सोमवार, सितंबर 18, 2006

शीशे में चेहरा

एक इतालवी पत्रिका में छपा सुश्री इरशाद मनजी का नया लेख सोचने पर मजबूर करता है. इरशाद जैसे विचारकों की बात लोग आसानी से उड़ा सकते हैं. "वह तो लेस्बियन (समलैंगिक) है, कुछ भी उल्टा पल्टा कहती रहती है, विदेशियों की एजेंट है, केवल नाम की मुसलमान है", जैसी बातें कहीं जाती हैं उसके बारे में. जान से मारने की कई धमकियाँ मिल चुकी हैं उसे और केनेडा में उनके घर की खिड़कियाँ गोली से न टूटने वाली (बुलैटप्रूफ) बनी हैं.

इस नये लेख में मुस्लिम आतंकवाद के बारे में लिखा है उन्होंने. लिखती हैं:

इँग्लैंड की मुस्लिम संस्थाओं ने प्रधान मंत्री टोनी ब्लेयर को चिट्ठी लिखी है कि इराक तथा लेबनान में होने वाली बातों से आतंकवादियों को बढ़ावा मिल रहा है. आतंकवादियों को केवल बहाना चाहिये. पहले कहते थे कि आर्थिक भेदभाव होता है मुसलमानों के साथ जिसकी वजह से मुसलमान नवजवान आतंकवाद की ओर बढ़ते हैं और अब इसमें वे विदेश नीति के कारण खोज रहे हैं... अगर उन्हें मुसलमानों के मारे जाने का इतना ही गुस्सा है तो दुनिया के इतने देशों में जो मुसलमान शासन दूसरे मुसलमानों को मार रहे हैं उनके विरुद्ध क्यों नहीं आतंकवाद करते? सूडान में इस्लामी शासन के नीचे अरबी मुसलमान लड़ाकू काली चमड़ी वाले मुसलमानों को लूट रहे हैं, भूखा मार रहे हैं, उनकी औरतों का ब्लात्कार कर रहे हैं, उन पर बम बरसा रहे हैं तो क्यों नहीं बाकी के मुसलमान इसके विरुद्ध बोल रहे हैं? जो पाकिस्तान में सुन्नी मुसलमान, शिया मुसलमानों को मारते हैं तो क्यों नहीं बोलते? मुसलमान दुनिया में कितनी जगह गृहयुद्ध हो रहे हैं उसकी बात क्यों नहीं करते? यह कहना कि आतंकवाद अमरीका के इराक पर हमले की वजह से है या इज़राईल के पालिस्तीनी हमले से, सच को न देखना है. जब देखा कि आतंकवादी पढ़े लिखे, खाते पीते घरों से आ रहे हैं तो आर्थिक भेदभाव और पिछड़ेपन के बात छोड़ कर अमरीका और इज़राईल के बात करने लगे हैं. क्यों नहीं हमारे धार्मिक नेता आतंकवादियों के विरुद्ध फतवे देते?

कुछ भी हो, सब कहते हैं कि हमारा इस्लाम तो शाँती का धर्म है, वह युद्ध और मारना नहीं कहता. फ़िर कहने और करने में जो फर्क है उसे क्यों झुठला रहे हैं हम? जब तक हम यह मानेगें नहीं कि हमारे इस्लाम में ऐसा कुछ है जिससे हमारे नवजवान हिंसा की राह पर जा रहे हें, कैसे उपाय खोजेंगे इसका?

इरशाद जैसे लोगों की बातें सुन पाना और समझ पाना आसान नहीं होगा क्योंकि वह ऐसी बात कहती है जो कड़वी भी है और कठिन भी. कुछ महीने पहले जब डेनमार्क में छपे कार्टून का झमेला उठा था तब भी इरशाद ने कुछ ऐसा ही कहा था. कोई पर्दा नहीं करती इरशाद और खुले आम मानती हैं कि वह समलैंगिक हैं. बीबीसी जैसे प्रमुख टेलिविजन चैनलों पर अपने विचारों के बारे में बोल चुकी हैं. कहतीं हैं कि सभ्यता और परम्परा के नाम पर वह अपने मानव अधिकारों को बलि नहीं चढ़ायेंगी. उनके अंतरजाल पृष्ठ पर लिखा है कि मुस्लिम समाज के बहुत से लोग छिप कर उनके विचारों से सहमती करते हैं पर सामने आने से डरते हैं.

5 टिप्‍पणियां:

  1. आपके ब्लोग का यह नया आवरण अच्छा लग रहा. मुस्लिम जगत को ही नहीं समस्त विश्व को इरशाद जैसे विचारको की आवश्यक्ता हैं, परंतु दुर्भाग्यवश इनकी संख्या बहुत कम हैं.

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  2. आपका यह नया घर का बाहरी रूप तो सुन्दर लगा पर मैं फायरफौक्स पर देखता हूं तो पोस्ट फैली सी लग रही है क्या justify करके पोस्ट हुई है।

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  3. उन्मुक्त जी, पोस्ट जस्टीफाई करके डाली तो नहीं थी पर एक्सप्लोरर से भी जस्टीफाई ही दिखती है, और ब्लोगर डाट काम के सामान्य चिट्ठौं से चौड़ी सी लगती है. मेरा तकनीकी ज्ञान विशेष नहीं है इसलिए हो सकता है कि टेम्पलेट में मुझसे ही कोई गलती हो गयी!

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  4. चिट्ठे का नया फोरमेट तो अच्छा है लेकिन रंगीनियत न होने की वजह से मायुस लगता है। टाईटल मे "ताजमहली मेज" की जगह आपकी ली हुई कोई मनपसंद तस्वीर लगाईये। कुछ रंग डालिये.....बालो में भी :)

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  5. internet explorer पर फ़ोन्ट को largest करने के बावजूद फ़ोन्ट बहुत छोटे नजर आ रहे हैं, लगता है सुनील जी, मेरी आँखो का तो बाजा ही बज जायेगा। वैसे साईट देखने मे बहुत अच्छी लग रही है।

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"जो न कह सके" पर आने के लिए एवं आप की टिप्पणी के लिए धन्यवाद.

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