शुक्रवार, मई 04, 2007

भूली बरसियाँ

इटली का स्वतंत्रता दिवस का दिन था, 25 अप्रैल. हर साल इस दिन छुट्टी होती है पर मुझे अक्सर याद नहीं रहता कि किस बात की छुट्टी है. सुबह कुत्ते को सैर कराने निकला तो घर के सामने वृद्धों के समुदायिक केंद्र का बाग है, वहाँ देखा कि एक बूढ़े से व्यक्ति पेड़ों पर पोस्टर लगा रहे थे. हर पोस्टर पर इटली का ध्वज बना था और लिखा था, "वीवा ला राज़िस्तेंज़ा" यानि संघर्ष जिंदाबाद.

मैंने उससे पूछा कि क्या बात है और पोस्टर क्यों लग रहे हैं तो उसने कुछ नाराज हो कर कहा, "यह हमारा स्वतंत्रता दिवस है". शायद उसे कुछ गुस्सा इस लिए आया था कि उसके विचार में इतना महत्वपूर्ण दिन है इसका अर्थ तो यहाँ रहने वाले हर किसी को मालूम होना चाहिये.

मैंने फ़िर पूछा, "हाँ, वह तो मालूम है पर स्वतंत्रता किससे?"

"मुस्सोलीनी और फासीवाद से. यहाँ बोलोनिया में उसके विरुद्ध संघर्ष करने वाले बहुत लोग थे. जँगल में छुप कर रहते थे और मुस्सोलीनी की फौज और जर्मन सिपाहियों पर हमला करते थे. बहुत से लोग मारे गये. 25 अप्रैल 1945 को अमरीकी और अँग्रेज फौजों ने इटली पर कब्जा किया था और फासीवाद तथा नाजियों की हार हुई थी", उन्होंने समझाया. वह स्वयं भी उस संघर्ष में शामिल थे.

उनका गर्व तो समझ आता है पर मन में आया कि "संघर्ष जिंदाबाद" जैसे नारों का आजकल क्या औचित्य है? और आज जब अधिकतर नवजवानों को मालूम ही नहीं कि 25 अप्रैल का क्या हुआ था तो क्या इस तरह के दिन मनाने क्या केवल खोखली रस्म बन कर नहीं रह जाता?



"फासीवाद आज भी जिंदा है, अगर हम अपने बीते हुए कल को भूल जायेंगे तो वह फ़िर से लौट कर आ सकता है", वह बोला. पर केवल कहने से या चाहने से क्या कुछ जिंदा रह सकता है जब आज के नवजवानों के लिए यह बात किसी भूले हुए इतिहास की है?

और कितने सालों तक यह छुट्टी मनायी जायेगी? पचास सालों तक? यही बात भारत के स्वतंत्रता दिवस जैसे समारोहों पर भी लागू हो सकती है. बचपन में लाल किले से जवाहरलाल नेहरु या लाल बहादुर शास्त्री ने क्या कहा यह सुनने और जानने के लिए मन में बहुत उत्सुक्ता होती थी. बचपन में भारत की अँग्रेजों से लड़ाई और स्वतंत्रता की यादें जिंदा थीं, जिन नेताओं के नाम लिये जाते थे, उनमें से अधिकाँश जिंदा थे. वही याद आज भी मन में बैठी है और हर वर्ष यह जाने का मन करता है कि इस वर्ष क्या कहा होगा. पर अखबार देखिये या लोगों से पूछिये तो आज किसी को कुछ परवाह नहीं कि क्या कहा होगा, केवल एक भाषण है वह. और आज की पीढ़ी के लिए अँग्रेज, स्वतंत्रता संग्राम सब साठ साल पहले की गुजरी हुई बाते हैं जिसमें उन्हें विषेश दिलचस्पी नहीं लगती.

यही सब सोच रहा था उस सुबह को कि शायद यही मानव प्रवृति है कि अपनी यादों को बना कर रखे और जब नयी पीढ़ी उन यादों का महत्व न समझे तो गुस्सा करे. फ़िर जब वह लोग जिन्होंने उस समय को देखा था नहीं रहेंगे, तो धीरे धीरे वह बात भुला दी जाती है, तो रस्में और बरसी के समारोह भी भुला दिये जाते हैं. यह समय का अनरत चक्र है जो नयी बरसियाँ, समारोह बनाता रहता है और कोई कोई विरला ही आता है, महात्मा गाँधी जैसा, जिसका नाम अपने स्थान और समय के दायरे से बाहर निकल कर लम्बे समय तक जाना पहचाना जाता है.

****
उसी सुबह, कुछ घँटे बाद साइकल पर घूमने निकला तो थोड़ी सी ही दूर पर एक चौराहे पर कुछ लोगों को हाथ में झँडा ले कर खड़े देखा तो वहाँ रुक गया.

माईक्रोफोन लगे थे, सूट टाई पहन कर नगरपालिका के एक विधायक खड़े थे, कुछ अन्य लोग "संघर्ष समिति" के थे. वे सब लोग भाषण दे रहे थे. पहले बात हुई उस चौराहे की. 19 नवंबर 1944 को वहाँ बड़ी लड़ाई हुई थी जिसमें 26 संघर्षवादियों ने जान खोयी थी. उनके बलिदान की बातें की गयीं कि हम तुम्हें कभी नहीं भूलेंगे और तुम्हारा बलिदान अमर रहेगा. उस लड़ाई में मरे 19 वर्षीय एक युवक की बहन ने दो शब्द कहे और बोलते हुए उसकी आँखें भर आयीं. थोड़े से लोग आसपास खड़े थे उन्होंने तालियाँ बजायीं.

फ़िर बारी आयी प्रशस्तिपत्र देने की. जिनको यह प्रशस्तिपत्र मिलने थे उनमें से कई तो मर चुके थे और उनके परिवार के किसी अन्य सदस्य ने आ कर वे प्रशस्तिपत्र स्वीकार किये. कुछ जो जिंदा थे, वह बूढ़े थे. हर बार पूरी कहानी सनाई जाती. "वह जेल से भाग निकले .. उनकी नाव डूब गयी...अपनी जान की परवाह न करते हुए ...लड़ाई में उनकी पत्नी को गोली लगी ... तीन गोलियाँ लगी और उन्हें मुर्दा समझ कर छोड़ दिया गया..".



बूढ़े डगमगाते कदम थोड़ी देर के लिए अपने बीते दिनों के गौरव का सुन कर कुछ सीधे तन कर खड़े होते. किसी की आँखों में बिछुड़े साथियों और परिवार वालों के लिए आँसू थे. उनकी यादों के साथ मैं भी भावुक हो रहा था. आसपास खड़े पँद्रह बीस लोग कुछ तालियाँ बजाते.

पर शहर के पास इन सब बातों के लिए समय नहीं था. चौराहे पर यातायात तीव्र था, गुजरते हुए कुछ लोग कार से देखते और अपनी राह बढ़ जाते. पीछे बास्केट बाल के मैदान में लड़के चिल्ला रहे थे, अपने खेल में मस्त.

9 टिप्‍पणियां:

  1. बड़े बड़े साम्राज्य बने और मीट गए, महान सभ्यताओं का भी यही हाल हुआ. समय तेजी से दौड़ रहा है, नई परिस्थितीयों उत्पन होती है, नई पिढ़ी उससे झुझती है. हम समय को पकड़ कर रखना चाह्ते है, यादो के सहारे. ऐसे समारोह यही दर्शाते है.

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  2. अच्छा लिखा है आपने सुनील जी हर स्वतंत्रता दिवस पर हममें से अधिकतर केवल एक छुट्टी मना रहे होते हैं . वर्तमान के दबाव में आए आम हिंदुस्तानी की यही हालत है . पर मुझे लगता है देश से लगाव रखने वालों की संख्या भी कम नहीं है .

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  3. बच्चे और जवान स्वतन्त्रता जीते है. बूढ़े स्वतंत्रता महसूस करते हैं क्योंकि उन्होने उसका अभाव देखा है.
    अच्छा है - याद रहेगा.

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  4. मेरे विचार से स्वतंत्रता दिवस मनाना कोई बुरा तो नहीं.


    अगर उस एक दिन हमें गौरव का अहसास होता है तो हमे गौरव करना चाहिए.

    बाकि तो कल क्या होगा क्या पता. क्या पता कि मैं बुढा होउंगा तब तक भारत भी भारत रहेगा कि नहीं.. बस फिर यादें रह जाएंगी.

    जिसने जितनी दुनिया देखी उसे उतना ही याद रहा. वो उतना ही मस्त है.

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  5. आपकी बात किसी सीमा तक ठीक भी है किन्तु हम बहुत छोटी सी जगहों में रहने वाले आज भी उसी चाव से स्वतंत्रता दिवस व गणतंत्र दिवस मनाते हैं । सभी उसमें भाग लेते हैं व उत्सव का सा माहौल बन जाता है । विद्यालय के बच्चों के कई कार्यक्रम होते हैं । पर शहरों में ऐसा होते नहीं देखा ।
    घुघूती बासूती

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  6. 'शायद यही मानव प्रवृति है कि अपनी यादों को बना कर रखे और जब नयी पीढ़ी उन यादों का महत्व न समझे तो गुस्सा करे'

    स्‍मृति से इतनी ठोस अपेक्षा रखना कुछ ज्‍यादा तो नहीं है। हम स्‍मृतियॉं सहेजते हैं क्‍योंकि वे हमारी 'कमाई' होती हैं, अन्‍य उसकी उपेक्षा करते हैं क्‍योंकि वे अपनी स्‍मृतियॉं सहेजने में व्‍यस्‍त होते हैं।

    जो बच्‍चे पीछे बास्‍केट वाल खेल रहे थे- उसमें कौन जीता..स्‍कोर क्‍या था ? :)

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"जो न कह सके" पर आने के लिए एवं आप की टिप्पणी के लिए धन्यवाद.

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