गुरुवार, दिसंबर 01, 2005

साईकल छाप

मुझे अपनी पहली साईकल मिली जब मैं आठवीं कक्षा में पहुँचा. मेरा विद्यालय अंग्रेजों के जमाने का था. कहते थे कि अंग्रेजों के जमाने में सर्दियों में कक्षाएँ दिल्ली में लगतीं और गर्मियों में शिमला में. बिरला मंदिर से जुड़ा हुए विद्यालय का नाम ऐसा कि विद्यालय शब्द उस के साथ ठीक नहीं बैठता, हारकोर्ट बटलर स्कूल. अन्य विद्यालयों के बच्चे हमें छेड़ने के लिए बटलर यानि खानसामा बुलाते. श्रीमान बटलर जी १९१८ में उत्तरप्रदेश के राज्यपाल नियुक्त हुए थे और उनके नाम से कई संस्थाएँ बनी हैं. बेचारी हिंदी और बेचारा भारत वर्ष, आज से पचास पहले भी अंग्रेजी बोलने और कोनवेंट स्कूलों में पढ़ने का ही रोब था इसलिए जब किसी को स्कूल का नाम बताते, अच्छा असर पड़ता था.

खैर बात को वापस अपनी साईकल की ओर ले चलते हैं. मेरे सभी मित्रों के पास साईकल ही थी, एक साथ मिल कर पढ़ने और घूमने जाते. कितनी भी दूर क्यों न जाना हो, जब तक साईकल थी, कुछ अन्य चिंता नहीं होती थी. नयी दिल्ली की बहुत सी सड़कें जो आज दुगनी या तिगुनी चौड़ी हो कर भी, यातायात से नयी टथपेस्ट की तरह भरी रहती हैं, उस समय साईकलों पर घूमने के लिए बहुत अच्छीं थीं. न भीड़ भड़क्का, न यह डर कि तेज कार चलाने वाले आप को नीचे गिरा दें.

तब मन में कभी यह भाव नहीं आया कि साईकल चलाना हमारे सम्मान या शान को कम करता है. तब भी वेस्पा और लेम्बरेटा होते तो थे पर इतने कम कि उनके लिए लोगों में लालच नहीं बना था. स्कूल के बाद कोलिज जाना शुरु किया तो भी साईकल से ही जाते. पर जब कोलिज से निकले तो जमाना बदल चुका था. बजाज और चेतक जैसे स्कूटर बाजार में आ रहे थे. बहुत महीने पहले उनकी बुकिंग करानी पड़ती, तब जा कर मिलते. लगा जैसे अचानक साईकल चलाना हीन बन गया हो, गरीबी की निशानी, स्कूटर न खरीद पाने की निशानी. हमारी साईकल भी रख दी गयी और कुछ दिन खाली रहने के बाद, मां के विद्यालय का माली उसे ले गया.

कुछ और दस सालों के बाद दुनिया फिर बदली. बाजार में मारुती आयी थी और मध्यमवर्ग की आकांक्षाएँ और ऊपर बढ़ीं. गाड़ी होनी चाहिये साहब, वरना जीवन में क्या रुतबा है. हमारा बजाज भी गया और उसकी जगह आयी नयी मारुती. अब शायद दिल्ली जाऊँ तो साइकल पर चढ़ने की हिम्मत नहीं होगी. लगता है कि वहाँ का सबसे प्रमुख यातायात नियम है, "जिसका जोर उसी का अधिकार". शायद साइकल वाले भी पैदल चलने वालों पर धौंस जमाते हों, पर स्कूटर और कारों के सामने बेचारे साईकल वाले बहुत सावधान रहते हैं.

और आज इटली में ? नयी दुनिया और नये विचार. एक तरफ बढ़ता वजन और रक्तचाप, हर कोई यही सलाह देता है कि व्यायाम कीजिये और वजन कम कीजिये. दूसरी तरफ पर्यावरण प्रदूषण के बारे में जानकारी और समझ बढ़ी है. साईकल से बढ़िया इलाज क्या मिलता. गर्मियों में काम पर जाने के लिए साईकल पर ही जाता हूँ, आठ किलोमीटर का ही तो रास्ता है, जिसका बहुत सा भाग बागों और खेतों के बीच में गुजरता है. किसी लाल बत्ती पर एक के पीछे एक लगी गाड़ियों की कतार को देखता हूँ, हर गाड़ी में लोग गुस्से वाले चेहरे लिए बैठे होते हैं, तो मन को बहुत खुशी होती है, उनके बीच में से सीटी बजाते हुए गुजरते हुए फट से निकल जाने में ! साईकल छाप हूँ मैं और इसका गर्व है मुझे.

आज की तस्वीर भी बटलर स्कूल के साथियों की याद में.

बुधवार, नवंबर 30, 2005

मानव संबंध

रात को टीवी पर हम सब लोग एक इतालवी फिल्म देख रहे थे, "अब रोने के सिवाय क्या करें" (Non ci resta che piangere) जिसके प्रमुख कलाकार थे रोबेर्तो बेनिन्यी (Benigni) और मासिमो तरोईसी (Troisi). बेनिन्यी का नाम तो ओस्कर मिलने के बाद लोगों को कुछ मालूम है पर तरोईसी का नाम इटली के बाहर अधिकतर अनजाना है. तरोईसी का स्थान इतालवी सिनेमा में कुछ वैसा ही जैसे जेम्स डीन का अमरीकी सिनेमा. थोड़े से समय में जनप्रिय हो जाना और जवान उम्र में मृत्यु होना, इन दोनो बातें में इन दोनो अभिनेताओं का भाग्य एक जैसा था. तरोईसी की सबसे प्रसिद्ध, और मेरे विचार में सबसे सुंदर फिल्म थी "डाकिया" (Il postino).

रात की फिल्म में बेनिन्यी बने थे एक स्कूल के अध्यापक और तरोईसी थे स्कूल के अदना कर्मचारी जो स्कूल का गेट का ध्यान रखता है, पानी पिलाता है, इत्यादि. और फिल्म में दोनो बहुत पक्के मित्र दिखाये गये है. फिल्म देखते हुए मन में एक बात आयी कि भारत में विभिन्न स्तरों पर काम करने वाले लोगों में इस तरह की बराबरी और मित्रता होना बहुत कठिन है. अगर बचपन में मित्रता रही भी हो तो बड़े होने पर, स्तर बदलने के साथ दोस्ती भी बदल जाती है. यानि कृष्ण और सुदामा की दोस्ती की कहानी किताबों में ही हो सकती है, आम जीवन में नहीं ?

करीब ३५ साल पहले किशोरपन में एक बार एक अंग्रेजी किताब पढ़ी थी जिसमें एक प्रसिद्ध सर्जन का अस्पताल में काम करने वाली एक सफाई कर्मचारी से प्यार हो जाता है. तब पढ़ कर बहुत अजीब लगा था और विश्वास नहीं हुआ था. वह किताब आधी ही छोड़ दी थी, पूरी नहीं पढ़ी थी. आज मेरे मित्रों में से एक डाक्टर हें जो कि अपने विभाग के अध्यक्ष हैं और उनकी जीवनसंगिनी, मेरे आफिस में सफाई करती हैं. ऐसी बात भारत में आज भी सोचना असंभव ही लगता है.

क्यों है ऐसा ? क्यों हमारे मानव संबंध व्यक्ति से नहीं उसके वर्ण और वर्ग से बनते हैं ? मुझे लगता है कि आज शहरों में रहने वाले लोग वर्ण और जाति भेद से कम प्रभावित होते हैं पर अपने मित्र चुनते समय उसका पैसा, काम और जीवक स्तर अवश्य देखते हैं ? शायद भारत में शारीरिक काम को नीचा देखा जाता है क्योंकि ये काम "निम्न" वर्णों के लिऐ बने थे ?
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निर्मल वर्मा की किताब "चीड़ों पर चाँदनी" उनके १९६० के आसपास के उनके यूरोप निवास मे बारे में यात्रा संस्मरण हैं. इसमें उन्होंने बताया था कि आईसलैंड की भाषा में भी "संबंध" शब्द का बिलकुल वही उच्चारण और अर्थ है जो कि हिंदी में है.

इतालवी और हिंदी में भी कई शब्दों के स्वर और अर्थ कुछ कुछ मिलते हैं जैसे "मरना" और "मुओरे", "जवान" और "ज्योवाने", और इतालवी की व्याकरण के नियम संस्कृत से मिलते हैं. इसका कारण भारतीय और यूरोपीय भाषाओं के एक ही मूल से जन्म लेना है.

रमण जी, आज कल मैं सोचता कुछ हूँ और लिखता कुछ और. माफ कीजिये. लगता है अतुल के अमरीका आने वाले लेखों का मुझपे गहरा प्रभाव पड़ा है और इसीलिए उन्हीं का नाम लिख दिया!

आज दो तस्वीरें उत्तरी पूर्व अफ्रीका में इरित्रेया देश में
एक यात्रा से.


मंगलवार, नवंबर 29, 2005

सही भाषा

हिंदी में कौन सा शब्द कैसे लिखें यह कौन निर्धारित करता है ? क्योंकि देश के विभिन्न भागों में हिंदी विभिन्न तरीके से बोली जाती है और हिंदी भाषा एक "फोनेटिक" भाषा है, जैसे बोली जायी वैसे ही लिखी जाये. न इसमें फ्राँसिसी और इतालवी भाषाओं जैसे कोई खामोश स्वर हैं, जो लिखे जायें पर बोले न जायें. न ही इसमें अंग्रेजी जैसे स्वर हैं जिन्हें एक शब्द में एक तरीके से बोला जाये और दूसरे शब्द में दूसरे तरीके से.

पिछले सप्ताह जब अपने पिता की १९५६ में ज्ञानोदय में छपी कहानी को क्मप्यूटर पर लिख रहा था तो देखा कि हर जगह "पहले" को "पहिले" लिखा था तो अचानक मेरठ की याद आ गयी, जहाँ कई लोग "मत करो" को "मति करो" कहते थे. सोचा कि यह उसी कारण से है कि देश के विभिन्न भागों में एक शब्द को अलग अलग तरह से बोलते हैं. इसमें सही गलत की बात नहीं.

हाँ इसमें मिलते जुलते स्वर अवश्य हैं जिनकी वजह से एक शब्द को आप विभिन्न तरीके से लिख सकते हैं जैसे "जायें" और "जाएँ", पर ऐसी स्थिति में इनमें शब्द को लिखने का एक प्रचलित तरीका हो सकता है जिसे हम सही मान सकते हैं. अतुल की टिप्पणीं पढ़ी तो यह सब सोचा. अतुल ने लिखा है कि मैं "टिप्पणीं" को "टिप्पड़ीं" क्यों लिखता हूँ ?

मैं तुरंत हिंदी का फादर कामिल बुल्के का शब्दकोष निकाल कर लाया. उसमें "टिप्पणीं" ही लिखा था. अच्छा, दूसरे शब्दकोष में देखते हैं, यह सोच कर मैं एलाईड का हिंदी शब्दकोष देखने लगा. उसमें भी टिप्पणीं ही लिखा था. फिर भी मैंने हार नहीं मानी. पुरानी सब किताबें घर के बेसमेंट के कमरे में बंद हैं, वहाँ से एक पुराना शब्दकोष ढ़ूँढ़ कर लाया, डा. भार्गव का अंग्रेजी शब्दकोष. उसमें भी टिप्पणीं ही पाया. आखिर हार माननी ही पड़ी. हो सकता है कि कुछ शब्द हिंदी में दो तरीकों से लिख सकते हैं पर टिप्पणीं उन शब्दों में नहीं है !

इसलिए अतुल को धन्यवाद. आगे से मेरी "टिप्पणियाँ" ही होगीं, "टिप्पड़ियाँ" नहीं.

एक सवाल अब भी है, क्या भारत में कोई ऐसी संस्था है जो यह निर्धारित करे कि हिंदी का कौन सा शब्द कैसे लिखना सही या गलत है, जिसकी सलाह मतभेद होने पर ली जा सके ?
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कई दिनों से चिट्ठा लिखने के कुछ विषय मेरे दिमाग में घूम रहे हैं और हर रोज रात को सोचता हूँ कि सुबह इस बात या उस बात पर लिखूँगा पर सुबह जब लिखने बैठता हूँ तो कुछ और ही बात लिखी जाती है. यानि कि लिखने में अनुशासन नहीं है !

आज की तस्वीरों का शीर्षक है चेहरे.



सोमवार, नवंबर 28, 2005

बेचारे आलोचक

किसी को बताना कि उसमें क्या कमी है, सबके बस की बात नहीं. खुले आम दो टूक बात करने के लिए पत्थर दिल चाहिये. मेरे पास कभी कभी वैज्ञानिक या चिकित्सा संबंधी पत्रिकाओं से रिव्यू करने के लिये लेख आते हैं. बहुत सी अंतर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं में बिना इस तरह के "पीयर रिव्यू" के बिना कुछ नहीं छपता. अंत में लेखक को सारी आलोचनाँए भेज दी जाती हैं ताकि वे अपने लेखों को सुधार सकें, हालाँकि उन्हें यह नहीं बताया जाता कि किन व्यक्तियों ने ये आलोचनाँए दी हैं. इसी अनुभव के बल पर जानता हूँ कि आम व्यक्तियों के लिए किसी की आलोचना करना कितना कठिन है.

आलोचना अगर आप लेखक की सहायता के लिए कर रहे हैं यानि आप चाहते हैं कि लेखक का लेखन सुधरे, तो उसे सृजनात्मक होना चाहिये. लेख के विभिन्न हिस्सों के बारे में, कहाँ क्या ठीक नहीं है या क्या कमजोर है, आदि बताना चाहिये और सुंदर, बोरिंग, बेकार जैसे शब्द नहीं इस्तेमाल करने चाहिये क्योंकि ये तो व्यक्तिगत अनुभूतियाँ हैं. पर ऐसा शायद वैज्ञानिक लेखों में करना आसान है और यह बात चिट्ठों पर लागू नहीं होती !

आलोचना करना अगर कठिन है तो अपनी आलोचना सुनना उससे भी अधिक कठिन. इसलिए जब वह अनाम संदेश पढ़ा कि किसी को मेरा लिखा नीरस लगता है तो धक्का सा लगा. पहले सोचा कि लिखूँ, "मैं भी आप की बात से बहुत सहमत हूँ, मुझे भी अपना लिखा नीरस लगता है और इसलिए अपना लिखा नहीं पढ़ता, अन्य दिलचस्प चिट्ठे बहुत हैं, उन्हे पढ़ता हूँ. आप भी ऐसा ही करिये." पर कुछ सोच कर लगा कि इस तरह आलोचना की हँसी उड़ाना ठीक नहीं, उसे गम्भीर सोच विचार कर दिये गये उत्तर की आवश्यकता है.

पर कल चिट्ठे के बाद जो संदेश आने शुरु हुए तो बंद ही नहीं हो रहे. सुहानूभूति और प्रोत्साहन के संदेश. आप सब को धन्यवाद.

पर मेरे मन में कुछ शक सा आ रहा है. पिछले दिनों कुछ "टिप्पड़ियाँ कम होने" पर बहस हो रही थी, यह कहीं कोई खुराफात तो नहीं है ? अगर है तो मैं सच कहता हूँ कि मेरा इसमे कोई हाथ नहीं था !

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जेनेवा यात्रा के दौरान, शाम को खाली होटल में बैठे, दो पुरानी कहानियों को क्मप्यूटर पर टाईप किया. एक कहानी है मेरे पिता द्वारा लिखी "आँसू और इंद्रधनुष" जो १९५६ में ज्ञानोदय में छपी थी और दूसरी कहानी है, "जूलिया" जो मैंने १९८३ में लिखी थी और धर्मयुग में छपी थी.


आज दो तस्वीरें कल के हिमपात की.


रविवार, नवंबर 27, 2005

यात्रा और मंजिल

कहते हैं कि जीवन एक यात्रा है और मृत्यु हम सब की मंजिल. इसलिए यात्रा में यात्रा का ही आनंद लेना चाहिये, मंजिल के बारे में नहीं सोचना चाहिये. मंजिल के बारे में सोचने लग जायें तो यात्रा का आनंद भी खो बैठते हैं. शायद यह बात जीवन यात्रा के लिए ही ठीक बैठती है, अन्य रोजमर्रा की सामान्य यात्राओं के लिए नहीं ?

अपनी पहली हवाई यात्रा की हल्की सी याद है मुझे. दिल्ली से रोम की यात्रा थी वह, जापान एयरलाईनस् के जहाज पर. मेरी फुफेरी बहन के पति जापान एयरलाईनस् में काम करते थे, उन्होंने ही टिकट बनवाया था और पहले दर्जे की सीट पर बिठवा दिया था. तब से जाने कितनी यात्राएं होने के बाद, आज हवाई यात्रा में काम पर कहीं भी जाना पड़े तो कोई विशेष उत्साह महसूस नहीं होता. कितने घंटे कहाँ पर इंतजार करना पड़ेगा इसकी चिंता अधिक होती है. और जहाज के भीतर जा कर, सारा समय किताब पढ़ने या कुछ काम करने में निकल जाता है.

जब कभी यात्रा अप्रयाशित रुप में अपने तैयार रास्ते से निकल कर कुछ नया कर देती है तब याद आती है यात्रा और मंजिल की बात. ऐसा ही कुछ हुआ कल सुबह, जेनेवा से वापस बोलोनिया के यात्रा में. परसों जेनेवा में बर्फ गिरी थी और बहुत सर्दी थी. पर कल सुबह जब जागा तो आसमान साफ हो गया था. जेनेवा से म्यूनिख की यात्रा में कोई विशेष बात नहीं हुई पर म्यूनिख में तेज बर्फ गिर रही थी. पहुँच कर पाया कि बोलोनिया का जहाज एक घंटा देर से चलने वाला था. घर पर टेलीफोन करके देरी का बताया और फिर बैठ कर एक किताब पढ़ने लगा. आखिरकार बोलोनिया की उड़ान भी तैयार हुई. जहाज से दिखा कि पूरा उत्तरी इटली बादलों से ढ़का है. एल्पस् के पहाड़ एक क्षण के लिये भी नहीं दिखे. फिर बोलोनिया पहुँचे तो जहाज बहुत देर तक आसमान में ही चक्कर काटता रहा. काफी देर बाद घोषणा हुई कि वहाँ तेज हिमपात की वजह से जहाज पीसा हवाई अड्डे जायेगा और वहाँ से बस द्वारा हमें बोलोनिया लाया जायेगा.

उसके तुरंत बाद जहाज में झटके से लगने लगे. शायद बाहर तेज तूफान था और हमारे छोटे से जहाज में झटके अधिक महसूस होते थे. दस पंद्रह मिनट तक इतनी बार ऊपर नीचे हुए कि कई लोगों ने मतली कर दी, एक सज्जन बेचारी एयर होस्टेस से लड़ने लगे. एक झटका इतनी जोर से आया कि ऊपर से ओक्सीजन का बाक्स खुल गया और मास्क नीचे आ गये. लगा कि अपनी जीवन यात्रा की मंजिल आ गयी. पीसा उतरे तो तेज हवा के साथ बारिश हो रही थी.

अगर म्यूनिख से पीसा की यात्रा रोमांचक थी तो पीसा से बोलोनिया की बस यात्रा भी कम रोमांचक नहीं थी. बर्फीले तूफान में पहाड़ों के बीच में हो कर गुजरना किसी भी भौतिकवादी को आध्यत्मवादी बनाने के लिए अच्छा तरीका है. तीन घंटे बाद जब बोलोनिया पहुँचे तो जेनेवा से यात्रा प्रारम्भ किये ११ घंटे हो चुके थे.

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"आपका लेखन कुछ नीरस टाइप का और एक ही ढर्रे पर रहने वाला है। कुछ नया क्‍यों नहीं ट्राई करते।" एक अनाम पाठक ने यह टिप्पड़ीं दी है. अनाम जी बहुत धन्यवाद क्यों कि आप ने मुझे यह सोचने पर मजबूर किया कि मैं चिट्ठा क्यों लिखता हूँ ? मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि मैं अपने लिए लिखना चाहता हूँ, जो मुझे भाये. मुझे लगता है कि अगर मैं यह सोच कर लिखूँ कि पढ़नेवालों को क्या अच्छा लगता है तो यह चिट्ठा लेखन के प्रति बेईमानी होगी. यह नहीं कि मैं उसे पढ़ने वालों के महत्व को छोटा करना चाहता हूँ पर अंतरजाल का यही तो मजा है कि आप के पास पढ़ने के लिए चुनने के लिए बहुत सारे चिट्ठे हैं.

आज की तस्वीरें जेनेवा यात्रा से.


बुधवार, नवंबर 23, 2005

बाग की नाली

हमारे शहर के संस्कृति विभाग ने इश्तेहार छाप दिये कि शहर के इतिहास को जानने पहचानने के लिए "अपने शहर को जानिये" नाम से मुफ्त टूर का आयोजन किया है जिसमें गाईड का काम करेंगे विश्वविद्यालय के जाने माने इतिहासकार. इसके साथ साथ इश्तेहार पर शहर के विभिन्न भागों के टूरों की तारीखें थीं. सभी टूर शनिवार या रविवार को थे ताकि अधिक से अधिक लोग उसमें भाग ले सकें. भाग लेने के लिए आप के पास साइकल का होना जरुरी था.

तुरंत मैं और मेरी पत्नी ने सोचा कि इनमें अवश्य भाग लेंगें. सुबह सुबह साइकल उठा कर पहुँच गये. हमारे गाईड जी आगे साइकल पर मेगाफोन ले कर चलते, उनके पीछे पीछे शहर का इतिहास जानने की इच्छुक भीड़. करीब ६० या ७० व्यक्ति. यातायात की रुकावटें न हों इसलिए यातायात पुलिस भी हमारे साथ साथ चलती. एक दिन ५०-५५ कि.मी. तक के सफर किये साइकल में, नदियों के पास पुरानी पगडँडियों पर, गिरे मकानों के खँडहरों के पास, शहर के आसपास की पहाड़ियों पर. इस तरह से घूमने से, आज मेरे विचार में हम लोगों को अपने शहर की इतनी बातें मालूम हैं जो कम ही लोगों को होंगी.

एक सुबह मिलने की जगह जहाँ से टूर प्रारम्भ होना था हमारे घर के करीब ही थी. मैंने सोचा कि जरुर हमें नदी और पुराने बंदरगाह के बारे में बतायेंगे क्योंकि यह दोनो हमारे घर से अधिक दूर नहीं हैं. जब काफिला शुरु हुआ तो हमें अचरज हुआ कि हमारे गाईड जी हमारे घर की ओर चल पड़े. जब वे हमारे घर के पीछे वाले बाग में घुसे तो हमारा अचरज और भी बढ़ा. यह बाग बहुत सुंदर है और बड़ा है, पर उसमें एतिहासिक क्या है ? आखिर में गाईड जी हमारे बाग के कोने में एक छोटा सा नाला बहता है वहाँ जा कर रुके. पहले उन्होने उँगली उठायी नाले के पीछे दिख रहे चर्च की ओर, और ११६२ में बने चर्च का इतिहास बताया.

फिर उन्होंने इशारा किया नाले की ओर व उसका भी इतिहास बताया. १४६८ में बोलोनिया शहर वापस पोप के शासन का भाग बन गया था. शहर के आसपास गुजरती रेनो नदी के पानी का उपयोग बेहतर करने के लिए शहर में पहले से ही कई नहरें थीं पर उस समय के पोप जिन्हें पोप गिसेल्लो कहते थे क्योंकि वे बोलोनिया के पास ही प्रसिद्ध गिसेल्लो परिवार से थे, एक नहर और बनवाने का निश्चय किया. वह हमारा नाला वही नहर थी, १४६८ में बनी.

जब भी कुत्ते के साथ घूमने निकलता हूँ और नाले पर दृष्टी पड़ती है उसका इतिहास मुझे याद आ जाता है. और घर पर आये महमानों को हम अपने घर के पीछे छुपे इतिहास के बारे में बताना नहीं भूलते.
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आज सुबह मुझे कुछ दिन के लिए बाहर जाना है. रविवार २७ नवम्बर को लौटने पर फिर मुलाकात होगी. आज एक तस्वीर बर्फ से ढ़के हमारे "एतिहासिक" बाग से हैं.

मंगलवार, नवंबर 22, 2005

इस मोड़ से जाती थीं

खेत तिलक नगर से उत्तम नगर के रास्ते पर शुरु हो जाते थे. उसके बाद आता नवादा. अम्मा और बापू नवादा में रहते थे. अम्मा के मिट्टी के घर पर मोर रहते थे. तीन मोर और बहुत सारी मोरनियाँ. अम्मा के यहाँ खाने में मिलती मोटी सी रोटी जिसके साथ वह मक्खन का बड़ा सा टुकड़ा रख देती. और पीने के लिए ठंडी छाछ जिसमें से उपलों की खुशबू आती थी. अम्मा का घर गाँव के बाहर किनारे पर था. उस बार होली देखने के लिए हम लोग गाँव के बीच में जो पानी की टँकी थी उसके पास एक घर में छत पर गये थे. रँगों और गुब्बारों से होली खेलने वाले हम, गाँव की मिट्टी और कीचड़ की होली को अचरज और हल्की सी झुरझुरी से देख रहे थे. पानी की टँकी के पास लड़के और पुरुष पानी की बाल्टियाँ ले कर औरतों के पीछे भाग रहे थे, जो कपड़ों को घुमा और लपेट कर उनके डँडे बना कर उनसे उन लड़कों और पुरुषों को मार रही थीं.

जितनी बार नवादा के सामने से गुजरता होली का यह दृष्य मुझे याद आ जाता. नवादा से दो किलोमीटर आगे सड़क के किनारे नाना का फार्म था. हम लोग, मैं और मौसी, अक्सर फार्म से नवादा की दुकान तक कुछ भी खरीदना हो तो पैदल ही आते थे. अम्मा और बापू कहने को हमारे कोई नहीं थे पर माँ को जब स्कूल में पढ़ाने की नौकरी मिली थी तो सबसे पहले वो नवादा के प्राईमरी स्कूल में थी और माँ तब अम्मा के साथ रहती थी. बापू दिल्ली परिवहन की बस चलाते थे और अम्मा बापू का कोई अपना बच्चा नहीं था.

नाना के फार्म के साथ एक पुरानी पत्थर की हवेली के खँडहर थे. सामने ककरौला को सड़क जाती थी इसलिए उस जगह को सब ककरौला मौड़ कहते थे. आगे चल कर नजफगड़ था पर हम लोग न कभी ककरौला गये न नजफगड़. दोपहर को गर्मियों में खँडहर की ठँडक में बैठ कर हम लोग खेतों से ले कर ककड़ियाँ और तरबूज खाते. गोबर इक्टठा करने और कभी कभी नवादे से दूध लाने के अलावा हमारा अन्य कोई काम नहीं था. लक्की, नाना का कुत्ता हमारा रक्षक और साथी था. दूर दूर तक असीमित खेत और सूनापन.

अब तिलक नगर से नजफगड़ तक घर और दुकानों की लगातार कतारें हैं. मामी जी का स्कूल है वहाँ, जहाँ नाना का फार्म था, ग्रीन मीडोस स्कूल. जहाँ खँडहर थे, बड़े बड़े घर हैं. उन सड़कों पर गाड़ियाँ, स्कूटरों की भीड़ है. नवादा दिल्ली मेट्रों का स्टाप बनेगा और जहाँ ककरौला मोड़ था वहाँ मेट्रो का "द्वारका मोड़" का स्टोप बन रहा है. पिछली बार दिल्ली गया तो मौसी बोली, "तुम्हें विश्वास नहीं होगा कितना बदल गया है. जब मेट्रो पूरा बन जायेगा तब तो और भी बढ़िया हो जायेगा."

जी उदास हो गया. और वो खेत, वो पेड़, वो कूँए उनका क्या हुआ ? कहाँ खो गये वे, सीमेंट के जँगल में. गुलजार का गीत याद आ गया, "इस मोड़ से जाते हैं कुछ सुस्त कदम राहें, कुछ तेज कदम रस्ते". बचपन की सुस्त कदम राहें, सब तेज कदम रास्तों में बदल गयीं. शायद यह उदासी खोये गाँव के लिए नहीं, खोये बचपन के लिए है ?

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नितिन जी ने लिखा है कि कृष्ण की बहन थी, सुभद्रा जिसे उन्होंने खुद भगाया था. शायद धर्म ग्रँथ नहीं सिखाते जीवन और सामाजिक आचरण के नियम, समाज चुनता है वही धर्म ग्रँथ जो उसके प्रचलित सामाजिक आचरण पर स्वीकृति और नैतिकता की मोहर लगा सके ? वरना राम ही क्यूँ बनते परिवार के आदर्श, कृष्ण भी तो हो सकते थे ?


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