बुधवार, मार्च 07, 2007

बदलते हम

1966-67 की बात है, तब हम लोग दिल्ली के करोलबाग में रहने आये थे. मेरे कामों में सुबह और शाम को दूध लाने का काम की जिम्मेदारी भी थी. यह "श्वेत क्राँती" वाले दिनों से पहले की बात है जब दिल्ली में दिल्ली मिल्क सप्लाई के डिपो होते थे और काँच की बोतलों में दूध मिलता था. नीले रंग के ढक्कन वाला संपूर्ण दूध, सफेद और नीली धारियों के ढक्कन वाला हाल्फ टोन्ड यानि जिसमें आधा मक्खन निकाल दिया गया हो, और हल्के नीले रंग के ढक्कन वाली बिना मक्खन वाला दूध. गिनी चुनी दूध की बोतलों के क्रेट आते और बूथ खुलते ही आपा धापी मच जाती, थोड़ी देर में ही दूध समाप्त हो जाता और देर से आने वाले, बिना दूध के घर वापस जाते.

दूध पक्का मिले इसके लिए डिपो खुलने के कुछ घँटे पहले ही उसके सामने लाईन लगनी शुरु हो जाती. यानि सुबह चार बजे के आसपास और दोपहर को तीन बजे के आसपास. सुबह सुबह उठ कर डिपो के सामने पहले अपना पत्थर या खाली बोतल रखने जाते फ़िर, डिपो खुलने से आधा घँटा पहले वहाँ जा कर इंतज़ार करते. उसी इंतज़ार में अपने हमउम्र बच्चों के साथ खेलने का मौका मिलता. पहले जहाँ रहते थे, वहाँ सभी बच्चे हमारे जैसे ही थे, निम्न मध्यम वर्ग के, पर करोलबाग में बात अलग थी. यहाँ लोग कोठियों में रहने वाले थे, हर घर में एक दो नौकर तो होते ही थे और दूध लाने का काम अधिकतर छोटी उम्र के नौकर ही करते.

उनके साथ रोज खेल कर ही जाना बचपन में काम करने वाले बच्चों के जीवन को. किशन, राजू, टिम्पू मेरे दूध के डिपो के खेल के साथी थे. किसकी मालकिन कैसी है यह सुनने को मिलता.

एक दिन खेल रहे थे कि किशन ने मुझसे पूछा, "तुम किस घर में काम करते हो?" तो सन्न सा रह गया. मैं नौकर नहीं हूँ, सोचता था कि यह बात तो मेरे मुख पर लिखी है, मेरे कपड़ों में है, मेरे बोलने चालने में है. "मैं नौकर नहीं हूँ!" मैंने कुछ गुस्सा हो कर कहा और किशन से दोस्ती उसी दिन टूट गयी. मुझे लगा कि उसने वह प्रश्न पूछ कर मेरा अपमान किया हो. पर मन में एक शक सा बैठ गया और हीन भावना बन गयी कि शायद बाहर से मैं भी गरीब नौकर सा दिखता हूँ.

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बात 1978-79 की होगी. मैं तब डा. राम मनोहर लोहिया अस्पताल में पढ़ रहा था. एक दिन काम से शाम को अस्पताल से लौट रहा था तो एक बच्चे को उठाये एक भिखारन समाने आ कर खड़ी गयी, भीख माँगते हुए बोली, "साहब जी, बहुत भूख लगी है."

पहली बार थी किसी ने साहब जी कहा था. अचानक मन में दूध के डिपो पर हुई किशन की बात याद आ गयी और मन में संतोष हुआ कि शायद अब बाहर से उतना गरीब नहीं लगता.

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1982 की बात होगी, मैं इटली में रहता था और भारत आया था. रफी मार्ग से पैदल जा रहा था कि किसी ने पीछे से पुकारा, "सर, डालर चैंज, डालर चेंज! वेरी गुड रेट सर."

मन में आश्चर्य हुआ कि उसने कैसे जाना कि मैं विदेश से आया था? क्या मेरी शक्ल बदल गयीं थी या चलने का तरीका बदल गया था? सैंडल पहने हुए थे, और कँधे पर झोला टँगा था, अपने आप में तो मुझे कोई फर्क नहीं लग रहा था, पर कुछ था जो बदल गया था?

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1996 की बात है, मैं और मेरी पत्नी हम बम्बई में चर्चगेट के पास जा रहे थे. भारत में छुट्टियों में गये थे. पेन बेचने वाला पीछे लग गया. "अँकल जी ले लो प्लीज, मेरी कोई बिक्री नहीं हुई." घूम कर देखा तो कोई बच्चा नहीं था, अच्छा खासा नवजवान. क्या मैं इतने बड़े का अंकल लगता हूँ?

मन में अजीब सा लगा. तब तक भाई साहब सुनने को तो मिलता था पर पहली बार कोई व्यस्क मुझे अंकल जी कह कर बुला रहा था.

जब वापस होटल पहुँचे तो शीशे में अपना चेहरा देखा. हाँ इतने सफेद बाल तो होने लगे थे कि अंकल बुलाया जाऊँ!

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कल मिलान में मारियो नेग्री इंस्टीट्यूट में स्नाकोत्तर छात्रों को पढ़ाने गया था. कक्षा समाप्त होने पर वापस मिलान रेलवे स्टेशन जा रहा था जहाँ से बोलोनिया की रेल पकड़नी थी. बस में चढ़ा तो बस भरी हुई थी. जहाँ खड़ा हुआ, वहाँ बैठा लड़का खड़ा हो गया और मुझसे बोला कि यहाँ बैठ जाईये.

यह भी पहली बार ही हुआ है कि कोई बैठा हुआ मुझे अपनी जगह दे कर बैठने के लिए कहे! अब सारे बाल सफेद होने लगे हैं शायद इसीलिए उसने सोचा हो कि बूढ़े को जगह दे दो? या फ़िर पढ़ा कर बहुत थका हुआ लग रहा था?

15 टिप्‍पणियां:

  1. कहना पडेगा कि सब कह कर आप कह देते हैं कि जो कह ना सके!


    बुजुर्ग तो आदमी मन से होता है, आप तो युवा हैं!

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  2. क्या बात है! मज़ा आ गया।

    होली के चुहल और चिट्ठियों को अपवाद मानते हुए पिछले दिनों से कुछ तिक्त चिट्ठियाँ पढ़ने में आ रहे थीँ। यह चिट्ठी देखकर वास्तव में आनन्द आया। जेष्ठ मास की धूप में घने वृक्ष की तरह शीतलता प्रदान करता हुआ आलेख। इस विधा की तो आप कक्षाएं लेने लगिये।

    सही वर्णन है, समय और परिस्थिति के साथ एक ही व्यक्ति के प्रति बदलते दृष्टिकोणों से भिन्न प्रतिबिम्ब और दृष्टा का तदनुसार आचरण। सत्य भी और शिक्षाप्रद भी।

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  3. आपको पढने के बाद एक "देजा वू" का एहसास हुआ.यह कई बार मेरे साथ् भी हो चुका है .मज़ा तो तब आया जब एक ही सफ़्रर में एक बुज़ुर्ग महिला ने मेरे कॉलेज का नाम पूछा और एक कॉलेज विद्यार्थी ने आंटी कहा .लडकी ने ही ठीक पहचाना!!!

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  4. तो ये होता है सफर । हम सब इसी सफर पर अलग अलग मुकाम पर हैं । आपकी मनस्थिति अपनी सी लगी ।

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  5. चिट्ठो पर मेरे अपने मचाए शोर के बाद आपको पढ़ना शुकुन दे रहा है.

    एक बार एक बच्चे ने पीछे से मुझे अंकल कह कर पुकारा तो मुझे भी समझ नहीं आया था कि खुश होऊँ या चिंता करूँ की अब भैया के स्थान पर अंकल कहा जाने लगा है.

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  6. आपको पढना अच्छा लगा।

    अपने बढे हुए भीमकाय शरीर के कारण, भैया होने की उम्र में ही अंकल का खिताब पा चुका हूं :(

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  7. यही स्थितप्रज्ञ होने के रास्‍ते के पड़ाव हैं। आप बदलाव को भोग रहे हैं ओर साथ ही साथ उनसे एक दूरी रख कर इसे एक घटना की तरह भी देख पा रहे हैं।
    बहुत कम लेखक इस अवस्‍था तक पहुँचते हैं।
    बधाई

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  8. जाऒ इन कमरों के आईने उठा कर फ़ैंक दो
    बेअदब ये कह रहे हैं, हम पुराने हो गये :-)

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  9. हैं और भी दुनिया में बलॉगर बहुत अच्छे
    कहते हैं कि दीपक का है अन्दाज़े बयाँ और।

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  10. बहुत संवेदनशील लेख है दीपक जी,इसी विशेषता के कारण मुझे आपका ब्लॉग पसंद है ।

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  11. Aur suno...meri shaadi ko kuch di hi huay thay jab main ek halwai ki dukaan se dahi lene gai thi...usne mujhe mataji kehkar sambodhit kiya!!
    Deepakji ka sach main andaz e' bayaan aur hi hai.Hats off to him!!

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  12. यह बम्बई वाले सभी को अंकल बुलाते हैं! मुझे भी आज से दास साल पहले टैक्सी वाले अंकल बुलाते थे। हम जैसों के लिए दूसरा शब्द 'जेंत्ल्मन' है! या तो अंकल या जेंत्ल्मन.

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  13. वक्त के पडाव को आपने यकिनन बहूत जिन्दादिली से महसूस किया है... पर ऐसा नही कि सभी लोग सही पदवी ही दें। कुछ लोगो के मूड पर कूछ समाजिक स्थिती पर भी निर्भर करता है। :)

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"जो न कह सके" पर आने के लिए एवं आप की टिप्पणी के लिए धन्यवाद.

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