अंग्रेज़ी की अखबार हिंदुस्तान टाईमस में मोहन राकेश जी के बारे में छोटा से लेख देखा तो उन दिनों की याद आ गयी जब वह दिल्ली के राजेंद्र नगर के आर ब्लाक में रहते थे. तालकटोरा बाग से शंकर रोड की तरफ़ आईये तो जहाँ राजंद्र नगर प्रारम्भ होता है वहाँ बायें कोने पर पम्पोश की दुकान थी जिसकी वजह से उस सारी जगह को पम्पोश ही कहते थे. पम्पोश से आने वाली सड़क जहां आर ब्लाक के बड़े बाग से मिलती, वहीं बायें कोने वाले तीन मज़िला घर में बरसाती पर रहते थे.
उनके घर से थोड़ी दूर पर ही जंगल के सामने वाली सड़क पर मेरी बुआ का घर था. 1966-67 के आस पास ही बुआ के यहाँ छुट्टियों में गया था जब दीदी के साथ मोहन जी के घर जाने का एक दो बार मौका मिला था. तब तक उनकी कुछ कहानियाँ नाटक पढ़े थे, लेकिन इतनी समझ नहीं थी कि वह कितने बड़े लेखक हैं. मैं तब बारह या तेरह साल का था पर जब उन्हें पहली बार देखा था उसके बारे में सोचूँ तो सबसे पहली बात जो मन में आती है वह उनका कद छोटा होने की है. उनकी पत्नी अनीता, जो उम्र में उनसे बहुत छोटी लगती थीं, उनसे थोड़ी ऊँची थी. दूसरी बात याद आती है उनकी गूँजती आवाज़ में पँजाबी भाषा का पुट. तीसरी बात याद है उनका छोटा और मोटा सा सिगार पीना.
तब उनकी बेटी पुरुवा का मुँडन हुआ था और उसके बारे में सोचूं तो उसके गँजे सिर पर हाथ फ़ैरना याद आता है. दीदी, अनीता जी और मोहन जी में क्या बातें हुईं, यह सब कुछ याद नहीं क्योंकि तब अपना ध्यान खेलने की ओर अधिक होता था. हां उनके कमरे के बीच में रखी गोल नीची मेज़ याद है जिसके आसपास ज़मीन पर बैठ कर कुछ खाया था.
जब उनकी मृत्यु का सुना था तो मुझे अनीता जी और उनकी बेटी पुरुवा का ही ध्यान आया था. अनीता जी से पहले वह अन्य विवाह कर चुके थे और शायद अनीता जी उनकी धरौहर की कानूनी मालिक नहीं थीं. बच्चे छोटे हों और अचानक पिता न रहे का क्या अर्थ होता है, इसका अपना अनुभव मुझे कुछ वर्ष बाद हुआ था जब मेरे पिता भी कम उम्र में अचानक गुज़र गये थे.
पर समय सब कुछ भुला देता है. अनीता जी कहाँ गयीं, उनकी बेटी का क्या हुआ, यह कुछ भी मुझे मालूम नहीं शायद दीदी को मालूम हो.
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मोहन राकेश मेरे पसंदीदा लेखकों में एक हैं। आप ने खूब उन का स्मरण कराया।
जवाब देंहटाएंआपके जिक्र से लगता है कि मोहन राकेश तब न्यू राजेंद्र नगर में रहते थे। तालकटोरा से आने पर शंकर रोड के बाईं ओर ओल्ड राजेंद्र नगर है, जहां आपके बताए वक्त से करीब पांच-छह साल बाद की मेरी भी यादें हैं- कुछ धुंधली, कुछ स्पष्ट। हम लोग शंकर रोड से जरा सी दूर एक मकान में किराए पर रहते थे। सामने के रिज पर थोड़ा भीतर जाकर रवींद्र रंगशाला थी, जहां कभी कभी धार्मिक फिल्में दिखाई जाती थीं। मोहन राकेश मेरे भी सबसे प्रिय लेखकों में हैं... कैसा संयोग है।
जवाब देंहटाएंजी हाँ संगम जी, बात न्यू राजेंद्र नगर की ही है, और मुझे भी रवींद्र रंगसाला में फ़िल्में देखना याद है. :-)
जवाब देंहटाएंyadon ka ek chhota sa tukda ! jaisey ghaney badlon se alag kat kar ek chhota sa badal halki bunda-bandi kar barish ka sama bandh kar ghayab ho jata hai.
जवाब देंहटाएंकुछ ओर पुराने किस्से गर बाँट सके तो......
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