दुनिया में बहुत से ऐसे लोग हैं जो सच्चे दिल से गा सकते हैं कि "मुझे नींद न आये, मैं क्या करुँ". ऐसे लोग रात को १२ बजे तक फिल्म देखते हैं, क्लब जाते हैं, गुलछर्रे उड़ाते हैं. यह वे भाग्यशाली लोग हैं जिनके दिमाग अँधेरे होते ही खुल जाते हैं और जिनके शरीर में रात में नयी स्फुर्ती आ जाती है.
कुछ मेरे जैसे दुर्भाग्यशाली होते हैं जो केवल गाने में ही गा सकते हैं, "मुझे नींद न आये" पर सच में अँधेरा होते ही उबासिया लेने लगते हैं. मेरे जैसे लोगों के दिमाग केवल सुबह ही खुलते हैं, शाम होते ही ये अपने शटर बंद कर, "दुकान बंद है" का बोर्ड लटका देते हैं. शाम को कहीं जाना पड़े तो हमेशा कोई बहाना ढ़ूँढ़ता हूँ, कि न जाना पड़े. जब कोई बहाना न चले तो थोड़ी देर में ही, उबासियों का दौरा पड़ जाता है.
इन रात को जागने वालों में और सुबह जल्दी उठने वालों में कोयल और कौवे का अंतर होता है. सुबह जल्दी उठने वाले भक्त्ती, योग, ध्यान आदि बातें सोचने वाले गंभीर लोग होते हैं. सुबह के अँधेरे में बाग में लम्बे लम्बे साँस लेते हूए भाग भाग कर सैर करते हैं. न ये कभी क्लास छोड़ कर फिल्म देखने जाते हैं, न गप्पबाजी में समय बरबाद करते हैं. मोटी किताबें पड़ने वाले, इन्हें अक्सर उतने ही मोटे चश्मे से पहचाना जा सकता है.
रात देर जागने वाले यह सोचते हैं कि यह जीवन ही सब कुछ है, यह इंद्रियाँ प्रभु ने कुछ सोच कर ही मानव शरीर को दी हैं, इनका पूरा उपयोग होना चाहिये. सुबह देर से जब उठते हैं जो कभी कभी इनका सर अवश्य दुखता है और रात को अंत में क्या हुआ, इन्हें ठीक से याद नहीं रहता. लम्बी साँस ले कर कहते हैं, "बस, अब बहुत हो गया, अब मैं सुधर जाऊँगा, अब गम्भीरता से पढ़ायी करने का समय आ गया है" पर शाम तक वह सब भूल जाते हैं.
क्या आपको भी मेरी तरह दुख होता है कि सारा जीवन यूँ ही बीत गया, "अजुँरी में भरा हुआ जल जैसे रीत गया" ? यानि आप कोयल हैं या मेरी तरह का कौवा ?
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मै भी कुछ कुछ आपकी श्रेणी वाला हूँ, बस मुझे शाम के बाद कोई ड्राइव करने को कह तो बिदक जाता हूँ, ऐसा नही कि मजा नही आता, लेकिन बस रात को ड्राइव करने की इच्छा नही होती. वैसे कुवैत मे रात दो बजे के बाद को ही बोला जाता है, क्योंकि यहाँ काफ़ी लोग दो शिफ़्ट मे काम करते है, और वेचारे थक हार कर लगभग दस बजे घर पहुँचते है, इसलिये दस से दो बजे तक शाम ही समझिये. और वीकेन्ड पर..... यही शाम एक्स्टेन्ड हो जाती है, सुर्योदय तक.
जवाब देंहटाएंनींद से अपना तो बहुत याराना है.जब सोना होता है
जवाब देंहटाएंतो जम के सोता हूं.इतना कि सोते-सोते थक जाता हूं तो फिर सो जाता हूं.जब जगना होता है तो लगातार जग भी सकता हूं.ज्यादातर लंबे लेख मैने
मुर्गा बोलने के पहले पूरे किय हैं.अगर सोना हो
तो पांच मिनट से ज्यादा नहीं लगता खर्राटे शुरु होने में.समय बीत जाने के अहसास के बारे में
कभी लिखा था:-
सबेरा
अभी हुआ नहीं है
पर लगता है
दिन सरक गया हाथ से-
हथेली में जकडी़ बालू की तरह.
अब फिर सारा दिन
इसी अहसास से जूझना होगा.
मेरा तो कुछ अजीब ही हिसाब है. अगर थकान नही हुई तो रात 11-12 बजे तक नींद नही आती पर सुबह हर हालत में 6-7 बजे तक आँख खुल जाती है. अनुप जी बढे सुखी रहे आप. यहाँ तो सोना मतलब एक सरदर्द होता है की नींद आएगी की नही.
जवाब देंहटाएंअपना तो दिन ही रात के ९ बजे शुरु होता है. दफ़्तर मे सबसे बाद पहूंचता हूं. अब तो बास को भी पता है, ये नही कहता की काम शाम तक चाहिए, कहता है कल सुबह से पहले चाहिए! सुबह ३ बजे तक जाग लेना मेरे लिए मामूली बात है - फ़िर ९ बजे उठ सकता हूं.
जवाब देंहटाएंपढाई हो, काम हो या मस्ती रात ही को करने मे मजा आता है. मुझे वो शहर पसंद नहीं जहां कोई नाईट-लाईफ़ ना हो (जैसे की ये मनहूसमारा शहर जहां मै रह रहा हूं).
मालवा की रातें तो यूं भी मशहूर थीं वो आदत है अभी भी. (शाम-ए-अवध, शब-ए-मालवा).
इधर मुझे क्लबों मे जाना पसंद नही क्योंकि नाचने के मामले मे अपन को भंगडा बीट्स ही होना पर रातों को जागना और मित्र-मंडली के साथ खुले आकाश के नीचे ही-ही-हू-हू - क्या दिन थे वो.
रोज़ रात को घड़ी का अलार्म लगाकर सोता हूँ, लेकिन सुबह उस सुनने का सौभाग्य कभी नहीं मिला।
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