शुक्रवार, अक्टूबर 21, 2005

भारत से पोस्टकार्ड

लगता है जैसे जीवन फिरकनी की तरह घूम रहा है, एक दिन यहाँ, दूसरे दिन वहाँ, न रुकने की फुरसत, न सोचने की. आठ दिन रहा भारत में, भागते भागते ही निकल गये. घर वापस आया, पर समय केवल अटैची से गंदे कपड़े निकाल कर साफ कपड़े डालने का है. दो या तीन दिनों की छोटी छोटी यात्राँए हैं, एक दूसरे से जुड़ी हुई, रात को कहीं से वापस आओ और सुबह फिर निकल पड़ो. किसी को न कह पाने की अपनी आदत को कोसते समय, २९ अक्टूबर को जब यह भागदौड़ समाप्त होगी तो चार दिन की छुट्टी का सोच कर मन को दिलासा देता हूँ और कहता हूँ कि फिर दोबारा ऐसा नहीं होने दूँगा. यह चिट्ठा लिखना ऐसे में ध्यान करने जैसा लगता है, जँगली घोड़ों की तरह भागते विचारों को ध्यान करने बैठूँ तो शायद थमा नहीं पाँऊ, पर लिखते समय सोचना, लिखे वाक्यों को पढ़ना और ठीक करना, उन विचारों को साध लेता है.

इस बार की भारत यात्रा की यादें, छोटे छोटे पोस्टकार्ड हैं. दुर्गा पूजा के पंडाल में मिष्टी दोई, और दुर्गा माँ के समाने नाचते भक्त्त. दशहरे के जलते रावण के पुतले और पटाखों का शोर. दिल्ली के पुराने किले में देखा बिरजू महाराज और उनके नृत्य विद्यालय के छात्रों का कत्थक नृत्य समारोह, जो स्टेज के पीछे दिख रहे पुराने खँडहरों की वजह से और भी सुंदर हो गया था. बिहार और उत्तर प्रदेश से आये टैक्सी और स्कूटर चलाने वालों से की गयी बातें, उनके दूर गाँवों में रहते परिवारों की और जीवन की. किताबों की दुकान, बुकवोर्म, के बाहर खड़ी भद्र महिला जो अंग्रेजी में कह रहीं थीं कि मुझे कुछ खरीदवा दीजिये, त्योहारों का समय है, सब लोग कुछ खरीद रहें हैं, मुझे भी कुछ ले दीजिये, देखिये मेरे जूते, कैसे फटे हुए हैं.

रावण के पुतले के सामने, उसे जलाने से पहले, उसकी पूजा करने को देख कर चकित हो गया. बचपन में जाने कितनी बार देखा था रावण को जलते पर कभी ध्यान ही नहीं किया था कि उसे जलाने से पहले उसकी पूजा करते हैं. शायद यह अमरीकी फिल्में देखने या बुश जी के आतंकवाद पर दिये गये भाषणों का प्रभाव है, दुनिया को अच्छे और बुरे में बाँट कर सोचना. रावण बुरा है तो उसे जला दो. ऐसा ही कुछ लगा था जब कुछ महीने पहले, जीतेंद्र के भारतदर्शन वाले चिट्ठे में सरसा माता के मंदिर की तस्वीर देखी थी. सोचा था, सरसा तो पिचाशनी थी जिसने लंका जाते हुए हनुमान जी को निगलने की कोशिश की पर वह लघुकाय हो उसके मुख में घुस कर बाहर निकल आये, तो सरसा माता की पूजा क्यों ? सोच कर अच्छा लगा कि यह भिन्न तरह से सोचने का परिणाम है, जिसमें अच्छे या बुरे कर्म से दूर हो कर व्यक्त्ति को देखते हैं.

"जो न कह सके" चिट्ठे में कुछ तकनीकी रुकावटें आ गयीं थीं तो चितिंत हो गया था, सोचा था कि शायद इसे बंद कर नया चिटंठा बनाना पड़ेगा. पर हमेशा की तरह, इस बार भी देवाशीष ने सब ठीक कर दिया, जिसके लिए उन्हें एक बार फिर धन्यवाद.

आज कुछ चित्र भारत यात्रा से.


1 टिप्पणी:

  1. बहुत सुन्दर। यार आपके फ़ोटो और चिट्ठा नही दिखता था तो हम भी चिन्तित हो गये थे, इसलिये इमेल और फ़िर चैट पर भी कान्टेक्ट किया। खैर सब कुछ ठीक हो जाने के लिये बधाई।

    भारतयात्रा वाला ब्लाग अकेला मेरा नही है, हम सभी का है।आप भी इसमे चित्रों का योगदान दे सकते है। निमन्त्रण भेज रहा हूँ, स्वीकार कीजियेगा।

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"जो न कह सके" पर आने के लिए एवं आप की टिप्पणी के लिए धन्यवाद.

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