लाउरा का कहना है कि हमारे कानों के भीतर स्वर और शरीर तालमेल का अंग (कोकलिया) साथ साथ बने हैं. शरीर के बहुत से हिस्सों में ठीक से काम न कर पाने की वजह इन्हीं दोनो अंगों के तालमेल के बिगड़ना है. इसलिए उनके इलाज में कानों की ध्वनि का विभिन्न स्वर स्तरों का मापकरण और उसके हिसाब से सँगीत उपचार का विषेश रुप है.
बाद में लाउरा से बात करने का मौका भी मिला, तो इस बातों पर अन्य कुछ जानकारी भी उसने दी.
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फ़िर सोच रहा था सँगीत के बारे में और कैसे वह हमारे सारे जीवन में मिल जाता है. उत्तरी भारत में पैदा हो कर हिंदी फिल्मी सँगीत से आप का अनजान रहना हो ही नहीं सकता. आप अपने घर में रेडियो या टेलीविजन न भी रखें, आप के पड़ोसी या कोई भी उत्सव बिना इस सँगीत के पूरे नहीं होते. मुझे लगता है कि लता मँगेश्कर जी जैसे गायकों के गानों से बचपन से ही अपना सँगीत उपचार प्रारम्भ हो जाता है जिसे मुझ जैसे प्रवासी हर कठिनाई के क्षण में खोजते हैं!
लता जी के बहुत से गाने मुझे बहुत प्रिय हैं, विषेशकर एक गीत जिससे मुझे कठिनाई के क्षण में लड़ने की प्रेरणा मिलती है. गीत कौन सी फिल्म से है, यह मुझे ठीक से याद नहीं (इसमे शायद ईस्वामी की सहायता मिलगी, यह गीत जया भादुड़ी पर फिल्माया गया था और उनके साथ थे अनिल धवन) और गीत हैः
रातों के साये घने, जब बोझ दिल पर बने
न तो जले बाती, न हो कोई साथी
फिर भी न डर, अगर बुझे दिये
सहर तो है तेरे लिए
जब भी कभी मुझे कोई जो गम घेरें
लगता हैं होंगे नहीं, सपने ये पूरे मेरे
कहता है दिल मुझको, सहना है गम तुझको
फिर भी न डर, अगर बुझे दिए
सहर तो है तेरे लिए
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आज की तस्वीरों में हैं घोड़े