शुक्रवार, मार्च 14, 2008

अमलतास और टेसू की आग

आखिरकार बसंत आ ही गया. पिछले एक सप्ताह से सुबह चार बजे से ही बाहर के पेड़ों पर पक्षियों कि चहचहाहट शुरु हो जाती है. कई बार लगता है कव्वाली की प्रतियोगिता हो रही हो. पहले एक पक्षी तान बजाता है, फ़िर दूसरा उसके उत्तर में उसी तान को कुछ बदल कर, कुछ लम्बा कर कर उसका उत्तर देता है. तब पहले वाला दोबारा सा नया नमूना प्रस्तुत करता है. सो रहे हो तो यह सुबह उठने का अलार्म सुंदर तो है पर आवश्यकता से पहले बजने लगता है. सुबह जल्दी उठने की आदत है मुझे पर चार बजे तो मेरे लिए भी बहुत जल्दी है!

थोड़े ही दिन में आदत पड़ जायेगी, फ़िर सुबह सुबह चार बजे नींद नहीं खुलेगी, पर जब पाँच बजे हमेशा की तरह उठूँगा तो पक्षियों की चहचहाहट सुन कर मन प्रसन्न हो जाता है.

आज काम से छुट्टी है. सुबह आँख खुली तो भी बिस्तर पर लेटा रहा और किताब पढ़ता रहा. गुलज़ार की फ़िल्मों के बारे में साइबल चैटर्जी ने किताब लिखी है, ""गुलज़ार का जीवन और सिनेमा" (Echoes & Eloquences - life and cinema of Gulzaar), वही पढ़ रहा हूँ. गुलज़ार की फ़िल्में, उनकी कहानियाँ, उनकी कविताँए सब ही मुझे प्रिय हैं इसलिए उन फ़िल्मों के पीछे छुपी बातों को जानने की मन में बहुत उत्सुकता थी. आठ बजे उठना पड़ा क्योंकि आज घर पर होने से कुत्ते को सैर कराने की ज़िम्मेदारी मेरी ही थी.

बाहर निकले तो सब तरफ़ दूधिया धुँध थी, मानो पतीले से उबल कर बाहर बिखर गयी हो. गुलज़ार के बारे में पढ़ो तो साधारण जीवन की उपमाओं में बात करना अच्छा लगता है, इसमें उनके जैसा उस्ताद कोई अन्य नहीं.

बाग की ओर गये तो धुँध के साथ मखमली घास की हरियाली और फ़ूलों से भरे पेड़ देख कर लगा कि हाँ सचमुच बसंत आखिर आ ही गया. बाग में घुसते ही कुछ लम्बे और पँख जैसी आकृति वाले पेड़ हैं जिन्हें इतालवी भाषा में प्योप्पो कहते हैं. आम प्योप्पो की आकृति साधारण वृक्षों जैसी होती है जबकि हमारे बाग वाले पेड़ कुछ अजीब से हैं. जब उमस अधिक होती है तो यह पेड़ वातावरण से उमस को ले कर उसका पानी बना देते हें और पेड़ के नीचे खड़े हो तो पानी की बूँदें सी गिरती रहती हैं. जब गर्मी अधिक हो और उमस हो तो इस पेड़ के नीचे खड़ा होना सुखद लगता है. इसके फ़ूल कुछ शहतूत जैसे, कुछ कानखजूरे जैसे लग रहे थे, बाग की सारी सड़क को ढके हुए. (नीचे तस्वीर में प्योप्पो के पेड़)



बाग की हर सड़क पर अलग पेड़ लगे हैं, एक तरफ़ शहतूत, दूसरी ओर चेरी, एक ओर होर्स चेस्टनट यानि "घोड़े के अखरोट", पीछे नाशपाती और सेब. सभी पेड़ फ़ूलों से भरे हैं. अभी घास हरी है, वह फ़ूलों की चादर के नीचे नहीं छुपी है. पिछले साल इन्हीं दिनों में जब सारी घास फ़ूलों से छुप गयी थी, हम सब लोग एक रविवार को बाग में पिकनिक के लिए गये थे. इस बार भी, थोड़ी सी सर्दी कम हो तो पिकनिक का कार्यक्रम बने. (नीचे तस्वीर में पिछले साल की पिकनिक में बेटा और पुत्रवधु, और कुत्ता ब्राँदो)



देखा कि बाग में लगी एक बैंच को किसी ने तोड़ दिया है. रात को अक्सर नवजवान लड़के लड़कियाँ देर तक बैठे रहते हैं, हो सकता है कि उनमें से किसी ने अधिक पी ली हो या नशा किया हो, तो अपने करतब बेचारे बैंच को तोड़ कर दिखाये.

दूसरी ओर आदमी बच्चों के लिए नये झूले लगा रहे थे. यह गनीमत है कि शरारती लड़कों ने अभी तक बच्चों के झूलों से तोड़ फोड़ नहीं की है. तब सोच रहा था कि यहाँ हर झूले का अपना अलग नाम होता है, जब कि हिंदी में बस एक झूला ही होता है, चाहे वह झूलने वाला हो, या फ़िसलने वाला या गोल चक्कर लेने वाला या कोई और. शायद इसका कारण है कि भारत में पहले विभिन्न तरह के झूले नहीं होते थे और यह सब विदेशी प्रभाव से ही आये हैं?

सैर के बाद घर आने लगे तो अचानक मन में होली की बात आ गयी. इन दिनों में दिल्ली में बुद्ध जयंती वाली सड़क और बाग में अमलतास के पेड़ों पर पीले फ़ूलों और रिज से जाने वाली सड़क पर टेसू के फ़ूलों की लाल आग लगी होगी. दिन में गर्मी हो जाती होगी पर सुबह सुबह उस तरफ़ घूमने जाना कितना अच्छा लगता होगा. थोड़े दिनों में गुलमोहर के लाल फ़ूलों की बारी आती होगी! यह होली भी इसी तरह बीत जायेगी, बिना रँगो की, बिना मित्रों की. अचानक मन उदास हो गया.

मंगलवार, मार्च 11, 2008

संगीत और शोर

पिछले तीन चार सालों से काम करते समय जब भी अकेला होता हूँ तो संगीत सुनने की आदत सी पढ़ गयी है. इंटरनेट का कोई भारतीय स्टेशन खोज कर दुनिया में कहीं भी भारतीय संगीत सुनना आज जितना आसान है उतना पहले कभी नहीं था.

कल दिन भर घर पर था. बहुत दिनों से घर पर समय नहीं मिला था और अपनी स्टडी में बहुत सारे काम जमा हो गये थे. शेल्फ पर ढेर लगे किताबों के उन्हें ठीक करना, छाँट कर पुरानी किताबों को फैंकने के लिए निकालना, डीवीडी इधर उधर बिखरी हुई हैं उन्हें ठीक से सहेज कर रखना, फोटो को छाँटना और एल्बम में लगाना, अलमारी के द्राज साफ करना, कागज़ छाँटना, पुरानी पत्रिकाओं को छाँटना, आदि. कई घँटे लगे इस सब काम में और सारे समय संगीत बजता रहा.

रात का खाना लगा तो पत्नी ने खाना खाने को बुलाया और बोली अब इस शोर को बंद करो, सारा दिन यह चीं चीं सुन कर सिर दर्द हो गया है. मुझे थोड़ा सा बुरा लगा कि मेरे संगीत को शोर कह रही है पर बंद कर दिया. कमरे में से आखिरी कागज कूड़ा उठा रहा था जो बिना आवाज का कमरा अजीब सा पर अच्छा लगा. सोच रहा था कि कैसे संगीत भी अधिक हो जाये तो, या उसकी ध्वनी ज़रूरत से अधिक ऊँची हो शोर बन सकता है.

खाना खा कर कुत्ते को लिया और बाग में सैर को निकला. पहले दो दिन बारिश हो रही थी और सर्दी वापस लौट आई थी पर कल रात को न तो बारिश थी न ही वह हड्डियों तक घुसने वाली सर्दी. थोड़ी देर तक ही चला था कि पड़ोस के एक वृद्ध सज्जन दिखे, उनसे हैलो हुई तो वे भी साथ चलने लगे. वैसे तो मुझे तेज चलना अच्छा लगता है पर कुत्ता साथ हो तो तेज नहीं चल सकते, जहाँ कुत्ते को रुकना होता है, वहाँ रुकना ही पड़ता है. वे वृद्ध सज्जन जिनका नाम है अंतोनियो, उनका दायें कूल्हे का ओपरेशन हुआ है तो छड़ी के सहारे धीरे धीरे चलते हैं, उनके साथ साथ चलते हुए, और भी धीमे चलना पड़ रहा था.

अंतोनियो बहुत बातें करते हैं, लगता है कि सारा दिन घर में किसी से बात नहीं कर पाते या शायद घर पर अकेले रहते हैं, पर जब मिलते हैं, सारा समय कुछ न कुछ बोलते रहते हैं. उनके कूल्हे के ओपरेशन के बारे में तो पहले ही बहुत सुन चुका हूँ. कल रात को बात हो रही थी बदलते पर्यावरण के बारे में कि कैसे मौसम बदल रहे हैं, गर्मियों में गर्मी बढ़ गयी है और सर्दियों में सर्दी कम पड़ती है. तभी सामने से जोगिंग करता हुआ एक लड़का आया. अंतोनियो ने उसे हैलो बोला पर वह कानो में आईपोड लगाये संगीत सुनने में मस्त था, उसने शायद नहीं सुना और आगे निकल गया.

अंतोनियो मुझसे बोले, "आज कि दुनिया में साथ साथ कितने काम करते हैं, पर ध्यान किसी तरफ नहीं दे पाते. अगर पूछो कि कौन सा गाना सुना तो बता नहीं पायेगा कि क्या सुना, क्या बोल हैं उसके. आजकल संगीत सुनना इतना आसान हो गया है कि उसकी सुंदरता को हम समझ ही नहीं पाते. जब संगीत सुनने को नहीं मिलता था तो उसको कितने ध्यान से सुनते थे, उसके महत्व को समझते थे. जब मैं छोटा था तो संगीत सुनने का मौका साल में एक दो बार ही मिलता था, चर्च में कभी कोई आरगन बजाने वाला आता या कोई धार्मिक गानों को गाने वाला दल आता तब. हम लोग खुद ही अपने लोकगीत गाते, गिटार के साथ. न रेडियो था, न टीवी, न वाकमैन."

करीब अठ्ठासी वर्ष के हैं अंतोनियो और उनकी बात शायद द्वितीय महायद्ध से पहले की थी. जब उन्हें छोड़ कर घर की ओर आ रहा था तो उनकी बातों पर सोच रहा था.

मुझे याद है जब घर में पहला ट्राँज़िस्टर आया था और कैसे सिलोन रेडियो को मुश्किल से खोज कर गाने सुनते थे, तब विविध भारती नहीं होता था. तब किसी नये गीत को सुन कर कितना उत्साह होता था. पर कल सारा दिन संगीत सुनता रहा, क्या सुना, कुछ याद नहीं. आजकल हर समय बस यही चिंता रहती है कि कैसे नया सुना जाये. दो दिनों में ही नये का नयापन गुम हो जाता है और नये की तलाश चलती ही रहती है.

आज की दुनिया में संगीत सुनना तो बहुत छोटी सी बात है, शायद इसी लिए उसका महत्व कम हो गया है?

गुरुवार, फ़रवरी 28, 2008

नये बाँध, पुरानी गलतियाँ

कल २७ फरवरी के अँग्रेज़ी समाचार पत्र फाँनेंशियल टाईमस् में समाचार था चीन में बनने वाले दुनिया के सबसे बड़े बाँध के बारे में जिसका शीर्षक था "नया बाँध फ़िर से नादान गलतियाँ कर रहा है" (New dam repeats stupid mistakes). अगर यह समाचार कोई पत्रिका वाला छापे तो सोचा जाता है कि अवश्य ही कम्यूनिस्ट होंगे या पुरातनपंथी जो विकास नहीं चाहते और हर आधुनिक तरक्की के पीछे उसकी अच्छाईयाँ छोड़ कर उनकी कमियों को खोजते हैं और फ़िर उन कमियों को बढ़ा चढ़ा कर ढिँढ़ोरा पीटते हैं. पर जब वह समाचार व्यवसायिक अखबार में छपे जो हमेशा उदारवाद और उपभोक्तावाद की तरफ़दारी करता हो तो उसका क्या अर्थ निकाला जायेगा?

समाचार में बताया गया है कि 1950 के पास बने सनमेक्सिया बाँध के अनुभव से कुछ नहीं सीका गया. जब सनमेक्सिया बाँध बन रहा था तो कहते थे कि उससे देश कि एक तिहाई बिजली की माँग पूरी होगी, असलियत में उसका दसवाँ हिस्सा बिजली में नहीं दे पाया और पानी में बह कर आने वाले मिट्टी से धीरे धीरे बंद सा हो गया. हज़ारों लोग जिनके घर पानी में डूबे, जो धरती और वनस्पति पानी में डूबी, सब व्यर्थ और अब वे विस्थापित लोग धीरे धीरे मिट्टी से भरे बाँध की धरती पर वापस लौट रहे हैं जहाँ उनके घर थे.

समाचार का निष्कर्श है कि इस तरह के निर्णय जिनसे प्रकृति, लोगों पर इतना प्रभाव पड़ेगा, उन्हें लम्बा सोच कर लेना चाहिये न कि छोटे समय में क्या मिलेगा यह सोच कर. तो क्या यह जान कर नर्मदा पर बनने वाले सरदार सरोवर बाँध के बारे में कुछ दोबारा सोचा जा सकता है? उसका विरोध करने वालों को प्रगति का विरोधी मान कर चुप करा जायेगा?

रविवार, फ़रवरी 24, 2008

मधु किश्वर

मधु किश्वर का आऊटलुक में छपा लेख पढ़ कर दिल दहल गया. मानुषी जैसी पत्रिका निकालने वाली मधु जी का नाम जाना पहचाना है. अपने लेख में उन्होंने दिल्ली में कुछ जगह पर सड़कों पर सामान बेचने वालों के जीवन में सुधार लाने के लिए किये एक नये प्रयोग के बारे में लिखा है जिसका विरोध करने वाले कुछ स्थानीय गुँडों ने स्थानीय पुलिस वालों के साथ मिल कर उन पर तथा मानुषी के अन्य कार्यकर्ताओं पर हमले किये हैं. लेख पढ़ कर विश्वास नहीं होता कि हाईकोर्ट, गर्वनर, और यहाँ तक कि प्रधानमंत्री भी उन लोगों की रक्षा करने में असमर्थ हैं और इस प्रयोग के सामने आयीं रुकावटों को नहीं हटा पा रहे.

देश में कानून का नहीं स्थानीय गुँडों का राज चलता है यह तो तस्लीमा नसरीन, जोधा अकबर, मुम्बई में राज ठाकरे काँड जैसे हादसों से पहले ही स्पष्ट था. थोड़े से लोग चाहें तो मनमानी कर सकते हैं, पर सोचता था कि यह सब इसी लिए हो सकता है क्योंकि राजनीति में गुँडागर्दी का सामना करने का साहस नहीं क्योंकि वह वोट की तिकड़म का गुलाम है पर जान कर, चाह कर भी प्रधानमंत्री और गवर्नर कुछ नहीं कर पाते, इससे अधिक निराशा की बात क्या हो सकती है!

भारत दुनिया का सबसे बड़ा गणतंत्र है, आने वाले समय का सुपरपावर है और मुट्ठी भर लोगों के हाथ में कबुतर की तरह फड़फड़ाता है, अन्याय के सामने सिर झुका लेता है?

शुक्रवार, फ़रवरी 22, 2008

धर्म एवं आस्था

कुछ दिन पहले पुरी में जगन्नाथ मंदिर जाने का मौका मिला था, पर वहाँ का भीतरी कमरा जहाँ भगवान जगन्नाथ की प्रतिमा है वह उस समय बंद था, क्योंकि "यह प्रभु के विश्राम का समय था". पुजारी जी बोले कि अगर मैं समुचित दान राशि दे सकूँ तो विषेश दर्शन हो सकता है. यानि पैसा दीजिये तो प्रभु का विश्राम भंग किया जा सकता है. भुवनेश्वर के प्राचीन और भव्य लिंगराज मंदिर में, पहले दो पुजारियों में आपस में झड़प देखी कि कौन मुझे जजमान बनाये. भीतर पुजारियों ने सौ रुपये के दान की छोटेपन पर ग्यारह सौ रुपये की माँग को ले कर जो भोंपू बजाया तो सब प्रार्थना और श्रद्धा भूल गया.

मंदिर में फोटो खींचना मना है पर विदेशी, अहिंदू पर्यटकों के लिए अलग से छज्जा बनाया गया है जहाँ से तस्वीर खींच सकते हैं, क्योंकि उन्हें मंदिर में घुसना वर्जित है. उस छज्जे पर खड़ा हो कर धर्म और आस्था की बात को सोच रहा था कि क्यों हर धर्म में रूढ़िवाद का ही राज होता है? भगवान की पवित्रता बड़ी है या विदेशी अहिंदू पर्यटकों की अपवित्रता, तो क्यों नहीं अहिंदू पर्यटक मंदिर में घुस कर पवित्र हो जाते? कोई भगवान अपने ही बनाये मानवों से अपवित्र हो सकता है क्या?

वैसे व्यक्तिगत रूप में मेरे लिए धार्मिकता और मंदिर में जा कर पूजा करने में कोई विषेश सम्बंध नहीं क्योंकि मेरे लिए धार्मिकता अधिक आध्यात्मिक एवं अंतर्मुखी है. धर्म और आस्था पर बात करना मुझे कठिन भी लगता है क्योंकि महसूस करता हूँ कि इस बारे में मेरे विचार स्पष्ट नहीं, और कई बार अंतर्विरोधी भी है. यह भी लगता है कि कितना भी लिख लो, कुछ न कुछ बात अधूरी ही रह जायेगी.

ब्रिटिश पत्रकार और लेखक क्रिस्टोफर हिचिन्स ने धर्म और आस्था के बारे में बहुत कुछ लिखा है. इस विषय में उनकी दृष्टि अधिकतर आलोचक ही है और कई बार मुझे सोचने को मजबूर करती है. कुछ समय पहले की उनकी एक पुस्तक, "भगवान बड़ा नहीं" में उन्होंने आस्था के विषय पर लिखा है,
"धार्मिक आस्था को मिटाया नहीं जा सकता क्योंकि मानव जाति अभी अपने विकास मार्ग पर है, पूरी विकसित नहीं हुई. यह आस्था कभी नहीं मिटेगी, या यह कहें कि तब तक नहीं मिटेगी जब तक हम मृत्यु, अँधेरे, अज्ञान और अन्य भयों पर विजय नहीं पा लेंगे. (...) पर मुझमें और मेरे धार्मिक मित्रों में एक अंतर है. जो मित्र गम्भीरता, सच्चाई और ईमानदारी में विश्वास रखते हैं वह इस अंतर को मान लेंगे. मैं उनके बार मित्ज़वाह समारोहों में जाने को तैयार हूँ, मैं उनके विशालकाय गोथिक गिरजाघरों की प्रशंसा करने को तैयार हूँ, मैं यह मानने को तैयार हूँ कि कुरान को भगवान ने लिखवाया और कहा कि यह सिर्फ अरबी भाषा में हो और इसका मसीहा एक अनपढ़ व्यक्ति हो. मैं यह सब मानने को तैयार हूँ पर बदले में मैं कहता हूँ कि वे लोग मुझे छोड़ दें, मैं जैसा रहना चाहूँ जैसा करना चाहूँ, पर धार्मिक लोग यह नहीं कर सकते."
हर धर्म के धार्मिक इन्सानों को यह सोचना कि उनके पास सत्य का असली उत्तर है और केवल उनका सत्य ही असली सत्य है और उन्हें यह सत्य दुनिया में सब लोगों को समझाना है, कितनी लड़ाईयों का कारण बन चुका है. कुछ सप्ताह पहले फ्राँस के समाचार पत्र "ले मोंड २" की पत्रकार सिल्वी लासेर्र ने ताजिकिस्तान में पेंटेकोस्टल ईसाई धर्म के मिशनरियों के द्वारा धर्म परिवर्तन कराने के बारे में विस्तृत रिपोर्ट छापी है. उनके अनुसार, पिछले पंद्रह सालों में ताजिकिस्तान में इस धर्म के अनुयायिओं की संख्या करीब पच्चीस हजार से बढ़ कर दो सौ पैंतीस हजार हो गयी है. धर्म परिवर्तन को व्यक्तिगत मामला मान सकते हैं पर दिक्कत यह है कि ताजिकिस्तान मुसलमान देश हैं और यहाँ धर्म परिवर्तन को नहीं माना जाता बल्कि धर्म बदलने वाले को मौत की सजा भी हो सकती है. यानि तनाव बढ़ने तथा बड़े स्तर पर झगड़े हो सकने की संभावना बढ़ गयीं हैं.

मुस्लिम धर्म और आस्था पर तो कोई भी बहस नहीं हो सकती क्योंकि कहते हैं कि कुरान शरीफ़ तो सीधा भगवान ने पैगम्बर मुहम्मद को लिखवायी थी. यानि आप इस्लाम की किसी बात की न आलोचना कर सकते हैं न ही कुछ बदलाव की माँग कर सकते हैं चाहे बातें कितनी ही पिछड़ी क्यों न हों, चाहे उसमें धर्म के नाम पर मानव अधिकारों का कितना भी हनन क्यों न हो.

जिन दिनों मैं उड़ीसा में था, उन दिनों भी राज्य के कुछ हिस्सों से धर्म के नाम पर होने वाली हिंसा के समाचार आ रहे थे. इस बारे में बात छिड़ी तो एक सज्जन बोले, "अन्य सब धर्मों वाले आ कर हिंदुओं का धर्म बदल रहे हैं तो हिंसा होगी ही. अब तो हिंदूओं को भी बाहर जा कर अपना धर्म फ़ैलाना चाहिये". मैं उस समय तो चुप रहा पर मन में सोच रहा था कि स्वयं को निक्ष्पक्ष रूप से देखना आसान नहीं, वरना वे कैसे भूल गये कि हिंदू धर्म भी भारत से सारे पूर्वी एशिया में फैला था और दुनिया का सबसे बड़ा हिंदु मंदिर, कम्बोदिया में अंगकोरवाट इसी की निशानी है.

दुनिया में होने वाले कितने झगड़ों और युद्धों के पीछे धर्म और आस्था की बातें जुड़ीं हैं इसकी सूची बहुत लम्बी होगी. झगड़े केवल विभिन्न धर्मों के बीच हों यह बात नहीं. एक ही धर्म के अनुयायी, अलग अलग टुकड़ों में बँटें हैं और आपस में अधिक से अधिक अनुयायी बनाने में एक दूसरे से लड़ रहे हैं. संगठित धर्मों में कहाँ धर्मग्रँथों के दिये गये संदेश समाप्त होते हैं और कहाँ ताकत और पैसे का लालच शुरु होता है, यह कहना कठिन हो जाता है.

मेरे एक इतालवी मित्र जो कैथोलिक थे पर अब बुद्ध धर्म के अनुयायी बन गये हैं, कहते हैं कि धर्म का सम्बंध मन से है, जो धर्म मेरे मन को आकर्शित करता है उसे अपनाने की स्वतंत्रता होनी चाहिये. पर मुझे लगता है कि गरीबी में यह बात इतनी सरल नहीं. लेकिन जब भगवान एक ही है तो फ़िर क्या फर्क पड़ता है कि कौन किस धर्म का अनुयायी है या फ़िर कौन धर्म बदलता है?

वैचारिक दृष्टि से मैं इस बात से सहमत हूँ कि धर्म व्यक्तिगत बात है लेकिन मुझे लगता है कि धर्म के साथ रीति रिवाज़, लोक कथाँए, पहनना ओढ़ना, खाना पीना, त्योहार, भाषा, बहुत सी अन्य बातें भी जुड़ी हैं. मुझे लगता है कि धर्म बदलने के साथ साथ बाकी सब रीति रिवाज, लोककथाँए, पहनना ओढ़ना, भाषा, सबमें भी बदलाव आ जाता है और मानव जाति की विविधता कम हो जाती है. दक्षिण अमरीका में रहने वाली जनजातियों ने यूरोपीय देशों के साम्राज्यवाद के तले अपने धर्म और संस्कृति को खोया और मानव जाति की विविधता को कमजो़र किया कुछ वैसे ही जैसे मेकडोन्ल्ड जैसे रेस्टोरेंट का प्रभाव देशों के खाने के तरीके पर पड़ रहा है या फ़िर हालीवुड की फ़िल्मों के प्रभाव यूरोपीय भाषा संस्कृति पर पड़ रहा है या मुम्बई की फ़िल्मों का प्रभाव भारत की विभिन्न बोलियों, उनके लोकसंगीत पर पड़ रहा है. मैं मानता हूँ कि मानव जाति की विविधता में उसकी सुंदरता है.

गुरुवार, फ़रवरी 21, 2008

खोयी यादें (भारत यात्रा डायरी, अंतिम)

इस बार दिल्ली में मेट्रो से द्वारका मोड़ तक की यात्रा की.

कितनी यादें जुड़ीं थी उस रास्ते से. पहली बार कब गया था उस तरफ़, यह याद नहीं. वह यात्रा मौसियों के साथ होती थी. "ज़मीन पर जाना है", सोच कर ही दिनों पहले तैयारी शुरु हो जाती थी. पाकिस्तान में छूटी ज़मीन जयदाद के बदले में नाना को मुवाअजे में वे खेत मिले थे जिन्हें हम "ज़मीन" के नाम से जानते थे. नाना ने उन्हें दीवनपुर का नाम दिया था. फिल्मिस्तान के पास शीदीपुरा से तिलक नगर आने में ही दो बसे बदलनीं पड़ती थीं. फ़िर तिलकनगर से 14 नम्बर की नजफ़गढ़ जाने वाली बस से ककरौला मोड़ उतरते थे.

नानी की रसोई में गोबर के उपले जलते थे. उपले बनाने के लिए सिर पर तसली ले कर गोबर उठाने जाना मुझे बहुत अच्छा लगता था. गरम, मुलायम गोबर जीता जागता जंतु सा लगता था. नानी की बनायी हर चिज़ में उसी की गंध होती थी, उबले दूध में भी. रसोई के पीछे छोटा कूँआ था जहाँ बरतन धोते और पीने का पानी लेते. कुछ दूर, पेड़ों के झुँड के बीच में एक और बड़ा कूँआ था जहाँ छोटा सा टैंक भी था. मोटर चलाने से पानी की मोटी धारा जब टैंक में आती तो गरम दोपहर में उसके नीचे नहाने में बहुत मज़ा आता. कूँए के पास मोटे और मीठे बेरों के पेड़ थे. पड़ोस वाले सुरजीत के खेत में टैंक और भी बड़ा और गहरा था जहाँ पर तैर भी सकते थे. रात को चारपाईयों पर लेट कर तारे देखते और अँताक्षरी खेलते.

करीब का गाँव था नवादा जहाँ तक जाने में 15 या 20 मिनट का रास्ता था. नवादा में अम्मा बापू का घर था. नवादे के प्राथमिक विद्यालय में माँ ने पढ़ाना शुरु किया था और तब वह एक निस्संतान दम्पति के साथ रहती थी जिन्हें वह अम्मा बापू बुलाती थी. वही अम्मा बापू हमारे दूसरे नाना नानी थे. बापू डीटीएस की बस चलाता था (जो बाद में डीटीसी बन गयी). अम्मा के घर में मोर थे और वहाँ जाने का सबसे बड़ा लालच, मक्खन वाली रोटी खाना और मोर के पँख लेना होता था. वहाँ गाँव में डँडे मारने वाले और कीचड़ से पोतने वाली हरयाणवी होली का सारा साल इंतज़ार रहता.

जब द्वारका मोड़ पर उतरा तो कुछ समझ में नहीं आया कि कहाँ हूँ. नाना की उस जमीन का एक टुकड़ा बचा है जहाँ मँझले मामा ने स्कूल बनाया है. मकानों के जँगल में यह सोचना कि नानी का घर कहाँ था असम्भव था. मामा मुझे स्कूल की छत पर ले गये. "वो सीढ़ियाँ हैं जहाँ मेट्रो स्टेशन की, उसकी पार्किंग की जगह वहाँ बीजी की रसोई थी, वहीं सीढ़ियों के साथ छोटा कूँआ था. जहाँ वह खेत थे, वहाँ पार्किंग बनी है. वह गुलाबी तीन मंजिला घर दिख रहा है न, वहाँ घर के कमरे थे. वह घरों के बीच में पेड़ दिख रहा है? बस पहले के पेड़ों में से एक वही पेड़ बचा है. उसी के साथ बड़ा कूँआ था जहाँ बेरों के पेड़ थे और पानी का टैंक था", मामा ने समझाया.

दूर नाले के साथ खड़े पेड़ लगता है कि नहीं बदले. उस तरफ़ नाना मुर्गाबियों और बतखों का शिकार करने जाते थे. पर नाले के साथ साथ नाँगलोई तक घर बन गये हैं. उस तरफ़ खेतों में एक पुराना खँडहर होता था. हम कहते कि वहाँ रात को चुड़ैलें जमा होती थीं पर दिन में डर नहीं लगता. गर्मियों की दोपहर को जब लू चलती तो उसी खँडहर में ही बैठ कर खेत से ले कर ठण्डे तरबूज या खरबूजे खाते थे. घरों के बीच वह खँडहर कहाँ खो गया था यह तो मामा को भी याद नहीं था.

मामा के स्कूल के मंदिर में नाना नानी की तस्वीर लगी है. बाकी की सब यादें उस गाँव के साथ ही खो गयीं हैं जिनकी कोई तस्वीर नहीं है मेरे पास.
















Tags: changing city, Delhi, memories

बुधवार, फ़रवरी 20, 2008

भगवान की खोज (भारत यात्रा डायरी 3)

खुजराहो और कोणार्क की काम शास्त्र के सिद्धातों को सहज रुप में, बिना किसी पर्दों और शर्म के, प्रस्तुत करने वाली मूर्तियों के बारे में बहुत सुना था पर पहले देखने का मौका कभी नहीं मिला. इधर उधर कुछ तस्वीरें देखीं थीं इसलिए उन्हें देखने की उत्सुक्ता भी थी मन में.

कोणार्क की मूर्तियों में कामशास्त्र के सभी आसन दिखने को मिलते हैं. मूर्तियों के आकार से अपेक्षाकृत बहुत बड़े बने हुए पुरुष अंग स्पष्ट ही अपना ध्येय सामने रख देते हैं, जीवन को खुल कर आनंद से जीने का ध्येय. कामक्रीणा में रत मूर्तियाँ अलग से किसी कोने में नहीं बनी, बल्कि भगवान, देवी देवताओं की अन्य मूर्तियों के बीच ही मिली जुली हैं. उनमें आत्माओं या मन के मिलन की बात नहीं, उनका ध्येय तो शारीरिक आनंद है जो कि भारतीय दर्शन के मूलभूत विचार कि जग माया है और इंद्रियाँ मानव को मायाजाल में फँसातीं हैं से विपरीत लगता है. शायद इन मूर्तियों की प्रेरणा धर्म के तांत्रिक मार्ग से आती है क्योंकि सुना है कि तांत्रिक मार्ग में ही यौन सम्पर्कों को भी ईश्वर तक पहुँचने का माध्यम माना जाता है.

मंदिर के आसपास घूमते गावों के, शहरों के स्त्री पुरुषों के दल थे, विद्यालय के बच्चों के दल भी थे. उनमें से अधिकतर को रुक कर किसी यौनक्रीणारत मूर्तियों की ओर ठीक से देखते हुए नहीं पाया, सब लोग नीचा सिर करे ही निकले जा रहे थे. मुझे लगा कि कोई कोई पुरुष ही रुक कर कुछ थोड़ा सा देख लेता था. उस सुबह मुझे अपनी तरह मूर्तियों को ध्यान से देख कर, यौन प्रक्रियाओं का अध्ययन करने वाला और कोई नहीं दिखा.

काम और प्रेम को जीवन का अभिन्न अंग मानना अगर प्राचीन भारत में आसान था, आज वह बिल्कुल आसान नहीं. अन्य बातों में प्राचीन भारत के गौरव को याद करने वाले और उस गौरव के लिए मरने मारने को तैयार रहने वाले, आज काम और प्रेम की किसी भी जन अभिव्यक्ति को भारतीय संस्कृति का अपमान समझते हैं और अँग्रेजी विक्टोरियन मनोवृति जो शरीर को ढ़का देखना माँगती है और खुले आम दो व्यक्तियों के बीच में प्रेम के सभी अभिव्यक्तियों को गलत मानती है, उसी को ही असली भारतीय वृति मानते लगते हैं.

इस भारत यात्रा में कई प्राचीन स्मारक देखने का मौका मिला. हर जगह प्रेमी युगल एकांत की तलाश में तड़पते दिखे, और बहुत जगहों पर पुलिस वालों को उन्हें तंग करते देखा. वेलनटाईन डे की तोड़फोड़ के भी समाचार देखे. मेरा सुझाव है कि आगे से वेलनटाईन दिवस छोड़ कर खुजराहो दिवस या कोणार्क दिवस मनाया जाये, उस पर को तो शायद किसी भी भारतीय संस्कृति को मानने वाले को आपत्ती नहीं हो सकती. पर फ़िर मुझे अपने इस सुझाव से ही डर लगता है. अफ्गानिस्तान में तलिबानों ने बुमयान की प्राचीन बुद्ध प्रतिमाओं को ध्वंस कर दिया, अगर कोणार्क दिवस से रुष्ट हो कर किसी संस्कृति के रखवाले ने कोणार्क को ध्वंस करने की ठान ली तो?

कोणार्क के मंदिर को केवल कामक्रीणारत मूर्तियों के दृष्टिकोण से देखना गलती होगी. उसका वास्तुशिल्प अदभुत है. सूर्य के बारह चक्र और सूर्य देवता की मुर्तियाँ मुझे विषेश रूप से अच्छी लगीं.

प्रस्तुत हैं मंदिर की कुछ तस्वीरें.




































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