गुरुवार, अप्रैल 12, 2007

गुमनाम कलाकार

कल की अखबार में पढ़ा कि प्रसिद्ध अमरीकी वायलिन बजाने वाले कलाकार श्री जोशुआ बेल अपने लाखों रुपयों की कीमत वाले स्त्रादिवारी वायलिन के साथ वाशिंगटन शहर के एक मेट्रो स्टेशन पर 45 मिनट तक वायलिन बजाते रहे पर उन्हें किसी ने नहीं पहचाना. अपनी कंसर्ट में हज़ारों डालर पाने वाले जोशुआ ने बाद में उन्होंने सामने रखे वायलिन केस में यात्रियों द्वारा डाले सिक्के गिने तो पाया कि कुल 32 डालर की आमदनी हुई थी.

मुझे सड़क पर अपनी कला दिखाने वाले लोग बहुत प्रिय हैं और इस बारे में पहले भी कुछ लिख चुका हूँ. विषेशकर लंदन के मेट्रो में संगीत सुनाने वाले कई गुमनाम कलाकार मुझे बहुत भाते हैं. सात आठ साल पहले की बात है, एक बार पिकाडेल्ली सर्कस के स्टेशन पर जहाँ सीढ़ियाँ कई तलों तक गहरी धरती की सतह से नीचे जाती हैं, वहाँ उतरते समय एक कलाकार को इलेक्ट्रिक बासुँरी पर रेवल का बोलेरो (Bolero, Ravel) सुनाते सुना था जो इतना अच्छा लगा जितना कभी रिकार्ड या सीडी पर सुन कर नहीं लगा. स्टेशन की गहराई की वजह से शायद ध्वनि में अनौखी गूँज आ गयी थी जिसने दिल को छू लिया था.

रेलगाड़ी या मेट्रो में जब कोई इस तरह का गुमनाम सड़क का कलाकार संगीत सुनाने आता है तो बहुत से लोग नाराज हो कर भौंहें चढ़ा लेते हैं या फ़िर गुस्से से कुछ कहते हैं, तो कलाकार की तरफ से मुझे बुरा लगता है. मैं सोचता हूँ कि पैसा देने न देने की तो कोई जबरदस्ती तो है नहीं, पर किसी की कला का अपमान करना ठीक नहीं.

जोशुआ बेल का समाचार पढ़ कर और भी पक्का यकीन हो गया है कि जाने कब कहाँ अच्छा कलाकार सुनने को मिले इसका पता नहीं चलता और मन में सोचना कि कोई सड़क पर मुफ्त में संगीत सुना रहा तो अच्छा कलाकार नहीं होगा, यह गलत है. सफलता और प्रसिद्धि तो किसी के अपने हाथ में नहीं होती और कई बार जग प्रसिद्ध कलाकार भी सालों तक गुमनामी के अँधेरे में भटकते रहते हैं, जब अचानक प्रसिद्ध उनको छू लेती है और उसके बाद लोग खूब पैसा दे कर उसे सुनने देखने जाते हैं.

सच बात तो है कि अक्सर हमारे मन में लोगों की कीमत सी लगती है, अगर कोई कह दे कि फलाँ आदमी प्रसिद्ध है या वैसा पुरस्कार पा चुका है तो अपने आप मन में उसकी जगह बन जाती है और उसकी तारीफ़े करते हैं और वही आदमी बिना नाम के बाहर मिले तो उसकी तरफ़ देखते भी नहीं.

मेरे विचार में जो प्रसिद्ध कलाकार हों, लोग जिनकी तारीफो़ के बड़े पुल बाँधते हों, उन्हें इस तरह गुमनाम हो कर अवश्य जनता का सामना करते रहना चाहिये, ताकि उनके पाँव धरती पर जुड़े रहें.

लंदन के पिकाडेल्ली स्टेशन पर संगीतकार (तस्वीर कुछ वर्ष पहले की है)

बोलोनिया की सड़क पर गायक

फेरारा में सड़क पर कला दिखाने वालो का महोत्सव

5 टिप्‍पणियां:

  1. दीपक जी,
    आप निश्चय ही बहुत संवेदनशील व्यक्तित्व के स्वामी हैं जो कला और कलाकारो‍ के पारखी हैं. मैने आपके लेख पढे जिनसे लगा कि आप छोटी से छोटी बात का भी गहरायी से चिन्तन करते है...
    आपको पढना अच्छा लगता है... लिखते रहिये

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  2. ये खबर मैने भी पढी थी शायद प्रतीक या विनय में से किसी एक ने ब्लागमंडल में भी जिक्र किया था इसका. [माफ़ कीजियेगा ब्लागर का नाम भूल गया]

    आपका लेख पढ कर प्रमोद तिवारी जी ये पंक्तियां याद हो आईं -

    राहों में भी रिश्ते बन जाते हैं
    ये रिश्ते भी मंजिल तक जाते हैं।
    आओ तुमको एक गीत सुनाते हैं
    अपने संग थोड़ी सैर कराते हैं।

    इक बूढ़ा रोज गली में आता था,
    जाने किस भाषा में वह गाता था,
    लेकिन उसका स्वर मेरे कानों में,
    अब उठो लाल कहकर खो जाता था,
    मैं,निपट अकेला खाता सोता था,
    नौ बजे क्लास का टाइम होता था,
    एक रोज ‘मिस’नहीं मेरी क्लास हुई,
    मैं ‘टाप’ कर गया पूरी आस हुई।

    वो बूढ़ा जाने किस नगरी में हो,
    उसके स्वर अब भी हमें जगाते हैं ।
    राहों में भी रिश्ते बन जाते हैं
    ये रिश्ते भी मंजिल तक जाते हैं।

    पूरी कविता अनूपजी के ब्लाग पर है hindini.com/fursatiya/?p=19

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  3. संजय बेंगाणी12 अप्रैल 2007 को 8:00 am बजे

    को छू लेने वाली बात.

    आपने जो कलाकारों को कभी कभी गुमनाम रह कर काम करने की सलाह दी है, वह हम सब के लिए उपयोगी है. :)

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  4. पारखी की नज़रें इनायत होने तक कई बार कलाकार को इंतजार करना पड़ता है। कई बार यह हमेशा इंतजार ही बना रह जाता है। वॉन गॉग जैसे महान चित्रकार ऐसे ही दुर्दिन झेलते हुए दुनिया से चले जाते हैं और उसके मरने के बाद करोड़ों डॉलर में उसकी एक-एक पेंटिंग की नीलामी होती है।

    लेकिन सच्ची कला कभी देर तक छिपी नहीं रह सकती। जब किसी कलाकार की सच्ची कला-साधना फलीभूत होती है तो उसकी सराहना करने और आनंद उठाने के लिए मानव ही नहीं, पशु और देवता तक आ जाते हैं। सच्ची कला शोहरत और तालियों के बीच नहीं निखरती। तानसेन कला की ऊँचाई के उस मुकाम तक कभी नहीं पहुंच सके, जिस मुकाम तक संत हरिदास पहुंचे थे। यहां तक कि वह बैजूबाबरा की ऊँचाई तक को भी नहीं छू सके।

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  5. चित्र ओर संगीत कम से कम इन दोनों कलाओं में तो औरंगजेब ही हूँ पर कला मात्र के विषय में आप ठीक कह रहे हैं.....साहित्‍य में ही अनेक ऐसे लोगों को ऐसी जगहों पर सुनने पढने का अवसर मिला है कि दुकान के साथ पकवान की गुणवत्‍ता को अब भरसक बिना जोड़े देखना ठीक लगता है।

    कई ब्‍लॉग लेखक (मसलन आप, कोई समाइली नहीं) स्‍थापित लेखकों से ज्‍यादा संवेदनक्षम और पारखी हैं

    जवाब देंहटाएं

"जो न कह सके" पर आने के लिए एवं आप की टिप्पणी के लिए धन्यवाद.

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