कुछ दिन पहले फ़्योरेल्लो ने टेलीविजन पर एक कार्यक्रम में पोप बेनेदेत्तो की नकल उतारी. अगले दिन वेटिकेन के समाचारपत्र ने और स्वयं पोप के प्रेस सम्पर्क अधिकारी ने इसकी आलोचना की, कि फ़योरेल्लो को पोप, जो कि कैथोलिक धर्म के सबसे उच्च पादरी हैं, उनके बारे में इस तरह की घटिया बातें नहीं करनी चाहिए थीं. एक सप्ताह बाद फ़्योरेल्लो दोबारा टेलीविजन पर आये और इस बार वेटीकेन द्वारा की गयी आलोचना की नकल करके उसका मजाक उड़ाया. वेटीकेन की तरफ़ से इस बार आलोचना और भी कड़ी हुई.
इस घटना पर यहाँ की पत्रिका "इंतरनात्सोनाले" ने सम्पादकीय लिखा है जो मुझे विचारनीय लगा. ज्योवान्नी दे माउरो, इस पत्रिका के सम्पादक लिखते हैं, "इस बात पर चिंता होती है कि यह प्रवृति बढ़ती जा रही है कि किसी भी बात पर मतभेद हो तो चर्च अपना दृष्टिकोण हर हाल में जबदस्ती मनवाना चाहता है, बिना यह सोचे की लोगों को सोचने की स्वतंत्रता है और विभिन्न विचार रख कर भी हम शाँति से साथ रह सकते हैं. अगर आप को वह नकल नहीं अच्छी लगी, तो चैनल बदल लीजिये, या फ़िर टीवी बंद करके कोई किताब पढ़िये. यह जिद करना कि उसे कोई भी न देखे, यह कहाँ तक ठीक है?"
कुछ ऐसा ही झगड़ा इन्ही दिनों में एक अन्य इतालवी टीवी फ़िल्म के बारे में हुआ है जिसमें एक इतालवी लेसबियन युवती अपनी स्पेनिश प्रेमिका से स्पेन में विवाह करती है, क्योंकि स्पेन में अब यह नया कानून है जो समलैंगिक युगलों को विवाह की अनुमति देता है. इस बात पर कुछ दिनों तक समाचार पत्रों पर बहुत बहस हुई कि इस तरह का कार्यक्रम शाम को ऐसे समय नहीं दिखाया जाना चाहिये था जब बच्चे भी टेलीविजन देखते हैं या फ़िर, ऐसी फ़िल्में क्या सरकारी चैनल पर दिखाई जानी चाहिये जो कि देश की संस्कृति के विरुद्ध हैं?
मुझे लगा कि यह बहस बेकार की थी. यहाँ टीवी पर शाम को "केवल व्यस्कों के लिए" वाली फ़िल्में आम दिखाई जाती हैं, बस कोने में लाल बिंदू लगा दिया जाता है ताकि माता पिता को मालूम रहे कि यह फ़िल्म उन्हें छोटे बच्चों को नहीं दिखानी चाहिए. अगर नग्नता, सेक्स और हिंसा के दृष्यों को दिखाया जा सकता है तो दो लेसबियन युवतियों के प्यार को दिखाने में क्या परेशानी है? बहस इस लिए भी बेकार लगी क्योंकि लेसबियन युवतियों के बारे में इस फ़िल्म में सेक्स या चुम्बन जैसी कोई बात नहीं थी, फ़िल्म की कथा थी कि कैसे उनमें से एक युवती अपने पिता को बताये कि वह शादी करने वाली है और किससे शादी करने वाली है, यानि परिवारिक कथा थी.
भारत में इस तरह के विषयों पर कुछ भी बात करना कितना कठिन है और किसी भी धर्म या जाति के लोगों को तोड़ फोड़ करके, डराना धमका कर किताब या कला या फ़िल्म पर रोक लगवाना कितना आम हो रहा है, और पुलिस या कानून कुछ नहीं करते, चुपचाप तमाशा देखते हैं! साथ साथ, बात साँस्कृतिक भेदों की भी है. भारतीय सभ्यता में अपने से बड़ों के बारे में, संत माने जाने वाले लोगों के बारे में, सत्ता में होने वाले राजनीतिक नेताओं के बारे में, धार्मिक नेताओं के बारे में, इत्यादि बहुत से ऐसे सामाजिक बँधन से बने हुए हैं जिनके बारे में आम व्यक्तियों की तरह से बात कर पाना बहुत कठिन है. मुझे इतालवी सभ्यता की यह बात कि कोई कितना ही बड़ा क्यों न हो, या कितना भी जाना पहचाना नेता या धर्मगुरु हो, उसके बारे में भी बात करना या किसी विषेश बात की आलोचना करना अपराध न माना जाये. हाँ, इस वैचारिक स्वाधीनता का यह अर्थ नहीं हो सकता कि किसी के व्यक्तिगत जीवन के प्रश्न उछाले जायें या फ़िर हिंसा और नफ़रत के लिए भड़काया जाये.