कल दिन सुंदर था, धूप निकली थी, मैं साइकल ले कर शहर के प्रमुख चौबारे "पियात्सा माजोरे" जा पहुँचा. पियात्सा का अंग्रेज़ी में अनुवाद होगा, "स्कावायर" यानि समभुज चकोराकार, पर मैंने आज तक कोई समभुज चकोराकार रुप का चौबारा नहीं देखा इस लिए मेरे विचार से इसका सही अंग्रेज़ी अनुवाद रेक्टेंगल होना चाहिये था.
चौबारों का इतालवी सामाजिक जीवन में बहुत महत्व है. यहाँ लोग मित्रों को मिलते हैं, अपने नये कपड़े पहन कर सैर करते हैं औरों को दिखाने के लिए, खेल तमाशा देखते हैं, बैठ कर चाय काफी पीते हैं. इस लिए पियात्सा माजोरे में हमेशा भीड़ सी लगी रहती है जो मुझे बहुत अच्छी लगती है. कल सब तरफ प्रोदी को समर्थको की भीड़ थी, जो प्रधानमंत्री पद के अपने उम्मीदवार के लिए वोट माँग रहे थे.
९ अप्रैल को राष्ट्रीय चुनाव होने वाले हैं इटली में और प्रधानमंत्री पद के दो प्रमुख नेता हैं सिलवियो बरलुस्कोनी और रोमानो प्रोदी. बरलुस्कोनी जी जो इस समय प्रधानमंत्री हैं, कानून की झँझटों में फँसे हैं पर उनका जनता पर बहुत प्रभाव रहा है. करोड़पति हैं, कई अखबारों, पत्रिकाओं, टेलीविजन चेनलों के मालिक भी, पर कहते हैं कि उनका अधिक ध्यान सरकार में रह कर भी, अपनी कानूनी समस्याएँ सुलझाना है और अपनी अमीरी बढ़ाना है.
प्रोदी जी प्रोफेसर हैं, गंभीर किस्म है, यूरोपियन कमीशन के प्रधानमंत्री रह चुके हैं. मेरी व्यक्तिगत राय है कि बरलुस्कोनी जी अपने लालू जी की तरह चालू हैं पर उनके भाषण मजेदार होते हैं. प्रोदी जी जरुर अधिक अच्छे प्रधानमंत्री बनेंगे पर उनके भाषण जरा बोरिंग से होते है, सनते सुनते नींद आ जाती है.प्रोदी और बरलुस्कोनी के चुनाव में अपने वोट माँगने का तरीका भी भिन्न ही है. प्रोदी जी लोग सामने बात करना पसंद करते हैं, वह स्वयं एक बड़ी पीली गाड़ी में शहर शहर घूम रहे हैं. दूसरी तरफ, बरलुस्कोनी जी के रंगबिरंगे बोर्ड हर तरफ लगे हैं, और वह सरकारी पद का इस्तेमाल कर रहे हैं कि सरकारी खर्चे पर सभी देशवासियों को अपनी सरकार के अच्छे कामों के बारे में बता सकें.
कुछ देर चौबारे में खुले में हो रही एक सर्कस देखी. अनौखी साईकल चलाने वाले कलाकार ने मुझे फोटो खींचते देखा तो पोज़ बना कर खड़ा हो गया.
सर्दी थी पर धूप की वजह से कम लग रही थी. ऊपर आसमान इतना नीला और उसमें तैरते सफ़ेद बादलों को देख कर लगा कि पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव पर सागर में तैरते हिमखँड शायद ऐसे ही लगते हों ?
यूँ ही घूमते घूमते, जाने मन में क्या आया वहाँ एक पुराने गिरजाघर में घुस गया. बाहर से तो यह गिरजाघर बहुत बार देखा था पर अंदर कभी नहीं गया था. इसका नाम है, "सांता मारिया देला वीता" यानि "संत जीवनदायनी मारिया" और यह बोलोनया के एक पुराने अस्पताल (सन 1100 से 1750 तक काम किया इस अस्पताल ने) का हिस्सा था. ऐसे ही चारों तरफ देख रहा था कि वहाँ सफाई कर रही एक युवती ने इशारा कर के कहा कि मूर्तियाँ सीड़ियों के पीछे हैं. कौन सी मूर्तियाँ सोचा पर फ़िर जहाँ इशारा किया था उस तरफ बढ़ा. वहाँ अँधेरे में ऐसा दृष्य देखा कि एक क्षण के लिए साँस नहीं ले पाया. झाँकी सी बनी थी, बीच में रखा जीसस का शरीर, आसपास रोने वाले. रोने वालों में दो मूर्तियाँ इतने सुंदर तरीके से प्रियजन से बिछड़ने का दुख दर्शा रहीं थी. लकड़ी की बनी यह मूर्तियाँ सन 1463 में मूर्तकार निकोला देल आर्का ने बनायीं थीं. बहुत अचरज हुआ कि इतनी सुंदर जगह शहर के बीचोंबीच हो कर भी इस तरह से कैसे छुपी है, दिल्ली की उग्रसेन की बावली की याद आ गयी.
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दिन में केवल 24 घँटे ही क्यों होते हैं और जब दिन भर करने के काम इन 24 घँटों में न समायें तो क्या करना चाहिये ? नौकरी, परिवार और बिस्तर इन 24 घँटों को अपने अपने हिस्सों में बाँट लेते हैं और बस सुबह सुबह के 1-2 घँटे बचते हैं जिन्हे मैं अपनी मन मरजी करने वाले कह सकता हूँ. पिछले वर्ष मन में ठानी थी कि यह समय हिंदी चिट्ठे के लिए है हर सुबह चिट्ठा लिखने बैठ जाता था.
पर इस वर्ष सब कुछ बदल गया है. भारत यात्रा से वापस लौटे तो सबसे पहला काम था कि बेटे के विवाह की विभिन्न विडियो फिल्मों को इकट्ठा करके उन्हें मिला कर एक छोटी सी फिल्म बनायी जाये. करीब एक महीना तो इसी में निकल गया. फ़िर मन में एक उपन्यास लिखनी तमन्ना थी, तो वह शुरु किया. उसके साथ साथ आजकल एक इतालवी डाक्यूमैंट्री निर्देशिका को भारत में बनाई गयी फिल्म के कुछ हिस्से अनुवाद करने में सहायता कर रहा हूँ.
यानि कि खोने के लिए आसपास बहुत सारे रास्ते हैं, पर शायद कुछ अकेले से हैं. कभी कभी दिल करता है अकेलेपन से निकलने का, तो चिट्ठे को खोजते खोजते वापस आना ही पड़ता है.