माता पिता अपने बच्चे का मल मूत्र साफ करते हैं, मल मूत्र से गंदे वस्त्र धोते हैं, इसमे उनका मान नहीं जाता. डाक्टर या नर्स आपरेश्न हुए मरीज का मल मूत्र साफ करते हैं, छूते हैं या उसकी जांच करते हैं, इसमे उनका भी मान नहीं जाता. फिर घर में पाखाना साफ करने वाले को ही क्यों समाज में सबसे नीचा देखा जाता है? शायद इस लिए कि यही उसकी पहचान बन जाती है या फिर इस लिए कि बात सिर्फ सफाई की नहीं, उस मल मूत्र को सिर पर टोकरी में उठा कर ले जाने की भी है? क्या हमारे शहरों में ऐसा आज भी कोई करने को बाध्य है?
ऐसी ही कुछ बात है रिक्शे में बैठ कर जाने की. तीन पहिये वाले रिक्शे से कम बुरा लगता है पर कलकत्ते के दो पहियों वाले रिक्शे जिसे भागता हुआ आदमी खींचे, उस पर बैठना मुझे मानव मान के विरुद्ध लगता है. आज जब साईकल का आविश्कार हुए दो सौ साल हो गये, क्यों बनाते हैं हम यह दो पहियों वाले रिक्शे? क्या बात केवल बनाने के खर्च की है?
शायद यही बात आयी थी कलकत्ता के मुख्यमंत्री बुद्धदेब भट्टाचार्य के मन में तभी उन्होंने आदेश दिया है कि यह रिक्शे कलकत्ते की सड़कों से हटा दिये जायें. इस बात पर जर्मन पत्रकार क्रिस्टोफ हाइन ने फ्रेंकफर्टर आलगेमाइन अखबार में एक लेख लिखा है. उन्होंने रिक्शा चलाने वाले के जीवन पर शोध किया है और वह कहते हैं कि इससे हजारों गरीब लोगों का जीने का सहारा चला जायेगा.
वह कहते हैं कि कलकत्ता में ६००० रजिस्टर्ड रिक्शे हैं, पर बहुत सारे रिक्शे रजिस्टर नहीं हैं और कुल संख्या करीब २०,००० के करीब है. इसे आठ घंटे की शिफ्ट के लिए रिक्शा चलाने वाला २० रुपये में किराये पर लेता है. दिन रात चलते हैं और २४ घंटों में तीन शिफ्टों में इन रिक्शों को ६०,००० आदमी चलाते हैं. बिहार से आये ये लोग दिन में सौ रुपये तक कमा लेते हैं जिसमें से हर माह करीब २००० रुपये गांव में परिवारों को भेजे जाते हैं. यह सब लोग कहां जायेंगे? क्या करेंगे?
किस लिए इन रिक्शों को हटाने का फैसला किया कलकत्ता सरकार ने? हाइन का कहना है कि रिक्शे मुख्य सड़कों पर नहीं चलते, छोटी सड़कों और गलियों में चलते हैं जहाँ पहूँचने का कोई और जनमाध्यम नहीं है, इसलिए यह कहना कि इनसे यातायात को रुकावट होती है, ठीक नहीं है.
पर शायद इस सरकारी फैसले को लागू करना आसान नहीं होगा. हाइन का कहना है कि ८० प्रतिशत रिक्शों के मालिक कलकत्ता के पुलिस विभाग के कर्मचारी हैं, जो इस फैसले से खुश नहीं हैं. शायद यही हो, तो भट्टाचार्य जी मैं कहूंगा सब रिक्शों को सरकारी ऋण दिला दीजिये जिससे वे तीसरा पहिया लगवा लें. भारत इतनी तरक्की कर रहा है और सुपरपावर बनने के सपने देख रहा है, घोड़े या गधे की तरह रिक्शा खींचने वाले लोगों को भी स्वयं को मानव महसूस करने का सम्मान दीजिये.
रविवार, नवंबर 06, 2005
शनिवार, नवंबर 05, 2005
कब के बिछुड़े
आज सुबह ईमेल में फ्राँस से मैरी क्रिस्टीन का एक संदेश पाया. उसका भाई जाक्क २१ साल के बाद अपने पिता से मिलने आया. मैरी क्रिस्टीन मेरी पत्र मित्र (pen friend) है, १९६८ से, और अब मित्र से अधिक बहन जैसी है. जब उसने बताया था कि उसका भाई छोटी सी बात पर माँ से झगड़ा करके नाराज हो कर घर छोड़ कर चला गया है, तो थोड़ा दुख हुआ था पर यह नहीं सोचा था कि कोई अपने परिवार को छोड़ कर बिल्कुल भूल सकता है.
समय के साथ हमारा चिट्ठी लिखना कुछ कम हो गया पर फिर भी बीच बीच में हमारी बात होती रहती. "जाक्क?" हर बार मैं पूछता. "उसने शादी करली, हमारे घर से किसी को नहीं बुलाया." "माँ की तबियत बहुत खराब है, उसे लिखा है पर उसने कुछ जवाब नहीं दिया." "पापा का ओपरेश्न हुआ है पर जाक्क नहीं आया." ऐसे २१ साल बीत गये. इस बीच, मैरी क्रिस्टीन और छोटे भाई जां मैरी के विवाह हुए, तलाक हुए, दूसरे विवाह हुए, बड़ी बहन की दुर्घटना में टांग चली गयी, मां की मृत्यु हुई, पर जाक्क नहीं आया, न टेलीफोन किया, न चिट्ठी लिखी.
इतना गुस्सा कोई कैसे कर सकता है अपने मां बाप, भाई बहनों से, मेरी समझ से बाहर है. और अब मां की मृत्यु के चार साल बाद, अचानक क्या हो गया कि जाक्क वापस घर आया?
***
शायद यहाँ के सोचने का ढ़ंग ही हमारे सोचने से अलग है? मारियो मेरा मित्र है, जब उसका पहला बेटा पैदा हुआ तो उसकी मां भी दक्षिण इटली से यहां आयीं, और तब वह मारियो की पत्नी आन्ना के माता पिता से पहली बार मिलीं. जब उन्होंने मुझे यह बताया तो मैं हैरान रह गया. "क्यों, जब तुम्हारी शादी हुई थी, तब नहीं मिली थी?" मैंने मारियो से पूछा. "नहीं हमने अपनी शादी में अपने माता पिता को नहीं बुलाया था, न मैंने, न आन्ना ने."
उनके इस व्यवहार के पीछे कोई झगड़ा या परेशानी नहीं, बस उनका सोचना था कि यह उनका जीवन है और वह अपने फैसले अपनी मरजी से करते हैं, इसमें परिवार को नहीं मिलाना चाहते.
मैं सोचता हूँ कि भारत में हमारा सोचने का ढ़ंग अलग है, पर क्या भारत भी बदल रहा है, क्या वहां भी ऐसी व्यक्तिगत संस्कृति आ सकती है, जिसमें सिर्फ, मैं-मेरा-मुझे सबसे ऊपर हों?
***
आज दो तस्वीरें दक्षिण अफ्रीका से.
समय के साथ हमारा चिट्ठी लिखना कुछ कम हो गया पर फिर भी बीच बीच में हमारी बात होती रहती. "जाक्क?" हर बार मैं पूछता. "उसने शादी करली, हमारे घर से किसी को नहीं बुलाया." "माँ की तबियत बहुत खराब है, उसे लिखा है पर उसने कुछ जवाब नहीं दिया." "पापा का ओपरेश्न हुआ है पर जाक्क नहीं आया." ऐसे २१ साल बीत गये. इस बीच, मैरी क्रिस्टीन और छोटे भाई जां मैरी के विवाह हुए, तलाक हुए, दूसरे विवाह हुए, बड़ी बहन की दुर्घटना में टांग चली गयी, मां की मृत्यु हुई, पर जाक्क नहीं आया, न टेलीफोन किया, न चिट्ठी लिखी.
इतना गुस्सा कोई कैसे कर सकता है अपने मां बाप, भाई बहनों से, मेरी समझ से बाहर है. और अब मां की मृत्यु के चार साल बाद, अचानक क्या हो गया कि जाक्क वापस घर आया?
***
शायद यहाँ के सोचने का ढ़ंग ही हमारे सोचने से अलग है? मारियो मेरा मित्र है, जब उसका पहला बेटा पैदा हुआ तो उसकी मां भी दक्षिण इटली से यहां आयीं, और तब वह मारियो की पत्नी आन्ना के माता पिता से पहली बार मिलीं. जब उन्होंने मुझे यह बताया तो मैं हैरान रह गया. "क्यों, जब तुम्हारी शादी हुई थी, तब नहीं मिली थी?" मैंने मारियो से पूछा. "नहीं हमने अपनी शादी में अपने माता पिता को नहीं बुलाया था, न मैंने, न आन्ना ने."
उनके इस व्यवहार के पीछे कोई झगड़ा या परेशानी नहीं, बस उनका सोचना था कि यह उनका जीवन है और वह अपने फैसले अपनी मरजी से करते हैं, इसमें परिवार को नहीं मिलाना चाहते.
मैं सोचता हूँ कि भारत में हमारा सोचने का ढ़ंग अलग है, पर क्या भारत भी बदल रहा है, क्या वहां भी ऐसी व्यक्तिगत संस्कृति आ सकती है, जिसमें सिर्फ, मैं-मेरा-मुझे सबसे ऊपर हों?
***
आज दो तस्वीरें दक्षिण अफ्रीका से.
शुक्रवार, नवंबर 04, 2005
गर्म चाय और ताजा अखबार
सुबह सुबह गर्म चाय का प्याला और सुबह का ताजा अखबार, अभी भी सोच कर मजा आ जाता है. बिस्तर में लेट या बैठ कर, प्याले को सम्भालने की कोशिश करते हुए अखबार पढ़ना तो अब केवल भारत यात्रा में ही होता है. शुरु से रोज अखबार पढ़ने की आदत थी. पर अब सब कुछ बदल गया है. बहुत सालों से अखबार कम ही पढ़ता हूँ.
इतना कुछ हो पढ़ने के लिए कि आप जितनी भी कोशिश कीजिये, उसे कभी नहीं पढ़ पायेंगे, इस बात ने शायद मेरी पढ़ने की इच्छा को दबा दिया है ? सबसे पहला धक्का मुझे इटली की अखबारों से लगा. रोज़ ५० या ६० पन्नों की अखबार को शुरु से आखिर तक पढ़ने के लिए कम से कम दो घंटे चाहिये. कई बार कोशिश की पर पूरी अखबार तो बहुत कम बार पढ़ पाया और अखबारें पढ़े जाने के इंतजार में मेरी मेज पर ढ़ेर सी इक्ट्ठी होती जातीं. अंत में निराश हो कर अखबार खरीदना ही बंद कर दिया. अब तो बस इंटरनेट पर मुख्य समाचार पढ़ता हूँ और अखबार तभी खरीदी जाती है जब कोई विषेश बात हो, वो भी केवल रविवार को.
दूसरा धक्का लगा इस बात से कि यहां अखबार आप के घर पर ला कर छोड़ने वाला कोई नहीं है. जब नहा धो कर काम के लिए निकलये तो रास्ते में अखबार भी खरीद लीजिये, पर उसे पढ़ें कब ? रात को सोने से पहले ? या फिर ऐसा काम ढ़ूंढ़िये जिसमे अखबार पढ़ने का समय हो! क्या कोई बेरोजगार घर पर अखबार देने के काम को नहीं अपना सकता? हालांकि यहां चाय नहीं छोटे से प्याले में काफी पीने का रिवाज है जो एक घूँट में ही खत्म हो जाती है, इसलिए बिस्तर में अखबार और चाय वाला मजा तो नहीं होगा, पर फिर भी कोशिश करने में क्या बुरा है!
तीसरी बात कि यहां पत्रकारों को भी सब त्योहारों पर छुट्टियां चाहिये इसलिए सोमवार को यहां अखबार नहीं निकलता. और अगर दो तीन छुट्टियां साथ आ जायें तो अखबार आप को उनमें से केवल पहले दिन ही मिलेगा. यानि जब आप के पास पढ़ने का समय है तो अखबार ही नहीं. पिछले कुछ महीनों से जैसे लंदन में मेट्रो स्टेश्नों पर सुबह मुफ्त छोटा सा अखबार मिलता है, वैसे ही अखबार यहां भी आने लगे हैं. थोड़े से पन्ने होते हैं, कुछ स्थानीय खबरें और बहुत से विज्ञापन. कभी कभी चौराहे पर उसे बाँट रहे होते हैं तो मैं भी ले लेता हूँ. अगर न भी पढ़ा जाये तो दुख कम होता है, क्योंकि मुफ्त में जो मिलता है.
पूरी अखबार पढ़ने के लिए रिटायर होने की प्रतीक्षा है, और गर्म चाय के साथ बिस्तर में बैठ कर अखबार पढ़ना तो केवल भारत यात्रा के दौरान ही होगा.
इतना कुछ हो पढ़ने के लिए कि आप जितनी भी कोशिश कीजिये, उसे कभी नहीं पढ़ पायेंगे, इस बात ने शायद मेरी पढ़ने की इच्छा को दबा दिया है ? सबसे पहला धक्का मुझे इटली की अखबारों से लगा. रोज़ ५० या ६० पन्नों की अखबार को शुरु से आखिर तक पढ़ने के लिए कम से कम दो घंटे चाहिये. कई बार कोशिश की पर पूरी अखबार तो बहुत कम बार पढ़ पाया और अखबारें पढ़े जाने के इंतजार में मेरी मेज पर ढ़ेर सी इक्ट्ठी होती जातीं. अंत में निराश हो कर अखबार खरीदना ही बंद कर दिया. अब तो बस इंटरनेट पर मुख्य समाचार पढ़ता हूँ और अखबार तभी खरीदी जाती है जब कोई विषेश बात हो, वो भी केवल रविवार को.
दूसरा धक्का लगा इस बात से कि यहां अखबार आप के घर पर ला कर छोड़ने वाला कोई नहीं है. जब नहा धो कर काम के लिए निकलये तो रास्ते में अखबार भी खरीद लीजिये, पर उसे पढ़ें कब ? रात को सोने से पहले ? या फिर ऐसा काम ढ़ूंढ़िये जिसमे अखबार पढ़ने का समय हो! क्या कोई बेरोजगार घर पर अखबार देने के काम को नहीं अपना सकता? हालांकि यहां चाय नहीं छोटे से प्याले में काफी पीने का रिवाज है जो एक घूँट में ही खत्म हो जाती है, इसलिए बिस्तर में अखबार और चाय वाला मजा तो नहीं होगा, पर फिर भी कोशिश करने में क्या बुरा है!
तीसरी बात कि यहां पत्रकारों को भी सब त्योहारों पर छुट्टियां चाहिये इसलिए सोमवार को यहां अखबार नहीं निकलता. और अगर दो तीन छुट्टियां साथ आ जायें तो अखबार आप को उनमें से केवल पहले दिन ही मिलेगा. यानि जब आप के पास पढ़ने का समय है तो अखबार ही नहीं. पिछले कुछ महीनों से जैसे लंदन में मेट्रो स्टेश्नों पर सुबह मुफ्त छोटा सा अखबार मिलता है, वैसे ही अखबार यहां भी आने लगे हैं. थोड़े से पन्ने होते हैं, कुछ स्थानीय खबरें और बहुत से विज्ञापन. कभी कभी चौराहे पर उसे बाँट रहे होते हैं तो मैं भी ले लेता हूँ. अगर न भी पढ़ा जाये तो दुख कम होता है, क्योंकि मुफ्त में जो मिलता है.
पूरी अखबार पढ़ने के लिए रिटायर होने की प्रतीक्षा है, और गर्म चाय के साथ बिस्तर में बैठ कर अखबार पढ़ना तो केवल भारत यात्रा के दौरान ही होगा.
गुरुवार, नवंबर 03, 2005
कबूतरों की उड़ान
रस्किन बोंड के उपन्यास "कबूतरों की उड़ान" (Flight of pigeons) पर शशि कपूर ने फिल्म बनायी थी "जनून". फिल्म में स्वयं शशि कपूर बने थे लखनऊ के खानदानी रईस जिसे कबूतरबाजी का शौक था. कबूतर पालने वाले गुरु रखना, दबड़े में कबूतर पालना, और शाम को छत पर अन्य रईसों के साथ कबूतर उड़ाने की हौड़ लगाना, बस यही शौक थे उनके. फिल्म का वह दृष्य जिसमें अंग्रेजों से हारा, गुस्से से भरा रईस का भाई (नसीरुद्दीन शाह), अपनी तलबार से कबूतरों के दबड़े तहस नहस कर देता है, बहुत अच्छा लगा था.
एक अन्य फिल्म थी खानदानी रईसों की, "साहिब बीबी और गुलाम". बिमल मित्र के उपन्यास पर बनी इस फिल्म में उन्नीसवीं शताब्दी के कलकत्ता के जीवन का वर्णन है. इस फिल्म के रईस भी अपनी कबूतरबाजी को बहुत गम्भीरता से लेते हैं. कबूतर उड़ाने की प्रतियोगिता में हारना या जीतना, उनके खानदान की इज्जत की बात है.
मेरे बचपन में, कुछ साल हम लोग पुरानी दिल्ली में ईदगाह के पास कब्रीस्तान के सामने बनी एक पुरानी हवेली में रहे. वहां एक छत से दूसरी छत पर जाना बहुत आसान था, और हम बच्चे मुहल्ले के विभिन्न घरों की छतों पर निडर घूमते थे. वहीं एक पड़ोसी घर की छत पर एक कबूतर खाना बना था जहाँ कबूतरबाजी की शौकीन रहते थे. सफेद, काले और चितकबरे, उनके कबूतर मुझे बहुत अच्छे लगते. पर उनकी छत पर नहीं जा सकते थे, उसे केवल दूर से देखते. कभी कभी, शाम को, वह हाथ में लम्बी डँडी लिए, च च च करके विषेश आवाज निकालते और सारे कबूतर हवा में उड़ जाते. नीचे से साहब डँडी को गोल घुमा कर आवाजें निकालते और आसमान में कबूतर, सिखाये हुए सिपाहियों की तरह, गोल चक्कर लगाते. कभी कभी कोई कबुतर थक कर हमारी छत पर आ कर बैठ जाता.
क्या आज कहीं कोई कबूतरबाजी करता होगा ? मुझे लगता है कि टेलीविजन, फिल्म और तेज रफ्तार से जाने वाली आज की जिन्दगी में किसी का पास इतना समय कहाँ कि कबूतर पाले और उन्हें उड़ाये. वह समय ही कुछ और था. आज किसी को कबूतर बाज कहना शायद गाली समझी जायेगी, रईसियत की निशानी नहीं.
आज की तस्वीरों का विषय है कबूतरः
एक अन्य फिल्म थी खानदानी रईसों की, "साहिब बीबी और गुलाम". बिमल मित्र के उपन्यास पर बनी इस फिल्म में उन्नीसवीं शताब्दी के कलकत्ता के जीवन का वर्णन है. इस फिल्म के रईस भी अपनी कबूतरबाजी को बहुत गम्भीरता से लेते हैं. कबूतर उड़ाने की प्रतियोगिता में हारना या जीतना, उनके खानदान की इज्जत की बात है.
मेरे बचपन में, कुछ साल हम लोग पुरानी दिल्ली में ईदगाह के पास कब्रीस्तान के सामने बनी एक पुरानी हवेली में रहे. वहां एक छत से दूसरी छत पर जाना बहुत आसान था, और हम बच्चे मुहल्ले के विभिन्न घरों की छतों पर निडर घूमते थे. वहीं एक पड़ोसी घर की छत पर एक कबूतर खाना बना था जहाँ कबूतरबाजी की शौकीन रहते थे. सफेद, काले और चितकबरे, उनके कबूतर मुझे बहुत अच्छे लगते. पर उनकी छत पर नहीं जा सकते थे, उसे केवल दूर से देखते. कभी कभी, शाम को, वह हाथ में लम्बी डँडी लिए, च च च करके विषेश आवाज निकालते और सारे कबूतर हवा में उड़ जाते. नीचे से साहब डँडी को गोल घुमा कर आवाजें निकालते और आसमान में कबूतर, सिखाये हुए सिपाहियों की तरह, गोल चक्कर लगाते. कभी कभी कोई कबुतर थक कर हमारी छत पर आ कर बैठ जाता.
क्या आज कहीं कोई कबूतरबाजी करता होगा ? मुझे लगता है कि टेलीविजन, फिल्म और तेज रफ्तार से जाने वाली आज की जिन्दगी में किसी का पास इतना समय कहाँ कि कबूतर पाले और उन्हें उड़ाये. वह समय ही कुछ और था. आज किसी को कबूतर बाज कहना शायद गाली समझी जायेगी, रईसियत की निशानी नहीं.
आज की तस्वीरों का विषय है कबूतरः
बुधवार, नवंबर 02, 2005
भीड़ में अकेले
प्रत्यक्षा जी की कविता और उससे जुड़ी हुई टिप्पड़ियों को पढ़ा तो अन्य लोगों के साथ रह कर भी कैसे अकेले रह जाते हैं, इसके बारे में सोच रहा था.
भीड़ में हमेशा अकेलापन लगे, यह बात नहीं. कभी कभी आस पास बैठे लोगों में किसी को न पहचानते हुए भी, महसूस होता है मानों हममें से हर एक किसी सागर की लहर है, जो एक दूसरे से अदृष्य धागे से बंधी हो, और साथ साथ उठ गिर रही हो. किसी अच्छे संगीत या नृत्य के कार्यक्रम में ऐसा लगा मुझे. ऐसे में कई बार जब कोई विषेश कला का प्रदर्शन हो तो स्वयं ही आँखे साथ में बैठे हुए लोगों से मिल कर, मुस्कान के साथ एक अपनापन बना देती हैं.
दूसरी ओर अपने जीवन साथी के साथ एक घर में, एक कमरे में रह कर, साथ खा, पी और सो कर भी दो लोग अकेले हो सकते हैं. इस अकेलेपन को फारमूला बातों से भर देते हैं वह, खुद को और औरों को यह दिखाने के लिए कि वे दोनो अकेले नहीं, साथ साथ हैं. आज खाने में क्या बनेगा ? मुन्नु पढ़ता नहीं है. बिजली का बिल भरना है. ऐसी बातें सूनापन भरने का धोखा दे सकतीं हैं. पर दोनों अपने मन में सचमुच क्या क्या सोच रहें हैं, न एक दूसरे से कह पाते हैं न सुन पाते हैं.
प्रेम के धरातल पर भी साथ जीवन शुरु करने वालों के बीच भी समय बीतने के साथ कभी कभी ऐसा हो सकता है. क्यों होता है, इसका कोई उत्तर नहीं है मेरे पास. आन्ना, मेरी पत्नी की सहेली, ने सात साल वित्तोरियो के साथ रह कर उससे विवाह किया, पर शादी के दो साल बाद दोनों ने अलग होने का फैसला किया. जब भी पत्नी कहती कि आन्ना के घर खाने पर जाना है या कि वह लोग हमारे यहाँ आ रहे हैं, तो जी करता कहीं और भाग जाऊँ. सारा समय दोनों एक दूसरे की इतनी कटुता से आलोचना करते थे, हर छोटी छोती बात पर, तुम ऐसी हो, तुमने वैसे किया, एक दूसरे को बातों की तलवारों की नोचते काटते थे, कि सोचता यह दोनों साथ किस लिए रहते हैं ? उन्हें देख कर लगता कि दोनो साथ रह कर अकेले तो थे ही, उस अकेलेपन को झगड़े से भरने की कोशिश कर रहे थे.
इसका यह अर्थ नहीं है कि जोड़ी के बीच आम जीवन की रोटी, खाने, बिजली, बच्चों आदि की बातें नहीं होनी चाहिये, वे तो होंगी ही, पर उनके अलावा भी कुछ हो तभी लगता है कि हम अकेले नहीं.
आज की तस्वीरें एक्वाडोर यात्रा सेः
भीड़ में हमेशा अकेलापन लगे, यह बात नहीं. कभी कभी आस पास बैठे लोगों में किसी को न पहचानते हुए भी, महसूस होता है मानों हममें से हर एक किसी सागर की लहर है, जो एक दूसरे से अदृष्य धागे से बंधी हो, और साथ साथ उठ गिर रही हो. किसी अच्छे संगीत या नृत्य के कार्यक्रम में ऐसा लगा मुझे. ऐसे में कई बार जब कोई विषेश कला का प्रदर्शन हो तो स्वयं ही आँखे साथ में बैठे हुए लोगों से मिल कर, मुस्कान के साथ एक अपनापन बना देती हैं.
दूसरी ओर अपने जीवन साथी के साथ एक घर में, एक कमरे में रह कर, साथ खा, पी और सो कर भी दो लोग अकेले हो सकते हैं. इस अकेलेपन को फारमूला बातों से भर देते हैं वह, खुद को और औरों को यह दिखाने के लिए कि वे दोनो अकेले नहीं, साथ साथ हैं. आज खाने में क्या बनेगा ? मुन्नु पढ़ता नहीं है. बिजली का बिल भरना है. ऐसी बातें सूनापन भरने का धोखा दे सकतीं हैं. पर दोनों अपने मन में सचमुच क्या क्या सोच रहें हैं, न एक दूसरे से कह पाते हैं न सुन पाते हैं.
प्रेम के धरातल पर भी साथ जीवन शुरु करने वालों के बीच भी समय बीतने के साथ कभी कभी ऐसा हो सकता है. क्यों होता है, इसका कोई उत्तर नहीं है मेरे पास. आन्ना, मेरी पत्नी की सहेली, ने सात साल वित्तोरियो के साथ रह कर उससे विवाह किया, पर शादी के दो साल बाद दोनों ने अलग होने का फैसला किया. जब भी पत्नी कहती कि आन्ना के घर खाने पर जाना है या कि वह लोग हमारे यहाँ आ रहे हैं, तो जी करता कहीं और भाग जाऊँ. सारा समय दोनों एक दूसरे की इतनी कटुता से आलोचना करते थे, हर छोटी छोती बात पर, तुम ऐसी हो, तुमने वैसे किया, एक दूसरे को बातों की तलवारों की नोचते काटते थे, कि सोचता यह दोनों साथ किस लिए रहते हैं ? उन्हें देख कर लगता कि दोनो साथ रह कर अकेले तो थे ही, उस अकेलेपन को झगड़े से भरने की कोशिश कर रहे थे.
इसका यह अर्थ नहीं है कि जोड़ी के बीच आम जीवन की रोटी, खाने, बिजली, बच्चों आदि की बातें नहीं होनी चाहिये, वे तो होंगी ही, पर उनके अलावा भी कुछ हो तभी लगता है कि हम अकेले नहीं.
आज की तस्वीरें एक्वाडोर यात्रा सेः
मंगलवार, नवंबर 01, 2005
बात निकली है तो
"आप के काम में सबसे कठिन बात आप को कौन सी लगती है?" होसे ने मारगा कारेरास से पूछा.
"लोगों की बाते सुनना. कितना बोलते हैं लोग, बस बोलते ही जाते हैं. बहुत से लोग तो काम के बाद, अतिरिक्त पैसे दे कर और भी बातें करना चाहते हैं. कितने दुख हैं दुनिया में और हमारे पास आने वालों में कई लोगों के जीवन नर्क समान होते हैं. अपने जीवन में अपनी ही परेशानियां क्या कम हैं, जो औरों की परेशानियां भी सुनें!" मारगा ने उत्तर दिया.
स्पेन की सप्ताहिक पत्रिका "एल पाइस" (देश) में यह साक्षात्कार छपा है. मारगा स्वयं को स्त्री, मां और यौन कर्मचारी कहती हैं और राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सड़कों पर अपने जैसे यौन कर्मचारियों के अधिकारों की सुरक्षा में सक्रिय हैं.
शायद हम ब्लोगियों को भी यही तकलीफ है, अपनी बात न कह पाने की. चिट्ठों के नाम देखिये तो यह बात तुरंत स्पष्ट हो जाती है - जो न कह सके, अनकही बातें, मुझे कुछ कहना है, अपनी बात, अपनी ढ़पली, अर्ज किया है, मेरी आवाज सुनो, कुछ बातें मेरे जीवन की, हृदयगाथा, खाली पीली, अहा! जिंदगी की बातें, कही अनकही, मेरी डायरी, संवदिया, रोजनामचा, मुझे कुछ कहना है, बस यूँ ही, मेरा पन्ना, इधर उधर की .... हर तरफ, हम ही खड़े हैं, छोटी बड़ी बातें सुनाने, बस कोई सुनने वाला चाहिये.
बात निकली है तो कुछ दूर तलक जायेगी..., जगजीत सिंह का यह गीत मुझे बहुत प्रिय था. और जब जीवन में दूर निकल आओ, तो बात किससे निकालो ?
"लोगों की बाते सुनना. कितना बोलते हैं लोग, बस बोलते ही जाते हैं. बहुत से लोग तो काम के बाद, अतिरिक्त पैसे दे कर और भी बातें करना चाहते हैं. कितने दुख हैं दुनिया में और हमारे पास आने वालों में कई लोगों के जीवन नर्क समान होते हैं. अपने जीवन में अपनी ही परेशानियां क्या कम हैं, जो औरों की परेशानियां भी सुनें!" मारगा ने उत्तर दिया.
स्पेन की सप्ताहिक पत्रिका "एल पाइस" (देश) में यह साक्षात्कार छपा है. मारगा स्वयं को स्त्री, मां और यौन कर्मचारी कहती हैं और राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सड़कों पर अपने जैसे यौन कर्मचारियों के अधिकारों की सुरक्षा में सक्रिय हैं.
शायद हम ब्लोगियों को भी यही तकलीफ है, अपनी बात न कह पाने की. चिट्ठों के नाम देखिये तो यह बात तुरंत स्पष्ट हो जाती है - जो न कह सके, अनकही बातें, मुझे कुछ कहना है, अपनी बात, अपनी ढ़पली, अर्ज किया है, मेरी आवाज सुनो, कुछ बातें मेरे जीवन की, हृदयगाथा, खाली पीली, अहा! जिंदगी की बातें, कही अनकही, मेरी डायरी, संवदिया, रोजनामचा, मुझे कुछ कहना है, बस यूँ ही, मेरा पन्ना, इधर उधर की .... हर तरफ, हम ही खड़े हैं, छोटी बड़ी बातें सुनाने, बस कोई सुनने वाला चाहिये.
बात निकली है तो कुछ दूर तलक जायेगी..., जगजीत सिंह का यह गीत मुझे बहुत प्रिय था. और जब जीवन में दूर निकल आओ, तो बात किससे निकालो ?
सोमवार, अक्टूबर 31, 2005
अनोखा शब्दकोष
कुछ सप्ताह पहले मैंने हिंदी के ऐसे शब्दों के बारे में लिखा था जिनका अंग्रेजी में अनुवाद करना सरल नहीं है. इसी विषय पर एक नयी पुस्तक लिखी है आदम जोआको दे बोआनो (Adam Jacot de Boinod) ने, The meaning of Tingo (टिंगो का अर्थ), जिसमें दुनिया कि विभिन्न भाषाओं से ऐसे शब्द ढ़ूढ़े हैं जिनका अनुवाद एक शब्द में नहीं हो सकता. इस पुस्तक से कुछ नमूने पस्तुत हैं:
पानापोओ (हवाई भाषा) का अर्थ है किसी भूली हुई बात को याद करते हुए सिर खुजलाना
माताएगो (पास्क्वा द्वीप) का अर्थ है लाल सूजी आँखें जिनसे साफ पता चले कि थोड़ी देर पहले रोये हैं
करेलू (तुलू जाति) यानि शरीर के किसी भाग पर तंग कपड़े द्वारा छोड़ा गया निशान
बक्कूशान (जापानी) यानि ऐसी युवती जो पीछे से सुंदर लगे पर सामने से सुंदर न हो
इक्तसुआरपोक (साईबेरियन), किसी आनेवाला का इंतजार करते समय बार बार टैंट से बाहर जा कर देखना
टोर्शलुस्सपानिक (जर्मन), बूढ़े होने के साथ सम्भावनाँऐ और मौके कम मिलने का डर
फाआमिति (समोआ द्वीप) बच्चे या कुत्ते का ध्यान खींचने के लिऐ हौंठ सिकोड़ कर आवाज करना
आज की तस्वीरे हें, १. मध्यपूर्व इटली के समुद्र के किनारे बसे शहर मोंतेसिलवानो २. दक्षिण अफ्रीका के दक्षिणी कोने पर समुद्र तट पर बसे शहर केप टाऊन से.
पानापोओ (हवाई भाषा) का अर्थ है किसी भूली हुई बात को याद करते हुए सिर खुजलाना
माताएगो (पास्क्वा द्वीप) का अर्थ है लाल सूजी आँखें जिनसे साफ पता चले कि थोड़ी देर पहले रोये हैं
करेलू (तुलू जाति) यानि शरीर के किसी भाग पर तंग कपड़े द्वारा छोड़ा गया निशान
बक्कूशान (जापानी) यानि ऐसी युवती जो पीछे से सुंदर लगे पर सामने से सुंदर न हो
इक्तसुआरपोक (साईबेरियन), किसी आनेवाला का इंतजार करते समय बार बार टैंट से बाहर जा कर देखना
टोर्शलुस्सपानिक (जर्मन), बूढ़े होने के साथ सम्भावनाँऐ और मौके कम मिलने का डर
फाआमिति (समोआ द्वीप) बच्चे या कुत्ते का ध्यान खींचने के लिऐ हौंठ सिकोड़ कर आवाज करना
आज की तस्वीरे हें, १. मध्यपूर्व इटली के समुद्र के किनारे बसे शहर मोंतेसिलवानो २. दक्षिण अफ्रीका के दक्षिणी कोने पर समुद्र तट पर बसे शहर केप टाऊन से.
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अँग्रेज़ी की पत्रिका आऊटलुक में बँगलादेशी मूल की लेखिका सुश्री तस्लीमा नसरीन का नया लेख निकला है जिसमें तस्लीमा कुरान में दिये गये स्त्री के...
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पिछले तीन-चार सौ वर्षों को " लिखाई की दुनिया " कहा जा सकता है, क्योंकि इस समय में मानव इतिहास में पहली बार लिखने-पढ़ने की क्षमता ...
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पत्नी कल कुछ दिनों के लिए बेटे के पास गई थी और मैं घर पर अकेला था, तभी इस लघु-कथा का प्लॉट दिमाग में आया। ***** सुबह नींद खुली तो बाहर अभी ...
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सुबह साइकल पर जा रहा था. कुछ देर पहले ही बारिश रुकी थी. आसपास के पत्ते, घास सबकी धुली हुई हरयाली अधिक हरी लग रही थी. अचानक मन में गाना आया ...
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हमारे घर में एक छोटा सा बाग है, मैं उसे रुमाली बाग कहता हूँ, क्योंकि वो छोटे से रुमाल जैसा है। उसमें एक झूला है, बाहर की सड़क की ओर पीठ किये,...
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हमारे एक पड़ोसी का परिवार बहुत अनोखा है. यह परिवार है माउरा और उसके पति अंतोनियो का. माउरा के दो बच्चे हैं, जूलिया उसके पहले पति के साथ हुई ...
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२५ मार्च १९७५ को भी होली का दिन था। उस दिन सुबह पापा (ओमप्रकाश दीपक) को ढाका जाना था, लेकिन रात में उन्हें हार्ट अटैक हुआ था। उन दिनों वह एं...
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गृत्समद आश्रम के प्रमुख ऋषि विद्यार्थियों को पढ़ा रहे थे, जब उन्हें समाचार मिला कि उनसे मिलने उनके बचपन के मित्र विश्वामित्र आश्रम के ऋषि ग...