मिल पायी थी. उसे स्वामिभाषा का स्थान दिलाने के लिए लालच दिया गया कि वह दासभाषा बन कर रहे और दासत्व का मुआवजा उपभोग करे. यदि वह भाषा आज़ाद होती तो काफ़ी बड़ा शासक वर्ग अपनी जगह से हटता. इसलिए उसे अधिक से अधिक समय तक मुआवज़ा देने की पेशकश की गयी. उसका विकास करने के लिए बड़े पैमाने पर राष्ट्रीय धन का व्यय किया गया जिसमें हिस्सा बंटाने वह लोग आये जिन्होंने भाषा का विकास करते रहने का और उसे इस्तेमाल न होने देने का बीड़ा उठाया. राष्ट्रीय खर्च से एक भाषा को जो घूस दी गयी वह दूसरी राष्ट्रभाषाओं का पेट काट कर दी गयी. भाषाओं में एक भाषा के लिए घृणा फैलाने का काफ़ी इन्तज़ाम था. तब भाषा की दासता का मोर्चा यों बँधाः अंग्रेजी शासन की भाषा, हिन्दी प्रमुख दास भाषा और बाकी प्रतिद्वन्द्वी दासभाषाएँ.

यहाँ वह सम्पूर्ण कहानी दोहराना बहुत सी जानी मानी बातें दुहराना होगा जो हिन्दी के इस दास वैभव से उपजी विकृतियों की कहानी है. बहुत बड़े पैमाने पर हिन्दी क्षेत्र की प्रतिभा का विविध विद्याओं से, विविध भाषाओं और परम्पराओं से और अपने क्षेत्र के मनुष्य से अलगाव ही संक्षेप में वह कहानी है. एक प्रश्न अवश्य यहाँ अनुतरित नहीं छोड़ना चाहता हूँ. अक्सर कहा जाता है कि यदि स्वतंत्रता मिलते ही हिन्दी को सीधे राजभाषा घोषित करके स्थापित कर दिया होता तो अनन्तर जो कुछ हुआ, वह न होता - वैसा नहीं किया गया, यह बड़ी भूल हुई. पर ऐसा नहीं किया जा सका तो क्यों? क्यों कि जिन्होंने हिन्दी के नाम पर नेतृत्व सम्भाला था - सचमुच उन अल्प प्रतिशत लोगों के साथ थे जो बाद में अमीर से अमीर बने और इन नेताओं में स्वभावतः नैतिक शक्ति की कमी थी. और भी बहुत से काम हैं जो तब नहीं हुए और बाद में बहुत धीरे धीरे और तकलीफदेह तरीके से गलती सुधारने के प्रयत्न होते रहे. पर वे इतने दिखावटी थे कि उन्होंने न सिर्फ कोई परिवर्तन नहीं किया बल्कि हर बार समस्या को एक नयी उलझी हुई शक्ल दे डाली.

आज़ादी के बाद के पहले वर्षों में जब हिन्दी क्षेत्र में जन्म लेने के कारण हिन्दी भाषी को राजनीतिक सम्मान प्राप्त करने का निर्विवाद अधिकार दे दिया गया तभी उस क्षेत्र के असमपन्न हिन्दीभाषी को अपनी भाषा में अपना सामान्य सामाजिक अधिकार प्राप्त करने से निरन्तर वंचित रखा गया - उसे बताया गया कि कुछ लोग अभी उसकी हिन्दी का विकास करने के लिए अंग्रेज़ी से अनुवाद कर हैं और वह चाहे तो अपनी भाषा का इस्तमाल करने के खतरे और नुक़सान छोड़ कर अनुवाद के अनुष्ठान में शामिल हो सकता है. हिन्दी में अभिव्यक्ति की सामर्थ्य का जीवन में व्यवहार तब इस शकल में हुआ कि विद्याओं का, कौशल का और अन्ततः चरित्र का विकास नहीं, इन सबके अंग्रेज़ी नमूनों का भाषानुवाद ही हिन्दी भाषी का सामाजिक प्रतिष्ठा का माध्यम है. एक नतीजा इसका यह है कि हिन्दी में लिखने वाले लोग दिन ब दिन कम होते गये जो भाषा के अतिरिक्त किसी विद्या में पारंगत हों. सम्पूर्ण समाज रोक कर रखा गया, उस दिन की प्रतीक्षा में जब संविधान के अनुसार रातोंरात हिन्दी राजभाषा हो जायेगी और उस दिन भाषा का अधिकार हर एक को मिल जायेगा. यह दिन हिन्दीतर भाषाओं के सम्पन्न वर्ग को स्वभावतः खतरे का दिन दिखायी देने लगा क्योंकि यह प्रकट हो चुका था कि यह खुद हिन्दी भाषा के उतने ही सम्पन्न वर्ग के लिए खतरे का दिन है जिसे वे टालना चाहते हैं.

जब यह भय हिन्दीतर क्षेत्रों के सम्पन्न नेताओं ने प्रकट किया तो इसकी प्रतिक्रियाएँ हिन्दी क्षेत्र में और हिन्दीतर क्षेत्रों में प्रायः एक सी हुईं. हिन्दी नेताओं ने इसे हिन्दी विरोध का नाम दिया जबकि यह हिन्दी नेताओं का ही समधर्मी अंग्रेज़ी समर्थन था. हिन्दीतर क्षेत्र के वंचित पिछड़े वर्ग को भी अपने नेताओं का यह अंग्रेज़ी समर्थन मातृभाषा की रक्षा के साधन के रूप में दिखायी दिया, या कम से कम दिखाया गया और बहुत समय तक एक झूठी बहस हिन्दी और हिन्दीतर दोनो पक्षों के स्वार्थी नेताओं में चली जिससे वास्तव में दोनो अपने अपने क्षेत्र की भाषा शक्ति को आगे बढ़ने से रोकने के मामले में सहमत थे. हिन्दी नेताओं ने अपनी जनताओं से कहा, चूँकि सरकार और हिन्दीतर भाषी हिन्दी का विरोध कर रहे हैं इसलिए हम हिन्दी में हस्ताक्षर करने, हिन्दी में नामपट लिखवाने और हिन्दी में पुरस्कार दिलाने के कार्यक्रम और आंदोलन चला रहे हैं. हिन्दीतर क्षेत्र की जनता से इन्होंने कहा - हम दूसरी भाषाओँ हम दूसरी भाषाओं के विरोधी नहीं हैं, दूसरी भाषाओं का भी वैसा ही विकास होना चाहिये जैसा हम अपनी भाषा का कर रहे हैं, अर्थात उनके इस्तमाल को रोक रखने वाला विकास. फलतः केन्द्र ने सब भाषाओं के विकास का नारा उठाया, क्योंकि सत्ताधारी नेतृत्व इन दोनो क्षेत्रों के सम्पन्न नेतावर्ग को अपने साथ रखना चाहता था. हिन्दी के इस वर्ग की जो राजनीतिक शक्ति इस बीच बढ़ गयी थी. उसका पलड़ा दूसरी भाषाओं के समानधर्मी वर्ग की राजनीतिक शक्ति के बराबर लाने के लिए बन्दर बाँट का रास्ता केन्द्रीय नेतृत्व ने अपनाया, हिन्दीवालों का घमण्ड चूर करने के लिए सरल और सर्वसुगम हिन्दी का डँडा श्री नेहरू जब तब चलाते रहे. इस दौर की एक छोटी सी घटना का उल्लेख यहाँ किया जा सकता है जो दिखाती है कि हिन्दी का नेता इस काण्ड में किस तरह शामिल था. जब नये रेडियोमंत्री गोपाल रेड्डी से हिन्दी वालों की अक्ल दुरुस्त करने को नेहरू ने कहा तो मंत्री के स्वागत में सेठ गोविनददास के घर पर प्रीतिगोष्ठी का आयोजन हुआ. उसमें सेठ जी ने हिन्दी विरोधी रेड्डी की खूब खबर ली. मंत्री इस सत्कार के लिए तैयार न थे. बहुत नाराज हुए. डा. नगेन्द्र ने उन्हें शान्त होने में सहायता दी. उन्होंने बड़े अबदकायदे से कुछ बहस भी चलायी, पर उन्होंने या किसी बड़े आदमी ने मंत्री से एक बार भी नहीं कहा कि आप अंग्रेज़ी से अनुवाद बंद करा दें और मौलिक हिन्दी में लिखाना शुरु करें तो भाषा सरल हो सकती है. आखिरकार नेताओं और मंत्री के बीच तयतोड़ अनुवाद की जाँच कराने पर हुआ, मौलिक लेखन पर नहीं. भाषा की आज़ादी की बात नहीं उठी, भाषा की गुलामी का फायदा नयी अनुवाद जाँच समिति के रूप में उठाया गया. बन्दर बाँट ने जो टुकड़ा भाषा में से काटा वह भाषा के इस्तेमाल का टुकड़ा था.

फ़िर 1963 में अंग्रेज़ी को सहभाषा के रूप में बनाये रखने का कानून पास होते ही, विकास का ढोंग खत्म हो कर, एक नया ढोंग, पूजा का ढोंग शुरु हुआ, जिसके बीज विकास के ढोंग में पहले से ही थे. अब द्वार पर नामपट पर हिन्दी में नाम लिखाना भी भगवान को दरदर भटकाने का पाप समझा जाने लगा और हिन्दी सम्बंधी छोटे बड़े सराकारी कार्यलय शुद्ध रूप से मन्दिर बन गये जिनमें पूजा पाठ की विधियों पर शास्त्रीय उपदेश करते हुए छोटे बड़े पुजारी आज जय हिन्दी, जय नागरी कर रहे हैं. हिन्दी के विकास के काम में कभी मजबूरन कुछ गतिशीलता का जो बन्धन था वह भी अब आत्महत्या, न्यस्त स्वार्थ की हत्या, माना जाने लगा है. भाषा को कमरे में बैठ कर गढ़ने का काम दिन प्रतिदिन कम होने वाला काम हो तभी वह गतिशील कहला सकता है, पर अब तो प्रश्न उसे अनन्त बनाने का रह गया है, क्योंकि संविधान में हिन्दी के प्रकरण से हिन्दी भाषी को यह जो सामाजिक प्रतिष्ठा उपलब्ध हुई है अब कम से कम इसे बचाये रखने का सवाल हिन्दी नेता के लिए हिन्दी के नाम पर सबसे महत्वपूर्ण सवाल है.

तो भी कुछ अपनी नेतागिरी जताने के लिए और कुछ सचमुच पदहानि के दुख से हिन्दी नेता जनता के सामने आ कर "हा हिन्दी का दुर्भाग्य" कह कर रोया था. साथ ही उसने कहना शुरु किया था कि दूसरी भारतीय भाषाओं की मदद के बिना हम अंग्रेजी को नहीं हटा सकते. सुनने में यह हृदय परिवर्तन जैसा लगता है पर है यह केवल वेश परिवर्तन. वह अभी भी "अंग्रेजी को हटा नहीं सकते" के बाद "और हिन्दी को नहीं स्थापित कर सकते" जोड़ देता है और अभी भी समझौता उस हिन्दीतर भाषी से करना चाहता है जो अपने क्षेत्र में अपनी भाषा का इस्तेमाल रोक कर उसके विकास के लिए मोहलत और पैसा माँग रहा है और कहता है कि अंग्रेज़ी तभी हटे जब मेरी भाषा भी हिन्दी जितनी रिश्वत खा ले.

यह सब केन्द्रीय नेतृत्व के हित में है. प्रदेशों में वास्तविक जनमत को भटकाने दबाने नहीं तो भटकाने का कितना सीधा नुस्खा है. अंग्रेज़ी और हिन्दी को एक ही कोटि की भाषाएँ बताते रहना और देशी भाषाओं का अंग्रेज़ी विरोध, हिन्दी विरोध की तरफ़ भटकाते रहना. इस सिलसिले की अब वह घड़ी आ गयी है जब पीछे को जाने वाले दो गलत रास्ते बहुत आकर्षक हो उठे हैं. एक यह है कि अंग्रेज़ी को - दो प्रतिशत भारतीयों की जानी भाषा को जिसमें वह किसी तरह लड़खड़ाते हुए ही चल सकते हैं - सत्ता की, सामाजिक प्रतिष्ठा की भाषा हमेशा के लिए बनाये रखा जाये, और इसकी सिद्धी के लिए जो ढोंग, पाखण्ड और चरित्रपतन ज़रूरी हो वह मातृभाषाओं में प्रोतसाहित किया जाये. दूसरा रास्ता है, प्रदेशों को करने दो जो करते हैं, अपनी मातृभाषाओं में पढ़ायें, लिखायें, सरकार चलायें, केन्द्र में हमें अंग्रेज़ी के साथ हिन्दी को ही लगाये रखने दो फ़िर चाहे प्रदेश में आपस में कितनी भी दूरी बढ़े. "सम्पर्क भाषा ही राष्ट्र एकता है, प्रदेशों की परस्पर दूरी कम करने की, सम्पर्क बढ़ाने की ज़रूरत नहीं क्योंकि उससे विदेशी सम्पर्क भाषा की ज़रूरत कम होती है.

परन्तु मेरे विचार में आगे जाने वाले रास्तों की संख्या दो से भी कम है, एक ही रास्ता है और वह भी ऊबड़ खाबड़ ज़मीन पर से हो कर जाता है. वह भाषा की पूजा तुरंत बंद करके उसके इस्तेमाल का रास्ता है. अंग्रेज़ी का इस्तेमाल करने को संविधान बाध्य नहीं करता, हिन्दी का इस्तेमाल करने की इज़ाज़त देता है. परन्तु सरकारी काम में भी हिन्दी नेता हिन्दी न खुद इस्तेमाल करते हैं न दूसरों को करने देते हैं, क्योंकि उनका तर्क है कि जो हिन्दी नहीं चाहते वे भी केन्द्र की प्रजा हैं और उनके लिए अंग्रेज़ी इस्तेमाल करनी पड़ेगी. इस तरह बिल्कुल स्पष्ट है कि संघ भारतीय भाषाओं को दबाये और 2 प्रतिशत अंग्रेज़ी को बनाये रखने के लिए ही यह किया जा रहा है. अब प्रश्न यह है कि यह सब देखते हुए जो अंग्रेज़ी हटाना चाहते हैं वे लोग क्या पहले आपस में लड़ कर यह बात तय करेंगे कि कौन सी भाषा अंग्रेज़ी की जगह ले तब अंग्रेज़ी जायेगी? अंग्रेज़ों को हटाने के पहले यह निणर्य करने की ज़रूरत बहुत से भारतीय बताते थे और वे वही थे जो अंग्रेज़ों के जाने से सबसे अधिक दुखी होने वाले थे. भारतीय एकता की जो परिकल्पना हमनें अंग्रेज़ी शासनकाल में की थी उसमें भाषा की स्वतंत्रता का मुख्य स्थान था, परन्तु भाषा के प्राधान्य की कल्पना नहीं थी. सब भाषाओं के बोलनेवालों को एक सूत्र में बाँधने के लिए गाँधी ने एक राजनीतिक कार्यक्रम को साधन बनाया था, हिन्दी नामक भाषा के तंत्र मंत्र को नहीं. बाकी उन्होंने कई प्रकार से बार बार कहा था कि मातृभाषा में शिक्षा देना ही स्वाधीन व्यक्ति बनाने का उपाय है और अगर यह काम आज शुरु कर दिया जाये तो पाठ्यपुस्तकें झक मार के बन जायेंगी. भाषावार राज्यों का सिद्धांत भी इसी भावना के अंतर्गत माना गया था. परंतु स्वतंत्रता के बाद भारतीय एकता के सभी प्रतिमान सत्ताधारी पार्टी की एकता के प्रतिमान के साथ जोड़ दिये गये और हम लोगों को कुछ समय के लिए ऐसा समझाया गया कि भाषावार राज्यों में बाँटना तो बहुत अच्छी चीज़ है क्योंकि उससे देश की विविधता को समृद्धि मिलती है और जन समुदाय भावाभिव्यक्ति पाते हैं, परन्तु यदि यह सब भाषाएँ एक जगह एकत्र हो जायें तो देश टूटने लगता है. दरअसल देश नहीं सत्ताधारी दल टूटने लगता है क्योंकि विचार और कर्म के एक होने की प्रक्रिया और तेजी से चलने लगती है.

प्रश्न यह था कि अंग्रेज़ी हटाने के लिए हम ठीक इसी समय क्या करेंगे? जो 1951 में नहीं किया गया, वह क्या था, हिन्दी को निर्णयपूर्वक रातोंरात राजभाषा बना देना या सब भाषाओं को साथ मिला कर प्रयोग करना कि देश अपने लिए रास्ता निकाले. तब सरकार को काम करना था. वह सरकार प्रयोग नहीं कर सकती थी, पर वह सरकार तो निर्णय भी नहीं ले सकी. जो राजनीतिक शक्तियाँ अब देश में उभर रहीं हैं तथा जो परिवर्तन की प्रक्रिया चल रही है उनके सन्दर्भ में अब क्या किया जाना चाहिये जिससे 28 वर्ष की गलतियाँ दूर हों सकें?

ऊबड़खाबड़ रास्ते पर चलने के लिए तैयार होना ही एक उपाय है. रास्ता बनाने की ज़िम्मेदारी जिन पर है उनको भारतीय एकता की एक कहीं अधिक जीवित और स्पंदित परिकल्पना करनी होगी. छत्र के नीचे एक भारत की कल्पना जिसमें न यह भय रहता है कि केन्द्र में सिर्फ़ अंग्रेज़ी या हिन्दी रहने से ही एकता सम्भव है, न यह भ्रम कि दोनो रहने से अंग्रेज़ी जायेगी. आज भाषा के अन्दर के उस खोखल को जो पुजारियों ने उसका ढोल बजाने के लिए किया था, अस्वीकार करने वाली शक्तियाँ उदित हो रहीं हैं. शब्द में सत्य की अवधारण करने के लिए भाषा ने कोई दीप नैवद्य नहीं बरता, उसने असत्य को तोड़ा और वहीं सत्य स्थापित हुआ. 14 भाषाओं के एकत्र इस्तेमाल से देश की एकता टूटेगी इस असत्य को हम तोड़ें तो वास्तविक एकता का सत्य स्थापित होता है. इस सत्य में कोई शास्त्रीयता नहीं है. जीवन की शक्तियों के परस्पर टकराव से एक या दो या तीन बहुमान्य रास्ते निकालना ही इस सत्य की खोज है. भाषाओं की आंतरिक एकता, शब्दों की समानता और संस्कृतियों की समान धर्मिता के बहुत गुणगान करने वाले अंग्रेज़ी समर्थकों को संविधान सम्मत भाषाओं के टकराव से घबराना नहीं चाहिये. यदि प्रत्येक प्रदेश में ऊपर से नीचे तक मातृभाषा और केन्द्र में सभी भाषाओं के इस्तेमाल की व्यवस्था तुरंत की जाये तभी पिछले वर्षों से स्वार्थी नेताओं के हाथों नष्ट हुई राष्ट्रीयता आज सही रास्ते पर चल कर अपनी भारतीयता खोज सकती है, अन्यथा वह अंग्रेज़ी की खिड़की खोल कर बाहर का विश्वदृश्य निहारती रहेगी और भीतर भाषायिक भुखमरी और "श्टारवेशन डेथ" में अर्थभेद करते रहेंगे और शब्दकोश की पूजा होती रहेगी. जो लोग भाषा को मथ कर, कूट कर उसमें से बरतने योग्य कुछ गढ़ते रहे हैं, वे लोग ही आज मातृभाषाओं के इस्तेमाल का मामला आगे बढ़ा सकते हैं. उनकी छटपटाती हुई लड़ाई का यह आखिरी दौर होगा.

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सोमवार, जून 22, 2009

अतीत का मूल्यांकन

"आप मेरे साथ क्यों चल रहे हैं?" मां ने अचानक मुझसे पूछा. बात कम ही करतीं हैं आजकल माँ, और जब करती भी हैं तो इस तरह कि बात अधिकतर समझ नहीं आती. एक तो उनकी आवाज़ इतनी धीमी हो गयी है कि समझने के लिए बहुत ध्यान से सुनना पड़ता है. उस पर से उनके शब्द गड़मड़ हो गये हैं, पुरानी ऊन के गोले की तरह, एक दूसरे से चिपटे हुए, कहना कुछ चाहती हैं, पर मुख से कुछ और ही निकलता है और वह भी अधूरा.

"मां, आप का बेटा हूँ तो आप के ही साथ चलूँगा, और किसी की मां के साथ तो नहीं जा सकता?", मैंने कहा तो उन्होंने उत्तर नहीं दिया पर लगा कि वह कुछ अश्वस्त हो गयीं हों.

हम लोग जहाँ रहते हैं वहीं कम्पाऊँड में सैर कर रहे थे. घर के आसपास की सैर या फ़िर सब्ज़ी खरीदने के अलावा घर से बाहर नहीं निकलता, और अगर कोई मिलने वाला मित्र या रिश्तेदार न हो, तो सब समय पढ़ने में ही गुज़रता है. शायद इसी लिए अपने परिवार के अतीत से जुड़ी बातें अक्सर मन में आ जाती हैं, जिनके बारे में अक्सर सोचता रहता हूँ. चूँकि कोई अन्य नहीं जिनसे बात कर सकूँ, बहुत से प्रश्न और उत्तर मन में अपने आप उठ कर, अपने आप ही शांत हो जाते हैं.

सोचता हूँ कि मानव कैसा बना है कि उसे लगता है कि उसका जीवन का कुछ महत्व है. वह सोचता है कि जो वह लिखता है, जो वह सोचता है, उस सबका कुछ महत्व है. पर वही मानव अगर रुक कर सोचे तो पायेगा कि पृथ्वी पर जीवन के विकास के इतिहास में उसका स्थान कितना छोटा सा है, और एक किसी मानव के जीवन का, उसके सोचने और लिखने का, उसके जीवन का प्रभाव अगर समय की लम्बी दृष्टि से देखा जाये तो नगण्य से भी छोटा होगा. लेकिन फिर भी आज के युग में अखबार, टीवी, रेडियो, पत्रिकाँए, आदि छोटी छोटी बातों को ले कर इस तरह सारा दिन बार बार दौहराती रहती हैं, मानो जग हिला देने वाली घटना हुई हो. लेकिन इन सबको स्वयं भी अपने इस झूठ मूठ के गढ़े जाने वाले इतिहास पर विश्वास नहीं, इसीलिए अगले दिन उन जग हिला देने वाली घटनाओं को भूल कर, किसी अन्य बात पर उसी तरह का तूफ़ान गढ़ने में जुट जातीं हैं. रुक कर, सोच कर, समझ कर कुछ भी कहने सुनने की बात नहीं होती, या बहुत कम होती है.

पैसा, बेचना, कमाना, आदि ही आज के जीवन के सर्वव्यापी गुण हैं, और इस बाज़ार युग में रुक कर, सोच समझ कर की जाने वाली बात को सुनने का समय भी किसी के पास नहीं है.
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सोच रहा था कि इतिहास कैसे बनता है? पिछले कुछ दशकों में, पहले पत्रों, किताबों और पत्रिकाओं के जनाकरण से, और फ़िर तस्वीरों, चलचित्रों से, और अब, इंटरनेट के माध्यम से, करोड़ों लोग अपने स्वर उठा सकते हैं, इतिहास के बारे में अपनी बात के निशान छोड़ सकते हैं. इतने स्वर उठने का तो मानव इतिहास में पहले कभी अवसर नहीं मिला था? पहले तो बड़े बड़े राजा महाराजा ही, अपनी बातों को जीवनी लिखने वाले, राज कवियों और प्रशस्ति गायकों के माध्यम से कह पाते थे. तो क्या आज का जो इतिहास बनेगा वह पहले लिखे जाने वाले इतिहास से भिन्न होगा, और किस तरह भिन्न होगा?

किसी दुर्घटना की गवाहियाँ सुने तो समझ आता है कि "आँखों देखा" भी देखने वाले कि दृष्टि के अनुसार भिन्न हो सकता है, तो लाखों करोड़ों दृष्टियों से देखे इतिहास में भी तो करोड़ों भिन्नताँए ही होगी. बात फ़िर घूम कर वहीं आ जाती है कि अंत में, समय के साथ लोग अपनी छोटी छोटी बातों को भूल जायेंगे और माना जाने वाला इतिहास इस पर निर्भर करेगा कि इतिहासकार ने किसकी आवाज़ों को विश्वासनीय माना और किन बातों की नींव पर अपने इतिहास का ताना बाना बुना.

पिछले दिनों जनसत्ता अखबार में श्री अपूर्वानंद का लेख, "जेपी आंदोलन की भूल" को पढ़ा तो यही अलग अलग इतिहास वाली बात मन में आयी. इस आलेख में उनका आरोप है कि उन्नीस सौ सत्तर के दशक में होने वाले जयप्रकाश नारायण के जन आंदोलन ने सांप्रदायिक दलों, जनसंघ तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, को राजनीतिक मान्यता दिलाने का काम किया. अपनी इस बात के समर्थन में वह पत्रकार फैसल अनुराग तथा कवि नागार्जुन के उदाहरण देते हैं.

जनसत्ता अखबार में ही, इसी आरोप का कुछ कुछ खँडन किया है, दो हिस्सों में छपे प्रभाष जोशी के लेख, "जो जेपी को नहीं जानते" एवं "लोकतंत्र अपना कर पचाता है" ने, जोकि जयप्रकाश नारायण के जन आंदोलन के शुरु के इतिहास यानि गुजरात और बिहार छात्र आंदोलनों की बात को विस्तार से बताते हैं कि प्रारम्भ में इन आंदोलनो में राजनीतिक दल शामिल नहीं थे. लेकिन लेख के अंत में वह इस बात को मानते लगते हैं कि जेपी आंदोलन ने जनसंघ तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को राजनीतिक मान्यता दी, जिसे वह उचित भी बताते हैं -

"संघ परिवार और उसकी विचारधारा को अछूत और संवाद के लायक न मान कर आप समाप्त नहीं कर सकते. वे भारत की एक सामाजिक राजनीतिक ताकत हैं जिनकी अनदेखी करके आप उनसे नहीं निपट सकते. उनसे संवाद और बरताव करके ही आप उनका निकाल कर सकते हैं. जेपी ने उन्हें अपने आंदोलन में साथ ले कर यही कोशिश की. सही है कि उस आंदोलन से संघ तथा भाजपा अपने राजनीतिक जीवन में ज्यादा वैध और मान्य हुए. लेकिन लोकतंत्र में किसी को भी ठीक करने का यही तरीका है."

पापा भी जेपी आंदोलन से जुड़े थे, उस समय मैं मेडिकल कोलिज में पढ़ता था. तब मुझे न राजनीतिक बातों में दिलचस्पी थी, न ही छात्र आंदोलन में जुड़े गुजरात और बिहार के अपने हमउम्र छात्रों की बातों की कोई जानकारी थी. घर पर आये पिता के मित्रों सहयोगियों से बात, नमस्कार, कैसे हैं, आदि की औपचारिकता तक ही रुक जाती थी. 1975 में दिल्ली के बोट क्लब में हुई जेपी की रैली और, रामलीला मैदान में जेपी के साथ विभिन्न पार्टियों की सभा में भी गया था, पर इन बातों से जुड़े मुद्दों की अधिक समझ नहीं थी और न ही अधिक जानने समझने की जिज्ञासा ही थी. इसलिए यह बात नहीं कि इस बहस में मैं अपनी किसी विषेश जानकारी से कोई नयी बात जोड़ सकता हूँ.

कुछ समय पहले इस समय के बारे में रामनाथ गुहा की किताब "इंडिया आफ्टर गाँधी" (India after Gandhi) में पढ़ा था, जिसमें जेपी के आंदोलन की विभिन्न दृष्टिकोण से विश्लेषण किया गया था. जो पढ़ा था वह सब याद नहीं पर एक बात अवश्य याद रही कि कुछ लोगों का कहना था कि जनतंत्र में चुनाव में बनी सरकार के विरुद्ध इस तरह आंदोलन चलाना, जनतंत्र पर ही प्रहार था और इसलिए गलत था.

मैं प्रभाष जोशी से सहमत हूँ. यानि मेरे विचार में जब बने हुए सामाजिक तानेबाने को तोड़ने वाली बात निकलती है, चाहे वे जन अभियान हों या आम लोगों का मनमुग्ध कर अपने विचारों के साथ लेने वाले नवनेता, तो जनतंत्र में उन्हें शामिल होने का मौका देने के अलावा उससे अच्छा कोई रास्ता नहीं. मुझे लगता है कि यह नयी शक्ति चाहे हिंसा, चाहे सांप्रयदायिकता जैसी नीतियों की वजह से अवाँछनीय हो, पर उसे कुचलना या बैन करना या हिंसा से दबाने से बात नहीं बनती. चाहे वे नेपाल के माओवादी हों या आयरलैंड के धर्म गृह युद्ध में लगे गुरिल्ला, लोकतंत्र में शामिल होना ही रास्ता है जो इन शक्तियों के नुकीले कोने घिस कर उनके क्रोध व हिंसा को काबू में करता है, ताकि वे अपने दलों के पीछे आने वाले जनसमूह को उसके अधिकार दिला सकें. कभी कभी वही लोकतंत्र, हिटलर या तालिबान जैसी शक्तियों को मौका देता भी देता है कि वह शासन में आ कर लोकतंत्र को ही तानाशाही में बदल देते हैं, इसलिए कुछ लोग कह सकते हैं कि लोकतंत्र इन शक्तियों के लिए वाँछित नहीं, लेकिन मुझे लगता है कि सब डरों के बावजूद भी, लोकतंत्र में सबको शामिल होने का मौका देने के अन्य विकल्प नहीं हैं. यह तो केवल भविष्य ही बता सकता है कि वह ठीक निर्णय था या नहीं.

अगर मुझसे मेरी सोच के बारे में पूछा जाये तो स्वयं को बहुत सी बातों में वामपंथ विचारधारा के करीब पाता हूँ, पर अक्सर मुझे लगता है कि अपनी बात कहने का अधिकार, नापसंद बात का विरोध करना का अधिकार, जैसी बातें जो वामपंथी विचारक अपने आप के लिए तो ठीक समझते हैं, पर वे यही अधिकार अपने कुछ विरोधियों को उस तरह से नहीं देना चाहते. या फ़िर, हर बात को केवल आईडिओलोजी के माध्यम से ही देखते हैं और जो बात उस आडिओलोजी के विरुद्ध हो, उसे समझने की कोशिश नहीं करते. लेकिन अगर बात विचारकों की नहीं बल्कि राजनीतिक दलों की हो, तो आज भाजपा, वामपंथी दल, काँग्रेस जैसे राजनीतिक दलों में मुझे अधिक अंतर नहीं दिखता. भाजपा के मोदी या वरुण गाँधी जैसे लोगों की बात न की जाये, तो भाजपा की राजनीतिक सोच अन्य दलों से किस तरह भिन्न है यह भेद जल्दी समझ नहीं आता. नंदीग्राम और तस्लीमा नजरीन के मामले में कट्टरपंथियों के आगे सिर झुकाने की नीतियों में बंगाल की वामपंथी सरकार किस तरह अन्य पार्टियों से भिन्न है, यह भी मुझे समझ नहीं आता. तो भाजपा को राजनीतिक मान्यता मिलना क्या गलत निर्णय था?

दूसरी बात है कि क्या लोकतंत्र में तरीके से चुनी सरकार के विरुद्ध क्या जयप्रकाश नाराणय का क्राँती की बात करना जायज था? यह कहना कि लोकतंत्र में क्राँती की बात करना या चुनाव से बनी सरकार को जन अभियान से हटाने की कोशिश करना हमेशा गलत है, यह मैं नहीं मानता, विषेशकर जब बात अहिंसक जनक्राँती की है. जैसे कि अगर लोकतांत्रिक तरीके से चुनी सरकार, राजनीति को एक पार्टी राज्य या तानाशाही की ओर ले जाये, तो मैं अहिंसक जनक्राँती के पक्ष में हूँ. चुनी सरकार अगर हिटलर की यहूदी संहार और उपनिवेशी नीतियाँ अपना रही हो या कास्ट्रो की तरह, अभिव्यक्ति और स्वतंत्रता को बाँधने की नीतियाँ बनाये, तो क्या विरोध करना उचित नहीं होगा? हां, इस बात पर बहस हो सकती है कि क्या उन्नीस सौ सत्तर के दशक के प्रारम्भ में इंदिरा गाँधी की सरकार की नीतियाँ लोकतंत्र के लिए इतनी खतरनाक थीं कि उनके विरुद्ध जन आंदोलन चलाया जाये?

अभी हाल ही में हुए चुनावों के नतीजों पर सभी लेखक, पत्रकार और विचारक इस तरह प्रसन्न हो कर काँग्रेस के गुणगानों में मस्त लगते हैं कि आज यह समझना कि कभी कोई इसी काँग्रेस के शासन के विरुद्ध जनक्राँती लाने की बात करता था, समझ नहीं आयेगी. दूसरी ओर, भाजपा के अंदरूनी झगड़ों से और वामपंथियों की हार से सभी राजनीतिक विषेशज्ञ इसे इन पार्टियों के अवसान या सरज डूबने जैसा बुला रहे हैं. कल फ़िर, यही विषेशज्ञ काँग्रेस की व्यवसायिक, कृषि, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों में अतिउदारवाद और निजिवाद की नीतियों का रोना रोयेंगे और भाजपा या वामपंथियों की जीत की बात करेंगे, यानि कालचक्र चलता रहेगा.

और आज से पचास साल बाद या सौ साल बाद का इतिहास, इस समय को किस तरह से देखेगा, यह सोचना चाह कर भी नहीं सोच पाता. जाने उस समय के भारतीय बच्चों को नेहरु, पटेल, इंदिरा गाँधी, मनमोहन सिंह, जैसे नाम मालूम भी होंगे या नहीं? पृथ्वी पर जीवन का विकास डार्विन के ईवोल्यूशन के सिद्धांत के प्रभाव से पनपता बढ़ता है. सोचता हूँ कि यही सिद्धांत जनजीवन और सामाजिक विकास पर भी तो लागू होता होगा? जिस तरह, देश बने हैं, सीमांए बनी हैं, लोकतंत्र जैसी पद्धतियाँ विकसित हुई हैं, कल क्या नया बनेगा? आज के लाखों करोड़ों लोग जो विषमताओं के बोझ से दबे हैं, जिनके पास रहने, सोने, खाने को नहीं, उनकी आकांक्षांए से सिंचा कल का राजनीतिक स्वरूप कैसा होगा? यह नहीं सोच पाता. इतिहास ही बतायेगा कि आज होने वाली में से कौन सी बात इतिहास का नया पृष्ठ खोलेगी और मानवता को नया रूप देगी.

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