पिछले माह दो तीन दिन के लिए दिल्ली में था, तभी सैंट स्टीफन कोलिज में "भारत में धर्म, राजनीति और लैंगिकता" विषय पर सेमीनार में शीबा जी को देखा, उन्हें सुनने का मौका भी मिला और कुछ बातचीत भी हुई.
उन्होंने पूछा कि क्या मैंने उनका "हँस" के नवंबर अंक वाला लेख पढ़ा या नहीं और कैसा लगा? मैंने कहा कि अभी नहीं पढ़ा, क्योंकि पत्रिका इटली आने में कुछ देर लगाती है और मेरे घर से यात्रा के लिए चलने तक नवंबर अंक नहीं पहुँचा था. इसलिए उनसे वायदा किया कि जब पढ़ूँगा तो उसके बारे में अपनी राय अवश्य दूँगा.
भारत से घर वापस लौटे दस दिन हो गये, तो उनका एक अन्य संदेश मिला कि लेख पढ़ा या नहीं? तो रात को सोने से पहले, सोचा कि लेख को पढ़ने की कोशिश की जाये. पढ़ा तो नींद छू मंतर हो गयी, बहुत देर तक सोचता रहा, शीबा जी के गुस्से के बारे में.
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शीबा जी ने बात उठायी है धर्मग्रंथ में लिखे आदर्शों की और समाज में होने वाली असलियत की, और मुसलमान औरतों के लिए इन दोनो की बीच की दूरी की. एक तरफ़ कुरान शरीफ़ में बाते हैं नारी की बराबरी की, उसके अधिकारों की, उसकी अस्मिता की, दूसरी ओर है मुसलमान समाज में नारी की हकीकत. उन्होंने मुसलमान समाज के बारे में छपने वाली किताबों का अध्ययन किया है, जिनमें नारी के लिए क्या जायज़ है और क्या नाजायज़ बताया गया है. इन किताबों में नारी को क्या सलाह दी जाती है, उसके बारे में उन्होंने लिखा हैः
एक अल्लाह-एक इस्लाम के नारे के नीचे यह नीच साहित्य औरत को न सिर्फ कामपिपासू बताता है बल्कि, शिकार करने वाली, चुग़लखोर, ग़ीबत (परनिंदा) करने वाली, झगड़ालू, पैसे की भूखी, काहिल, बहानेबाज़, और खानदान परिवार तोड़ने वाली भी बताता है और "यही वजह है कि औरतें जन्नत में कम होंगी". ... जन्नत के "आठों दरवाज़ों" से दाखिल होने का रास्ता शौहर को ख़ुश रखना, उसकी इज़्ज़त रखना भर है. शौहर की मर्ज़ी के बगैर नफली नमाज़ रोज़ा भी न करे औरत. शौहर को "मना" करने वाली पर फ़रिश्ते लानत भेजते हैं आदि आदि. इसमें सब्र, कनात, ज़ब्त, ख़ामोशी, घर से बाहर न निकलना, मायके में शिकायत न करना, शौहर से अपना कोई काम न लेना, माँ बाप से ज़्यादा बड़ा दर्जा शौहर को. ... दूसरी औरतों के साथ भी सफ़र नहीं. रेल के ज़नाना डिब्बे में भी नहीं. कुछ घंटों का हवाई जहाज़ का तन्हा सफ़र भी जायज़ नहीं. दिर्फ़ शरई सफ़र करो. घर में रहो. पर्दे की पाबंदी इसी में है. घर में आने वाली औरतों से भी बेवजह न बोलो बतियाओ. घरों के झरोखे खिड़कियाँ बंद रखो. ... औरत को नेकी करने और शौहर को "ख़ाविंद", "हाकिम" समझने से जिस जन्नत के आठों दरवाज़े खुलेंगे वहां उनके मर्द कुंवारी हूरों के साथ होंगे. यह नेक बीबियाँ करेंगी क्या यह नहीं मालूम.
उनका कहना है कि कुरान शरीफ़ में औरत की बराबरी और अधिकारों की बात करने वाले, अपने समाज की इस असलियत को नहीं बदलना चाहते. मर्द नहीं बदलना चाहते क्योंकि उनका इसी में फ़ायदा है, और शायद औरतों के मन में यही बात बिठा दी गयी हैः
मुसलमान औरत खुद को कमज़ोर चरित्र, चरित्रहीन, बहु पुरुष गामिनी, कामपिपासु और निरंतर अवसर की तलाश में रहने वाली अपराधी मान ले इसके लिए इन मुल्लों ने इतने कागज़ काले किये हैं कि एक पूरा प्रकाशक वर्ग इस प्रकार के साहित्य से रोज़ी कमा रहा है. लेकिन मेरे लिए यह एक छोटी मक्कारी है क्योंकि बड़ी मक्कारी यह है कि इन्हीं गुणों को मुल्ला वर्ग "मर्द की कुदरती प्रवृति" की संज्ञा दे कर उसमें "सुधार" नहीं बल्कि उसको "आत्मसात कर" जीने के तरीके और रणनीति भी मुसलमान औरत को सिखाता है.
जहाँ वह एक तरफ़ रूढ़िवादि मुल्ला की ओर उँगली उठाती हैं, दूसरी ओर मुस्लिम मीडिया और मुसलमान समाज के "प्रोगेसिव एक्टिविस्ट" कहलाने वाले लोगों की बात भी करती हैं:
"घर" पर बीवी और दिल्ली में गर्लफ्रेंड (रखेल) और पावरफुल माईबाप के आगे बैचलर बने इस मुसलिम एक्टिविस्ट, उर्दू एक्टिविस्ट, जर्नलिस्ट, राइटर आदि आदि की बहस यूं तो अल्लामा इकबाल से सीधे मार्क्स-नीत्शे-देरीदा पर गिरती है लेकिन मुसलमान औरत के चरित्रहनन और इस्लाम के नाम पर पनपाए जा रहे घोर स्त्री विरोधी समाजी रुझान पर वह कभी मुंह खोल ही नहीं सकता. बल्कि वह तो इस पर बहस आमादा होगा कि मीडिया ने ही मुसलमान समाज को "स्टीरियोटाइप" कर डाला है. इस मुद्दे पर बहस, सेमीनार, वर्कशाप, सिम्पोज़ियम आदि संस्थागत खर्चे से करेगा ... मुसलमान और उर्दू तुष्टीकरण के इस आत्मकेंद्रित खेल में मुसलमान महिलाएं बहुत कम हैं. उनका रास्ता कठिन है और विश्वविद्यालय के उर्दू विभागों के इज़्ज़तदार रास्ते से ही वे अपनी मंज़िल तक पहुँच सकती हैं. वहां भी अपने (उर्दू विभाग के) मर्दों का शिकार हो कर वामपंथी शिक्षक गुट में सुरक्षा तलाशती घूमती हैं.
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शीबा के शब्दों में क्रोध भी है, कड़वाहट भी. इसके उत्तर में क्या कहा जायेगा उसे समझने के लिए किसी विषेश कल्पना शक्ति की आवश्यकता नहीं. "वह तो छिछरी, चरित्रहीन, किस्म की एम्बीशय औरत हैं, आगे आना चाहती है, नयी तस्लीमा बनना चाहती है, यूँ ही उछाल रही हैं" जैसी बातें कही जायेंगी, विषेशकर उन एक्टिविस्ट किस्म के लोगों के द्वारा. कुछ शुभचिंतक कहेंगे, कि बात तो तुम्हारी ठीक है पर इस तरह घर की गंदगी को दूसरों के सामने बाज़ार में धोना गलत बात है, इसको हमें आपस में भीतर से बदलना की कोशिश करनी चाहिये.
दुखती रग पर हाथ रख कर, "राजा के बढ़िया वस्त्र नहीं, राजा तो नंगा है" की बात कहने वाले को ही दोषी समझा जाता है, उसे ही मारने डराने की धमकी देते हैं. ढ़क कर रखो, देख कर भी न देखो, यही नियम है शांति से जीने का.
शीबा अपने समाज की बात कर रहीं हैं, पर बाकी धर्मों वाले भी खेल तो वहीं खेलते हैं. बुर्का पहनाने की ज़िद नहीं करते लेकिन सिर ढ़को, गैर मर्द से बात न करो, जीन्स न पहनो, शर्म नारी का गहना है, पति परमेश्वर है और भारतीय सभ्यता और संस्कृति यही चाहती है, जैसी बातें भारत के किस समाज में नहीं करते? फर्क इतना है कि बाकी समाजों में शायद इस बारे में बोलने वाले कुछ अधिक हो रहे हैं, भारत के मुसलमान समाज में इस तरह की खुली बात कहने वाले कम हैं!