क्या आप को कभी भारतीय शहरों में गिद्धों की याद आती है? क्या आप को याद है कि आप ने आखिरी बार किसी गिद्ध को कब देखा था? शायद आप के छोटे बच्चों ने तो गिद्ध कभी देखे ही न हों, सिवाय चिड़ियाघरों में? पिछले कुछ सालों में मैं अपनी भारत यात्राओं के बारे में सोचूँ तो मुझे एक बार भी याद नहीं कि कोई गिद्ध दिखा हो.
बचपन में हम लोग दिल्ली में झँडेवालान के पास ईदगाह वाले रास्ते के पास रहते थे. तब वहाँ गिद्धों के झुँड के झुँड दिखते थे. कुछ साल पहले उधर गया था तो उस तरफ भी कोई गिद्ध नहीं दिखे थे. लेकिन पहले इसके बारे में सोचा नहीं था. कोई चीज़ न दिखे, तो समझ में नहीं आता कि नहीं दिखी, जब तक उसके बारे में सोचो नहीं.
पिछले कुछ दशकों में भारत के नब्बे प्रतिशत गिद्ध मर चुके हैं. इसके बारे में मीरा सुब्रामणियम का आलेख पढ़ा तो दिल धक सा रह गया. अचानक याद आ गया कि कितने सालों से भारत में कभी कोई गिद्ध नहीं दिखा.
बदलती दुनिया के साथ भारत भी बदल रहा है. इसके बारे में बहुत सालों से सुन रहा था, पर गिद्धों के बारे में पढ़ कर महसूस हुआ कि सचमुच यह बदलाव कितने बड़े विशाल स्तर हो रहा है. पर बदलाव कुछ छुपा छुपा सा है. कुछ अनदेखा सा. ऐसा कि उसकी ओर सामान्य किसी का ध्यान नहीं जाता.
जितनी बार दिल्ली, बँगलौर या बम्बई जैसे शहरों में जाता हूँ, हर बार लगता है कि दमे या खाँसी या एलर्जी वाले लोग कितने बढ़ गये हैं. डाक्टर होने की यही दिक्कत है कि बीमारियों के समाचार अवश्य मिलते हैं. लोग मेरा हाल चाल पूछने के बाद, अपनी तकलीफ़ें अवश्य बताते हैं. और मुझसे सलाह भी माँगते हैं कि कौन सी दवायी लेनी चाहिये? पर वातावरण में प्रदूषण के बढ़ने से होने वाली बीमारियों को दवा कैसे ठीक कर सकती हैं? यह सोच कर मैं अक्सर कहता हूँ कि दवा के साथ कुछ दिन पहाड़ पर या गाँव में घूम आईये, उससे शायद अधिक असर होगा दवा का.
पर धीरे धीरे, हमारे गाँव और पहाड़ भी उसी प्रदूषण का शिकार हो रहे हैं. कुछ दिन पहले आकाश कपूर का लेख पढ़ा था, जिसमें वह दक्षिण भारत में पाँडेचेरी के पास एक गाँव में अपने घर से दो मील दूर कूड़ा फैंकने की जगह पर जलने वाले प्लास्टिक की बदबू और प्रदूषण की बात कर रहे हैं. उन्होंने लिखा है कि "भारत में हर वर्ष शहरों में दस करोड़ टन कूड़ा बनता है, जिसमें से करीब साठ प्रतिशत इक्टठा किया जाता है, बाकी का चालिस प्रतिशत वहीं आसपास जला दिया जाता है. कुछ कूड़ा लैंडफ़िल यानि बड़े खड्डों में भर दिया है, और वहाँ पर जलता है... भारत की पचास प्रतिशत ज़मीन ऊपरी उपजाऊ सतह खो रही है, सत्तर प्तिशत नदियों का पानी प्रदूषित है, हवा के प्रदूषण की दृष्टि से भारत दुनिया में सबसे अधिक प्रदूषित है ..". वह पूछते हैं कि वह प्रदूषण से बचने के लिए गाँव में रहने आये, लेकिन अगर प्रदूषण गाँवों को लपेट में ले लेगा तो कहाँ जायेंगे?
आर्थिक विकास भारत में कैसे लाया जाये, इसके लिए उदारीकरण का मार्ग चुना गया है. इसके लिए बहुदेशी विदेशी कम्पनियाँ भारतीय कम्पनियों से मिल कर भारत में नये तरीके के बीज और उपज बढ़ाने के लिए नये तरीके की खाद और कीटनाशक स्प्रे ला रही हैं. इस सब से वह चुपचाप होने वाली एक क्राँती हो रही है. जिससे हज़ारों सालों से किसानों द्वारा खोजे और सम्भाले हुए बीज, नये लेबोरेटरी में तैयार हुए बीजों से मिल कर नष्ट हो रहे हैं. लैबोरेटरी में बने बीजों को बहुदेशी कम्पनियाँ बेचती हैं. इनमे वह बीज भी हैं जो एक बार ही उगाये जाते हैं. उन पौधों से बीज नहीं मिलते, उन्हें नया खरीदना पड़ता है. उपज बढ़ाने के लालच में किसान ऋण लेते हैं ताकि यह बीज खरीद सकें. और ऋण न भर पाने पर आत्महत्या करते हैं.
कैमिकल खाद और कीटनाशक पौधों के कीड़े मकोड़े मारते हैं. पर यही पदार्थ नयी बीमारियाँ भी बना रहे हैं. साथ ही ज़मीन के सतह के नीचे छुपे पानी को दूषित कर रहे हैं. नवदान्य संस्था की सुश्री वन्दना शिवा जैसे लोगों ने इसके बारे में बहुत कुछ शौध किया है और लिखा भी है.
अधिकतर लोग सोचते हैं कि यह सब बेकार की बातें हैं. पर्यावरण की रक्षा कीजिये, बाँध बना कर वातावरण को नष्ट न कीजिये, खानों से प्रदूषण होता है, जैसी बातों को विकास विरोधी कहा जाता है. लेकिन यही लोग जब बाज़ार में ताज़ी सब्ज़ी खरीदने जाते हैं तो कैसे जान पाते हैं कि वह सब्जी किस तरह के कीटनाशक तत्वों के संरक्षण में उगायी गयी है? या फ़िर क्या उस सब्जी को नये बीजों से बनाया गया है, जिनका शरीर पर क्या असर पड़ता है इसका किसी को ठीक से मालूम नहीं? जिसे वह लोग बेकार की बात सोचते हैं, वही बात उनके अपने और बच्चों के जीवन पर उतना ही असर करेगी. तो कहाँ जायेंगे, साँस लेने?
माँस मछली खाने वाले सोचते हैं कि शरीर में बढ़िया पोषण पदार्थ जा रहे हैं. लेकिन यह माँस मछली कहाँ से आते हैं? आजकल अधिकतर मुर्गियाँ "ब्रोयलर चिकन" होती हैं, जो पिँजरों मे पैदा होती हैं, वहीं पिँजरों में बढ़ती हैं. सारा दिन विषेश बना चारा खाती हैं. तीन महीने में चूजा मुर्गी बन कर खाने की मेज़ पर तैयार हो कर आ जाता हैं. यह चिकन बनाने की फैक्टरियाँ होती हैं जहाँ हज़ारों लाखों की मात्रा में चिकन तैयार होता है. इसकी कीमत भी सीमित रहती है ताकि लोग खरीद सकें. एक एक पिँजरे में हज़ारों मुर्गियों को साथ रखने से उन्हें पोषित चारा देना और उनकी देखभाल आसान हो जाती है. लेकिन एक खतरा भी होता है. किसी एक मुर्गी को कुछ बीमारी लग गयी तो सारी मुर्गियों में तुरंत फ़ैल जाती है, बहुत नुक्सान होता है. इसलिए उनके चारे में एँटिबायटिक मिलाये जाते हैं ताकि उन्हें बीमारियाँ न हों. चूज़ों को एँटिबायटिक देने का एक अन्य फायदा है कि उससे वह जल्दी बड़े और मोटे होते हैं. वैसे मीट के लिए पाले जाने वाले पशुओं को एँटिबायटिक के अतिरिक्त बहुत से लोग होरमोन भी देते हैं जिससे चिकन और बकरी की मासपेशियाँ सलमान खान और हृतिक रोशन की तरह मोटी और तंदरुस्त दिखती हैं.
जितना वजन अधिक होगा, उतनी कमायी होगी. तो मुर्गी हो या बकरी, उसे एँटीबायटिक देना, हारमोन देना, खाने में पिसी हड्डी मिलाना, सब उन्हें मोटा करने में काम आते हैं. खाने वाले भी खुश रहते हैं कि देखो कितना सुन्दर माँस खरीदा, कितना बढ़िया और स्वादिष्ट पकवान बनेगा.
बस कुछ छोटी मोटी दिक्कते हैं. दिक्कत यह कि वही एँटीबायटिक और हारमोन माँस के साथ खाने वाले के शरीर में भी आ जाते हैं. लगातार नियमित रूप से छोटी छोटी मात्रा में एँटिबायटिक और हारमोन आप के शरीर में जाते रहें इससे आप के शरीर को कितना लाभ होगा, यह तो आप स्वयं ही सोच सकते हैं. कई शोधों ने जानवरों को दिये जाने वाले होरमोन की वजह से शहर में रहने वाले लोगों के शरीर में होने वाले कई बदलावों से जोड़ा है, जिसमें कैन्सर तथा एलर्जी जैसी बीमारियाँ भी हैं. पुरुषों के वीर्य पर असर होने से पिता न बन पाने की बात भी है.
इसी बात से जुड़ा कुछ दिन पहले एक अन्य समाचार था. इस समाचार के अनुसार अमरीका ने कहा है कि वह आयात हो कर लाये जाने वाले माँस में एँटिबायटिक तथा हारमोन की जाँच करेंगे और अगर उनमें यह पदार्थ पाये गये तो उन्हें अमरीका में आयात नहीं किया जायेगा. इस समाचार से मैक्सिकों की पशुपालक कम्पनियों में हड़बड़ी फ़ैल गयी कि इसका कैसे समाधान किया जाये. पर अमरीकी, अपने देश में वह हानिकारक माँस नहीं चाहते, लेकिन साथ ही अमरीकी कम्पनियाँ पूरे विश्व में वही हारमोन और कीटनाशक बेचती हैं, उस पर कोई रोक नहीं है.
इसी से मिलता जुलता एक समाचार कुछ दिन पहले चीन से आया था. चीनी एथलीटों को डर है कि वहाँ की मर्गियों को क्लेनबूटेरोल नाम की दवा खिलायी जाती है जो कि चिकन खाने के साथ खिलाड़ियों के शरीर में आ जाती है. इसे ओलिम्पिक वाले गैरकानूनी दवाओं में गिनते हैं. यानि ओलिम्पिक में भाग लेने वाले खिलाड़ियों के शरीर में अगर यह दवा पायी जायेगी तो उन्हें खेलों में भाग नहीं लेने दिया जायेगा. इसलिए उन खिलाड़ियों ने फैसला किया है कि अपने खाने के लिए चिकन स्वयं पालेंगे ताकि उनके शरीर में माँस के साथ इस तरह के कैमिकल पदार्थ न जायें.
लेकिन जिनको किसी ओलोम्पिक खेलों में भाग नहीं लेना, क्या उनके लिए इस तरह के कैमिकल खाना अच्छी बात है? हमारे देशों में पशुओं को कौन सा चारा या दवा खिलायी जाती है, इसकी चिन्ता कौन करता है? क्या आप डर के मारे अपनी मुर्गियाँ स्वयं अपने घर में पालेंगे?
गिद्धों के बारे में अपने आलेख में मीरा सुब्रामणियम ने अमरीका में किये गये एक शौध के बारे में लिखा है. गिद्धों की मृत्यु का कारण है कि भारत में जिन मृत पशुओं को वह खाते हैं के शरीर में एक दवा होती है, जिसका नाम है डाईक्लोफेनाक. इस दवा का जोड़ों के दर्द के उपचार के लिए मनुष्यों और पशुओं में प्रयोग होता है. जिन पशुओं को यह दवा दी गयी हो, उनका माँस अगर गिद्ध खाते हैं तो उनके गुर्दे नष्ट हो जाते हैं. इसी वजह से भारत के नब्बे प्रतिशत गिद्ध मर चुके हैं. यानि यह दवा इतने पशुओं को दी जाती है कि इसने भारत के अधिकतर गिद्धों को मार दिया.
मीरा जी का यह आलेख पढ़िये, और सोचिये कि अभी गिद्ध मर रहे हैं, कल वही माँस खा कर बड़े होने वाले आज के छोटे बच्चे बड़े होंगे तो क्या उनको भी नयी बीमारियाँ हो सकती है?
आधुनिक प्रदूषण ट्रेफिक के धूँए से है, शोर से है, प्लास्टिक से है, इसकी बात तो कुछ होती है. लेकिन यह प्रदूषण दवाईयों से भी है, रसायन पदार्थों से भी है, नयी तकनीकों से भी हैं, इसके बारे में कितनी जानकारी है लोगों को?
पर्यावरण और जल का प्रदूषण, खाने में मिली दवायें और कीटनाशक, बदलते बीज और फसलें! यह सब सतह के नीचे छुपे दानव सा बदलाव हो रहा है. यह ऊपर से नहीं दिखता लेकिन भीतर ही भीतर से हमारे भविष्य को खा रहा हैं. जो नेता और उद्योगपति पैसे के लालच में या अज्ञान के कारण, भारत के भविष्य को विकास और आधुनिकता के नाम पर बेच रहे हैं, यह दानव उन्हें भी नहीं छोड़ेगा. उसी हवा में उन्हें भी साँस लेनी है, उसी मिट्टी का खाना उन्हें भी खाना है.
पर क्या भारत समय रहते जागेगा और इस भविष्य को बदल सकेगा?
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