दिल्ली के पास नजफगढ़ के रास्ते पर आज जहाँ द्वारका मोड़ नाम का मेट्रो स्टेशन है, वहाँ नाना के खेत होते थे, पर गाँव की सोचूँ तो नाना के पास बीते दिन मन में नहीं आते, शायद इस लिए कि वह जगह दिल्ली के बहुत करीब थी और गाँव में रह कर भी लगता था कि शहर में ही हैं. शायद यह बात भी हो कि फ़िल्मों में दिखने वाले गाँव सुंदर दिखते थे पर सचमुच के नाना के खेतों में कड़ी धूप, खुदाई करने और गोबर जमा करने की मेहनत, उपलों की गंध वाला दूध, कूँए का खारा पानी सब मिल कर सचमुच के गाँव के जीवन को फ़िल्मों में दिखने वाले गाँवों के मुकाबले में अधिक कठिन बना देते थे.
जून के "हँस" में वरिष्ठ लेखक संजीव का लेख पढ़ रहा था, "कहाँ गये प्रेमचंद के हीरा मोती", जिसमें उन्होंने बढ़ते मशीनीकरण से गाँवों के बदलते जीवनों और गाँवों से लुप्त होते बैलों तथा मवेशियों के बारे के बारे में लिखा हैः
जिस जीवन को हमेशा देखा, जिया हो वह बदलने लगे तो दुख तो होगा ही. फ़िर गाँव का जीवन तो शायद पिछले चार पाँच हज़ार सालों से नहीं बदला था, जब से लोहे का आविष्कार हुआ था तब से. जितनी तेज़ी से यह बदलाव गाँवों, कस्बों, छोटे बड़े शहरों में आ रहे हैं, शायद इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ. यह बात नहीं कि यह बदलाव केवल भारत में आया है, यह तो सारे विश्व में है पर भारत के कच्ची सड़कों वाले, बैलगाड़ी वाले गाँवों में आ रहे और आने वाले बदलाव का सोच कर लगता है कि हाँ, शायद अब समय आयेगा जब जीवन सचमुच बदलेगा."कालचक्र घूमता रहा. पन्ने पटलते रहे ... मगर पन्ने इतनी तेजी से पलट जाएंगे कि जुताई, बोवाई, कटाई, मड़ाई और खलिहान की पूरी अवधारणा ही बदल जायेगी, कौन जानता था! जैसे जैसे ट्रैक्टर, थ्रैशर और कृषि की दीगर मशीनें आती गईं, वैसे वैसे फसल के उत्सव से कुछ लोग पीछे छूटते गए. ... लेकिन कहां गए वे लोग जो इन मशीनों के आते ही बाहर धकेल दिये गये? ... क्या विडंबना है कि आज प्रेमचंद का होरी गैर सरकारी नहीं, सरकारी ऋण से मर रहा है, गोबर मुंबई-दिल्ली में "भैया " या "बिहारी" की गाली खा रहा है, उसकी पत्नि सोसाइटियों में चौका बासन कर रही है. मैं सीवान के बीचोबीच खड़ा हूं, दूर दूर तक डंठलों की आम जल रही है. लगता है दूर कहीं धनिया विलाप कर रही है और हीरा मोती के "बां बां" के कातर स्वर उभर रहे हैं."
अपने जाने पहचाने खेतों में बैल की जगह पर ट्रैक्टर देख कर बीते समय का सोच कर दुख होना स्वाभाविक तो है पर शायद गाँवों के लिए जीवित रहने का यही उपाय है? संजीव अपने लेख में बात करते हैं प्रेमचंद की "दो बैलों की कथा" की, चंद्रगुप्त विद्यांलकार की "गोरा" की, बिजेंद्र अनिल की "माल मवेशी" की, स्वयं प्रकाश की "नैनसी का धूड़ा" की", और गाँवों के बारे में लिखने वाले लेखकों के लुप्त होने की, और इसमें संस्कृति और संस्कारों के टूटने को देखते हैं. पर संस्कृति और संस्कारों का यह बदलाव गाँवों के मशीनीकरण से नहीं बल्कि जीवन की तकनीकी तरक्की से आया है. टीवी और मोबाइल फोन ने शहरों के जीवन की एक छवि गाँवों को दिखाई है जिसमें केवल शहरों का उपभोगत्तावाद है, संस्कृति और संस्कार तो बस बिकने वाले टीवी सीरियल हैं जिनमें हर दस मिनट में विज्ञापन दिखाये जाते हैं.
इन भागते शहरों में गाँवों और कस्बों से आँखों में सपने लिए आने वालों के लिए "भैया" और "बिहारी" की गालियाँ हैं, शायद उनके भोले गँवारपन और अँग्रेजी न जानने के बारे में उपहास भी है. वर्तिका नंदा ने अपनी एक कविता "टीवी एंकर और वो भी तुम" में लिखा हैः
तुम नहीं बन सकती एंकरपर बड़े शहरों में बसने वाले गाँवों और कस्बों से आये लोग जानते हैं उनका भविष्य उनके बच्चे होंगे, जो शहरों में पल बढ़ कर शहरों वाली भाषा बोलेंगे, जिनकी कोई हँसी नहीं उड़ायेगा. वह हिम्मत नहीं हारते, जान लड़ाते हैं अपने जीवन बेहतर करने के लिए. गाँवों, बैलों और पाराम्परिक जीवनों के लुप्त होने में अगर मानव का जीवन अधिक आसान हो जाता है तो यही भला है, अगर उसे तपती धूप में खून पसीना नहीं बहाना पड़ता तो यही भविष्य अच्छा है. और अगर उस भविष्य में जातपात, ऊपर नीचे, छोटे बड़े की दूरियाँ कम हो सकेंगी तो वह भविष्य जितनी जल्दी आ सकता है, आये. हीरामन नहीं तो न सही, कथाकार कुछ और सोच लेंगे मन द्रवित और आँखें नम करने के लिए. हज़ारों वर्षों से, पीढ़ियाँ दर पीढ़ियों से पिसने वाले इंसान को अगर कमर सीधा करके सिर उठा कर चलने का मौका मिलेगा तो मुझे उस भविष्य से कोई शिकायत नहीं.
तुम कहीं और ही तलाशो नौकरी
किसी कस्बे में या फ़िर
पंजाब के उसी गाँव में
जहां तुम पैदा हुई थी