क्या अर्थ है पहेली के इस गाने का, "धीरे जलना, धीरे जलना, जिंदगी की लौ पे जले हम"?
जीवन की आग में हमें धीरे धीरे जला कर पकाईये? पुराने तरीके से बिरयानी बनाने का ऐसे एक नुस्खे के बारे में कभी पढ़ा था कि हाँडी आग से बहुत ऊँची रख कर, चावल में थोड़ा सा पानी डालना चाहिये और उसे कड़छी से हिलाते रहिये, जब पानी सूखने लगे तो, थोड़ा सा और डाल दीजिये. कई घंटों में जाकर बिरयानी पकेगी.
अगर पत्नी को सलाह देनी होती है कि कोई चीज़ कैसे पकानी चाहिये, तो मेरी सलाह हमेशा धीरे धीरे पकाने वाले नुस्खों की होती है. इससे खाने में विषेश स्वाद आ जाता है, मैं कहता हूँ. पर उसे यह धीरे पकने वाले नुस्खों को तेजी से बनाने में मजा आता है. पहले पहले तो बहुत शौक से मुझे बतलाती थी कि कैसे उसने एक घंटे में बनने वाली चीज दस मिनट में बनायी.
"बैंगन का भुरता बनाया है, एक नये तरीके से", उसने प्रसन्न हो कर बताया था, "पहले कच्चे बैंगन को मिक्सी में डाल कर अच्छी तरह से महीन पीस लिया फिर तेज आग पर भून लिया, बन गया भुरता!"
"देखें भला कैसा बना है", हमने चखा और नाक सिकौड़ दी, "प्रिये, तुम्हें यह भारतीय खाना, भारतीय तरीके से ही बनाना चाहिये, तुम्हारी यह इटली की जल्दी, यहाँ के पास्ता बनाने में चल सकती है. अगर बैंगन को पहले आग पर भूनोगी नहीं, यूँ ही कच्चा मिक्सी में पीस दोगी तो उसमें वह विषेश भुना हुआ स्वाद नहीं आयेगा!"
"अच्छा, खाने के समय तो दस मिनट में जल्दी से खाना खा कर छुट्टी कर देते हो और मैं पहले एक घंटा पकाने में लगाऊँ और बाद में गैस के छेदों में से बैंगन के टुकड़े निकालते निकालते पागल हो जाऊँ?" वह बिगड़ कर बोली.
इसमे इतना बिगड़ने की क्या बात है, हमने समझाया, तुमने कहा था सच सच बताओ कैसे बने हैं और हमने सच बता दिया, बने तो अच्छे हैं पर यह तो "बैंगन पूरै" जैसी कुछ चीज बनी है इनमें भारतीय भुरते का स्वाद नहीं. भुनभुनाती रहीं वह उस शाम और खाने में हमें भुरता खाने को नहीं मिला.
कुछ सप्ताह बाद कुछ भारतीय मित्र घर पर खाने पर आये, उनमें एक दम्पति भी थे जिनका बोलोनिया में एक रेस्टोरेंट है. श्रीमति जी ने आलू के पराँठे और बैंगन का भुरता बनाया. तब तक हम भी भुरते वाली बात भूल चुके थे. हमने भी खूब खाया. सबने खूब तारीफ की खाने की. रेस्टोरेंट की मालकिन बोली, "मैं अपने कुक को भेज दूँगी उसे यह भुरता बनाना सिखा दो! भारत से बुलवाया है पर इतना बढ़िया भुरता कभी नहीं खाया."
श्रीमति जी ने हमारी ओर कटिल मुस्कान फैंकी और शुरु हो गयीं, "नया तरीका निकाला है भुरता बनाने का. जल्दी भी बन जाता है और गैस भी नहीं गंदी होती..."
आज की तस्वीरें बोलोनिया की भारतीय एसोसियेशन के समारोह की.
बुधवार, नवंबर 16, 2005
मंगलवार, नवंबर 15, 2005
लेखक और आदमी
मुनीष के चिट्ठे कविता सागर पर सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की एक सुंदर कविता पढ़ी. मुनीष जी को धन्यवाद.
सर्वेश्वर जी दिल्ली में राजेन्द्र नगर में हमारे घर के पास ही रहते थे और पिता के मित्र भी थे इसलिए अक्सर देखता था. वे तब साप्ताहिक पत्रिका "दिनमान" में काम करते थे. तब मैं नहीं जानता था कि वे क्या लिखते थे या कैसा लिखते थे.
लेखक, कवि, चित्रकार, कलाकार और समाजवादी कार्यकर्ता और नेता, यह सब बचपन के जीवन का भाग थे और सभी बच्चों की तरह मैं उनका कोई महत्व नहीं समझता था. दिल्ली में क्नाट प्लेस में आज जहाँ पालिका बाजार है, वहाँ कभी एमपोरियम और एक काफी हाऊस हुआ करता था. वही काफी हाऊस अड्डा था सब लोगों के मिलने का. कभी कभी पिता के साथ वहाँ गया था, पर उनकी कलाकारों की बातों में कोई दिलचस्पी नहीं होती थी, हर समय खाने और खेलने की ही सूझती थी.
चौदह या पंद्रह साल का था जब तीन लेखकों से परिचय हुआ सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, रघुवीर यादव और मोहन राकेश. उनमें से उस समय, केवल मोहन राकेश जी को लेखक की तरह जानता था. नया राजेंद्र नगर में पम्पोश की तरफ जाती सड़क पर, बाग के सामने वे तीसरी मंजिल पर बरसाती में रहते थे. करीब ही मेरी बुआ रहती थीं और बुआ के यहाँ छुट्टी में जाता तो दीदी के साथ उनके घर भी कई बार गया. उनके बारे में सोचूँ तो उनका छोटा कद, मोटा काला चश्मा, सिगार पीना और ठहाकेदार हँसी याद आती है. उनकी बेटी पूर्वा का मुंडन हुआ था और उसके गंजे सिर पर हाथ फेरना मुझे बहुत अच्छा लगता. जब १९७२ में अचानक उनकी मृत्यु हुई तो बहुत धक्का लगा था.
सर्वेश्वर जी और रघुवीर जी को मैंने कभी लेखक नहीं बल्कि पिता के मित्रों के रुप में ही देखा. इन्होंने क्या लिखा, मुझे कुछ नहीं मालूम था और न ही मेरी यह जानने की कोई दिलचस्पी थी. रघुवीर जी बच्चों के साथ आते. मंजरी, उनकी बड़ी बेटी मुझसे कुछ छोटी थी, उसी से बात होती और खेलते. अभी कुछ साल पहले जब हिंदी की लेखिका अलका सरावगी ने बताया कि उन्होंने अपनी थीसिस रघुवीर सहाय के लेखन पर की थी तो मुझे अचरज सा हुआ. रघुवीर जी लिखते थे? तब मैंने रघुवीर सहाय जी की किताबें ढ़ूँढ़ीं.
कल सर्वेश्वर जी कविता पढ़ कर यह सब बातें सोच रहा था. उनकी कविता "विवशता" की यह पंक्तियां मुझे बहुत अच्छी लगती हैं:
कितनी चुप चुप गयी रोशनी
छिप छिप आयी रात
कितनी सहर सहर कर
अधरों से फूटी दो बात
चार नयन मुस्काए
खोये, भीगे फिर पथराये
कितनी बड़ी विवशता
जीवन की कितनी कह पाये
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, रघुवीर सहाय और मोहन राकेश के बारे में आप अंतरजाल पर अनुभूति तथा अभिव्यक्ति पत्रिकाओं में पढ़ सकते हैं.
आज की तस्वीरें हैं भारतीय लोक गायकों की, अरुण चढ़्ढ़ा के दूरदर्शन सीरियल "१८५७ के लोकगीत" से.
सर्वेश्वर जी दिल्ली में राजेन्द्र नगर में हमारे घर के पास ही रहते थे और पिता के मित्र भी थे इसलिए अक्सर देखता था. वे तब साप्ताहिक पत्रिका "दिनमान" में काम करते थे. तब मैं नहीं जानता था कि वे क्या लिखते थे या कैसा लिखते थे.
लेखक, कवि, चित्रकार, कलाकार और समाजवादी कार्यकर्ता और नेता, यह सब बचपन के जीवन का भाग थे और सभी बच्चों की तरह मैं उनका कोई महत्व नहीं समझता था. दिल्ली में क्नाट प्लेस में आज जहाँ पालिका बाजार है, वहाँ कभी एमपोरियम और एक काफी हाऊस हुआ करता था. वही काफी हाऊस अड्डा था सब लोगों के मिलने का. कभी कभी पिता के साथ वहाँ गया था, पर उनकी कलाकारों की बातों में कोई दिलचस्पी नहीं होती थी, हर समय खाने और खेलने की ही सूझती थी.
चौदह या पंद्रह साल का था जब तीन लेखकों से परिचय हुआ सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, रघुवीर यादव और मोहन राकेश. उनमें से उस समय, केवल मोहन राकेश जी को लेखक की तरह जानता था. नया राजेंद्र नगर में पम्पोश की तरफ जाती सड़क पर, बाग के सामने वे तीसरी मंजिल पर बरसाती में रहते थे. करीब ही मेरी बुआ रहती थीं और बुआ के यहाँ छुट्टी में जाता तो दीदी के साथ उनके घर भी कई बार गया. उनके बारे में सोचूँ तो उनका छोटा कद, मोटा काला चश्मा, सिगार पीना और ठहाकेदार हँसी याद आती है. उनकी बेटी पूर्वा का मुंडन हुआ था और उसके गंजे सिर पर हाथ फेरना मुझे बहुत अच्छा लगता. जब १९७२ में अचानक उनकी मृत्यु हुई तो बहुत धक्का लगा था.
सर्वेश्वर जी और रघुवीर जी को मैंने कभी लेखक नहीं बल्कि पिता के मित्रों के रुप में ही देखा. इन्होंने क्या लिखा, मुझे कुछ नहीं मालूम था और न ही मेरी यह जानने की कोई दिलचस्पी थी. रघुवीर जी बच्चों के साथ आते. मंजरी, उनकी बड़ी बेटी मुझसे कुछ छोटी थी, उसी से बात होती और खेलते. अभी कुछ साल पहले जब हिंदी की लेखिका अलका सरावगी ने बताया कि उन्होंने अपनी थीसिस रघुवीर सहाय के लेखन पर की थी तो मुझे अचरज सा हुआ. रघुवीर जी लिखते थे? तब मैंने रघुवीर सहाय जी की किताबें ढ़ूँढ़ीं.
कल सर्वेश्वर जी कविता पढ़ कर यह सब बातें सोच रहा था. उनकी कविता "विवशता" की यह पंक्तियां मुझे बहुत अच्छी लगती हैं:
कितनी चुप चुप गयी रोशनी
छिप छिप आयी रात
कितनी सहर सहर कर
अधरों से फूटी दो बात
चार नयन मुस्काए
खोये, भीगे फिर पथराये
कितनी बड़ी विवशता
जीवन की कितनी कह पाये
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, रघुवीर सहाय और मोहन राकेश के बारे में आप अंतरजाल पर अनुभूति तथा अभिव्यक्ति पत्रिकाओं में पढ़ सकते हैं.
आज की तस्वीरें हैं भारतीय लोक गायकों की, अरुण चढ़्ढ़ा के दूरदर्शन सीरियल "१८५७ के लोकगीत" से.
रविवार, नवंबर 13, 2005
इतालवी नाम पुराण
मेरी अस्सिटेंट का नाम है "फ़ैलीचिता" जिसका इतालवी में अर्थ है "खुशी" पर कभी कभी उसका हिंदी अर्थ सोच कर अजीब सा लगता है. हमारे दफ्तर में तीन अन्य नाम हैं जिनके हिंदी अर्थ कुछ और ही होंगेः "मारा" यानि समुद्री, "मारियो" जो संत का नाम है और "पिया" यानि भक्त. मैं कभी कभी मारा को कहता, "मारा तुझे किसने मारा?" और हँसता पर वह समझ नहीं पाती कि मैंने क्या कहा.
इटली में अधिकतर नाम किसी संत के नाम पर रखे जाते हैं. यहाँ के कैलेण्डर में साल का हर दिन एक संत के नाम से जुड़ा होता है. जैसे ११ नवंबर था संत मार्तीनो, १२ नवंबर था संत रेनातो, आज १३ नवंबर है संत और कल १४ नवंबर होगा संत अगोस्तीना. अधिकतर लोगों को बच्चों के नाम चुनने के लिए "नामों की किताब" की आवश्यकता नहीं पड़ती, बस कैलेण्डर देख कर जितने संतो के नाम हैं उनमे से एक चुन लेते हैं. इन नामों के अर्थ नहीं होते. अगर लड़का हो तो नाम अधिकतर "ओ" पर स्माप्त होगा और लड़की हो तो नाम अधिकतर "आ" पर स्माप्त होते हैं. जिस दिन आप के नाम वाले संत का दिन हो, वह आप का ओनोमास्तिको दिन बन जाता है, यानि एक तरह का जन्मदिन.
एक उदाहरण से बात स्पष्ट हो जायेगी. मान लीजिये आप के यहाँ बेटी पैदा हुई है और आप को संत रेनातो का नाम अच्छा लगता है तो आप अपनी बेटी का नाम "रेनाता" रख सकते हैं, और आप की बेटी के साल में दो तरह के जन्मदिन मनाये जायेंगे, एक उसकी जन्मतिथि पर और दूसरा, १२ नवंबर को जब उसका ओनोमास्तिको मनाया जायेगा.
चूँकि साल में ३६५ दिन होते हैं, इसलिए इटली में ३६५ नाम प्रचलित हैं. उनको भिन्न करने के लिए कई बार लड़कियों के नाम में संत के नाम के बाद "पिया" या "ग्रात्सिया" (कृपा) जैसे शब्द जोड़ दिये जाते हैं. इसी तरह, लड़कों को दो संतों के नाम मिला कर दो नाम दे दिये जाते हैं जैसे "जानलूका" जो संत जान्नी और संत लूका के नामों को मिला कर बना है. कभी कभी माता पिता बच्चों को उन संतों के नाम से अलग कोई नाम दे देते हैं जैसे फ़ैलीचिता, पर अगर उनका जन्म सार्टिफिकेट देखिये तो अधिकतर पायेंगे कि उनका एक और नाम है, संत के नाम वाला, जिसका वह आम जीवन में प्रयोग नहीं करते पर उस दिन ओनोमास्तिको मनाते हैं.
इतालवी टेलीफोन डायरेक्टरी के अनुसार मारियो और मारिया सबसे अधिक प्रचलित इतालवी नाम हैं. केवल ३ लाख की आबादी वाले बोलोनिया शहर में ६०० से अधिक मारियो रहते हैं. मेरे एक मित्र का नाम है अंतोनियो, उसके साले का नाम भी अंतोनियो है और साली के पति का नाम भी अंतोनियो है. चूँकि नाम इस तरह से मिल कर गलतफहमी पैदा करने की स्थितियां पैदा कर देते हैं, इतालवी संस्कृति में पारिवारिक नाम यानि सरनेम को अधिक महत्व दिया जाता है. अक्सर लोग एक दूसरे को उनके पारिवारिक नाम से बुलाते हैं और इतालवी फोर्म, सर्टीफिकेट आदि पर पहले पारिवारिक नाम आता है, फिर नाम.
***
कल के चिट्ठे की बात को ले कर कालीचरण जी ने मोटापे के बारे में पूरा चिट्ठा लिख दिया. कल जब चिट्ठे में तस्वीरें लगा रहा था तो पीछे श्रीमति जी पीछे आ कर खड़ी हो गयीं. १९८६ की बिबियोने की तस्वीर देख कर बोलीं, "कितने पतले थे तुम तब. मैं तो बिल्कुल भूल गयी थी कि कभी तुम पतले भी थी! मेरे ख्याल से तुम्हें कुछ व्यायाम वगैरा करना चाहिये."
***
आज की तस्वीरें हैं रोम सेः
इटली में अधिकतर नाम किसी संत के नाम पर रखे जाते हैं. यहाँ के कैलेण्डर में साल का हर दिन एक संत के नाम से जुड़ा होता है. जैसे ११ नवंबर था संत मार्तीनो, १२ नवंबर था संत रेनातो, आज १३ नवंबर है संत और कल १४ नवंबर होगा संत अगोस्तीना. अधिकतर लोगों को बच्चों के नाम चुनने के लिए "नामों की किताब" की आवश्यकता नहीं पड़ती, बस कैलेण्डर देख कर जितने संतो के नाम हैं उनमे से एक चुन लेते हैं. इन नामों के अर्थ नहीं होते. अगर लड़का हो तो नाम अधिकतर "ओ" पर स्माप्त होगा और लड़की हो तो नाम अधिकतर "आ" पर स्माप्त होते हैं. जिस दिन आप के नाम वाले संत का दिन हो, वह आप का ओनोमास्तिको दिन बन जाता है, यानि एक तरह का जन्मदिन.
एक उदाहरण से बात स्पष्ट हो जायेगी. मान लीजिये आप के यहाँ बेटी पैदा हुई है और आप को संत रेनातो का नाम अच्छा लगता है तो आप अपनी बेटी का नाम "रेनाता" रख सकते हैं, और आप की बेटी के साल में दो तरह के जन्मदिन मनाये जायेंगे, एक उसकी जन्मतिथि पर और दूसरा, १२ नवंबर को जब उसका ओनोमास्तिको मनाया जायेगा.
चूँकि साल में ३६५ दिन होते हैं, इसलिए इटली में ३६५ नाम प्रचलित हैं. उनको भिन्न करने के लिए कई बार लड़कियों के नाम में संत के नाम के बाद "पिया" या "ग्रात्सिया" (कृपा) जैसे शब्द जोड़ दिये जाते हैं. इसी तरह, लड़कों को दो संतों के नाम मिला कर दो नाम दे दिये जाते हैं जैसे "जानलूका" जो संत जान्नी और संत लूका के नामों को मिला कर बना है. कभी कभी माता पिता बच्चों को उन संतों के नाम से अलग कोई नाम दे देते हैं जैसे फ़ैलीचिता, पर अगर उनका जन्म सार्टिफिकेट देखिये तो अधिकतर पायेंगे कि उनका एक और नाम है, संत के नाम वाला, जिसका वह आम जीवन में प्रयोग नहीं करते पर उस दिन ओनोमास्तिको मनाते हैं.
इतालवी टेलीफोन डायरेक्टरी के अनुसार मारियो और मारिया सबसे अधिक प्रचलित इतालवी नाम हैं. केवल ३ लाख की आबादी वाले बोलोनिया शहर में ६०० से अधिक मारियो रहते हैं. मेरे एक मित्र का नाम है अंतोनियो, उसके साले का नाम भी अंतोनियो है और साली के पति का नाम भी अंतोनियो है. चूँकि नाम इस तरह से मिल कर गलतफहमी पैदा करने की स्थितियां पैदा कर देते हैं, इतालवी संस्कृति में पारिवारिक नाम यानि सरनेम को अधिक महत्व दिया जाता है. अक्सर लोग एक दूसरे को उनके पारिवारिक नाम से बुलाते हैं और इतालवी फोर्म, सर्टीफिकेट आदि पर पहले पारिवारिक नाम आता है, फिर नाम.
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कल के चिट्ठे की बात को ले कर कालीचरण जी ने मोटापे के बारे में पूरा चिट्ठा लिख दिया. कल जब चिट्ठे में तस्वीरें लगा रहा था तो पीछे श्रीमति जी पीछे आ कर खड़ी हो गयीं. १९८६ की बिबियोने की तस्वीर देख कर बोलीं, "कितने पतले थे तुम तब. मैं तो बिल्कुल भूल गयी थी कि कभी तुम पतले भी थी! मेरे ख्याल से तुम्हें कुछ व्यायाम वगैरा करना चाहिये."
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आज की तस्वीरें हैं रोम सेः
शनिवार, नवंबर 12, 2005
शरीर की लज्जा
मैं अपने डेनिश मित्र ओटो के साथ मिस्र में अलेक्सांद्रिया में था. दिन भर काम के बाद समुद्र के किनारे घूम रहे थे और वह एक व्यक्तिगत अनुभव बता रहा था.
बोला, "तब मैं कोपेनहेगन में अपने पिता वाले घर में रहता था. एक रात को मैं देर से घर वापस आया, साथ में मेरी एक सहेली थी. रात को उसे बाथरुम जाना पड़ा और वह निर्वस्त्र ही चली गयी. संजोग से मेरे पिता भी उसी समय बाथरुम से वापस आ रहे थे और उन्होंने भी कुछ कपड़े नहीं पहने थे. जब उन्होंने मेरी सहेली को देखा तो दोनो एक क्षण के लिए घबरा गये, फिर मेरे पिता ने कहा, "शुभ रात्री मैडम" और अपने कमरे में चले गये."
सुन कर मैं बहुत हँसा पर अंदर ही अंदर सोच रहा था, हमारे यहाँ तो ससुर और जेठ के सामने घूँघट और भी लम्बा कर देते हैं, क्या ऐसा कभी हमारे यहाँ भी हो सकता है?
अतुल के प्रश्न कि क्या मैंने कल की झील वाली तस्वीर छुप कर खींची थी पढ़ कर मुझे यह बात याद आ गयी. नहीं तस्वीर छुप कर खींचने की जरुरत नहीं है, समुद्र तट पर या झील के पास, गरमियों में सभी ऐसे ही कपड़े पहनते हैं, मैं भी पहने था जब तस्वीर खींची थी. शायद यूरोप कुछ बातों में अमरीका से कम रुढ़िवादी है, जैसे शरीर की लज्जा के बारे में?
गरमियों में हमारे घर के पीछे जो बाग है वहाँ बहुत से लोग बिकिनी या जाँघिया पहन कर दिन में धूप लेते हैं, पर मेरे फोटो खींचने पर कभी किसी ने कुछ नहीं कहा. फोटो खींचते समय किसी ने मुझे गुस्से से देखा हो, ऐसा एक दो बार हुआ है, जब मैंने बुरका पहने हुए किसी स्त्री की फोटो खींचने की कोशिश की है. उनके साथ चल रहे आदमी आग बबूला हो जाते हैं.
आज की भारतीय संस्कृति शायद हमें मानव शरीर की लज्जा ही सिखाती है हालाँकि भगवद्गीता कहती है कि यह शरीर केवल वस्त्र है और जब यह पुराना हो जाता है तो आत्मा इसे बदल लेती है.
इटली के उत्तरपूर्व के समुद्र तट पर बहुत सालों से टोपलैस का प्रचलन हो रहा है यानि पुरुष और स्त्रियाँ केवल शरीर का नीचे का भाग ढ़कते हैं, ऊपर वाला भाग खुला रहता है. बिबयोने जहाँ हम लोग छुट्टियों पर जाते हैं, से करीब पाँच किलोमीटर दूर समुद्र तट पर बहुत से लोग बिना वस्त्रों के भी रहते हैं. मेरे विचार में अपने शरीर की लज्जा से छुटकारा पाना एक स्वतंत्रता है.
मैरीएंजला, मेरी इतालवी मित्र कहती है कि आज कि सभ्यता हमें अपने शरीर के बारे में शर्म करना सिखाती है. पत्रिकाओं, टेलीविजन, हर तरफ केवल लम्बे, पतले सुंदर शरीर ही दिखते हैं. यानि कि अगर हम जवान, पतले, लम्बे या सुंदर नहीं तो हमे अपने शरीर को छुपा कर रखना चाहिये और उस पर शर्म आनि चाहिये.
"न्यूड बीच" ऐसी सोच से बगावत करने का तरीका है. शायद इसी वजह से पिछले जून में हुए बोलोनिया के ग्रीष्म ऋतु समारोह में यहाँ की यनिवर्सिटी की छात्रों ने शहर के बीच में केवल अंडरवियर पहन कर जलूस निकाला था (नीचे तस्वीर में)!
***
बोला, "तब मैं कोपेनहेगन में अपने पिता वाले घर में रहता था. एक रात को मैं देर से घर वापस आया, साथ में मेरी एक सहेली थी. रात को उसे बाथरुम जाना पड़ा और वह निर्वस्त्र ही चली गयी. संजोग से मेरे पिता भी उसी समय बाथरुम से वापस आ रहे थे और उन्होंने भी कुछ कपड़े नहीं पहने थे. जब उन्होंने मेरी सहेली को देखा तो दोनो एक क्षण के लिए घबरा गये, फिर मेरे पिता ने कहा, "शुभ रात्री मैडम" और अपने कमरे में चले गये."
सुन कर मैं बहुत हँसा पर अंदर ही अंदर सोच रहा था, हमारे यहाँ तो ससुर और जेठ के सामने घूँघट और भी लम्बा कर देते हैं, क्या ऐसा कभी हमारे यहाँ भी हो सकता है?
अतुल के प्रश्न कि क्या मैंने कल की झील वाली तस्वीर छुप कर खींची थी पढ़ कर मुझे यह बात याद आ गयी. नहीं तस्वीर छुप कर खींचने की जरुरत नहीं है, समुद्र तट पर या झील के पास, गरमियों में सभी ऐसे ही कपड़े पहनते हैं, मैं भी पहने था जब तस्वीर खींची थी. शायद यूरोप कुछ बातों में अमरीका से कम रुढ़िवादी है, जैसे शरीर की लज्जा के बारे में?
गरमियों में हमारे घर के पीछे जो बाग है वहाँ बहुत से लोग बिकिनी या जाँघिया पहन कर दिन में धूप लेते हैं, पर मेरे फोटो खींचने पर कभी किसी ने कुछ नहीं कहा. फोटो खींचते समय किसी ने मुझे गुस्से से देखा हो, ऐसा एक दो बार हुआ है, जब मैंने बुरका पहने हुए किसी स्त्री की फोटो खींचने की कोशिश की है. उनके साथ चल रहे आदमी आग बबूला हो जाते हैं.
आज की भारतीय संस्कृति शायद हमें मानव शरीर की लज्जा ही सिखाती है हालाँकि भगवद्गीता कहती है कि यह शरीर केवल वस्त्र है और जब यह पुराना हो जाता है तो आत्मा इसे बदल लेती है.
इटली के उत्तरपूर्व के समुद्र तट पर बहुत सालों से टोपलैस का प्रचलन हो रहा है यानि पुरुष और स्त्रियाँ केवल शरीर का नीचे का भाग ढ़कते हैं, ऊपर वाला भाग खुला रहता है. बिबयोने जहाँ हम लोग छुट्टियों पर जाते हैं, से करीब पाँच किलोमीटर दूर समुद्र तट पर बहुत से लोग बिना वस्त्रों के भी रहते हैं. मेरे विचार में अपने शरीर की लज्जा से छुटकारा पाना एक स्वतंत्रता है.
मैरीएंजला, मेरी इतालवी मित्र कहती है कि आज कि सभ्यता हमें अपने शरीर के बारे में शर्म करना सिखाती है. पत्रिकाओं, टेलीविजन, हर तरफ केवल लम्बे, पतले सुंदर शरीर ही दिखते हैं. यानि कि अगर हम जवान, पतले, लम्बे या सुंदर नहीं तो हमे अपने शरीर को छुपा कर रखना चाहिये और उस पर शर्म आनि चाहिये.
"न्यूड बीच" ऐसी सोच से बगावत करने का तरीका है. शायद इसी वजह से पिछले जून में हुए बोलोनिया के ग्रीष्म ऋतु समारोह में यहाँ की यनिवर्सिटी की छात्रों ने शहर के बीच में केवल अंडरवियर पहन कर जलूस निकाला था (नीचे तस्वीर में)!
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शुक्रवार, नवंबर 11, 2005
आँखों की दहशत
ऋषिकेष मुखर्जी की फिल्म 'सत्यकाम' मुझे बहुत अच्छी लगी थी. सत्य का पालन करने वाले, इमानदार सत्यकाम, जिसके आदर्शों पर सारी दुनिया हँसती है, का भाग निभाया था धर्मेंद्र ने, जो इस फिल्म के निर्माता भी थे. हालाँकि धर्मेंद्र को "कुत्ते कमीने, मैं तेरा खून पी जाऊँगा" जैसे डायलोग वाली फिल्मों में अधिक सफलता मिली, फिर भी अपने फिल्मी जीवन में उन्होंने कई संवेदनशील फिल्म निर्देशकों के साथ काम किया. अनुपमा, खामोशी, चुपके चुपके, बंदिनी जैसी उनकी फिल्में मुझे बहुत अच्छी लगीं.
बात "सत्यकाम" से शुरु की थी. इस फिल्म के अंत में एक दृष्य है. सत्यकाम बीमार है, अस्पताल में भरती है. उसे खाँसी आती है और रुमाल पर खाँसी के साथ खून के छींटे आ जाते हैं. ऊपर नजर उठाता है तो देखता है कि उसकी पत्नी (शर्मीला टैगोर) है जिसने उस रुमाल के खून को देख लिया है. उस दृष्टि में उसकी आँखों में शर्म, मजबूरी भी है और करीब आयी मौत की दहशत भी.
ऐसा ही दृष्य गुलजार की फिल्म "परिचय" में भी था, जिसमें "बीते न बितायी रैना" वाले गाने में बेटी (जया भादुड़ी) पिता (संजीव कुमार) के रुमाल पर गिरे खून के धब्बों को देख लेती है और उनकी आँखों में भी वही शर्म, लाचारी और दहशत झलकती है.
दोनों दृष्यों में बात हो रही थी टीबी यानि यक्ष्मा या क्षय रोग की, और उनका अर्थ स्पष्ट था, कि खाँसी में खून आने लगे तो आप का बचना मुश्किल है. बचपन में एक दूर के चाचा को देखने मैं भी एक बार दार्जिलिंग के पास कुर्स्यांग में टीबी सेनाटोरियम गया था. तब वह छोटी सी रेलगाड़ी जो सिलीगुड़ी से चलती है और जिसे 'आराधना' और 'परिणीता' में दिखाया गया है, चलती थी. रास्ता बहुत मनोरम था. पर उस यात्रा की मुझे भी दहशत याद है, उन चाचा की जवान पत्नी की आँखों की दहशत. ननस् द्वारा चलाया वह सेनाटोरियम की सफेदी और धूलरहित चमकते फर्श देख कर लगा था कि शायद यहाँ वह ठीक हो जायेंगे पर कुछ ही दिनों में उनकी मृत्यु हो गयी.
आज भी शायद टीबी का नाम मन में दहशत भर देता है, हालाँकि आज इसका इलाज आसानी से हो सकता है और इससे डरने की कोई जरुरत नहीं है. फिर भी भारत में हर रोज करीब एक हजार व्यक्ति इस रोग की वजह से मरते हैं. दुनिया के सबसे अधिक क्षय रोगी हैं भारत में. इसकी वजह हमारी फैली हुई गरीबी है, जिसका उपचार उतना आसान नहीं. भारतीय क्षय रोग कार्यक्रम के बारे में जानना चाहते हैं तो टीबीसी इंडिया के पृष्ठ को देखें.
***
कल सुबह अतुल का अमरीका आने से सम्बंधित लेख संग्रह "लाइफ इन एचओवी लेन" में पढ़ना शुरु किया तो अधूरा छोड़ने का मन नहीं कर रहा था, एक घंटे तक पढ़ता रहा, काम पर जाने में भी देर हो गयी. फिर भी पूरा नहीं पढ़ पाया, आज शाम को पढ़ने का प्रोग्राम है. यह भी अच्छा हुआ कि यह लेख मैंने पहले नहीं देखे थे, इसलिए उन्हें इक्ट्ठा पढ़ने का आनंद ले सकता हूँ! अतुल जी बहुत बढ़िया लिखा है.
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आज दो तस्वीरें उत्तरी इटली सेः
बात "सत्यकाम" से शुरु की थी. इस फिल्म के अंत में एक दृष्य है. सत्यकाम बीमार है, अस्पताल में भरती है. उसे खाँसी आती है और रुमाल पर खाँसी के साथ खून के छींटे आ जाते हैं. ऊपर नजर उठाता है तो देखता है कि उसकी पत्नी (शर्मीला टैगोर) है जिसने उस रुमाल के खून को देख लिया है. उस दृष्टि में उसकी आँखों में शर्म, मजबूरी भी है और करीब आयी मौत की दहशत भी.
ऐसा ही दृष्य गुलजार की फिल्म "परिचय" में भी था, जिसमें "बीते न बितायी रैना" वाले गाने में बेटी (जया भादुड़ी) पिता (संजीव कुमार) के रुमाल पर गिरे खून के धब्बों को देख लेती है और उनकी आँखों में भी वही शर्म, लाचारी और दहशत झलकती है.
दोनों दृष्यों में बात हो रही थी टीबी यानि यक्ष्मा या क्षय रोग की, और उनका अर्थ स्पष्ट था, कि खाँसी में खून आने लगे तो आप का बचना मुश्किल है. बचपन में एक दूर के चाचा को देखने मैं भी एक बार दार्जिलिंग के पास कुर्स्यांग में टीबी सेनाटोरियम गया था. तब वह छोटी सी रेलगाड़ी जो सिलीगुड़ी से चलती है और जिसे 'आराधना' और 'परिणीता' में दिखाया गया है, चलती थी. रास्ता बहुत मनोरम था. पर उस यात्रा की मुझे भी दहशत याद है, उन चाचा की जवान पत्नी की आँखों की दहशत. ननस् द्वारा चलाया वह सेनाटोरियम की सफेदी और धूलरहित चमकते फर्श देख कर लगा था कि शायद यहाँ वह ठीक हो जायेंगे पर कुछ ही दिनों में उनकी मृत्यु हो गयी.
आज भी शायद टीबी का नाम मन में दहशत भर देता है, हालाँकि आज इसका इलाज आसानी से हो सकता है और इससे डरने की कोई जरुरत नहीं है. फिर भी भारत में हर रोज करीब एक हजार व्यक्ति इस रोग की वजह से मरते हैं. दुनिया के सबसे अधिक क्षय रोगी हैं भारत में. इसकी वजह हमारी फैली हुई गरीबी है, जिसका उपचार उतना आसान नहीं. भारतीय क्षय रोग कार्यक्रम के बारे में जानना चाहते हैं तो टीबीसी इंडिया के पृष्ठ को देखें.
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कल सुबह अतुल का अमरीका आने से सम्बंधित लेख संग्रह "लाइफ इन एचओवी लेन" में पढ़ना शुरु किया तो अधूरा छोड़ने का मन नहीं कर रहा था, एक घंटे तक पढ़ता रहा, काम पर जाने में भी देर हो गयी. फिर भी पूरा नहीं पढ़ पाया, आज शाम को पढ़ने का प्रोग्राम है. यह भी अच्छा हुआ कि यह लेख मैंने पहले नहीं देखे थे, इसलिए उन्हें इक्ट्ठा पढ़ने का आनंद ले सकता हूँ! अतुल जी बहुत बढ़िया लिखा है.
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आज दो तस्वीरें उत्तरी इटली सेः
गुरुवार, नवंबर 10, 2005
धूप और छाँव
एक बार कहीं पढ़ा था कि चित्रकला विधि में सन १३०० और १४०० के आसपास पहली बार मानव शरीर के प्राकृतिक भावों का चित्रण होने लगा. इसकी शुरुआत इटली के कुछ चित्रकारों ने की. उससे पहले चित्रकारों का उद्देश्य था कि केवल सुंदर भावों वाले शरीर ही बनायें. माइकल एंजलो के कई चित्र हैं जिनमें झर्रियों वाले बूढ़े, टेड़े मेड़े शरीर वाले या बिना दाँत वाले, आम लोगों का चित्रण है.
क्या यह बात भारत पर भी लागू होती है? मुझे केवल इतना मालूम है कि मध्ययुगीन भारत में मुगल, काँगड़ा आदि चित्रकला की शैलियाँ थी, जिनमें मानव शरीर विषेश नियमबद्ध तरीके से दिखाये जाते थे, जिससे उनके प्राकृतिक रुप या भाव के बारे में कहना कठिन है. पर अगर पुरानी मूर्तियों के बारे में सोचूं या अजंता की गुफाओं में बने चित्रों के बारे में सोचूं तो कह नहीं सकता कि भारत में असुंदर या बैडोल व्यक्ति या भावों का चित्रण पुराने जमाने में कभी नहीं हुआ.
इटली के मध्ययुगीन चित्रकारों में से माइकल एंजलो और लियोनारदो दा विंची के नाम तो जग प्रसिद्ध हैं. पर उस युग के मेरे सबसे प्रिय कलाकार हैं कारावाज्जो (Caravaggio). उनका असली नाम था माइकल एंजलो मेरीसी, वह १५७१ में पैदा हुए और १६१० में ४१ वर्ष के आयु में मर गये. उन्हें इटली में "बदकिस्मत चित्रकार" के नाम से भी जानते हैं. उनके चित्र अपने "कियारो ओस्कूरो" (chiaro oscuro) यानि धूप-छाँव के प्रभावों के लिए प्रसिद्ध है. उनके हर चित्र में अँधेरे का बहुत महत्व है और चित्रपट का बहुत सा भाग काला होता है. अँधेरे में एक कोने से आती रोशनी की रेखा उनके बनाये पात्रों के चेहरों पर भावों को स्पष्ट कर देती है. परछाईयों से घिरे उनके बनाये चेहरों में मुझे लगता है कि मानव पीड़ा, स्नेह, गुस्सा, प्यार आदि भावनाएं ऐसी कोई अन्य चित्रकार नहीं दिखा पाया.
कारावाज्जो की चित्रकला के दो नमूने प्रस्तुत है. अगर आप उनके अन्य चित्र देखना चाहते हैं तो गूगल की तस्वीर खोज पर Caravaggio लिख कर देखिये.
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राजेश जी आप के संदेश के लिए बहुत धन्यवाद. जिस किताब की मैं बात कर रहा था उसका पूरा नाम है "बंगला की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ", इसे रमाशंकर द्विवेदी ने सम्पादित किया है और २००२ में दिल्ली के साक्षी प्रकाशन ने छापा है.
क्या यह बात भारत पर भी लागू होती है? मुझे केवल इतना मालूम है कि मध्ययुगीन भारत में मुगल, काँगड़ा आदि चित्रकला की शैलियाँ थी, जिनमें मानव शरीर विषेश नियमबद्ध तरीके से दिखाये जाते थे, जिससे उनके प्राकृतिक रुप या भाव के बारे में कहना कठिन है. पर अगर पुरानी मूर्तियों के बारे में सोचूं या अजंता की गुफाओं में बने चित्रों के बारे में सोचूं तो कह नहीं सकता कि भारत में असुंदर या बैडोल व्यक्ति या भावों का चित्रण पुराने जमाने में कभी नहीं हुआ.
इटली के मध्ययुगीन चित्रकारों में से माइकल एंजलो और लियोनारदो दा विंची के नाम तो जग प्रसिद्ध हैं. पर उस युग के मेरे सबसे प्रिय कलाकार हैं कारावाज्जो (Caravaggio). उनका असली नाम था माइकल एंजलो मेरीसी, वह १५७१ में पैदा हुए और १६१० में ४१ वर्ष के आयु में मर गये. उन्हें इटली में "बदकिस्मत चित्रकार" के नाम से भी जानते हैं. उनके चित्र अपने "कियारो ओस्कूरो" (chiaro oscuro) यानि धूप-छाँव के प्रभावों के लिए प्रसिद्ध है. उनके हर चित्र में अँधेरे का बहुत महत्व है और चित्रपट का बहुत सा भाग काला होता है. अँधेरे में एक कोने से आती रोशनी की रेखा उनके बनाये पात्रों के चेहरों पर भावों को स्पष्ट कर देती है. परछाईयों से घिरे उनके बनाये चेहरों में मुझे लगता है कि मानव पीड़ा, स्नेह, गुस्सा, प्यार आदि भावनाएं ऐसी कोई अन्य चित्रकार नहीं दिखा पाया.
कारावाज्जो की चित्रकला के दो नमूने प्रस्तुत है. अगर आप उनके अन्य चित्र देखना चाहते हैं तो गूगल की तस्वीर खोज पर Caravaggio लिख कर देखिये.
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राजेश जी आप के संदेश के लिए बहुत धन्यवाद. जिस किताब की मैं बात कर रहा था उसका पूरा नाम है "बंगला की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ", इसे रमाशंकर द्विवेदी ने सम्पादित किया है और २००२ में दिल्ली के साक्षी प्रकाशन ने छापा है.
बुधवार, नवंबर 09, 2005
कथानक में लेखक
आजकल मैं "बंगला की श्रेष्ठ कहानियाँ" पढ़ रहा हूँ और कल रात को प्रेमेन्द्र मित्र की एक कहानी "महानगर" पढ़ रहा था. कहानी का मुख्य पात्र है रतन, एक बच्चा जो पिता के साथ नाव में कलकत्ता आया है और पिता की नजर बचा कर अपनी बहन चपला को ढ़ूँढ़ने निकल पड़ता है. बहन शादी के बाद पति के घर गयी, जहाँ से कोई उसे उठा कर ले गया था और जब वापस मिली तो उसे पति और पिता के घरों में जगह नहीं मिली. रतन को सिर्फ उस जगह का नाम मालूम है जहाँ उसकी दीदी रहती है इसलिए ढ़ूँढ़ना आसान नहीं है पर आखिर वह उसे खोज ही लेता है. रतन बहुत छोटा है नहीं समझ पाता कि उसकी दीदी क्या करती है पर इतना समझ जाता है कि उसे घर वापस नहीं आने दिया जायेगा. अंत में रतन, पिता के पास वापस जाने से पहले दीदी को कहता है कि जब वह बड़ा हो जायेगा तो दीदी को अपने साथ ले जायेगा.
इस कहानी के पहले दो पृष्ठ, यानि कहानी का करीब २० प्रतिशत भाग, महानगरों की विषमतओं के बारे में दार्शनिक विवेचना है, कैसे बड़ा शहर कटु और मधुर दोनों रसों का समन्वय है पर क्यों गरीबों के हिस्से में कटु अनुभव ही अधिक मिलते हैं. इसी से सोच रहा था कि शायद आजकल के लेखक कथानक में अपने विचार ले कर इस तरह से स्पष्ट सामने नहीं आते, बल्कि अपनी बातें कहानी के पात्रों के मुख से कहलवाते हैं. इसी तरह, एक अन्य बंगला लेखक, बिमल मित्र, अक्सर इसी तरह अपनी कहानियां और उपन्यास एक लम्बी दार्शनिक विवेचना से प्रारम्भ करते हैं.
कुछ भी हो, लेखक का कहानी में स्वयं को छुपाना आसान नहीं. कभी वह खुद कहानी का पात्र बन कर "मैं, मुझे, मेरी" कहानी सुनाते हैं. कभी वह पात्रों के आसपास के वातावरण के बारे में समझाते दिखते हैं. कभी कभी वह चालाकी से अपने पात्रों के साथ इतना घुल मिल जाते हैं कि लगे कि वह कहानी अपने दृष्टिकोण से नहीं, एक "ओबजेक्टीव" दृष्टिकोण से बता रहे हैं, यानि मैं सिर्फ वही बता रहा हूँ जो हुआ था, पर हर सच्चाई देखने वाले की नजर के साथ बदल जाती है और लेखक स्वयं को नहीं छुपा पाता. फिर भी मुझे प्रेमेंद्र मित्र या बिमल मित्र का तरीका अधिक इमानदार लगता है, कि प्रारम्भ में ही स्पष्ट कर दीजिये कि लेखक का दृष्टिकोण क्या है, वह किस पात्र की तरफ है.
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स्वामी जी ने बताया कि हमारा चिट्ठा खोलने के साथ उनके क्मप्यूटर पर किसी केसीनों के तीन पोपअप खुल जाते हैं. सुन कर बहुत चिंता हो रही है, क्या चिट्ठे पर किसी हिंदी विरोधी "हैकर" की बुरी नजर तो नहीं पड़ी. क्या किसी अन्य पाठक को भी यह अनुभव हुआ है? मेरे क्मप्यूटर पर तो ऐसा नहीं होता और मैंने अपने मित्र के यहाँ से भी कोशिश करके देखा, वहाँ भी ऐसा नहीं हुआ. आप में ही से कोई अनुभवी साथी राय दीजिये कि क्या करना चाहिये, धन्यवाद.
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आज की तस्वीरें का विषय है जल पक्षी.
इस कहानी के पहले दो पृष्ठ, यानि कहानी का करीब २० प्रतिशत भाग, महानगरों की विषमतओं के बारे में दार्शनिक विवेचना है, कैसे बड़ा शहर कटु और मधुर दोनों रसों का समन्वय है पर क्यों गरीबों के हिस्से में कटु अनुभव ही अधिक मिलते हैं. इसी से सोच रहा था कि शायद आजकल के लेखक कथानक में अपने विचार ले कर इस तरह से स्पष्ट सामने नहीं आते, बल्कि अपनी बातें कहानी के पात्रों के मुख से कहलवाते हैं. इसी तरह, एक अन्य बंगला लेखक, बिमल मित्र, अक्सर इसी तरह अपनी कहानियां और उपन्यास एक लम्बी दार्शनिक विवेचना से प्रारम्भ करते हैं.
कुछ भी हो, लेखक का कहानी में स्वयं को छुपाना आसान नहीं. कभी वह खुद कहानी का पात्र बन कर "मैं, मुझे, मेरी" कहानी सुनाते हैं. कभी वह पात्रों के आसपास के वातावरण के बारे में समझाते दिखते हैं. कभी कभी वह चालाकी से अपने पात्रों के साथ इतना घुल मिल जाते हैं कि लगे कि वह कहानी अपने दृष्टिकोण से नहीं, एक "ओबजेक्टीव" दृष्टिकोण से बता रहे हैं, यानि मैं सिर्फ वही बता रहा हूँ जो हुआ था, पर हर सच्चाई देखने वाले की नजर के साथ बदल जाती है और लेखक स्वयं को नहीं छुपा पाता. फिर भी मुझे प्रेमेंद्र मित्र या बिमल मित्र का तरीका अधिक इमानदार लगता है, कि प्रारम्भ में ही स्पष्ट कर दीजिये कि लेखक का दृष्टिकोण क्या है, वह किस पात्र की तरफ है.
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स्वामी जी ने बताया कि हमारा चिट्ठा खोलने के साथ उनके क्मप्यूटर पर किसी केसीनों के तीन पोपअप खुल जाते हैं. सुन कर बहुत चिंता हो रही है, क्या चिट्ठे पर किसी हिंदी विरोधी "हैकर" की बुरी नजर तो नहीं पड़ी. क्या किसी अन्य पाठक को भी यह अनुभव हुआ है? मेरे क्मप्यूटर पर तो ऐसा नहीं होता और मैंने अपने मित्र के यहाँ से भी कोशिश करके देखा, वहाँ भी ऐसा नहीं हुआ. आप में ही से कोई अनुभवी साथी राय दीजिये कि क्या करना चाहिये, धन्यवाद.
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आज की तस्वीरें का विषय है जल पक्षी.
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