बुधवार, अप्रैल 01, 2009

गायक का धर्मयुद्ध

कल रात को बोलोनिया फ़िल्म फैस्टिवल उद्घाटन हुआ जिसमें मानव अधिकारों के विषय पर बनी फ़िल्मों को दिखाया जाता है. इस बार मैं लघु फ़िल्मों के फैस्टिवल की जूरी का अध्यक्ष हूँ, जिसका फ़ायदा यह है कि कहीं पर जा कर कोई भी फ़िल्म देख लो. कल रात को मैंने अमरीकी फ़िल्मकार छाई वरसाहली की फ़िल्म "आई ब्रिंग व्हाट आई लव" (Chai Varsahely, I bring what I love, USA, 2008) यानि "मैं जिससे प्यार करता हूँ, उसे लाया हूँ", जो मुझे बहुत पसंद आयी.

फ़िल्म का विषय है सेनेगल के सुप्रसिद्ध गायक यासनदूर (Youssou N'Dour) का धर्मयुद्ध. सेनेगल में 94 प्रतिशत लोग मुसलमान हैं पर वहाँ का इस्लाम सूफ़ी इस्लाम है जिसमें कट्टरपन नहीं, जिसमें स्त्रियाँ पर्दा नहीं करती. सेनेगल के सूफ़ी इस्लाम के सबसे बड़े संत और धार्मिक नेता हैं शेख बाम्बा जो धर्मनेता होने के साथ साथ उन्नीसवीं शताब्दी में यूरोपीय उपनिवेशी शासन के विरुद्ध भी लड़े थे.

यासनदूर की कहानी शुरु होती है करीब दस साल पहले जब कोई उनसे प्रश्न पूछता है कि वह रमजान के महीने में गाना क्यों नहीं गाते, क्या इसका कारण है कि इस्लाम में संगीत को हराम माना जाता है यानि गाना अच्छा काम नहीं ? यासनदूर इस बात से सहमत नहीं, सोचते हैं कि सेनेगल के जीवन में जिस तरह का इस्लाम विकसित हुआ है उसमें संगीत तो जीवन की धड़क है, बिना संगीत के जीवन भी नहीं होगा. तब उनके मन में विचार आया कि सेनेगल के सूफ़ी इस्लाम के बारे में गीत बनायें. इस एल्बम को बनाने के लिए उन्होंने मिस्री संगीतकारों को चुना और यह एल्बम सन 2001 में तैयार की गयी, इसका नाम था ईजिप्ट यानी मिस्र.


11 सितंबर 2001 में अमरीका में आतंकवादी हमलों को बाद यासनदूर को लगा कि वह समय इस्लाम के बारे में संगीत सुनाने का नहीं था, लोग इसको आतंकवाद का समर्थन समझ सकते थे, इसलिए ईजिप्ट का संगीत को उन्होंने रोक लिया और सन 2004 में रमजान के महीने में निकाला. इस एल्बम का सेनेगल में सख्त विरोध किया गया. कहा गया कि यह इस्लाम विरोधी है और बाज़ार में इसके कैसेट बेचने पर रोक लगा दी गयी.

यासनदूर को बहुत धक्का लगा पर उन्होंने हार नहीं मानी. यासनदूर कहते हैं, "यह सवाल था कि कौन यह निर्धारित करता है कि इस्लाम में क्या जायज है और क्या हराम? हमारा सूफ़ी इस्लाम क्या इस तरह से सोचता है? क्यों अरब देश वाले हमारे इस्लाम को सीमाओं में बंद करना चाहते हैं ?" उन्होंने निश्चय किया कि वह विदेशों में इजिप्ट के धर्मसंगीत को ले कर जायेंगे. मोरोक्को में फेज़ धार्मिक संगीत फैस्टिवल में उन्होंने पहली बार अपने इस संगीत को प्रस्तुत किया जिसे बहुत प्रशंसा मिली.

हर देश में मिली सफलता भी यासनदूर के मन को शाँती न दे सकी, जब अपने ही देश में जितनी बार उन्होंने इस संगीत को सुनाने की कोशिश की इसका तीव्र विरोध हुआ, मारा काटी दंगे हुए. वह इस संगीत को ले कर संत बाम्बा की दरगाह पर बनी मस्जिद में भी ले कर गये, पर वहाँ अफवाह फ़ैल गयी कि वह दरगाह में नगीं लड़कियों को नाच कराना चाहते हैं और बहुत दंगे हुए.

समय ने करवट ली जब फरवरी 2005 में "इजिप्ट" को ग्रेमी पुरस्कार मिला. सेनेगल में भी धूम मची, राष्ट्रपति ने यासनदूर को बुला कर उनका संगीत सुना और आखिरकार यासनदूर का सपना पूरा हुआ, अपने देश में अपना संगीत अपनी मर्जी से गाने का.

"मैं मुक्त हो गया इस युद्ध से, स्वंत्रता क्या होती है यह समझ आया है. हमें अपने विचारों की रक्षा करनी है, यह नहीं मानना कि कोई हमें यह बताये कि हमारे धर्म में क्या सही क्या गलत", यासनदूर कहते हैं.

4 टिप्‍पणियां:

  1. अपनी कट्टरता से बेचैनी ही इस्लाम को बचा सकती है.

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  2. संजय से सहमत हूँ। लेकिन इस्लाम की कट्टरता समाप्त नहीं होगी और वह बच भी नहीं सकता। खुद कुरआन के मुताबिक उस की उम्र पूरी हो चुकी है।

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  3. फिल्‍म फेस्टिवल को आपके नजरिए से देख कर प्रसन्‍नता हुई।

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    तस्‍लीम
    साइंस ब्‍लॉगर्स असोसिएशन

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  4. चाह हो और हौसले बुलंद हों तो जीत मिलती ही है, इसी का सबूत है यासनदूर साहब की कहानी!

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"जो न कह सके" पर आने के लिए एवं आप की टिप्पणी के लिए धन्यवाद.

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