हमारे घर में एक छोटा सा बाग है, मैं उसे रुमाली बाग कहता हूँ, क्योंकि वो छोटे से रुमाल जैसा है। उसमें एक झूला है, बाहर की सड़क की ओर पीठ किये, पौधों की क्यारी से लगा हुआ, जिस पर हरी और सफेद धारियों वाले कुशन हैं, और सामने एक गोल मेज़ और दो कुर्सियाँ हैं, और तीन ओर पौधे लगे हैं। वहीं, एक कुर्सी को करीब खींच कर, उस पर चाय का प्याला रख कर, आज सुबह मैं झूले पर बैठा अपनी किताब पढ़ रहा था।
उपन्यास पढ़ने के लिए यह झूला मेरी सबसे प्रिय जगह है, लेकिन जब नॉन-फिक्शन पढ़ता हूँ तो यहाँ नहीं बैठता। वैसे यहाँ बैठने का मौका कम ही मिलता है, क्योंकि हमारे यहाँ आधा साल सर्दी चलती है, और जब सर्दी नहीं होती तो शायद पहाड़ों की वजह से बारिश बहुत होती है।
जब गर्मी आती है तो बाग में फ़ूल खिल जाते हैं, आसपास के पेड़ों में पक्षी घोंसले बनाते हैं और सुबह से चहचहाने लगते हैं। हमारे सामने वालों के यहाँ चीड़ के दो ऊँचे पेड़ हैं, मुझे उनसे ज़रा सी खुन्दक है क्योंकि उनकी वजह से, मुझे उनके पीछे वाला पहाड़ नहीं दिखता, लेकिन उनमें पक्षियों की पूरी कोलोनी बसती है, जिनके गीत गर्मियों के दिनों का पार्श्वसंगीत बन जाते हैं।
जब गर्मी आती है तो मच्छर भी आ जाते हैं, लेकिन अभी तक सुबह-शाम का तापमान दस-बारह डिग्री के आसपास घूम रहा है इसलिए इस वर्ष अभी तक मच्छर नहीं आये।
खैर, बात बाहर बैठ कर किताब पढ़ते हुए चाय पीने की शुरु थी। पढ़ते-पढ़ते, अपनी किताब को नीचे रख कर मैं सोचने लगा कि अगर कुछ दिन इस तरह से धूप निकलती रहे तो मैं वेनिस में कला-बिएन्नाले प्रदर्शनी को देखने जा सकता हूँ।
यहीं से शुरु हुई मेरी सोयीं यादों के जगने की शुरुआत, जो कब, कहाँ, और किस बात से जाग जाती हैं, यह कहना कठिन होता है। आज उन यादों को जगाया हुसैन साहब की कला प्रदर्शनी के विचार ने। वेनिस बिएन्नाले की प्रदर्शनियों में इस बार दिल्ली के केएनएम संग्रहालय वालों की मकबूल फिदा हुसैन साहब के चित्रों की प्रदर्शनी भी है, जिसे देखना चाहता हूँ। यही सोचते हुए बचपन की एक बात याद आ आई।
क्नॉट प्लेस का पुराना कॉफी हाऊज़ ...
मेरा ख्याल है कि यह बात १९६३ या ६४ की है। उस समय दिल्ली में क्नॉट प्लेस में, जहाँ आज पालिका बाज़ार है, वहाँ पर प्रसिद्ध कॉफी हाऊज़ होता था, जिसके आसपास अर्ध-चक्र में लकड़ी के खोखे बने थे जिनमें विभिन्न राज्यों के एम्पोरियम थे। मेरे ख्याल में उस समय बाबा खड़गसिंह मार्ग पर नये भवनों के निर्माण का काम चल रहा था। तब मैं नौ-दस साल का था। खैर, जिस शाम की मैं बात कर रहा हूँ, उस शाम मेरे मम्मी-पापा के साथ पिता के कुछ पत्रकार-लेखक मित्र थे और हुसैन साहब भी बैठे थे।
फ़िर सब लोग उठे कि चलो त्रिवेणी कला संगम चलो, वहाँ पर हुसैन साहब की कोई प्रदर्शनी लगी थी जिसका उद्घाटन होना था। हम साथ चल रहे थे तो मुझे हुसैन साहब का नंगे पाँव चलना बहुत अजीब लगा था। हम सब लोग बारहखम्बा रोड से होते हुए पैदल ही त्रिवेणी कला संगम आये। प्रदर्शनी के उद्घाटन के लिए वहाँ पर भारत के उपराष्ट्रपति डॉ. ज़ाकिर हुसैन आये थे। तब सिक्योरिटी की चिंता नहीं होती थी। मैं भी हुसैन साहब के चित्रों को देख रहा था जब डॉ. ज़ाकिर हुसैन जी ने मुझे रोका, मुझसे पूछा कि मुझे वह चित्र कैसे लग रहे थे? मैं झूठ नहीं बोल पाया, बोला कि पता नहीं यह क्या बनाया है, शायद कोई जेल बनायी है जिसके आसपास यह नुकीले काँटों वाली तारे लगी हैं। हुसैन साहब ने मेरी आलोचना सुनी तो मुस्कराये, डॉ. ज़ाकिर हुसैन साहब भी हँसे।
हालाँकि मुझे हुसैन साहब की उस प्रदर्शनी के चित्र अच्छे नहीं लगे थे लेकिन मैंने उनके कुछ अन्य चित्र देखे थे, जैसे कि हैदराबाद में बदरीविशाल पित्ती जी के घर में, जो मुझे अच्छे लगते थे। रामायण पर बनी उनकी चित्र-श्रिंखला मुझे बहुत अच्छी लगी थी।
रघुवीर जी, अशोक जी, जुगनू जी ...
हुसैन जी की चित्र-प्रदर्शनी से शुरु हुई यादें वहाँ से पापा के मित्रों तक पहुँच गयीं। मुझे पापा के साथ क्नॉट प्लेस के कॉफी हाउज़ जाने का मौका शायद दो-तीन बार
ही मिला था, वे मित्र-बैठकें बच्चों के लिए नहीं होती थीं। पापा के कुछ मित्र लेखकों से मुलाकात ७ रकाबगंज रोड पर हुई थी, जहाँ डॉ. राम मनोहर लोहिया का घर था और शायद उनके सर्वैंट क्वाटर में समाजवादी पार्टी की पत्रिका "जन" का दफ्तर था जिसमें पापा काम करते थे। उस घर में एक बार जब खान अब्दुल गफ्फार साहब आये थे तो उन्हें देखा था।
अधिकतर लोगों से मुलाकात घर पर होती थी, जब वह पापा से मिलने आते थे। राजेन्द्र नगर में सरवेश्वर दयाल सक्सेना जी हमारे घर के पास रहते थे। कभी-कभी घर आते, एक-दो बार राशन की दुकान पर भी मिले। एक सुबह मुझे उनका मफलर लपेटे, मुख पर बंदर टोपी, सलेटी स्वैटर और धारीवाला पजामे में घर आना याद है। तब मैं उनकी ओर ध्यान नहीं देता था, अब जब उनकी कविताएँ पढ़ता हूँ तो सोचता हूँ कि वह मिलें तो उनसे कितनी बातें करना चाहूँगा।
ऐसी ही बात कुछ रघुवीर सहाय के साथ भी थी, वह भी अक्सर घर आते थे। तब मुझे कुछ नहीं मालूम था कि सर्वेश्वर जी या रघुवीर जी, क्या लिखते थे।
केवल मोहन राकेश जी, जो साठ के दशक में राजेन्द्र नगर में आर-ब्लॉक में रहते थे, केवल उनके लेखन से मेरा कुछ परिचय था, उनके घर जा कर लगता था कि हाँ यह प्रसिद्ध लेखक हैं। उन दिनों में उनकी बेटी पूर्वा का मुडंन हुआ था। जब उनकी अचानक मृत्यु हुई थी तो बहुत धक्का लगा था।
बंगला देश युद्ध के दौरान पापा "दिनमान" के लिए कई बार बंगलादेश गये थे। फ़िर बिहार छात्र आंदोलन के समय वह जेपी के साथ थे। इस वजह से छात्र आंदोलन से जुड़े बिहार के लोग घर आने लगे थे। उनमें से अधिकांश नाम भूल गया हूँ, केवल जुगनू शारदेय और अख्तर भाई के नाम याद हैं। फ़िर १९७५ में अचानक पापा भी चले गये तो बहुत से रिश्ते टूट गये। पहले वाले लोगों में से केवल अशोक सेकसरिया और जुगनू जी से कुछ सम्बंध बने रहे। एक बार मैं कलकत्ता में अशोक जी के १६ लार्ड सिन्हा वाले घर में कुछ दिन तक ठहरा था।
लेकिन वे सब भी क्या लिखते थे, क्या सोचते थे, उस समय मुझे कुछ मालूम नहीं था। उन दिनों में मैं मेडिकल कॉलेज में था, लेखन, साहित्य और राजनीति आदि के बारे में सोचने का शायद समय ही नहीं था?
बहुत सुन्दर यादों का कोलोज
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सुशील जी
हटाएंअनमोल यादों का अति रोचक सफ़र
जवाब देंहटाएं🙏🙏🙏
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