यादों की संध्या

संध्या की सैर को मैं यादों का समय कहता हूँ। सारा दिन कुछ न कुछ व्यस्तता चलती रहती है, अन्य कुछ काम नहीं हो तो लिखने-पढ़ने की व्यस्तता। सैर का समय अकेले रहने और सोचने का समय बन जाता है। शायद उम्र का असर है कि जिन बातों और लोगों के बारे में ज़िन्दगी की भाग-दौड़ में दशकों से नहीं सोचा था, अब बुढ़ापे में वह सब यादें अचानक ही उभर आती हैं। यादों को जगाने के लिए "क्यू" यानि संकेत की आवश्यकता होती है, वह क्यू कोई गंध, खाना, दृश्य, कुछ भी हो सकता है, लेकिन मेरे लिए अक्सर वह क्यू कोई पुराना हिंदी फ़िल्म का गीत होता है। बचपन के खेल, स्कूल और कॉलेज के दिन, दोस्तों के साथ मस्ती, पारिवारिक घटनाएँ, जीवन के हर महत्वपूर्ण समय की यादों के साथ उस समय की फ़िल्मों के गाने भी दिमाग के बक्से में बंद हो जाते हैं। इस आलेख में एक शाम की सैर और कुछ छोटी-बड़ी यादों की बातें हैं। आज सुबह से आसमान बादलों से ढका था, सुहावना मौसम हो रहा था, हवा में हल्की ठँडक थी। सारा दिन बादल रहे लेकिन जल की एक बूँद भी नहीं गिरी। शाम को जब मेरा सैर का समय आया तो हल्की बूँदाबाँदी शुरु हुई। पत्नी ने कहा कि जाना है तो छतरी ले कर