सोमवार, नवंबर 21, 2005

एक नयी रामायण

रामायण का भारतीय जीवन पर गहरा प्रभाव है. यह कहना कठिन है कि रामायण ने भारतीय परम्पराओं को बदल दिया या फिर तुलसीदास जी रामायण लिखते समय उस समय की प्रचलित भारतीय परम्पराओं से प्रभावित थे. जो भी हो, भारतीय समाज को कुछ परम्पराएँ बनाये रखने में रामायण की तरफ से सामाजिक तथा धार्मिक स्वीकृति मिल गयी.

रामायण स्त्रियों और पुरुषों दोनो के लिए आचरण का मापदंड बनी. पर शायद पुरुष समाज पर उसका कम असर पड़ता है? जहाँ रामायण बड़े भाई और छोटे भाई के बीच प्यार और सम्मान की शिक्षा देती है, यह शिक्षा मुम्बई के सिनेमा में तो जगह पाती है पर समान्य जीवन में पैसे, जयदाद, शक्ति के लिए लड़ने वाले भाईयों की कमी नहीं. गरीब या कम पैसे वालों की ही बात हो यह भी नहीं, देश के सबसे बड़े ओद्योगिक अम्बानी परिवार के भाई जब आपस में लड़े तो हजारों बातें हुई पर किसी ने यह नहीं कहा कि वे दोनो रामायण की शिक्षा को भूल गये थे.

पर रामायण का भारत की स्त्रियों और लड़कियों के जीवन पर क्या प्रभाव पड़ा? मेरे विचार में हिंदु धर्म की यह एक कमजोरी है कि हमारी किसी प्रमुख धार्मिक गाथा में हमारे देवी देवताओं की बेटियाँ नहीं होती. न रामायण में राम की कोई बहन है न बेटी, न कृष्ण की कोई बहन या बेटी, न शिव जी की, न हनुमान की... हाँ देवियाँ हैं, लक्ष्मी, पार्वती, सरस्वती पर यह सब किसी देवता की पत्नियाँ हैं. हो सकता है कि इतने वर्ष भारत से दूर रह कर मेरी यादाश्त कमजोर हो गयी हो और मैं ऐसे उदाहरण को भूल रहा हूँ जहाँ किसी प्रमुख देवता की बहन और बेटियाँ थीं. पर रामायण जिसका प्रभाव शायद सभी अन्य धार्मिक पुस्तकों से अधिक है, उसी आदर्श परिवार के उदाहरण देती लगती है जिसमें किसी की बहन या बेटी न हो.

अल्ट्रा साऊँड के सहारे जाँच कर स्त्री भ्रूण की हत्या, छोटी बच्चियों को जान से मार देना, स्कूल न भेजना, खाना कम देना, दहेज के लालच में जान ले लेना, सभी कुकर्म इतने आम हैं कि समाचार पत्र वाले भी छाप छाप कर थक जाते हें पर हमारे समाज को नहीं बदल पाते. और हमारे प्रमुख हिंदू गुरु, वे क्या कहते हें इन सबके बारे में ?

शायद आज भारत को एक नये तुलसीदास की आवश्यकता है जो नयी रामायण की संरचना करे. जिसमे राम की भी बहन हो जिसका लालन पालन दशरथ से पूरे गर्व और स्नेह से करें, जिसके सम्मानपूर्वक जीवन के लिए राम अपना भाई धर्म निभाएँ और जो स्वयं आत्मसम्मान और गौरव से जीवन बिताने का उदाहरण बने. नयी रामायण जिसमें राम की भी एक बेटी हो जिसे वह उतना ही प्यार करें जितना लव और कुश से करते हैं.



रविवार, नवंबर 20, 2005

हम फिल्में क्यों देखते हैं (अनूगूँज)

प्रश्न का उत्तर देने से पहले इस सवाल में दो बातों पर गौर करना ठीक होगा कि इसमें "हम" कौन हैं और दूसरा, कौन सी फिल्में क्यों देखते हैं. एक बार एक इतालियानो की पत्रिका में पढ़ा था कि सिर्फ तीन तरह के लोगों को अपने बारे में बात करते समय पुल्लिंग "हम" प्रयोग करने का अधिकार है. सम्राट शहनशाह, रोम के पोप और वे लोग जिनके पेट में कीड़े हों. चूँकि मैं इन तीनो में से किसी श्रेणीं में नहीं आता इसलिए यहाँ हम का अर्थ है परिवार, यानि हम लोग, मेरी पत्नी और पुत्र मिल कर क्यों फिल्म देखते हैं?

दूसरी बात है कौन सी फिल्मों की बात हो रही है. स्पष्ट है कि हिंदी के चिट्ठे में बात इतालियानो या अंग्रेजी की फिल्मों की नहीं, हिंदी की फिल्मों की बात हो रही है. चूँकि श्रीमति और पुत्र की हिंदी कुछ कमजोर है, कुछ गिने चुने शब्द ही समझ पाते हैं, साथ में बैठ कर हिंदी फिल्म देखने का अर्थ है कि मेरी साथ साथ हिंदी से इतालियानों में अनुवाद की भागती हुई कमेंट्री चलती है. इस बात पर भारत में कुछ बार सिनेमा हाल में फिल्म देखते हुए हमारे अनुभव कुछ अच्छे नहीं थे क्योंकि आसपास बैठे लोग मेरी कमेंट्री की सुंदरता और दक्षता को नहीं समझ पाते थे और लड़ने के लिए तैयार हो जाते थे. तब से हिंदी फिल्में केवल घर पर वीडियो केसेट या डीवीडी से देखी जाती हैं.

पुत्र को अंग्रेजी समझ आती है इसलिये अगर कोई फिल्म अगर श्रीमति को पसंद नहीं आती तो फिल्म को सबटाईटल्स के साथ देखा जाता है और मुझे कमेंट्री से छुटकारा मिलता है.

पत्नी की सबसे प्रिय फिल्म है "राम तेरी गंगा मैली" और दूसरे नम्बर पर "नगीना", यानि वे फिल्मे जो हमने भारत में रहते समय सिनेमा हाल में २० साल पहले देखी थीं. उन्हें "भारतीय मानक" वाली फिल्में अच्छी लगती हैं जिसमें स्त्रियाँ पश्चिमी पौशाकें नहीं पहने और भारतीय शैली में नृत्य करें. हालाँकि उन्होंने सास बहू वाले सीरियल नहीं देखे पर मेरा विचार है कि अगर वे यह देखतीं तो अवश्य पसंद करती.

पुत्र को बचपन में मिस्टर इंडिया और अजूबा बहुत पसंद थीं और आजकल वे भी शाहरुख खान और ऋतिक रोशन को पसंद करते हैं. "हम दिल दे चुके सनम" में उसे नायिका के पिता द्वारा आधे भारतीय आधे इतालवी लड़के को इस बात के लिए ठुकरा देने के दृष्य से बहुत धक्का लगा था. पर "कभी खुशी कभी गम" और "कल हो न हो" जैसी फिल्में देख कर वह आजकल वैसी ही पौशाक पहन कर शादी होने के सपने देख रहे हैं.

रही बात मेरी. बचपन से गंभीर फिल्में पसंद थीं. फिर जब इटली आये तो पहले दस साल तक छोटे से शहर इमोला में रहते थे जहाँ न कोई भारतीय थे न भारत से किसी तरह का कोई संबन्ध. तब हिंदी फिल्में ही भारत से नाता जोड़ती थीं. तभी हर तरह की हिंदी फिल्में देखने लगा. घटिया, बैसिर पैर की फिल्में भी, जाने क्यों लगता कि अगर कोई हिंदी फिल्म अच्छी न लगे तो भारत के साथ गद्दारी होगी. कई बार कुछ फिल्में इतनी बैतुकी होती थीं कि एक बार में पूरी देखी नहीं जाती इसलिए कड़वी दवा की तरह, धीरे धीरे करके किश्तों में देखता. सौभाग्यवश, आज दुनिया बदल गयी है. अंतरजाल के सहारे, भारत से नाता जोड़ने के अन्य कई तरीके बन गये हैं और किसी घटिया हिंदी फिल्म को पूरी न देखना, मुझे भारत से गद्दारी नहीं लगती. आज तो वही फिल्म देखता हूँ जो मन को भाये, जिससे भारत से नाता तो जुड़ा ही रहे पर साथ साथ देख कर भावनाओं और कला की दृष्टि से अच्छा लगे.

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रमण और कालीचरण ने कमबख्त का अर्थ तो बता दिया पर यह नहीं बताया कि बख्त शब्द किस भाषा से आया है?
हिंदी ब्लोगर ने बिहार में बन रहे नये हिंदी+अंग्रेजी शब्दों की बहुत अच्छी टिप्पड़ीं लिखी है. मेरे ख्याल से इस विषय पर उन्हे बहुत विस्तार से लिखना चाहिये.

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आज की तस्वीरों में घर कि खिड़की से दिखते पतझड़ के रंग



शनिवार, नवंबर 19, 2005

कमबख्त

शब्द कहाँ से और कैसे बनते हैं? कमबख्त शब्द कहाँ से आया? कई दिनों से यह बात मेरे दिमाग में घूम रही है कमबख्त के बारे में. कमबख्त किसी की कोसने के लिए या किसी को हल्की सी गाली देने के लिए कहते हैं.

शब्द का अर्थ समझने के लिए शब्द का संधी भेद करना आवश्यक है तो कमबख्त शब्द बना है कम और बख्त से. शायद इसका अर्थ हो "कम वक्त", जिसमें वक्त शब्द का पँजाबीकरण होते होते वह बख्त हो गया? पर किसी को यह कहना कि "तू कम+वक्त है" में गाली देने की क्या बात हुई? क्या भारत के ऋषी मुनियों ने आने वाले जीवन की भागा दौड़ी और उसमें फँसे प्राणियों की नियति जिनके पास जितना "समय बचाने" के उपकरण होंगे उतना ही समय कम होगा की भविष्यवाणी करते हुए कमबख्त शब्द का श्राप के रुप आविष्कार किया था?

या फिर बख्त शब्द बतख शब्द से बना है? यह तो मानना पड़ेगा कि बख्त और बतख शब्दों में गम्भीर फर्क है पर ऐसी भूल गुस्से मे हो सकती है कि शब्द कुछ बिगड़ कर निकलें. सोचिये कि एक बार कहीं कोई बतख वाला था जिसके पास बहुत बतखें थीं और एक दिन गुस्से में उनके अब्बू ने उन्हे बद् दुआ दी कि तेरी बतखें कम हो जायें पर उनके मुख से बजाये कम बतख के कमबख्त निकला और भूल से निकला यह शब्द उन्हें बहुत भाया, तब से वह जब किसी पर गुस्सा होते उसे कमबख्त कहते. धीरे धीरे इस नई गाली की प्रसिद्धि सारे देश में फैल गयी.

कुछ बात जमी नहीं इन बतखों की. शेखचिल्ली की कहानी लगती है.

या फिर यह शब्द बना काम + बख्त से? यानि कि तेरा काम बख्त हो जाये या कि तुम सारे काम बख्त कर देते हो? दुर्भाग्यवश शब्दावली बख्त शब्द का अर्थ नहीं देती पर यह तो मानना पड़ेगा कि "बख्त" सुन कर मन में कुछ बिगड़ने या नष्ट होने की छवि उभरती है.

मानता हूँ ऐसे शब्द के बारे में सोचना शोभनीय नहीं है. मुझे अपनी उम्र और गम्भीर छवि को देखते हुए, सोचने के लिए और भी हजारों गम्भीर शब्द मिल सकते हैं शब्दावली में, पर क्या करूँ अगर कमबख्त दिमाग मेरी सुनता ही नहीं और अपने सोवने के विषय स्वयं ही चुनता है?

आप सोच कर बताईये कि यह कमबख्त शब्द कैसे बना?

चूँकि आज बतखों की बात हुई है तो तस्वीरें भी बतखों की हैं.


शुक्रवार, नवंबर 18, 2005

इनसे मिलो

एक मीटिंग के लिए दिल्ली आया था, और उसके बाद कुछ दिन की छुट्टी ले कर रुक गया था. सभी पुराने मित्रों को टेलीफोन किया, जो करीब रहते थे उनसे मिलने भी गया. एक मित्र के यहाँ से पार्टी का न्यौता मिला. उसके विवाह की वर्षगाँठ थी. बचपन से साथ बड़े हुए थे हम, इसलिए उसे मना करने का तो सवाल ही नहीं हो सकता था.

वहाँ बहुत से अन्य जानने वालों से मिलने का मौका मिला. किसी से बात कर रहा था कि मेरा मित्र आ कर मुझे खींच कर ले गया, बोला तुझे किसी से मिलवाना है. एक युवती से मिलवाया. मैंने नमस्ते की, हालचाल पूछा, पूछा उनके पति देव कैसे हैं, कहाँ हैं, आदि सब बातें जो सभी किसी थोड़ी सी जान पहचान वाले से मिलने पर करते हैं.

रात को जब सब लोग चलने लगे तो मैंने भी मित्र से कहा कि मुझे भी चलना चाहिये.

"अरे रुक तो सही, बता क्या कहा? कैसे लगा उससे मिलना?" मित्र ने उत्सुकता से पूछा. "किससे मिलना कैसा लगा?"मैंने पूछा.

"अबे बन मत, इतनी देर तक घुल मिल कर बातें कर रहा था! क्या कहा उसको?"

तब समझ में आया कि वह उस युवती की बात कर रहा था, बोला, "तू भी यार, कम से कम किसी से मिलवाने से पहले बता तो सही कि कौन है, किससे मिलवा रहा है. बात क्या करनी थी, मैंने बस हालचाल पूछा. कौन थी वह, तेरे साले की दूसरी पत्नी?"

उसे विश्वास ही नहीं हुआ कि मैं उस युवती को सचमुच नहीं पहचान पाया था. कई साल पहले जब हम दोनो विद्यार्थी थे और तब भाभी, उसकी पत्नी नहीं प्रेमिका थीं, हम लोग बहुत बार इक्टठे बाहर जाते. ऐसे साथ घूमने में मुझे भाभी की एक सखी से प्रेम हो गया. मित्र से सहायता माँगी, भाभी से कहा पर कुछ बात नहीं बनी, क्योंकि उस लड़की की शादी कहीं पक्की हो गयी थी. कुछ दिनों तक मजनूँ की तरह दुखी रहा था तब, और मित्र व भाभी ने मिल कर बहुत दिलासा दिया था. उसी लड़की से मिलवाया था मित्र ने और मैंने उसे पहचाना ही नहीं!

बाद में मैंने सोचा कि ऐसा कैसे हो गया, जिससे प्यार करता था उसी को नहीं पहचाना? दिल को समझाया कि शायद इसकी वजह थी कि वह शादीशुदा थी और इन चार या पाँच वर्षों में बदल गयी थी. या फिर अपनी शादी होने के बाद मैं पुरानी सब ऐसी बातें भूल गया था.

और शायद यह बात भी हो कि सभी "कुछ कुछ होता है" के पहले प्यार वाले नहीं होते, कुछ, मुन्ना भाई भी होते हैं जो सोचते हैं, कि एक प्यार नहीं तो दूसरा सही? पर फिर भी मन से शक नहीं जाता कि मैं असली प्रेमी नहीं और अगर मेरे जैसे मजनूँ हों दुनिया में तो शायद लोगों का इश्क से विश्वास ही मिट जाये?


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अभिषेख जी, क्मप्यूटर पर हिंदी लिखना इतना कठिन नहीं.
अक्षरग्राम के सर्वज्ञ पर हिंदी में लिखने की चाह रखने वालों के लिए सभी जानकारी उपलब्ध है.

आज की तस्वीरों में संगीतकारों की युगल जोड़ियाँ:



गुरुवार, नवंबर 17, 2005

कितनी दूर आ गये

कल चिट्ठा पोस्ट करने लगा तो देखा कि वह १११ चिट्ठा था. देख कर अचरज भी हुआ, खुशी भी. सिर्फ छः महीने पहले भी ऐसा सोचना कि मैं यह कर सकता हूँ, नामुमकिन था.

जब भी यात्रा पर न हूँ तो हर रोज कुछ न कुछ अवश्य लिखूँगा, ऐसा सोचा था. पर शुरु शुरु में एक एक शब्द लिखने में इतनी देर लगती थी कि व्यस्त जिंदगी में इतना समय एक "शौक" के लिए निकालना आसान नहीं लगता था. यह सोचता था कि क्या लिखूँगा? और हिंदी तो भूलने सी लगी थी, सोचता अंग्रेजी या इतालवी में था फिर उसके अर्थ हिंदी में सोचता और अक्सर, हिंदी में अर्थ याद ही नहीं आते थे.

आज कीबोर्ड पर हिंदी लिखने में काफी तेजी आ गयी है. आज भी कभी कभी कोई शब्द ढ़ूँढ़ने के लिए शब्दावली निकाल कर देखनी पड़ती है, पर हिंदी लिखते समय हिंदी में ही सोचता हूँ. और लिखने के विषय के लिए कोई न कोई विचार हर रोज सुबह आ ही जाता है.

ऐसा कब तक चलेगा, मालूम नहीं. हो सकता है कि एक दिन क्मप्यूटर की सफेद स्क्रीन के सामने बैठा रह जाऊँ और कुछ समझ न आये कि क्या लिखूँ. पर आज तो यही सोच कर खुशी हो रही है कि इतने दूर आ गये हम.

आप सब पढ़ने वालों को और आवश्यकता पड़ने पर सहायता करने वालों को धन्यवाद.

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कल मुझे एक रेडियो पर साक्षात्कार के लिए बुलाया गया. किसी वेलेंतीना से टेलीफोन पर बात हुई थी. बोलोनिया का एक प्राईवेट रेडियो स्टेश्न है आस्तेरिस्को और उनका एक प्रोग्राम है जिसमें वह इटली में बसे प्रवासियों से परिचय करवाते हैं. रेडियो स्टेश्न पहुँचा तो पाया कि वह रेडियो स्टेश्न चलाने वाले को मैं बहुत पहले से जानता था. कामेरुन से आये फाऊस्तेन से मेरी मुलाकात कई साल पहले हुई थी जब वह अफ्रीका की संस्कृति के बारे में एक प्रदर्शनी तैयार कर रहे थे. उनकी पत्नी सरेना हमारे दफ्तर में ट्रेनिंग के लिए कुछ समय तक आती थीं.


फाऊस्तेन ने यह रेडियों प्रवासियों के लिए ही बनाया है और इसका उद्देश्य है विदेशों से आये प्रवासियों को अपनी संस्कृति, विचारों और कठिनाईयों के बारे में बात करने का मौका देना और उनकी इटली के समाज में समन्वय हो कर रहने में सहायता करना. ऐसी बातों से पैसे कमाना आसान नहीं पर वह अपने प्रोग्राम पूरे इटली में विभिन्न रेडियों स्टेश्नों को देते हैं और विभिन्न शहरों की सरकारें इन प्रोग्रामों को स्पोन्सर करती हैं. फ्राँस में हुए प्रवासियों के दंगों की बात सोच कर, शायद भविष्य में फाऊस्तिन के रेडियो को और भी स्पोन्सर मिलेंगे.

फाऊस्तेन ने मुझे इस रेडियो पर १ दिसंबर से एक नियमित प्रोग्राम करने के लिए कहा है. इसे वह "रेडियो ब्लाग" या रेलाग का नाम दे रहें हैं. सोमवार से शुक्रवार, हर रोज एक पाँच मिनट का ब्लाग. रोज रेडियो स्टेश्न जाना मेरे बस की बात नहीं पर एक बार जा कर दो‍तीन हफ्तों के लिए एक साथ ही रिकार्डिंग हो जायेगी. आस्तेरिस्को रेडियो अंतरजाल पर भी सुना जा सकता है, हालाँकि मेरा कार्यक्रम केवल इतालवी भाषा में होगा.

आज की तस्वीरों में फाऊस्तेन अपने परिवार के साथ और उनकी अफ्रीका प्रदर्शनी से एक पैनल:


बुधवार, नवंबर 16, 2005

धीरे जलना

क्या अर्थ है पहेली के इस गाने का, "धीरे जलना, धीरे जलना, जिंदगी की लौ पे जले हम"?

जीवन की आग में हमें धीरे धीरे जला कर पकाईये? पुराने तरीके से बिरयानी बनाने का ऐसे एक नुस्खे के बारे में कभी पढ़ा था कि हाँडी आग से बहुत ऊँची रख कर, चावल में थोड़ा सा पानी डालना चाहिये और उसे कड़छी से हिलाते रहिये, जब पानी सूखने लगे तो, थोड़ा सा और डाल दीजिये. कई घंटों में जाकर बिरयानी पकेगी.

अगर पत्नी को सलाह देनी होती है कि कोई चीज़ कैसे पकानी चाहिये, तो मेरी सलाह हमेशा धीरे धीरे पकाने वाले नुस्खों की होती है. इससे खाने में विषेश स्वाद आ जाता है, मैं कहता हूँ. पर उसे यह धीरे पकने वाले नुस्खों को तेजी से बनाने में मजा आता है. पहले पहले तो बहुत शौक से मुझे बतलाती थी कि कैसे उसने एक घंटे में बनने वाली चीज दस मिनट में बनायी.

"बैंगन का भुरता बनाया है, एक नये तरीके से", उसने प्रसन्न हो कर बताया था, "पहले कच्चे बैंगन को मिक्सी में डाल कर अच्छी तरह से महीन पीस लिया फिर तेज आग पर भून लिया, बन गया भुरता!"

"देखें भला कैसा बना है", हमने चखा और नाक सिकौड़ दी, "प्रिये, तुम्हें यह भारतीय खाना, भारतीय तरीके से ही बनाना चाहिये, तुम्हारी यह इटली की जल्दी, यहाँ के पास्ता बनाने में चल सकती है. अगर बैंगन को पहले आग पर भूनोगी नहीं, यूँ ही कच्चा मिक्सी में पीस दोगी तो उसमें वह विषेश भुना हुआ स्वाद नहीं आयेगा!"

"अच्छा, खाने के समय तो दस मिनट में जल्दी से खाना खा कर छुट्टी कर देते हो और मैं पहले एक घंटा पकाने में लगाऊँ और बाद में गैस के छेदों में से बैंगन के टुकड़े निकालते निकालते पागल हो जाऊँ?" वह बिगड़ कर बोली.

इसमे इतना बिगड़ने की क्या बात है, हमने समझाया, तुमने कहा था सच सच बताओ कैसे बने हैं और हमने सच बता दिया, बने तो अच्छे हैं पर यह तो "बैंगन पूरै" जैसी कुछ चीज बनी है इनमें भारतीय भुरते का स्वाद नहीं. भुनभुनाती रहीं वह उस शाम और खाने में हमें भुरता खाने को नहीं मिला.

कुछ सप्ताह बाद कुछ भारतीय मित्र घर पर खाने पर आये, उनमें एक दम्पति भी थे जिनका बोलोनिया में एक रेस्टोरेंट है. श्रीमति जी ने आलू के पराँठे और बैंगन का भुरता बनाया. तब तक हम भी भुरते वाली बात भूल चुके थे. हमने भी खूब खाया. सबने खूब तारीफ की खाने की. रेस्टोरेंट की मालकिन बोली, "मैं अपने कुक को भेज दूँगी उसे यह भुरता बनाना सिखा दो! भारत से बुलवाया है पर इतना बढ़िया भुरता कभी नहीं खाया."

श्रीमति जी ने हमारी ओर कटिल मुस्कान फैंकी और शुरु हो गयीं, "नया तरीका निकाला है भुरता बनाने का. जल्दी भी बन जाता है और गैस भी नहीं गंदी होती..."

आज की तस्वीरें बोलोनिया की भारतीय एसोसियेशन के समारोह की.


मंगलवार, नवंबर 15, 2005

लेखक और आदमी

मुनीष के चिट्ठे कविता सागर पर सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की एक सुंदर कविता पढ़ी. मुनीष जी को धन्यवाद.

सर्वेश्वर जी दिल्ली में राजेन्द्र नगर में हमारे घर के पास ही रहते थे और पिता के मित्र भी थे इसलिए अक्सर देखता था. वे तब साप्ताहिक पत्रिका "दिनमान" में काम करते थे. तब मैं नहीं जानता था कि वे क्या लिखते थे या कैसा लिखते थे.

लेखक, कवि, चित्रकार, कलाकार और समाजवादी कार्यकर्ता और नेता, यह सब बचपन के जीवन का भाग थे और सभी बच्चों की तरह मैं उनका कोई महत्व नहीं समझता था. दिल्ली में क्नाट प्लेस में आज जहाँ पालिका बाजार है, वहाँ कभी एमपोरियम और एक काफी हाऊस हुआ करता था. वही काफी हाऊस अड्डा था सब लोगों के मिलने का. कभी कभी पिता के साथ वहाँ गया था, पर उनकी कलाकारों की बातों में कोई दिलचस्पी नहीं होती थी, हर समय खाने और खेलने की ही सूझती थी.

चौदह या पंद्रह साल का था जब तीन लेखकों से परिचय हुआ सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, रघुवीर यादव और मोहन राकेश. उनमें से उस समय, केवल मोहन राकेश जी को लेखक की तरह जानता था. नया राजेंद्र नगर में पम्पोश की तरफ जाती सड़क पर, बाग के सामने वे तीसरी मंजिल पर बरसाती में रहते थे. करीब ही मेरी बुआ रहती थीं और बुआ के यहाँ छुट्टी में जाता तो दीदी के साथ उनके घर भी कई बार गया. उनके बारे में सोचूँ तो उनका छोटा कद, मोटा काला चश्मा, सिगार पीना और ठहाकेदार हँसी याद आती है. उनकी बेटी पूर्वा का मुंडन हुआ था और उसके गंजे सिर पर हाथ फेरना मुझे बहुत अच्छा लगता. जब १९७२ में अचानक उनकी मृत्यु हुई तो बहुत धक्का लगा था.

सर्वेश्वर जी और रघुवीर जी को मैंने कभी लेखक नहीं बल्कि पिता के मित्रों के रुप में ही देखा. इन्होंने क्या लिखा, मुझे कुछ नहीं मालूम था और न ही मेरी यह जानने की कोई दिलचस्पी थी. रघुवीर जी बच्चों के साथ आते. मंजरी, उनकी बड़ी बेटी मुझसे कुछ छोटी थी, उसी से बात होती और खेलते. अभी कुछ साल पहले जब हिंदी की लेखिका अलका सरावगी ने बताया कि उन्होंने अपनी थीसिस रघुवीर सहाय के लेखन पर की थी तो मुझे अचरज सा हुआ. रघुवीर जी लिखते थे? तब मैंने रघुवीर सहाय जी की किताबें ढ़ूँढ़ीं.

कल सर्वेश्वर जी कविता पढ़ कर यह सब बातें सोच रहा था. उनकी कविता "विवशता" की यह पंक्तियां मुझे बहुत अच्छी लगती हैं:

कितनी चुप चुप गयी रोशनी
छिप छिप आयी रात
कितनी सहर सहर कर
अधरों से फूटी दो बात


चार नयन मुस्काए
खोये, भीगे फिर पथराये
कितनी बड़ी विवशता
जीवन की कितनी कह पाये

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, रघुवीर सहाय और मोहन राकेश के बारे में आप अंतरजाल पर अनुभूति तथा अभिव्यक्ति पत्रिकाओं में पढ़ सकते हैं.

आज की तस्वीरें हैं भारतीय लोक गायकों की, अरुण चढ़्ढ़ा के दूरदर्शन सीरियल "१८५७ के लोकगीत" से.


इस वर्ष के लोकप्रिय आलेख