शुक्रवार, नवंबर 21, 2025

नशीले पदार्थ और आध्यात्मिक सोच

यह बात 1990 के दशक के प्रारम्भ की है। मैं ब्राज़ील के उत्तर-पश्चिमी भाग में मनाउस शहर में एक मित्र से उसके यानोमामी जनजाति से जुड़े अनुभवों की बात कर रहा था। यानोमामी जनजाति के लोग अमेज़न जंगल में रहते हैं और बाहर के लोगों से बहुत कम मिलते या सम्पर्क बनाते हैं। मेरा मित्र उनके एक गुट के साथ कुछ समय तक रह कर आया था। वह बोला, "एक दिन एक झोपड़ी में उनके शमान (पारम्परिक वैद्य) और अन्य कुछ लोग बैठ कर एक नशीले पौधे की पत्तियों की चिल्लम पी रहे थे। चिल्लम के कश लगा कर, वह शमान आँखें बंद करके समाधी में चला गया। कुछ देर बाद उसने आँखें खोल कर कहा कि मेहमानों के स्वागत की तैैयारी करो, क्योंकि दूर गाँव का एक यानोमामी गुट उनके यहाँ आ रहा है।" कुछ घंटे बाद सचमुच जब दूसरे गाँव के लोग वहाँ पहुँचे तब मेरे मित्र की समझ में आया कि शमान ने नशे से मिली दूर-दृष्टि से उन्हें वहाँ आते हुए देखा था।

इसका अर्थ है कि सचमुच कुछ मादक पौधों की सहायता से हमें शरीर के बंधनों से ऊपर उठ कर विशेष शक्तियाँ मिल सकती हैं, जैसे कि दूर-दृष्टि की शक्ती? कुछ दिन पहले इस विषय पर एक वैज्ञानिक शोध के बारे में पढ़ा। 

मई 2025 की अमरीकी पत्रिका 'द न्यू योर्कर' में माईकल पोल्लान के आलेख 'हाइ प्रीइस्टस' (उच्च पुजारी) में आध्यात्मिक अनुभवों और नशीली खुम्बों (मशरूम) तथा अयाहुआस्का (Ayahuasca) जैसे कुछ अन्य नशीले पदार्थों के सम्बंधों पर शोध की बात है। शोध के लिए, कुछ पुजारियों-पादरियों-इमाम आदि व्यक्तियों को, मध्य तथा दक्षिण अमरीका के पारम्परिक वैद्यों द्वारा प्रयोग किये जाने वाले कुछ नशीले पौधों दिये गये। वह जानना चाहते थे कि क्या इन मादक पदार्थों से लोगों को आध्यात्मिक अनुभव आसान हो जाता है? उनका निष्कर्ष निकला कि हाँ, ऐसे पदार्थों के सेवन से लोगों के लिए आध्यात्मिक अनुभव आसान हो जाते हैं। विभिन्न धर्मों के व्यक्ति जिन्होंने इस शोध में हिस्सा लिया, ने कहा कि उनके अधिकाँश अनुभव अपने धर्मों की विशिष्ठ सोच वाले ईश्वर के नहीं थे, बल्कि उन्हें निरंकार, निर्गुण परमात्मा का अहसास हुआ। इस शोध में किसी हिंदू पुजारी ने भाग नहीं लिया था।

आलेख को पढ़ कर एक अन्य बात याद आयी कि 1950-60 के दशकों में पश्चिमी देशों के युवाओं में नशीले पदार्थों के सेवन का फैशन चला था। तब भारत में भाँग-चरस-गाँजे के सेवन की परम्परायें थीं इसलिए हिप्पी बन कर बहुत से पश्चिमी युवा भारत आते थे। कुछ सालों के बाद, पहले पश्चिमी देशों और फ़िर भारत ने भी, ऐसे पदार्थों के सेवन को गैरकानूनी घोषित कर दिया था। लेकिन पिछले एक-दो दशकों में ऐसे कुछ पदार्थ, जैसे कि सिलोसाइब, एलएसडी, आयाहुआस्का, आदि, के विभिन्न बीमारियों जैसे कि मानसिक रोग, कैंसर, पीड़ा आदि की दवाओं के रूप में प्रयोग तथा शोध किये जा रहे हैं।

मादक द्रव्य और आध्यात्म
 

भारतीय आध्यात्मिक सोच के विकास में मादक पेय की भूमिका?

इस बारे में सोचते हुए मेरे मन में एक अन्य प्रश्न उठा - वेदों तथा उपनिषद की आध्यात्मिक सोच दुनिया में सबसे निराली और अलग क्यों है? अन्य धर्मों में भगवान को पिता जैसे रूप में देखा गया है, जो अपने अनुयायियों से नियमित निष्ठा, अर्चना, बलिदान माँगता है और दैनिक जीवन के नियम पालन करने के लिए कहता है। जबकि हिंदू शास्त्रों में एक ओर अन्य धर्मों की तरह से मन्दिर, देवी-देवता, रीति-रिवाज़ और नियम हैं तो साथ ही, दूसरी ओर, वेद-उपानिषदों में भगवान का सर्वव्यापी, निरंकार, निर्गुण समस्त ब्रह्माँड को जोड़ती हुई चेतना वाला रूप भी है।

तब मेरे मन में ऋग्वेद के सोम रस की बात आयी। ऋग्वेद में सोम रस को बहुत महत्व दिया गया है, यह उसके नौंवे मंडल का प्रमुख विषय है, उसमें सोम रस पर 120 सूक्त और करीब ग्यारह सौ ऋचाएँ हैं। इस तरह से ऋग्वेद में सोम रस का स्थान, अग्नि और इन्द्र के बाद तीसरे नम्बर पर आता है।

ऋग्वेद में सोम रस का वर्णन एक विशेष
औषधी पौधे के रूप में किया गया है, जिसे यज्ञों में देवताओं को अर्पित किया जाता था और जिसका उपयोग स्वास्थ्य, बल और आयु बढ़ाने के लिए होता था। इसे मूसल से कुचलकर, छानकर और फिर दूध, शहद आदि के साथ मिलाकर बनाया जाता था। इसकी पहचान आज तक स्पष्ट नहीं है, लेकिन कुछ लोग इसे एफैड्रीन के पौधे जैसा मानते हैं। एफैड्रीन दवा है जो मस्तिष्क तथा तंत्रियों की क्रिया शक्ति को उकसाती और बढ़ाती है और एलोपैथी में इसका उपयोग विभिन्न रोगों के लिए किया जाता है।

मैंने सोचा कि शायद इस सोम रस के उपयोग ने ही प्राचीन भारत के ऋषियों को ऐसी अंतर्दृष्टि, ज्ञान और समझ दी जिनसे भारतीय अध्यात्म में ब्रह्म और ब्रह्मण विचारधारों का ऐसा विकास हुआ, जिसका वर्णन उपानिषदों में है।

अंत में

कहते हैं कि सही मानों में मानव सभ्यता का विकास खेती-बाड़ी के साथ हुआ था, क्योंकि जब आदि-मानव खेती करने लगा तो उसे हर रोज भूख मिटाने के उपाय खोजने की चिंता से मुक्ति मिली और कुछ अन्य सोचने-समझने का समय मिला। कुछ दिन पहले मानव विकास से सम्बंधित एक किताब में मैंने पढ़ा था कि खेती का आविष्कार मानव समूहों ने भूख मिटाने के लिए बल्कि शराब बनाने के लिए किया था। शराब का लालच था तभी आदि-मानव मेहनत से अन्न बोते थे और महीनों तक उसकी देखभाल करते थे।

क्या वैसे ही सोमरस के मादक पेय ने मानव सभ्यता को वेद-उपनिषदों के निर्गुण, निरंकार परमात्मा से मिलने का रास्ता भी दिया था? आप की क्या राय है?

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