कल बेंगलोर में रहने वाले कल्याण वर्मा का फोटोब्लाग देखा, तो उनके जँगली जानवरों एवं प्रकृति की तस्वीरें बहुत अच्छी लगीं. तस्वीरें देख कर उनके बारे में जानने के लिए पढ़ा. जनवरी २००५ में उन्होंने डाट काम की अपनी नौकरी से इस्तीफा दे कर प्रकृति के फोटोग्राफर बनने का निश्चय किया था. दिसंबर में उन्हें सबसे अच्छे प्रकृति के फोटोग्राफर का सम्मान मिला और उनकी तस्वीरों की तीन चार पुस्तकें छपने वाली हैं. पढ़ कर लगा कि ऐसा ही होना चाहिये कि वह काम करना चाहिये जिसमें मन हो.
मुझे लगता है कि भारत में हमारे परिवार पक्की नौकरी, पैसे या इज़्ज़त जैसी बातों की ओर अधिक ध्यान देते हैं और "क्या करना अच्छा लगता है ?" की बात कम होती है. घर में कह कर देखिये कि आप चित्रकार बनना चाहते हैं या साहित्य के क्षेत्र में कुछ करना चाहते हैं तो अक्सर तूफ़ान खड़ा हो जाता है.
शायद इसलिए कि हममें से बहुत से लोग सुबह ९ बजे से शाम ५ तक ऐसी नौकरी में समय बिताते हैं जो हमने अपने अपनी मर्जी से नहीं चुनी, जहाँ कुँठा से भरा सारा दिन गुज़ारना मुश्किल होता है और सोचते हें कि हमारे बच्चों को कुछ ऐसा करवाऐँगे जिसमें पैसा और इज़्ज़त हो ?
ऐसी बातें सोचते सोचते मन में बचपन के सपनों की बात आई. बचपन में मुझे जेम्स हेरिओट (James Herriot) की किताबें जैसे All Creatures Big & Small बहुत अच्छी लगती थीं. उनको पढ़ पढ़ कर मन में आया था कि मैं भी जानवरों का डाक्टर बनूँगा और किसी चिड़ियाघर में काम करुँगा. यह सपना बहुत सालों तक देखा. साथ साथ ही चित्रकला का शौक था. बचपन में मकबूल फिदा हुसैन जी को बहुत बार देखा था तो कभी सपना होता कि उनकी तरह का प्रसिद्ध चित्रकार बनूँ. कभी सपना देखता कि देश विदेश घूमूँ, कभी सोचता कि बहुत प्रसिद्ध हूँ और लोग मेरे ओटोग्राफ लेने आते हैं.
उपन्यास पढ़ना और कहानियाँ लिखनी भी अच्छी लगती थीं पर यह सपना कभी गँभीरता से नहीं देखा कि लेखक बनूँ, शायद इस लिए कि बचपन से बहुत से लेखकों को पैसे के बिना तंगी के जीवन जीते करीब से देखा था. जाने कब पढ़ते पढ़ते एक नया सपना मन में आया कि डाक्टर बनूँगा. जब घर में कहा कि बायलोजी लेने का निश्चय किया है और डाक्टर बनूँगा तो सभी को बहुत अचरज हुआ, कुछ थोड़ी सी कोशिश भी की गई कि मुझे समझाया जाये. बहुत पढ़ना पड़ता है, कठिन होगा, वगैरा, पर मैं अटल रहा.
डाक्टरी कि पढ़ाई पूरी करने के बाद कई साल तक चिक्त्सक का काम किया. अगर वही करता रहता तो सुबह से रात तक कुछ और करने का समय नहीं मिलता, रोगियों और बीमारियों में ही सारा समय निकल जाता. पर किस्मत इटली ले आई और पाँवों में घूमने के पहिये लगा दिये. फ़िर आया कम्पयूटर और इंटरनेट का इंकलाब और घर बैठे बैठे लिखने, चित्र बनाने जैसे और सपने भी पूरे हो गये.
शायद यह किस्मत की ही बात है कि सब सपने पूरे करने का मौका मिला मुझे, वरना कल्याण वर्मा की तरह पक्की नौकरी और महीनाबंद तनख्वाह छोड़ कर अपने सपने पूरे करना का साहस मुझमें नहीं था. और आप ? आप ने अपने सपने पूरे किये या नहीं ?
आज की तस्वीरें, मेरे बनाये हुए दो चित्र.
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
लोकप्रिय आलेख
-
अगर लोकगीतों की बात करें तो अक्सर लोग सोचते हैं कि हम मनोरंजन तथा संस्कृति की बात कर रहे हैं। लेकिन भारतीय समाज में लोकगीतों का ऐतिहासिक दृष...
-
पत्नी कल कुछ दिनों के लिए बेटे के पास गई थी और मैं घर पर अकेला था, तभी इस लघु-कथा का प्लॉट दिमाग में आया। ***** सुबह नींद खुली तो बाहर अभी ...
-
अँग्रेज़ी की पत्रिका आऊटलुक में बँगलादेशी मूल की लेखिका सुश्री तस्लीमा नसरीन का नया लेख निकला है जिसमें तस्लीमा कुरान में दिये गये स्त्री के...
-
२५ मार्च १९७५ को भी होली का दिन था। उस दिन सुबह पापा (ओमप्रकाश दीपक) को ढाका जाना था, लेकिन रात में उन्हें हार्ट अटैक हुआ था। उन दिनों वह एं...
-
गृत्समद आश्रम के प्रमुख ऋषि विद्यार्थियों को पढ़ा रहे थे, जब उन्हें समाचार मिला कि उनसे मिलने उनके बचपन के मित्र विश्वामित्र आश्रम के ऋषि ग...
-
मेरा सारा जीवन यात्राओं में बीत गया लेकिन अब लगता है कि जैसे इन पिछले ढ़ाई-तीन सालों में यात्रा करना ही भूल गया हूँ। जब आखिरी बार दिल्ली से इ...
-
हिन्दू जगत के देवी देवता दुनिया की हर बात की खबर रखते हैं, दुनिया में कुछ भी ऐसा नहीं जो उनकी दृष्टि से छुप सके। मुझे तलाश है उस देवी या द...
-
मेरे इस आलेख का शीर्षक पढ़ कर शायद आप सोच रहे होगे कि शराब का संस्कृति से क्या लेना देना, शराब तो संस्कृति के विनाश का प्रतीक है? आज के भारत ...
-
कुछ दिन पहले मैंने जाने-माने डॉक्यूमैंट्री फ़िल्म निर्देशक अरुण चढ़्ढ़ा की १८५७ के लोक-गीतों पर बनी फ़िल्म के बारे में लिखा था। आज उन्हीं की ए...
-
रोग, ओपरेशन, जन्म, मृत्यु, अस्पताल, डाक्टर और वैद्य, यह सभी मानव जीवन का अभिन्न हिस्सा हैं. अधिकतर फ़िल्मों में कोई न कोई दृश्य ऐसा होता ह...
कृपया चित्रों की व्याख्या और करें। आपने इन चित्रों में किन मनोभावों को व्यक्त करने का यत्न किया है?
जवाब देंहटाएं"आप ने अपने सपने पूरे किये या नहीं?" यह अगले अनुगूँज का विषय बन सकता है, सुनील जी। वैसे आप कभी कभी दुखती रग पर हाथ रख देते हैं। :-(
जवाब देंहटाएंसुनील जी लेख हर बच्चे के अभिभावक के पढ़ने योग्य है। यूं तो संचार-क्रांति ने प्रतिभा विकास की सोच बढ़ायी है परंतु अधिकाशतः निर्णय आज भी (खासकर क़स्बों और गांवों में )माता-पिता ही लेते हैं। बहुत कम उदाहरण इसके विपरीत मिलेगें। हाँ महानगरों में बदलाव अवश्य आ गया है।
जवाब देंहटाएंप्रेमलता पांडे
लिखने की सोच रहा था, कोई विषय नही मिल रहा था, अब बस लिख ही डालता हूं "मेरे अधुरे सपनो" पर
जवाब देंहटाएंसब इतने भग्यशाली नहीं की अपने सपने को साकार कर लेे
जवाब देंहटाएंवाह सुनील जी, क्या मुद्दा छेडा है आपने, सच में ऐसा लगा किसी ने मेरे विचार लिख दिये, बहुत कुछ लिखने की इच्छा है, लिखता हूँ कभी अपने चिठ्ठे पर।
जवाब देंहटाएंसुनीलजी,
जवाब देंहटाएंइधर देखीये आपके प्रश्न का उत्तर!:)
जेम्स हेरिओट मैंने भी खूब पसंद करके पढी.पढने का इतना चस्का था कि सोचती थी लाईब्रेरियन बन जाँऊ, पर सपने तो सपने ही होते हैं आखिर
जवाब देंहटाएंमेरे अधुरे सपने यहा है !
जवाब देंहटाएंएक बार फिर, कह ही दिया आपने.....जो न कह सके, हम।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!