शनिवार, अगस्त 21, 2010

अंतिम श्रद्धाँजलि - राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त

टिप्पणीः यह आलेख स्व. डा. सावित्री सिन्हा के आलेख संग्रह "तुला और तारे", (नेशनल पब्लिशिंग हाउस दिल्ली, 1966) से है. दद्दा (राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त) का देहांत 12 दिसंबर 1964 में हुआ.

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India's national poet Maithili SharanGupt
उस दिन दद्दा की विदा के बाद हम सबका मन भारी हो रहा था. स्टेशन के वेटिंग रूम में थोड़ी देर के लिए उनके गले में जलन सी होने लगी थी, इसलिए हमारी चिन्ता और भी बढ़ गयी थी. रात में दो तीन बार आँखें खुल गयीं. सुबह तड़के ही मुझसे रहा न गया और झाँसी के लिए ट्रंककाल बुक करवायी, न जाने मन में कैसी कैसी दुश्चिताएँ उठती रहीं, परन्तु टेलीफोन एक्सचेंज की कृपा से काल झाँसी नहीं, राँची की मिली, वह भी ग्यारह बजे दिन को. मेरे क्लास का समय हो रहा था इसलिए विवश हो कर उसे कैंसल करवाना पड़ा. पत्र लिखने की सोच रही थी कि ज्वरग्रस्त हो गयी और फ़िर उसी ज्वर में खबर मिली कि दद्दा नहीं रहे. जीवन की कुछ अमूल्य निधियों में मेरे लिए सबसे गौरवपूर्ण निधि दद्दा का अकारण स्नेह था. कहाँ मैं, एक अकिंचन, महत्वहीन तुच्छ व्यक्ति, और कहाँ भारत के महान राष्ट्रकवि के वात्सल्य का अगाध समुद्र. आज लग रहा है जैसे मेरी अपात्रता और अकिंचता ने ही मुझे उस अपार वैभव से वंचित कर दिया है. न जाने कौन सा सूत्र पिछले तीन दिनों से दद्दा के लिए बैचेन कर रहा था. निधन का समाचार कान में पड़ते ही मैं भरे बुखार में रजाई छोड़ कर उठ खड़ी हुई, डा. नगेन्द्र के घर फोन किया, मालूम पड़ा कि जब से चिरगाँव से ट्रंककाल आयी है, डा. साहब कमरा बन्द किये बैठे हैं. डा. विजयेनद्र स्नातक जी के यहाँ फोन किया तो मालूम हुआ उन्हें यह सन्देश डा. साहब के यहाँ से ही मिला था. मेरी अस्वस्थता और रुग्णता के कारण मुझे खबर नहीं दी गयी. मन किया किसी तरह चिरगाँव उड़ जाऊँ. दद्दा के अन्तिम दर्शन तो मिल जायेंगे, परन्तु फोन से पता चला कि उनकी अन्त्येष्टि क्रिया के लिए निर्धारित समय तक पहुंचना सम्भव नहीं है. और फ़िर दद्दा की बातें, उनकी हँसी, उनके लाड़ दुलार, कानों में गूँजते रहे, उनकी तस्वीर आँखों के आँसुओं के साथ उभरती रही.

दद्दा की त्रयोदशी में सम्मिलित होने के लिए दिल्ली से एक स्पेशल बोगी का प्रबन्ध हो गया था. यात्रियों में से अधिक ऐसे थे जिन्हें दद्दा चिरगाँव आने का निमन्त्रण दे गये थे, पर अपने अतिथियों को हाथों हाथ लेने वाला अतिथेय, अपने स्वभाव और संस्कार के विरुद्ध सबको अपने घर बुला कर स्वयं अदृष्य हो गया था. रात को लगभग डेढ़ बजे गाड़ी झाँसी पहुँच गयी, और वहीं हमारा डिब्बा कट गया. झाँसी का स्टेशन फ़िर अपने साथ अनेक स्मृतियाँ ले कर सामने खड़ा हो गया. पिछली दो बार जब हम आये थे, दद्दा स्टेशन पर आतुरता से हमारा इन्तजार करते हुए मिले थे, उनके चेहरे पर उमड़ता हुआ वह आह्लाद, वह स्फटिक सा व्यवहार आज इस लेखनी में कैसे बाँधू -
"छिन्न भी है, भिन्न भी है हाय,
क्यों न रोवे लेखनी निरुपाय?"
जितनी देर हमारे सामान इत्यादि की व्यवस्था होती रही, दद्दा वहीं प्लेटफार्म पर पड़ी हुई लकड़ी की बैंच पर बैठे रहे, और आते जाते लोग उनके सामने सिर झुका झुका कर जाते रहे. जनता का यह नमन किसी खद्दरधारी राजनीतिज्ञ के प्रति नहीं था, उनकी श्रद्धामयी आँखों में और मुग्ध भावाभिव्यक्ति में भक्ति का आह्लाद ही था आतंकजन्य विनय नहीं. एक जीर्ण शीर्ण वस्त्रधारी भिखारी दद्दा के चरणों के पास आ कर साष्टांग प्रणाम करके लेट गया, उनकी दयार्द्र आँखों ने उसे कुछ दिलवा कर विदा किया, एक अर्ध विक्षिप्त सा व्यक्ति बाल बिखराये उनके निकट आ कर प्रलाप करता रहा, और दद्दा बड़ी सहिष्णुता और सुहानुभूति के साथ उसे देखते और उसकी बात सुनते रहे. मैंने कई बार बड़े बड़े मठाधिकारियों और धर्म के संरक्षकों का व्यवहार इस वर्ग के प्रति देख रखा था. पीड़ित दुखी जनता के प्रति उनकी दुरदुराहट की तीव्र प्रतिक्रिया के फ़लस्वरूप ही मेरा मन मिशनों, धर्म संस्थाओं और आध्यात्मिक व्यक्तित्वों से विमुख हो गया है, पर उस दिन स्वच्छता और छूत पाक के वैष्णव विधान पर पूर्ण विश्वास करने वाले दद्दा का वैष्णव नहीं केवल मानव रूप देखा. आज झाँसी के उसी महामानव और हिन्दी संसार के दद्दा के स्नेहपूर्ण स्वागत के बिना स्टेशन भाँय भाँय कर रहा था.

हिन्दी के प्रसिद्ध उपन्यासकार श्रद्धेय वृन्दावनलाल वर्मा के प्रेस में हमारे भोजन की व्यवस्था थी. निःशब्द भोजन चल रहा था जैसे यह कोई यांत्रिक काम था जिसे किसी तरह पूरा करना था. ग्रास थाली से हाथ में आ कर मुँह में जा रहे थे और पिछली बार झाँसी की हवेली में भोजन करते हुए दद्दा के स्नेहपूर्ण आग्रह कान में गूँज रहे थे. श्रुतिपुट से आयी दद्दा की स्मृतियाँ पलकों में न समा सकने के कारण आँसू बन कर बिखर रही थीं.

भोजनोपरान्त, हम बस में बैठ कर चिरगाँव चले. चारों ओर की हरियाली भरी पहाड़ियों का हमारे लिए कोई अर्थ नहीं था, अतीत के मौन ताने बाने में बस की घरघराहट और आसपास का शोर गुल जैसे लुप्त हो गया था और फ़िर उसके बाद हम बेतवा के बाँध पर आये. यह स्थान दद्दा को बहुत प्रिय था, मेरे मानस चक्षु के सामने दद्दा बोल रहे थे, "पंडित जी (पं. जवाहरलाल नेहरू) को यह स्थान बहुत अच्छा लगा था, वे इसे देख कर भाव विभोर काफ़ी देर तक खड़े रहे, हमारे मना करते करते भागते दौड़ते वहाँ .. वहाँ.. दूर तक पहुँच गये थे." उस दिन दद्दा बेतवा के किनारे खड़े हो कर दिवंगत राष्ट्रनायक को भरे गले से याद कर रहे थे और आज राष्ट्रकवि के अभाव में बेतवा की पछाड़ खाती लहरों के निकट ठहरने का हमें साहस नहीं हुआ. उदास और क्लांत हृदय यात्री बस से उतर पैदल मौन गुप्त बंधुओं की प्रसिद्ध बखरी की ओर चले, "चिरगाँव की शोभा" को झुक झुक प्रणाम करने वाली, हाट की जनता हमारी ओर उदास नेत्रों और म्लान मुख से देख रही थी, जैसे उन्हें यह पूछने की आवश्यकता ही नहीं थी कि हम वहाँ किस उद्देश्य से गये हैं. बखरी के फाटक पर गम्भीर विषाद से युक्त गिरधारी ने मौन विनयाचार में हाथ जोड़े, उसके होंठ सिहरे और आँखें आँसुओं से भर आयीं. गुप्त बंधुओं की पुश्तैनी बखरी मौन साधे सविषाद पाषाण बनी खड़ी थी, हमारे पहुँचते ही प्रस्तर मूर्तियों की तरह निश्चल खड़े दद्दा के स्वजन यन्त्रवत चल कर निकट आये और फ़िर बखरी में कुहराम मच गया, दद्दा के पुत्र उर्मिल जी डा. नगेन्द्र के अंक में मुँह छिपा कर क्रन्दन कर उठे और फ़िर सारी बखरी में रुदन और विलाप का स्वर छा गया.

हिम्मत नहीं होती थी अंदर जाने की. "गौरवमंण्डित सुहागनी" के करुण वैधव्य का सामना करने का साहस मुझे नहीं हो रहा था, मैं बड़ी हिम्मत करके अन्दर गयी और जिया के वलयशून्य हाथों ने मुझे लपेट लिया, उनकी आँखों से निरन्तर आँसू बहते रहे, साकेत की "मूर्तिमति ममता माया" आज अपना मुँह अवगुण्ठन में लपेटे वटवृक्ष की छाया से छिन्न लता सी क्लांत, शिथिल हो रही थी. शान्ति, दद्दा की पुत्रवधू अपनी गोद में नन्ही सी बिटिया को लिए बिलख रही थी.

श्राद्ध पूरा हुआ. होम का धूँआ सारी बखरी पर छा गया, जिया ने लाल जोड़ा उतार कर श्वेत वस्त्र धारण किया और गु्प्त कुल की बखरी की दीवारें जैसे सिर धुन धुन कर रोने लगीं. उसके इतिहास का उज्जवलतम अध्याय अब नये चरण में प्रवेश कर रहा था, वह माई का लाल जिसने पितृव्यों को भौतिक ऋण से मुक्त किया था, अपने कुल के उपास्यदेव राम की नयी प्रतिष्ठा द्वारा उनका आध्यात्मिक ऋण चुकाया. जिसकी वाणी से सारा राष्ट्र प्रेरणा स्फूर्त हो उठा आज इस बखरी से सदा के लिए विदा ले चुका था. शेष रह गयी थी मस्तिष्क में एक दूसरे को ढकेलती हुई उसकी असंख्य स्मृतियाँ, उसकी दिव्य साधना के भौतिक अवशेष.

दर्शक उनके शयन कक्ष, अध्ययन कक्ष और बैठक के सामने सिर नवा कर अपनी श्रद्धा अर्पित कर रहे थे और मेरे मानस चक्षु के सामने दद्दा बोल रहे थे, "यह देखिए सावित्री जी, इसी कमरे में दोपहरी बिताता हूँ, पीछे का दरवाजा खोल देता हूँ, खूब अच्छी हवा आती है. यह ऊपर वाला कमरा मैंने जब विनोबा जी आने वाले थे तब बनवाया था ..बहुत दिल्ली देखी है, जरा गवंई गाँव भी देखिए."

और फ़िर चिरगाँव की शोकसभा का अविस्मरणीय दृश्य, बूढ़े बच्चे, चिरगाँव की अवगुण्ठनवती स्त्रियाँ और झाँसी की जाग्रत महिलाएँ सब आँसू बरसाते, श्रद्धा के सुमन चढ़ाते हुए. वहाँ का दृश्य देख कर साहित्यिक मनीषियों और कवियों के शब्द चुक गये. सर्वेश्वर दयाल की कविता के पाठ पर बूढ़ों की पुरानी पीढ़ी करुण आर्द्रता से सिर हिलाती रही, अज्ञेय का वक्तव्य भीड़ पर छा गया. एक युग समाप्त हुआ, इतिहास का एक पृष्ठ पलट गया, हिन्दी का सबसे बड़ा स्तम्भ गिर गया. नये और पुराने, बूढ़े और जवान, कृषक और कवि, स्त्री और पुरुष, एक भाव, एक रस में निमग्न हो गये, सब करुणा प्लावित, सब असहाय.
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मैथिलीशरण गुप्त की मूल तस्वीर कविताकोष के साभार

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"जो न कह सके" पर आने के लिए एवं आप की टिप्पणी के लिए धन्यवाद.

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