आम हिंदी फिल्मों का सोचें तो यह फिल्म उनसे बहुत अच्छी है. न कोई बेसिर पैर की बेतुकी बातें हैं न बीच में जबरदस्ती घुसाये "आईटम सांग" या कामेडी. सीधी, स्पष्ट कहानी और बहुत सारे कलाकारों के दिल को छू लेने वाला अभिनय. इकबाल के रुप में श्रेयास तालपड़े और उसकी बहन के रुप में श्वेता नाम की बच्ची दोनो ही बहुत अच्छे लगे.
कुछ एक दृष्य भी मन को छू लेते हैं, पर फ़िर भी, कुछ कमी सी लगी. गलत नहीं समझईये मेरी आलोचना को. जैसे पहले कहा, फ़िल्म आम बालीवुड मसाला फि्लमों से बहुत अच्छी है और उसे दोबारा देखना पड़े तो खुशी से देखूँगा. पर कुकुनूर जी से उम्मीद "केवल अच्छी" फ़िल्म की नहीं, कुछ उससे अधिक ही थी.
तो क्या बात है फ़िल्म में जो कुछ पूरी खरी नहीं लगी ?
पहली बात तो यह कि मुझे लगा कि कहानी दिल से नहीं दिमाग से लिखी गयी लगती है, जैसे नागेश जी ने मेज़ पर बैठ कर सोचा हो कि कैसे लड़के का सपना और लड़ाई को अधिक कठिन किया जाये, चलिये गाँव का होने वाला के साथ साथ उसे गूँगा और बहरा बना देते हैं. अच्छा शुरु में टेंशन बनाने के लिए उसे अकादमी में भरती होता दिखा देते हैं फ़िर कुछ सिचुऐशन बना कर उसे वहाँ से बाहर निकाल देंगे. इसी तरह सारी फिल्म मुझे ऐसे ही दिमाग से सोच कर बानयी गयी लगती है और उसमें जीवन के हृदय से छुआ सच कम लगता है.
शायद यही बात है कि गूँगे बहरे लड़के इकबाल की सारी लड़ाई परिस्थितियों और दूसरे खलनायकों के साथ हैं जो कि कहानी को नाटकीय मोड़ देने के लिए कभी अच्छे बनते हैं और कभी बुरे. गिरीश करनाड़ का चरित्र और उसका अंत तक खलनायक बनना और धमकी देना कुछ ऐसा ही नकली सा लगा. वैसा ही अविश्वासनीय सी नाटकीय मोड़ देने की ही लिए लगी इकबाल की अपने पिता से लड़ाई.
पर गाँव से आये लड़के की शहर के "ऐलीट" खेल में घुसने की असली लड़ाई इतनी आसान नहीं होती. जो लोग, गाँव के रहने वालों को "अनपढ़, गँवार और संस्कृति विहीन, निचले स्तर के लोग" सा सोचती है, उस सोच से लड़ाई होती है जिसके बारे में फिल्म कुछ विषेश नहीं कहती.
विकलाँग व्यक्तियों और बच्चों की लड़ाई भी ऐसे ही, लोगों के सोचने के तरीके से होती है, जो उन्हें शारीरिक विकलाँगता के साथ, मानसिक कमजोरी को जोड़ कर देखती है. उसका भी फिल्म में कुछ विषेश जिक्र नहीं है.
अभिनेताओं में से नसीरुद्दीनशाह से कुछ आनंद नहीं आया, लगा मानो वह अपने पात्र के चरित्र से पूरी तरह संतुष्ट नहीं हैं. हाँ, इतने अच्छे कलाकार हैं कि उनका आधा संतुष्ट हुआ अभिनय भी कम नहीं है, पर उनसे भी मुझे सिर्फ "अच्छा" काम करना कम लगता है.
सोच रहा था कि डीवीडी का क्या हिंदी में शब्द बना है कोई ? Digital Video Disk को "साँख्यिक छायाचलचित्र तशतरी" यानि स.छ.त. कहें तो कैसा रहेगा ?
यह सिर्फ मज़ाक में ही कह रहा हूँ. मेरे विचार में हर शब्द का हिंदी शब्द ढ़ूँढ़ना जरुरी नहीं है, कुछ शब्द दूसरी भाषाओं से ले कर भी उनका भारतीयकरण हो जाता है.