शुक्रवार, जून 18, 2010

अगर फ़िर से शुरु होता?

कल सुबह कार पार्क कर रहा था तो अचानक मन में विचार आया, अगर यह जीवन फ़िर से शुरु करने का मौका मिले, एक बार फ़िर से बच्चा बन जाऊँ, तो क्या कौन सी बातें अपने इस जीवन की बदलना चाहूँगा? हरी भरी पहाड़ी के नीचे, सुंदर शांत जगह पर है यह कार पार्क, शायद इसीलिए वहाँ पर सुबह सुबह इस तरह के गम्भीर और महत्वपूर्ण विचार मन में आते हैं?

पिछले कुछ दिनों से मैं अमरीकी प्रोफेसर रेंडी पाउश (Randy Pausch) की किताब "द लास्ट लेक्चर" (The last lecture) पढ़ रहा था. शायद यह दोबारा जीवन शुरु करने वाली बात मन में अचानक उनकी किताब पढ़ने की वजह से ही आयी थी. उनके अमरीकी विश्वविद्यालय में इस तरह के भाषण देने का प्रचलन था कि प्रोफेसर से कहिये कि अगर आप को एक अंतिम बार विद्यार्थियों से बोलने का मौका मिले तो आप कौन सी बात कहना चाहेंगे? इन भाषणों को "अंतिम भाषण" कहा जाता है.

2007 में जब रेंडी से इस तरह का भाषण देने के लिए कहा गया था तो उनकी स्थिति कुछ भिन्न थी. कुछ ही महीने पहले उन्हें अपने शरीर में पनपते लाइलाज कैंसर होने की बात का पता चला था. डाक्टरों का कहना था कि उनके जीवन के कुछ महीने ही शेष बचे थे. पत्नी और तीन छोटे बच्चों का क्या होगा, इसकी चिंता भी थी उनके मन में.

फ़िर भी रेंडी ने इस भाषण को देना स्वीकार किया. उनका यह भाषण, इंटरनेट पर एक दूसरे से सुन कर, हज़ारों लोगों ने देखा, सुना और सराहा. इतना प्रसिद्ध हुआ उनका यह भाषण कि उसे किताब के रूप में भी छापा गया, जिसे मैंने भी पिछली भारत यात्रा में बँगलौर की एक दुकान में खरीदा था. रेंडी तो चले गये, लेकिन उनके इस भाषण की किताब ने उनकी पत्नी और तीन बच्चों को कुछ आमदनी भी दी. अगर आप चाहें तो रेंडी के इस भाषण को आप इंटरनेट पर भी सुन सकते हैं.

जो प्रश्न सुबह मेरे मन में उठा था, उस पर दिन में कई बार सोचा. बचपन से मुझे साहित्य, इतिहास, जैसे आर्ट विषयों में बहुत रुची थी, लेकिन जब विद्यालय में विषय चुनने का समय आया था तो मैंने विज्ञान के विषय चुने थे, जिसका प्रमुख कारण था कि उस समय मुझे लगता था कि इस रास्ते से अच्छी नौकरी मिलने और ठीक पैसा कमाने का मौका मिलेगा, साथ ही डाक्टरी से लोगों के काम भी आ सकूँगा. उस समय आज जैसी बात नहीं थी, तब इंजीनियर, डाक्टर या आई.ए.एस जैसे दो तीन काम छोड़ कर लगता था कि और कोई ढंग का काम नहीं होगा. जीवन में कई बार मन में आता रहा है कि अगर डाक्टरी न कर के कुछ साहित्य संम्बधी किया होता तो शायद मन को अधिक संतोष मिलता. तो क्या अगर जीवन दोबारा से शुरु किया जा सके तो इस बार साहित्य को चुनूँगा, इस बात पर देर तक सोचता रहा.

बहुत सोच कर इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि नहीं मैं इस तरह की कोई बात अपने जीवन में नहीं बदलना चाहूँगा, अगर जीवन दोबारा शुरु करने का मौका मिले, तो सब कुछ फ़िर से वैसा ही करूँगा जैसा इस बार किया था.

हाँ कुछ बातें हैं जिन्हें अगर मौका मिल पाता तो अवश्य बदलता. तीस साल पहले मेरे एक प्रिय मित्र ने आत्महत्या की थी. उसने मुझे बहुत संकेत दिये थे, लेकिन मैं उन्हें समझ नहीं पाया था, उसकी बात को गम्भीरता से नहीं लिया था. दोबारा मौका मिले तो उसे अकेला नहीं छोड़ूँगा, उसे रोक लूँगा.

कितनी बार छोटी छोटी बातों पर गुस्सा किया है, अपनों के मन को दुखाया है. दोबारा मौका मिले तो यह मागूँगा कि भगवान मुझे इतनी समझ दे कि उनका मन न दुखाऊँ. बस इसी तरह की बातें मन में आयीं, लेकिन अपने जीवन के किसी भी महत्वपूर्ण निर्णय को बदलने का बात मुझे ठीक नहीं लगी.

कुछ कुछ रेंडी जैसी बात एडम सेवेज (Adam Savage) ने भी की है, अपने आलेख "फूड फार द ईगल" (Food for the eagle) में. धर्म में या ईश्वर में वह विश्वास नहीं करते. कहते हैं कि अगर विश्वास ही करना हो तो कार्लस कास्टानेडा जैसे लेखकों के बनाये मिथकों में किया जा सकता है. वह बात करते हैं कास्टानेडा (Carlos Castaneda) की किताब "द ईगल्स गिफ्ट" (The eagle's gift) की, जिसमें आध्यात्मिक गुरु दान जुआन (Don Juan) अंत में अपने शिष्य को बताते हैं कि जीवन का और कुछ ध्येय नहीं, जितने साल का भी जीवन मिलेगा, उसके बाद गरुड़ आप की संज्ञा को ले कर खा जायेगा, आत्मसात कर लेगा. इस लिए जीवन में अपनी संज्ञा को जितना ज्ञान और अनुभव दे कर उसे बढ़ा सको उतना ही अच्छा ताकि अंत में तब आप की संज्ञा गरुण से मिले तो उसे भी आनंद मिले.

शायद हम सब को जीवन क्या है और क्यों है इसका कोई उत्तर चाहिये होता है, विषेशकर जब अपने किसी प्रियजनों को खो बैठते हैं. बहुत सालों से मेरी प्रिय पुस्तक है कठोपानिषद, जिसमें कहानी है नचिकेता की, जो पिता की आज्ञा को मान कर यम के पास चले जाते हैं और यम से जीवन और मृत्यु के बारे में समझाने के लिए कहते हैं. मेरा विश्वास इसी पुस्तक से बना है, कठोपानिषद से. मुझे जैसा समझ आया वह कास्तानेदा के गुरु वाली बात ही है. यानि, मुझे भी यही विश्वास है कि जो संज्ञा संसार के कण कण में बसी है, वही भगवान है, और जीवन का ध्येय जितने अनुभव, जितना ज्ञान पा सकें, उसे प्राप्त करना ही है, जीवन समाप्त होगा तो इसी सर्वव्याप्त संज्ञा में हम घुलमिल जायेंगे.

कभी कभी इस तरह की किताब या आलेख पढ़ते रहना अच्छा लगता है ताकि जीवन में क्या आवश्यक है, क्या महत्वपूर्ण है उसका ध्यान बना रहे, छोटी मोटी बातों की चिंता में जीवन को व्यर्थ न करें. आप क्या सोचते हैं कि जीवन का ध्येय क्या है? आप को अपना जीवन फ़िर से जीने को मिले तो क्या बदलना चाहेंगे? और कोई आप से कहे कि आप अपना अंतिम भाषण दीजिये तो आप क्या कहना चाहेंगे?

गुरुवार, जून 17, 2010

बॉली या पॉउली ?

बम्बई के फ़िल्म जगत को बॉलीवुड का नाम कब मिला यह तो कोई ठीक से नहीं कह सकता, विकीपीडिया भी नहीं. मुझे लगता है कि 1970 के दशक में बम्बई से निकलने वाली स्टारडस्ट, सिने ब्लिट्ज़ जैसी फ़िल्मी पत्रिकाओं में तब भी बॉलीवुड शब्द का प्रयोग होता था.

इधर पिछले कुछ सालों में कई बार पढ़ा कि बम्बई के कुछ प्रसिद्ध सितारे अभिनेता, इस नाम से खुश नहीं, वे अपनी पहचान को हॉलीवुड के नकलची छोटा भाई के रुप में नहीं करवाना चाहते, अपने आत्मसम्मान का सोचते हैं. लेकिन यहाँ यूरोप में तो धीरे धीरे बॉलीवुड शब्द की पहचान ही हर तरफ़ बढ़ती जा रही है, और इसका प्रयोग केवल बम्बई में बनने वाली हिंदी फ़िल्मों के लिए ही नहीं बल्कि भारत में बनी सभी फ़िल्मों के लिए किया जाने लगा है, चाहे वे तमिल में हों या बंगला में.

कुछ दिन पहले, इटली के एक लेखक जो कि आजकल बम्बई की पृष्ठभूमि पर एक उपन्यास लिख रहे हैं, उनसे बात हो रही थी, तो वे कहने लगे कि बॉलीवुड शब्द को केवल बम्बई में बनने वाली मसाला फ़िल्मों के लिए प्रयोग करना चाहिये, कला फ़िल्मों, समानांतर सिनेमा, कलकत्ता या केरल में बनने वाली फ़िल्में, इन सब को बॉलीवुड कहना गलत है.

मुझे भारत के अलग अलग हिस्सों में बनने वाली फ़िल्मों तथा कला फ़िल्मों और फार्मूला फ़िल्मों का अंतर समझ में आता है, लेकिन यह भी लगता है कि यूरोप में भारतीय फ़िल्मों के बढ़ते प्रशंसकों को इन अंतरों को समझने में कोई दिलचस्पी नहीं है. इटली में भारतीय फ़िल्मों की जानकारी पिछले दो वर्षों में अचानक तेज़ी से बढ़ी है जबसे यहाँ की एक प्रमुख टीवी चेनल ने बहुत सारी बम्बई की मसाला फ़िल्में, "हम तुम" और "नमस्ते इंडिया" से ले कर "जब वी मेट" को दिखाया है. इससे पहले, भारतीय फ़िल्मों को कुछ थोड़े बहुत लोग ही जानते थे. हालाँकि टीवी पर जब यह फ़िल्में दिखायी गयीं तब इनमें से अधिकतर गाने व नृत्य काट दिये गये थे, लेकिन फ़िर भी लोगों में गानों और नत्यों के प्रति उत्सुकता जागी और लोग यूट्यूब जैसे वेब पन्नों पर भारतीय फ़िल्मों को खोजने लगे हैं.

आज इटली के बहुत से शहरों में बौलीवुड क्ल्ब बने हैं, इन फ़िल्मों के दीवाने, शाहरुख खान, आमीर खान और अक्षय कुमार जैसे अभिनेताओं की प्रशंसा में पत्र लिखते हैं, उनकी तस्वीरें सहेजते हैं. फेसबुक पर पृष्ठ बनाते हैं, बॉलीवुड नृत्यों के स्कूल खोलते हैं. उन्हें फ़िल्म की मूल भाषा क्या है, हिंदी या बंगला या तमिल, इसमें दिलचस्पी नहीं, सबटाईटल हैं या नहीं, बस यह जानना होता है. फेसबुक पर बने इतालवी बॉलीवुड पृष्ठ के एक हज़ार से अधिक सदस्य हैं. कुछ दिन पहले एक इतालवी युवती का ईमेल मिला कि क्यों न सब लोग मिल कर ए. आर रहमान को इटली में आ कर संगीत कार्यक्रम करने को कहें?

बॉलीवुड से मिलती जुलती बात का एक समाचार ब्राज़ील से मिला.

कुछ दिनों के लिए मुझे ब्राज़ील जाना है, उसकी तैयारी के लिए खोज कर रहा था तो ब्राज़ील के पॉउलीवुड के बारे में एक लेख दिखा, जिसमें लिखा है कि ब्राज़ील के सनपाउलो राज्य में एक छोटे से शहर ने, जिसका नाम पाउलीनिया है, फ़िल्म शहर बनने का निश्चय किया है. इस शहर में ब्राज़ील की सबसे बड़ी पेट्रोल रिफाईनरी फैक्ट्री है जिस पर टेक्स लगाने की वजह से शहर की नगरपालिका की बहुत आय होती है, और नगरपालिका ने निर्णय लया कि वे इस आय से वे लोग फ़िल्म बनाने वालों को सहारा देंगे, उन्हें सब सुविधाएँ देंगे, पैसे देंगे, इत्यादि. इस नीति की वजह से कुछ ही वर्षों में पाउलीनिया का छोटा सा, अनजाना शहर, अचानक प्रसिद्ध होने लगा है और पिछले वर्ष, ब्राज़ील में बनने वाली एक तिहायी फ़िल्मों की शूटिंग यहीं हुई है. वह चाहते हैं कि शहर का नाम अब लोग पाउलीनिया के जगह, बॉलीवुड की प्रसिद्धी से प्रेरणा पा कर, पॉउलीवुड कहा जाये.

आज के भूमँडलिकरण के जगत का नियम है कि आत्मसम्मान और अपने नाम या पहचान के अलग होने की चिंता न करके, कैसे ब्रैंडनेम बनाया जाये, जिसे दुनिया में प्रसिद्धी मिले, धँधा बढ़े, पैसा आये, कमाई हो, इसको सोचना चाहिये. जब गाँधी जी के नाम को ब्रैँड बना कर बेचा जा सकता है तो बॉलीवुड की ब्रैंड को बेचने में दुविधा क्यों? तो बॉलीवुड के बने बनाये नाम का फ़ायदा पाना ही बेहतर है या फ़िर अपने आत्म सम्मान के लिए सबसे यह कहना कि भारतीय सिनेमा को बॉलीवुड कह कर उसकी तौहीन न करें?

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शुक्रवार, मई 28, 2010

कविता के शब्द

कुछ दिन पहले लाल्टू की कविताओं की नयी किताब मिली. कविताएँ मुझे धीरे धीरे पढ़ना अच्छा लगता है, जैसे शाम को सैर से पहले दो एक कविता पढ़ कर जाओ तो सैर के दौरान उन पर सोचने का समय मिल जाता है और इस तरह से यह भी समझ में आता है कि कविता में दम था या नहीं. अगर थोड़ी देर में ही कविता भूल जाये तो लगता है कि कुछ विषेश दम नहीं था. कभी किसी कविता से कुछ और याद आ जाता है.

लाल्टू की किताब का शीर्षक है "लोग ही चुनेंगे रंग", और शीर्षक वाली कविता बहुत सुंदर हैः

चुप्पी के खिलाफ़
किसी विषेश रंग का झंडा नहीं चाहिए

खड़े या बैठे भीड़ में जब कोई हाथ लहराता है
लाल या सफ़ेद
आँखें ढूँढ़ती हैं रंगो के अर्थ

लगातार खुलना चाहते बन्द दरवाज़े
कि थरथराने लगे चुप्पी
फ़िर रंगों की धक्कलपेल में
अचानक ही खुले दरवाज़े वापस बंद होने लगते हैं

कुछ ऐसी ही बात स्पेनी गीतकार और गायक मिगेल बोज़े (Miguel Bosé) ने अपने एक गीत में कही थी जिसमें वह ऐसे रंग के सपने की बात करते थे जो किसी झँडे में न हो. राष्ट्रीयता के नाम पर होने वाले भूतपूर्व युगोस्लोविया में होने वाले युद्ध के बारे में लिखा यह गीत मेरे पसंदीदा गीतों में से है.

कुछ दिन पहले सुप्रसिद्ध ईज़राइली कवि येहुदा अमिछाई (Yehuda Amichai), जिन्हें ईज़राइल के सर्वश्रेष्ठ आधुनिक कवियों में गिना जाता है, की एक कविता भी पढ़ीः

तुम्हारे मुझे छोड़ने के बाद
गंध को परखने वाले कुत्ते से मैंने सुंघवाया
अपनी छाती, अपने पेट को, भर ले
नाक में गंध, और तुम्हे खोजने जाये
आशा है कि तुम्हें खोज ले, और उखाड़ ले
तुम्हारे प्रेमी की गोलियाँ और काट ले
उसका लिंग, या कम से कम
अपने दाँतों में तुम्हारी एक जुराब ले आये

पढ़ कर पहला विचार आया कि यह कविता है कि विशाल भारद्वाज की किसी फ़िल्म का डायलाग? ऐसी बातें सोच तो सकते हैं लेकिन कविता में कहना क्या साहित्य है? आप का क्या विचार है?

फ़िर कल एक अन्य अच्छी कविता पढ़ी, यह कविता बच्चों के लिए है और एक विज्ञान सम्बंधित चिट्ठे पर लिखी है, कविता का विषय है एक गायिका की छोटी उँगली. हिंदी में लिखने से उसमें वह बात नहीं आ रही जो कविता में है, इसे मूल अंग्रेज़ी में ही पढ़िये.

मंगलवार, अप्रैल 20, 2010

वेदों की मूल दुनिया

हर नयी यात्रा में मेरा प्रयत्न होता है कि कुछ नया पढ़ा जाये जिसे पढ़ने का घर पर आम व्यस्तता में समय नहीं मिलता. इस बार बँगलौर गया तो पढ़ने के लिए श्री राजेश कोच्चड़ की लिखी पुस्तक "वेदिक पीपल", यानि "वेदों के समय के लोग" पढ़ी. चूँकि आईसलैंड के ज्वालामुखी की वजह से अभी बँगलौर में रुका हुआ हूँ तो इस पुस्तक के बारे में लिखने का समय भी मिल गया. दरअस्ल, यह पुस्तक सभी वेदों को लिखने वाले लोगों की बात नहीं करती, इसका मुख्य ध्येय सबसे पहले वेद, ऋगवेद को लिखने वाले लोगों के बारे में है. साथ ही, यह पुस्तक रामायण तथा महाभारत की कुछ मुख्य घटनाओं की इतिहासिक जाँच करती है. (The vedic people - Their history and geography, by Rajesh Kocchar, Orient Blackswan 2009 - first ediation, 2000 by Orient Longman).

Vedic People by Rajesh Kocchar
राजेश जी सामान्य व्यक्ति नहीं, नक्षत्रशा्स्त्र से जुड़ी भौतिकी के विषेशज्ञ हैं, बँगलौर में स्थित भारतीय नक्षत्रीय भौतिकी राष्ट्रीय संस्थान के डायरेक्टर रह चुके हैं तथा तथा आजकल दिल्ली में भारतीय विज्ञान, तकनीकी तथा विकास राष्ट्रीय संस्थान के डायरेक्टर हैं.

वेदों को लिखने वाले कौन लोग थे, वह कहाँ से आये थे, उनका क्या इतिहास था, इस सबके बारे में लिखने के लिए राजेश जी भाषा विज्ञान, साहित्य, प्राकृतिक इतिहास, पुरात्तवशास्त्र, नक्षत्रशास्त्र आदि विभिन्न दृष्टिकोणों से इस विषय की छानबीन करते हैं. उनके शौध के निष्कर्श चौंका देते हैं लेकिन उनके तर्क को नकारना कठिन है. जिस वैज्ञानिक तरीके से विभिन्न दृष्टिकोणों से उपलब्ध जानकारी को वह प्रस्तुत करते हैं, उससे यह लगता है कि किसी अन्य निष्कर्श पर पहुँचना संभव भी नहीं. इस पुस्तक को पढ़ कर, भारत की प्रचीन संस्कृति और धर्म के बारे में जो धारणाएँ थी, उनको नये सिरे से सोचने का अँकुश सा चुभता है.

पुस्तक का प्रमुख निष्कर्श है कि इंडोयूरोपी मूल के लोग एशिया के मध्य भाग में बसे थे, जहाँ इन्होंने घोड़े को पालतु बनाया, पहिये, रथों तथा घोड़ेगाड़ियों का आविष्कार किया. इन्हीं का एक गुट, पश्चिम की ओर निकला जिससे यूरोप के विभिन्न लोग बने. इन लोगों का फिनलैंड और हँगरी के मूल लोगों से सम्पर्क था जिससे दोनों की भाषाओं में आपसी प्रभाव पड़ा, जिसकी वजह से फिनिश तथा हँगेरियन इंडोयूरोपी भाषाएँ न होते हुए भी, इन भाषाओं के कुछ शब्द मिलते हैं. इन लोगों के दल विभिन्न समय पर जहाँ आज अफगानिस्तान है उस तरफ़ से हो कर ईरान भी गये और भारत की ओर भी बढ़े, जहाँ वह लोग हड़प्पा के जनगुटों से मिलजुल गये. इसी वजह से प्राचीन ईरानी धर्म जोरस्थत्रा के धर्मग्रंथ अवेस्ता में कुछ वही देवता मिलते हैं जो कि ऋगवेद में मिलते हैं जैसे कि इंद्र, मित्र, वरुण आदि. अग्नि पूजा का मूल भी दोनों लोगों को मिला.

राजेश जी के अनुसार ईसा से 1400 वर्ष पहले वहीं दक्षिण अफगानिस्तान में इसी भारतीय ईरानी मूल के कुछ लोगों ने ऋगवेद के श्लोक लिखना प्रारम्भ किया. यह श्लोक लिखने का कार्य करीब पाँच सौ वर्ष तक चला इसलिए ऋगवेद का मूल प्राचीन भाग ईसा से 900 वर्ष पहले के आसपास पूर्ण हुआ, तब तक यह लोग भारत के पश्चिमी भाग में पहुँच चुके थे. उनका कहना है कि जिस सरस्वती नदी जिसे "नदियों की माँ" कहा गया, वह दक्षिण अफगानिस्तान में बहने वाली नदी थी. उनके अनुसार रामायण की घटनाओं का समय भी ईसा से 1480 वर्ष पूर्व का है, वह सब दक्षिण अफगानिस्तान में ही घटित हुआ. महाभारत का युद्ध जो ईसा से करीब 900 वर्ष पहले हुआ, उसकी कर्मभूमि भी पश्चिम का वह हिस्सा है जहाँ आज पाकिस्तान है.

उनका कहना है पूर्व को बढ़ते यह मानव गुट, हड़प्पा के लोगों से मिल कर यायावर जीवन छोड़ कर कृषि में लगे. यह लोग अपने साथ साथ नदियों तथा जगहों के पुराने नाम भी ले कर आये और नये देश में कुछ जगहों तथा नदियों को यह पुराने नाम दिये, कुछ वैसे ही जैसे इटली, फ्राँस, ईग्लैंड से अमरीका जाने वाले प्रवासी अपने साथ अपने शहरों के नाम ले गये और नये अमरीकी शहरों को न्यू योर्क, न्यू ओरलियोन, रोम, वेनिस जैसे नाम दिये. यानि कुरुक्षेत्र, अयोध्या आदि मूल जगह दक्षिण अफगानिस्तान में थीं जिनके नामों को भारत में लाया गया. इसी वजह से ऋगवेद में गँगा नदी का नाम नहीं मिलता.

इन सब बातों के बारे में वह साहित्य, भाषाविज्ञान, पुरात्तव, गणिकी, नक्षत्रज्ञान आदि विभिन्न सूत्रों से जानकारी देते हैं, और उनके तर्कों के सामने अचरज सा होता है और लगता है कि हाँ यह हो सकता है.

किताब को पढ़ने के बाद सोच रहा था कि अगर अफगानिस्तान में पुरात्तव की खुदाई हो सके और राजेश जी कि विचारों को पक्का करने के लिए अन्य सबूत मिलने लगें तो इसका क्या असर पड़ेगा? शायद इस तरह की बातें भारत विभाजन के समय अगर मालूम होतीं तो क्या असर पड़ता?

मन में यह बात भी उठी कि पश्चिम से आने वाले यह लोग, अपने पहले आ कर बस जाने वाले लोगों से किस तरह मिले, किस तरह उनके धर्मों का समन्वय हुआ? जैसे कि हिंदू धर्म के तीन सबसे अधिक पूजे जाने वाले भगवान, राम, कृष्ण तथा शिव, तीनों ही श्याम वर्ण के कैसे हुए जबकि ऋगवेद को लिखने वाले तो गोरे रंग के थे? कैसे भारत के एक हिस्से में महोबा का पूजा होती है, दूसरे हिस्से में उसे महिषासुर कह कर मारा जाता है? कैसे पुरुष देवताओं की पूजा करने वाले आर्य भारत में बस कर शक्ति, लक्षमी और ज्ञान की देवियों को मानने लगे?

इन प्रश्नों के उत्तर कहाँ से मिलेंगे, अगर आप किसी बढ़िया किताब के बारे में जानते हों तो मुझे अवश्य बताईयेगा. आप को मिले तो राजेश कोच्चड़ की इस किताब को अवश्य पढ़ियेगा. और अगर आप इस किताब को पढ़ चुके हैं तो यह भी बतलाईयेगा कि उनके तर्क आप को कैसे लगे?

रविवार, मार्च 21, 2010

स्मृति शेष

18 फरवरी 2010 को सुबह सात बज कर दस मिनट पर माँ ने अंतिम साँस ली. कुछ दिन पहले ही मालूम हो गया था कि उनके जाने का समय आ रहा था. एक तरफ़ मन चाहता था कि वह हमेशा हमारे साथ रहें, दूसरी ओर सारे जीवन की उनकी शिक्षा थी कि तड़प तड़प कर जीना, कोई जीना नहीं और यह भी जानते थे अगर वह स्वयं निर्णय ले पाती तो शायद इससे बहुत पहले ही चली गयीं होतीं.

Mrs. Kamala Deepak
पिछले दस सालों से धीरे धीरे उनकी यादाश्त जा रही थी. पिछले वर्ष जून में दिल्ली में उनके पास रहा था अपनी छोटी बहन के घर जहाँ वह पिछले कई सालों से रह रही थीं. उन्हें घर के कम्पाऊँड में घूमाने ले गया था. अचानक वह मेरी ओर मुड़ कर बोली थीं, "भाई साहब, आप मेरे इतना साथ साथ क्यों चल रहे हैं?" यानि बीच बीच मुझे भी नहीं पहचान पाती थीं. पिछले चार पांच महीनों से उनका बोलना अधिकतर समझ में नहीं आता है, शब्द, वा्कय, अर्थ सब गुड़मुड़ हो गये थे.

उन दिनों रात को उनके साथ ही बिस्तर पर सोता था, उनका हाथ पकड़ कर सहलाता रहता या छोटे बच्चे की तरह उनसे लिपट जाता. सारी उम्र कठिनाईयों से लड़ने वाली माँ चमड़ी में लिपटी हड्डियों का ढाँचा रह गयी थी, लगता कि ज़ोर से दबाओ तो चटख जायेंगी.

रात को वह कई बार उठती और मुझे भी जगा देतीं. एक रात को उन्होंने चार पाँच बार जगाया. समझा बुझा कर हर बार उन्हें दोबारा सुला देता. सुबह चार बजे के करीब जब उन्होंने फ़िर जगाया तो मैंने नींद में ही उनसे कुछ गुस्से से कहा कि माँ बहुत नींद आ रही है, मुझे सोने दो, तो रोने लगीं. अचानक उनकी समझ कुछ देर के लिए लौट आयी थी, कातर हो कर बोलीं कि इस तरह का जीना मरने से बदतर है. फ़िर कहा, "तू तो डाक्टर है, मुझे कुछ दवा दे कर सुला नहीं सकता कि इस नर्क से छुटकारा मिले?" उनके साथ साथ मैं भी रो पड़ा था. कुछ देर में ही वह सब कुछ भूल कर फ़िर से सो गयीं थीं.

8 फरवरी को चीन में था, जब रात को माँ के बारे में बुरा सपना देखा. दिल घबराया तो रात को उठ कर छोटी बहन को ईमेल लिखी और माँ का हाल पूछा. बहन का उत्तर थोड़ी देर में ही आ गया, माँ होश में नहीं थीं और उन्हें अस्पताल में इनटेंसिव केयर में रखा गया था. अगले दिन ही भारत आने की उड़ान खोजी. दिल्ली पहुँचा तो अस्पताल में डाक्टर बोले कि कुछ और नहीं हो सकता था तो सोचा कि अगर कुछ नहीं हो सकता तो माँ को घर ले जा कर स्वयं ही उनके आखिरी दिनों की देखभाल करूँ. कम से कम घर के सब लोग साथ तो रह सकेंगे, अस्पताल में तो किसी को पास नहीं जाने देते.

करीब तीस साल पहले कुछ समय इनटेंसिव केयर में काम किया था, सोचा जितनी देखभाल करनी चाहिये, वह करनी तो मुझे आती है. घर ला कर सब इंतज़ाम किया. नाक से पेट में ट्यूब जिससे खाना दिया जाये, इंट्रावीनस ड्रिप दवाई देने के लिए, पिशाब के लिए केथेटर. माँ की पीठ पर घाव बन गया था, बाँहें और टाँगें दर्द से जुड़ी अकड़ गयी थीं जिन पर खून के गट्ठे बन गये थे, बेहोशी में भी दिन रात पीड़ा से कराह रही थीं. बार बार माँ के शब्द मन में आते कि मुझे तड़प तड़प कर मत मरने देना, ऐसी दवा देना कि आराम से चली जाऊँ. मेरे अंदर का डाक्टर कैसे क्या दवाई दी जाये, कैसे करवट बदलायी जाये, कब क्या खाने को दिया जाये सोचता था. अंदर का बेटा माँ के जाने का सोच कर द्रवित हो उठता. कई बार मन में आता कि इस तरह के इलाज से माँ की तड़प को और भी लम्बा कर रहा था. लगता कि माँ मुझसे चिरनिंद्रा की दवा माँग रही हों, दर्द से मुक्ति मांग रही हो, पर मुझमें इतनी ताकत नहीं थी कि माँ की यह इच्छा पूरी कर पाता.

माँ के जाने के बाद उनकी डायरियाँ पढ़ रहा हूँ. डायरी वाली माँ, मेरी यादों वाली माँ से अलग लगती है. बाहर से बहादुर, निडर दिखने वाली माँ, अपने डरों को सिर्फ़ डायरी को ही कह पाती थी. डायरी में अतीत के बहुत से लोगों की कहानियाँ और बातें हैं, लोहिया की समाजवादी पार्टी की बातें, भारत के पहले प्रधान मंत्री नेहरू की बातें, भारत पाकिस्तान विभाजन की बातें, पिता के मित्रों लेखकों कवियों की बातें, अपने अकेलेपन की बातें -

... पाकिस्तान से आये तो दिल्ली में माडलबस्ती शीदीपुरा में एक मुसलमान के खाली घर में हमें शरण मिली, घर आधा जला हुआ था. मैं मृदुला साराभाई के शान्ती दल में काम करने लगी, घूम घूम कर मुसलमान लड़कियों को खोजते और उन्हें बचा कर उनके परिवारों में भेजते. तब अरुणा आसिफ़ अली, सुभद्रा जोशी आदि से भी भेंट हुई. कमला देवी चट्टोपाध्याय से रिफ्यूज़ी सेंटर में मिली. शाम को गाँधी जी की प्रार्थना सभा में जाते.

पहले मुझे तीन महीने सोशलिस्ट पार्टी के केंद्रीय दफ्तर में बाड़ा हिंदुराव में हिंदी टाईपिंग का काम मिला, वहाँ जे. स्वामीनाथन, सूरजप्रकाश, कश्यप भार्गव और दीपक जी से मिली. चमनलाल भी मित्र थे जिन्होंने फैज़रोड पर एक मुसलमान के खाली घर में स्कूल खोला तो मैं, कश्पी, दीपक और विमला जो बाद में चमन की पत्नी बनी, वहाँ स्कूल में काम करते और मेरे तीन भाई और एक बहन वहाँ पढ़ने लगे. मुझे 40 रुपये तन्ख्वाह मिलती जिसमें से 20 रुपये अपने भाई बहन की फ़ीस में दे देती. छः मास वहाँ काम किया...

.. 1949 में जब लोहिया नेपाल आंदोलन के संदर्भ में जेल से छूटे तो औखला में एक पार्टी दी गयी. मैं भी वहाँ थी. और मेरे साथ एक युगोस्लाविया की लड़की मलाडा कलाबावा भी थी जो लोहिया के यहां ही रह रही थी, बारहखम्बा रोड में पदमसिंह के यहां. आयु उसकी उस समय 23-24 की होगी. लड़की बहुत ही अच्छी थी. लोहिया की दोस्त थी. हम दोनो नहर के किनारे बैठे बात कर रहे थे. वह हिंदी जानती थी.

तभी एक टोकरी में पांच छः आम लिए लोहिया हमारे पास आ कर बैठ गये कि अरे तुम लोग यहां बैठी हो और सब आम खत्म हो गये हैं. इतने स्नेह से वह दे रहे थे कि मेरी आँखों में पानी भर आया. तो बोले, पीठ थपथपा कर, जल्दी से खालो. मुझे आम अधिक अच्छा नहीं लगता था फ़िर भी मैंने हाथ में लिया. तभी कश्पी, सूरज और दीपक तीनो आ गये, बोले कि यह तो बहुत ज्यादती है कि तुम दोनो सब आम खाओगी और हम देखते रहेंगे. मैंने मलाडा से कहा कि तुम ले लो और बाकी उन्हें दे दो और अपने हाथ वाला आम भी उन्हें दे दिया. मलाडा ने मेरी शिकायत लोहिया से की तो वह बहुत नाराज़ हुए कि मैंने तुम्हें बाँटने को नहीं दिये थे. मैंने माफ़ी माँग ली तो खिलखिला कर हँस पड़े. साथ ही कहा कि बहादुर तो तुम हो लेकिन समझदार नहीं हो...

..जब नेहरू की सरकार बनी तो लेजेस्लेटिव असेम्बली में संसद भवन में काम करना शुरु किया. तब सिद्धवा, दादा धर्माधिकारी, शाहनवाज़, पूर्णिमा बैनर्जी, मदनमोहन चतुर्वेदी आदि से पहचान हुई. मौलाना आज़ाद तब शिक्षा मंत्री थे, मसूद उनका पी.ए. था, मुझे उनके साथ काम मिलता. काम बहुत था और देर तक रुकना पड़ता था. मैं साईकल से आती जाती थी, रात को लौटती तो बिल्कुल सुनसान होता, रात के ग्यारह बारह भी बज जाते थे. वहाँ एक दक्षिण भारतीय अफसर था जिसने मुझे तंग करना शुरु कर दिया, उल्टी सीधी अटपट बातें करने लगा. तो मैं पंडित नेहरु के पास गयी जो मुझे मृदुला बहन के समय से जानते थे और मुझे बहादुर बेटी के नाम से पुकारते थे क्योंकि मैंने एक बार शान्ति दल में एक मुसलमान लड़की को भीड़ से बचाया था. तब मैं कभी भी तीन मूर्ती भवन के अंदर आ जा सकती थी.

मैंने पंडित जी को कहा कि मुझे असेम्बली से घर जाने में बहुत देर हो जाती है और अकेले घर जाने में डर लगता है. तो वह बोले तुम बहादुर लड़की हो, डर कैसा. मैंने कहा कि मुझे दरियागंज में नयी खुली टीचर्स इंस्टिट्यूट में भेज दीजिये, अभी तो ट्रेनिंग शुरु हुए दो महीने ही हुए हैं, मैं वह पूरा कर लूँगी. मौलाना आज़ाद के पी.ए. मसूद साहब मुझे फार्म दे गये, बस मैं संसद का काम छोड़ कर बेसिक टीचर्स ट्रैंनिग में चली गयी, जहाँ तीस रुपये महीने का वज़ीफ़ा मिलता था. एक साल बाद ट्रेनिंग पूरी हुई, मुझे दिल्ली के नवादा गाँव के स्कूल में नौकरी मिल गयी...

कितनी बातें जीवन की, कुछ भी नहीं रहता. बस यही लिखे कागज़ बचे हैं और यादें.

गुरुवार, जनवरी 21, 2010

मनप्रिय लेखक

क्रोएशिया की लेखिका मिलाना रुँजिच का एक लेख पढ़ रहा था. उन्हें किसी पाठक ने लिखा था कि उसे मिलाना का लेखन पढ़ कर उससे प्यार होने लगा था. मिलाना ने उत्तर में लिखा, "मेरे विचार में मुझे ऐसे पुरुष से प्यार होने में कोई दिक्कत नहीं होगी जो मेरे लिखे हुए को पढ़ कर मुझसे प्रेम करने लगा हो. सचमुच कहूँ तो मुझे लगता है कि तुम्हारा पत्र पढ़ कर मुझे भी तुमसे कुछ कुछ प्रेम सा हो ही गया है. मुझे हमेशा ही वह पुरुष अच्छे लगे हैं जो मेरी किताबों को पढ़ते हों. अगर उन्हें मेरा लिखा अच्छा लगता है तो इसका मतलब है कि उन्हें मैं भी अच्छी लगती हूँ क्योंकि मेरे लेखन में भी तो मैं ही होती हूँ. अगर कोई पुरुष कहे कि उसे मेरी कविताएँ अच्छी लगीं तो उसका मुझ पर और भी अधिक असर होता है. और अगर किसी को मेरे लेख भी अच्छे लगते हैं तो मैं उससे तुरंत विवाह करने को तैयार हूँ."

यानि लेखक भी सभी मानवों की तरह, अपने को चाहने वाले और पसंद करने वालों की तलाश में रहता है. पर किताब पढ़ कर लेखक की एक छवि मन में बना लेना और उसके प्रेम के सपने देखना या फ़िल्म देख कर अभिनेता या अभिनेत्री के सपने देखना, शायद यह कम उम्र में ही संभव होता है. सचमुच के जीवन में कितनी बार पाया कि जो लेखक या अभिनेता, किताब में या पर्दे पर इतना भाता है, सामान्य जीवन में सामान्य ही होता है, किसी बात में अच्छा लगता है और किसी बात में बिल्कुल अच्छा नहीं लगता.

कभी कभी ऐसा भी हुआ है कि किताबों कहानियों में बहुत अच्छा लगने वाले लेखक से जब मिलने का मौका मिला तो बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा. तब दुख भी होता है कि क्यों ऐसे व्यक्ति से मिला और बाद में उसकी लिखी किताब या कहानियाँ भी पढ़ने का मन नहीं करता.

अधिक प्रसिद्ध होने वाले व्यक्तियों से यह खतरा कुछ अधिक है, क्योंकि प्रसिद्ध के साथ साथ उनके सामान्य आचरण में निरंकुषता सी आ सकती है.

***

हिंदी की पत्रिका हँस को नियमित पढ़ते जाने कितने साल हो गये. पत्रिका का मेरा सबसे प्रिय हिस्सा है "मेरी तेरी उसकी बात", नयी पत्रिका आये तो सबसे पहले उसी को पढ़ता हूँ, कई बार दोबारा भी पढ़ता हूँ.

"मेरी तेरी उसकी बात" हँस के संपादक श्री राजेंद्र यादव लिखते हैं. जनवरी 2010 का हँस का नया अंक आया तो भी सबसे पहले इसी को पढ़ा. इस बार यादव जी ने "धर्मयुग" के संपादक श्री धर्मवीर भारती की पत्नी श्रीमति पुष्पा भारती से होने वाले झगड़े की बात की है. पुष्पा जी ने यादव जी की पत्नी मन्नू भँडारी से कहा कि वह अपनी पुस्तक में भारती जी बारे में लिखी किसी बात को हटा दें, क्योंकि वह गलत है. यादव जी अपने संपादकीय में अपनी पत्नी और पुष्पा जी बीच होने वाले इसी झगड़े की बात का विस्तार से सारा इतिहास बताते हैं. आरोप है भारती जी के सत्ता में होने वाले लोगों की चापलूसी का, इमरजैंसी के दौरान चुप्पी का और पहले इंदिरा-संजय वंदना का, फ़िर सत्ता पलटने पर अटल बिहारी वाजपेयी वंदना का.

आलेख को बहुत मज़े ले कर पढ़ा. किसी की बुराई हो रही हो तो चटकारे ले कर पढ़ना, मसालेदार चाट खाने से कम नहीं. आलेख में यादव जी और मन्नू भँडारी जी हैं कहानी के नायक, साथ में कुछ अन्य लोग हैं जैसे कि पंकज विष्ट. यह नायक लोग अपने आदर्शों पर बने रहे, सत्ताधारियों के आगे नहीं झुके, उनके पैसे और पुरस्कार ठुकरा दिये. दूसरी ओर सत्ता के सामने झुकने वाले, समझौता करने वालों कमज़ोर लोग हैं जिनके सरताज थे धर्मवीर भारती. इस झुकने समझौता करने वालों की लिस्ट में और भी बहुत से नाम हैं. साथ में अपने आदर्शों पर डटने के कुछ गवाहों के नाम भी हैं.

अधिक मसालेदार चाट खायी हो तो बाद में पेट में दर्द भी उठ सकता है, कुछ ऐसा ही लगा आलेख पढ़ कर.

यादव जी की लिस्ट में रघुवीर सहाय और अनीता औलक के भी नाम हैं. अनीता जी का ज़िक्र तो कुछ दिन पहले ही किया था जब मोहन राकेश जी के बारे में लिखा था. सोचा कि मोहन राकेश की मृत्यु तो 1972 में हुई थी फ़िर अनीता जी को क्यों इमरजेंसी के चक्कर में खींचा गया जिससे उन्हें सत्ता से समझौता करना पड़ा?

रघुवीर सहाय जी को बहुत सालों तक पिता के मित्र के रुप में जाना था, उनका नाम देख कर मन में अन्य बातें उठीं, अगर 1978 में इमरजैंसी के दौरान मेरे पिता जीवत होते तो क्या वह भी सत्ता से समझौता कर लेते? समझौता क्या होता है और क्यों करते हैं? आदर्शों को बना कर रखना इतना कठिन क्यों होता है? कौन करते हैं समझौता?

आलेख में धर्मवीर भारती की तो इतनी धूँआदार धुलाई की गयी है कि उनकी आत्मा छुपने की जगह खोज रही होगी. बची खुची कसर निकाली है तीस साल पहले "माया" पत्रिका में छपे आलेखों से, जिनमें भारती जी के बारे में अन्य विवरण हैं. इन सब पुराने आलेखों को हँस में दोबारा से छापा गया है. ऐसा सबूत सहित जूता मारा है कि दोबारा सिर उठाने की कोशिश ही न करें.

कहते हैं तिब्बत में कोई मरता है तो उसके शरीर को काट कर चील गिद्धों को खिलाते हैं, भारती जी का वही क्रिया कर्म हो गया लगता है. हँस के अगले अंक में यादव जी की बहादुरी की सराहना करने वाले बहुत से पत्रों को पढ़ने का इंतज़ार रहेगा. शायद आलेख की अगली किश्त भी छपे, जिसमें अन्य बातें जानने को मिलेंगी. और चाट खायेंगे, और पेट दुखेगा.

क्या करते बेचारे यादव जी, उनका कुछ दोष नहीं, पुष्पा भारती की धमकी का उत्तर तो देना ही था.

रविवार, जनवरी 10, 2010

मोहन राकेश

अंग्रेज़ी की अखबार हिंदुस्तान टाईमस में मोहन राकेश जी के बारे में छोटा से लेख देखा तो उन दिनों की याद आ गयी जब वह दिल्ली के राजेंद्र नगर के आर ब्लाक में रहते थे. तालकटोरा बाग से शंकर रोड की तरफ़ आईये तो जहाँ राजंद्र नगर प्रारम्भ होता है वहाँ बायें कोने पर पम्पोश की दुकान थी जिसकी वजह से उस सारी जगह को पम्पोश ही कहते थे. पम्पोश से आने वाली सड़क जहां आर ब्लाक के बड़े बाग से मिलती, वहीं बायें कोने वाले तीन मज़िला घर में बरसाती पर रहते थे.

उनके घर से थोड़ी दूर पर ही जंगल के सामने वाली सड़क पर मेरी बुआ का घर था. 1966-67 के आस पास ही बुआ के यहाँ छुट्टियों में गया था जब दीदी के साथ मोहन जी के घर जाने का एक दो बार मौका मिला था. तब तक उनकी कुछ कहानियाँ नाटक पढ़े थे, लेकिन इतनी समझ नहीं थी कि वह कितने बड़े लेखक हैं. मैं तब बारह या तेरह साल का था पर जब उन्हें पहली बार देखा था उसके बारे में सोचूँ तो सबसे पहली बात जो मन में आती है वह उनका कद छोटा होने की है. उनकी पत्नी अनीता, जो उम्र में उनसे बहुत छोटी लगती थीं, उनसे थोड़ी ऊँची थी. दूसरी बात याद आती है उनकी गूँजती आवाज़ में पँजाबी भाषा का पुट. तीसरी बात याद है उनका छोटा और मोटा सा सिगार पीना.

तब उनकी बेटी पुरुवा का मुँडन हुआ था और उसके बारे में सोचूं तो उसके गँजे सिर पर हाथ फ़ैरना याद आता है. दीदी, अनीता जी और मोहन जी में क्या बातें हुईं, यह सब कुछ याद नहीं क्योंकि तब अपना ध्यान खेलने की ओर अधिक होता था. हां उनके कमरे के बीच में रखी गोल नीची मेज़ याद है जिसके आसपास ज़मीन पर बैठ कर कुछ खाया था.

जब उनकी मृत्यु का सुना था तो मुझे अनीता जी और उनकी बेटी पुरुवा का ही ध्यान आया था. अनीता जी से पहले वह अन्य विवाह कर चुके थे और शायद अनीता जी उनकी धरौहर की कानूनी मालिक नहीं थीं. बच्चे छोटे हों और अचानक पिता न रहे का क्या अर्थ होता है, इसका अपना अनुभव मुझे कुछ वर्ष बाद हुआ था जब मेरे पिता भी कम उम्र में अचानक गुज़र गये थे.

पर समय सब कुछ भुला देता है. अनीता जी कहाँ गयीं, उनकी बेटी का क्या हुआ, यह कुछ भी मुझे मालूम नहीं शायद दीदी को मालूम हो.

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