"चीख" नाम की कलाकृति उन्होंने 1893 में बनाई.
इस तस्वीर में सामने आकृति है कि अँडे जैसे सिर वाले व्यक्ति की जिसके चेहरे पर गहन पीड़ा है और जिसका मुँह अनंत चीत्कार में खुला है. यह व्यक्ति एक पुल पर चल रहा है. पुल के साथ समुद्र दिखता है जिसमें पीछे पानी का रंग पीला सा है जिसमें दो नावें दिखतीं हैं. पुल पर उस व्यक्ति के पीछे दो अन्य धूमिल आकृतियाँ हैं. उपर आकाश सुर्यास्त की लालिमा में रँगा है.
क्या कुछ देखा उस व्यक्ति ने जिसे उसे डरा दिया और वह चीखने लगा? कोई खून या दुर्घटना देखी उसने? जिस तरह से व्यक्ति ने अपने दोनो हाथ अपने चेहरे के दोनो ओर रखे हैं उससे लगता है कि यह चीख किसी बाहरी घटना को देख कर नहीं बल्कि अपने ही मन में उठ रहे विचारों का हाहाकार है. हालाँकि व्यक्ति के शरीर का केवल ऊपरी हिस्सा दिखता है पर उसकी रेखाएँ इस तरह से खिंचीं हैं कि उसमें गति दिखती है. यह तस्वीर आधुनिक जीवन के अकेलेपन, उदासी और त्रास को व्यक्त करती है.
"चीख" जल्दी ही बहुत प्रसिद्ध हो गयी और मुँच ने इसी चीख को कुछ फेर बदल कर तीन बार और बनाया पर कला विशेषज्ञ इस पहली "चीख" को सबसे बढ़िया मानते हैं. नार्वे में इस आकृति से प्रेरित खेल खिलौने बाज़ार में मिलते हैं.
मुँच नें इस चित्र के बारे में बताया कि "सँध्या का समय था, सूरज डूब रहा था, अचानक सारा आसमान लाल हो गया. मैं रुका, लगा कि शरीर में जान ही नहीं थी, ... खून था और अग्नि की लपलपाती लपटें सागर और शहर के ऊपर मँडरा रही थीं ... मैं डर कर काँपता हुआ वहाँ खड़ा रहा, और मुझे लगा कि जैसे सारी प्रकृति में एक चीख गूँज रही हो". यानि उनका कहना था कि यह चीख किसी व्यक्ति का हाहाकार नहीं, सारी प्रकृति का हाहाकार था.
शौधकर्ताओं ने बताया है कि इस चित्र को बनाने से दस वर्ष पहले, 1883 में इंडोनेसिया का कराकातोवा ज्वालामुखी फ़ूटा था और आसमान में धूल छाई थी तो ओस्लो में भी आकाश का रंग लाल कई दिनों तक लाल रहा था और शायद मुँच तब की बात कर रहे थे.
यह चित्र इसलिए भी प्रसिद्ध हुआ क्योंकि यह दो बार चोरी हो चुका है. पहले 1994 में जब नोर्वे में शीत ओलिम्पक खेल हो रहे थे तो यह चोरी हुआ और तीन महीने बाद मिला. फ़िर 2004 में इसे दिन दहाड़े ओस्लो कला संग्रहालय में दो मुँह ढके चोर बँदूक दिखा कर उठा ले गये. दो वर्ष के बाद इसके मिलने की कहानी भी बहुत अजीब है क्योंकि चोर को चाकलेट का लालच दे कर पकड़ा गया. पुलिस ने यह सुराग लगाया था कि इसका चोर चाकलेट का लालची है तो चाकलेट बनाने वाली कम्पनी एम एंड एम ने एलान किया कि जो इस तस्वीर का सुराग देगा उसे कई करोड़ रुपये की चाकलेट दी जायेगी.
कहते हैं कि चित्र के ऊपरी भाग में लाल रँग पर मुँच ने पैंसिल से छोटे अक्षरों में लिखा था "यह चित्र कोई पागल ही बना सकता था."
चित्र दुनिया में चाहे कितना ही प्रसिद्ध क्यों न हो, मुझे स्वयं अच्छा नहीं लगता. कुछ साल पहले ओस्लो के कला संग्रहालय में जब इसे देखा तो मन परेशान सा होने लगा. शायद यही इसकी प्रसिद्ध का कारण है कि यह हमें अपने अंतर्मन में छुपे अकेलेपन और उदासी के डर के सामने खड़ा कर देता है.
कल की तस्वीर देख कर ही अनुमान लगा लिया था की अगली तस्वीर मूँज की किसी कलाकृति की होगी. पर आपने तो सविस्तार कलाकार के बारे में बता दिया. साधूवाद. धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंकलाकार थोड़े 'पागल' तो होते ही है :)
इस तस्वीर को पहले भी कहीं देखा है, कलाकार के बारे में आज जाना.
(एन.डी.टी.वी. के एक कार्यक्रम में इस चिट्ठे का जिक्र था. बधाई :) )
एन.डी.टी.वी. पर दिखे नारदजी
जवाब देंहटाएंएन.डी.टी.वी. पर आज सुबह गुडमोर्निंग इण्डिया देख रहे थे की अचानक हिन्दी ब्लोगिंग पर चर्चा सुन थोड़े सतर्क हुए. स्क्रीन पर नारदजी अवतरीत हुए तो घरमें कईयों के मूँह से ‘ए….य…’ निकला. दरअसल अब नारद, नारद न रह कर हमारा अपना नारद हो गया है.
नारद के बारे में कार्यक्रम प्रस्तुतकर्ता पंकज पंचोरी बता रहे थे, हम खुशी से स्क्रीन को अपलक निहार रहे थे. नारद का पता बताया गया, ‘यहाँ आप हिन्दी ब्लोगरों की गतिविधीयों पर नजर रख सकते है’, यह बताया गया. साथ ही हिन्दी कैसे लिखे की लिंक का जिक्र भी था. इस बीच सुनीलजी के चिट्ठे ‘जो कह न सके’ के बारे में भी बताया गया. अब हर सप्ताह इस कार्यक्रम में हिन्दी ब्लोगिंग के बारे में बताया जायेगा. अच्छी खबर
श्रेणीः सूचना लेखकः संजय बेंगाणी
अक्षर अब ठीक दिख रहे हैं. धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंbadhai
जवाब देंहटाएंमैं कई महीने बाद पहली बार आपकी चिट्ठी ठीक से पढ़ पाया। अब सब अक्षर ठीक से दिखायी दे रहे हैं।
जवाब देंहटाएंएनडीटीवी पर आपके चिट्ठे का जिक्र आने की बधाई।