मंगलवार, जून 12, 2007

शहर की आत्मा

जर्मन अखबार सुदडोयट्शेज़ाईटुँग (Sud Deutsche Zeitung) में हर सप्ताह एक साहित्यकार को किसी शहर के बारे में लिखा लेख छप रहा है. पिछले सप्ताह का इस श्रँखला का लेख लंदन में रहने वाले भारतीय मूल के लेखक सुखदेव सँधु ने अपने शहर, यानि लंदन पर लिखा था. उन्होंने पूर्वी लंदन की बृक लेन के बारे में लिखा कि, "यह सड़क एक रोमन कब्रिस्तान की जगह पर बनी है और पिछली पाँच शताब्दियों में इसे अपराधियों और आवारा लोगों की जगह समझा जाता था."

उनका लेख बताता है कि कैसे फ्राँस से आने वाले ह्योगनोट सत्ररहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में आ कर यहाँ रहे, फ़िर यह जगह फैक्टरी में काम करने वाले मजदूरों की हो गयी, अठारहवीं शताब्दी में पूर्वी यूरोप से यहूदी यहाँ शरणार्थी बन कर आये, आज यहाँ बँगलादेशी लोग अधिक हैं. बृक लेन के जुम्मा मस्जिद के बारे में उन्होंने लिखा है, "1742 में इस भवन को ह्योगनोट लोगों ने अपना केथोलिक गिरजाघर के रूप में बनाया था, अठाहरवीं शताब्दी में यहाँ मेथोडिस्ट गिरजाघर बना, 1898 में यहूदियों का सिनागोग बन गया."

बृक लेन आज पर्यटकों का आकर्षण क्षेत्र माना जाता है और इसे सुंदर बनाया गया है. सँधु जी लिखते हैं, "कभी कभी लगता है कि बृक लेन की आत्मा मर रही है. यहाँ अब कोई बूढ़े नहीं दिखते. वह इन फेशनेबल और महँगे रेस्टोरेंट और कैफे में अपने को अजनबी पाते हैं, नवजवान लड़कों के अपराधी गेंग जो यहाँ घूमते हैं उनसे डरते हैं, अपनी छोटी सी पैंशन ले कर वह इस तरह की जगह पर नहीं रह सकते."

लेख पढ़ा तो सँधु का शहर की आत्मा के मरने वाला वाक्य मन में गूँजता रहा. यहाँ इटली में बोलोनिया में रहते करीब बीस साल हो गये. बीस साल पहले वाले शहर के बारे में सोचो तो कुछ बातों में लगता है कि हाँ शायद इस शहर की आत्मा भी कुछ आहत है, जैसे कि सड़कों पर चलने वाली साईकलें जो अब कम हो गयीं हैं और कारों की गिनती बढ़ी है. शहर में रहने वाले लोग शहर छोड़ कर बाहर की छोटी जगहों में घर लेते हैं जबकि शहर की आबादी प्रवासियों से बढ़ी है. शहर के बीचों बीच, जहाँ कभी फैशनेबल और मँहगी दुकानें होतीं थीं, वहाँ विदेश से आये लोगों के काल सेंटर, खाने और सब्जियों की दुकाने खुल गयी हैं. पर गनीमत है कि साँस्कृतिक दृष्टि से शहर जीवंत है, जिसकी एक वजह यहाँ का विश्वविद्यालय भी है जहाँ दूर दूर से, देश और विदेश से, छात्र आते हैं.

चाहे बीस साल हो गये हों दिल्ली छोड़े हुए पर जब भी मन "अपने शहर" का कोई विचार आता है तो अपने आप ही यादें दिल्ली की ओर चल पड़ती हैं. बचपन की दिल्ली और आज की दिल्ली में बहुत अंतर है.

मेरे लिए दिल्ली की आत्मा उसके रिश्तों में थी. अड़ोस पड़ोस में सिख, मुसलमान, हिंदु, दक्षिण भारतीय, पँजाबी, उत्तरप्रदेश और बिहार वाले, सब लोग मिल कर साथ रह सकते थे. खुली गलियाँ और सड़कें, हल्का यातायात, बहुत सारे बाग, डीसीएम के मैदान में रामलीला, फरवरी में फ़ूले अमलतास और गुलमोहर, क्नाटपलेस में काफी हाऊस या फ़िर कुछ दशक बाद, नरूला में आईस्क्रीम, कामायनी के बाहर बाग में रात भर भीमसेन जोशी और किशोरी आमोनकर का गाना, यार दोस्तों से गप्पबाजी, २६ जनवरी की परेड और 15 अगस्त को लाल किले पर प्रधानमँत्री का भाषण, नेहरु जी और शास्त्री जी की शवयात्रा में भीड़, राम लीला मैदान में जेपी को सुनना ...आज वापस जाओ तो यह सब नहीं दिखता. जिस चौड़ी गली में रहते थे, वहाँ लोहे के गेट लगे हैं जो रात को बंद हो जाते हैं, जहाँ घर के बाहर सोता था, वहाँ इतनी कार खड़ीं है कि जगह ही नहीं बची, सीधे साधे दो मँजिला मकान की जगह चार मँजिला कोठी है, चौड़ी सड़कें और भी चौड़ी हो गयीं हैं पर यातायात उनमें समाता ही नहीं लगता, नयी मैट्रो रेल, दिल्ली हाट, अँसल प्लाजा और उस जैसे कितने नये माल (mall), मल्टीप्लैक्स, बारिस्ता, और जाने क्या क्या.

जहाँ दोस्त रहते थे वहाँ अजनबी रहते हैं और शहर अपना लग कर भी अपना नहीं लगता. लगता है कि जिस छोटे बच्चे को जानता था, बड़े हो कर वह अनजाना सा हो गया है. पर यह नहीं सोचता कि शहर की आत्मा मर रही है. जब हम शरीर पुराने होने पर उन्हें त्याग कर नये शरीर पहन सकते हें तो शहरों को भी तो अपना रूप बदलने का पूरा अधिकार है.

5 टिप्‍पणियां:

  1. ये एक ऐसा विषय है जो खालिस रूप में अपना है...और शहर भी।

    शहर दरअसल हमारे भीतर होता है इसलिए बाहर क बोलोनिया या न्‍यूयार्क उस पर छा नहीं पाते, खुद बदली हुई दिल्‍ली भी नहीं। पर यकीन मानिए कुछ के लिए ये बदले हुए शहर असली होते हैं और उनमें वही बस रहे होते हैं।

    आपकी दिल्‍ली में डीसीएम की रामलीला जरूर हमारी स्‍मृतियों की साझी है। उस मैदान पर पर भी श्रीराम ग्रुप अब एक शानदार माल बनवा रहा है। और हमारे बच्‍चें की स्‍मृति में नए माल और पार्क वैसे ही बस रहे हैं जैसे हम अपने मैदानों को बसा रहे थे। मेरे बेटे को नाना और दादी के घर इसलिए पसंद नहीं क्‍योंकि वहॉं ऐसी कोई जगह नहीं जहॉं वे स्‍केटिंग कर सके।

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  2. मॉल भले ही बन गए हों ,आवासीय कॉलोनियों के परचून की हजारों दुकानें हटवा कर । [कहते हैं , करोड़ों में मिलने वाली इन मॉलों में जगह की बुकिंग पूरी होने के बाद ही न्यायपालिका ने कुछ राहत दी।] फिर भी 'कुछ बात है कि' उनमें खरीददारी करने वाले अभी भी अपॆक्षा से कम हैं । वातानूकूलित दफ़्तर में बैठने वाले एक प्रशासनिक सेवा के मित्र ने बताया कि आज तक उसके घर में मॉलों से कोई खरीददारी नहीं हुई ।

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  3. आजकल बहुत कम लिख रहे हैं डाक्टर साहब?

    मैं मसीजीवी की इस बात से सहमत हूँ कि "शहर दरअसल हमारे भीतर होता है।" हम किसी स्थान को अपनी उम्र के एक हिस्से, एक याद के साथ जोड लेते हैं और वो छवि हमेशा के लिये मन पर अंकित हो जाती है। जब लौट कर वहाँ जाते हैं तो पता चलता है बाकि सब कुछ अपनी गति से चलता रहा है और बदल गया है।
    अपना स्कूल हास्टल, गाँव, कालेज...मेरे ख्याल में इन सब के साथ यही होता है।

    वैसे इन्ही यादों के सहारे तो लोग जीते हैं... :)

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  4. क्‍या बात है! इन दिनों मैं भी अपने शहर के पुराने-नये स्‍केच में अंतर की व्‍याख्‍या में लगा हूं। राजकमल चौधरी याद आते हैं- शहर था शहर नहीं था। आपको लिखना चाहिए विस्‍तार से- वह जो दिल्‍ली थी या अब जब जाता हूं अपने शहर। क्‍या इंतज़ार कर सकता हूं?

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  5. लेख बहुत अच्छा लगा. पर उसपर लोगों की चर्चा बहुत विद्वता पूर्ण है. मन में नोस्टॉजिया के भाव जम के आये हैं लेख पढ़ कर.

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"जो न कह सके" पर आने के लिए एवं आप की टिप्पणी के लिए धन्यवाद.

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