शुक्रवार, फ़रवरी 18, 2011

नारी मुक्ति की संत

शरीर की नग्नता में क्या नारी मुक्ति का मार्ग छुपा हो सकता है? कर्णाटक की संत महादेवी ने वस्त्रों का त्याग करके अपने समय के सामाजिक नियमों को तोड़ा था. क्यों?

Akka Mahadevi - Scribbles on Akka
मधुश्री दत्ता की सन् 2000 की डाक्यूमेंटरी फ़िल्म "स्क्रिब्बल्स आन अक्का" (अक्का पर लिखे कुछ शब्द - Scribbles on Akka) देखने का मौका मिला जो बाहरवीं शताब्दी की दक्षिण भारतीय संत अक्का महादेवी की कविताओं के माध्यम से उनके क्राँतिकारी व्यक्तित्व को विभिन्न दृष्टिकोणों से देखने का प्रयास है. फ़िल्म उन असुविधाजनक व्यक्तित्वों के बारे में सोचने पर बाध्य करती है जो समाज के हो कर भी धर्म के नाम पर, समाज के नियमों को तोड़ने का काम करते हैं पर जिनका समाज पर इतना गहरा प्रभाव होता है कि चाह कर भी उनको छुपाया या भुलाया नहीं जा सकता.

महादेवी या अक्का (दीदी) बाहरवीं शताब्दी की वीरशैव धार्मिक आंदोलन का हिस्सा मानी जाती हैं. वीरशैव आंदोलन में वैदिक कर्मकांड, मूर्तिपूजा, जाति भेदभाव, अवतारवाद, अंधश्रद्धा आदि को बाधक ठहराया और अल्लमप्रभु, अक्कमहादेवी, चेन्न-बंसव तथा सिद्धराम जैसे संतों ने जातिरहित, वर्णरहित, वर्गरहित समाज के निर्माण की कोशिश की. इन संतों के लेखन वचन साहित्य के नाम से प्रसिद्ध हुए जो कि गद्य शैली में लिखी कविताएँ हैं.

कणार्टक में शिमोगा के पास के उड़ुथाड़ी गाँव में जन्मी अक्कमहादेवी ने जब सन्यास लिया तो केवल घर परिवार ही नहीं छोड़ा, वस्त्रों का भी त्याग किया और उनके लेखन ने नारी शरीर और नारी यौनता के विषयों को जिस तरह खुल कर छुआ, वह सामान्य नहीं है. जैसे सुश्री लवलीन द्वारा अनुवादित अक्कमहादेवी की इस कविता को देखियेः
वस्त्र उतर जाएँ
गुप्त अंगों पर से तो
लज्जा व्याकुल हो जाते है जन
तू स्वामि जगत का, सर्वव्यापि
एक कण भी नहीं , जहाँ तू नहीं
फिर लज्जा किस से?
चेनामल्लिक अर्जुना देखे जग को
बन स्वयं नेत्र
फिर कैसे कोई ढके,
छिपाए अपने को?
(डा. रति सक्सेना द्वारा सम्पादित वेबपत्रिका "कृत्या" से )

मधुश्री दत्ता की डाक्युमेंटरी में आज की आधुनिक व्यवस्था में अक्का महादेवी किस रूप में जीवित हैं, इसको विभिन्न दृष्टिकोणों से देखने की चेष्ठा है. गाँव में गणदेवी की तरह, औरतों के कोपोरेटिव में, जहाँ उनके नाम से पापड़ और अचार बनते हैं, काम करने वाली औरतों की दृष्टि में, म़ंदिर के पुजारी और धर्म ज्ञान की विवेचना करने वाले शास्त्री की दृष्टि में, फेमिनिस्ट लेखन और चित्रकला में, महादेवी विभिन्न रूपों में दिखती हैं. इन विभिन्न रूपों में सामान्य जन में उनका रूप उनके व्यक्तित्व को धर्म मिथिकों में छुपा कर, मन्दिर में पूजने वाली देवी बना देता है, जिसमें उनके वचनों की क्राँति को ढक दिया जाता है. लेकिन फ़िल्म में उनकी एक भक्त का साक्षात्कार भी है जिसने गाँव में अक्का महादेवी के मंदिर के आसपास भक्तों के लिए सुविधाएँ बनवायी हैं और जो महादेवी के असुविधाजनक संदेश को छुपाने के प्रयास पर हँसती है.

Akka Mahadevi - Scribbles on Akka

फ़िल्म में महादेवी के कुछ वचनों को गीतों के रूप में प्रस्तुत किया गया है जिन्हें सुश्री सीमा बिस्वास पर विभिन्न परिवेशों में फ़िल्माया गया है, जिनमें एक परिवेश है एक ईसाई गिरजाघर में एक स्त्री द्वारा नन बनने की रीति, यानि महादेवी की बात को एक धर्म की सीमित दायरे से निकाल कर इन्सान के मन में ईश्वर से मिलने की ईच्छा के रूप में देखने की चेष्ठा.

Akka Mahadevi - Scribbles on Akka

फ़िल्म को देख कर मानुषी में पढ़े मधु किश्वर के एक पुराने आलेख की याद आ गयी जिसमें बात थी किस तरह गाँव में रहने वाली औरतें सीता मैया के पाराम्परिक गीतों के माध्यम से नारी मुक्ति की बात उठाती हैं. परम्परागत समाज में जहाँ नारी चारों ओर से नियमों में बँधी हो जिनमें उसकी अपनी इच्छाओं आकाँक्षाओं के लिए जगह न हो, वहाँ महादेवी जैसी नारी के विचारों को धर्म स्वीकृति मिलना थोड़ी सी जगह बना सकता है जहाँ सामाजिक नियमों की परिधि से बाहर जाने की अभिलाषा की अभिव्यक्ति हो सकती है.

महादेवी का व्यक्तित्व शारीरिक नग्नता को केवल लज्जा का कारण सोचने पर भी प्रश्न उठाता है. फ़िल्म में कुछ चित्रकार अक्का महादेवी के नग्न शरीर को ईश्वर का प्रतिरूप देखते हैं, तो कुछ इसमें नारी मुक्ति की चिंगारी. परम्परागत समाज को चुनौती देती महादेवी की छवि की जटिलता को ब्राह्मण विद्वान भी स्वीकारते हैं और आम व्यक्ति भी.

Akka Mahadevi - Scribbles on Akka

मेरी दृष्टि में फ़िल्म का अंतिम संदेश यही है कि भारत के विभिन्न हिस्सों में धर्म के संदेश को अलग अलग दृष्टिकोणों से देखा और समझा गया है. यही अनेकरूप विभिन्नता ही हिंदू धर्म की शक्ति रही है. इस जटिलता को सहेजना आज के भूमण्डलिकरण से जकड़े संसार में परम आवश्यक है, जहाँ सामाजिक जटिलताओं का सरलीकरण एवं ऐकाकीकरण करने की लालसाएँ बढ़ती जा रही हैं.

***

8 टिप्‍पणियां:

  1. बारहवी सदी में इस तरह का आंदोलन? मैंने तो सोचा भी नहीं था ! अक्का महादवी जी तो नारी मुक्ति आन्दोलन की पुरोधा निकली !

    जवाब देंहटाएं
  2. यह बिलकुल नयी जानकारी है मेरे लिए...

    सैद्धांतिक रूप में यह बात सत्य है और सही लगती है कि शरीर और आत्मा की सुचिता तथा मुक्ति वस्त्र पर किसी भांति आश्रित नहीं है...

    पर व्यावहारिक रूप में वस्त्रविहीन समाज की परिकल्पना नितांत असहज है...

    वैसे मैं नहीं मानती कि वस्त्रहीन रह स्त्री अपनी मुक्ति का मार्ग प्रसस्त, सिद्ध कर सकती है...

    जवाब देंहटाएं
  3. रंजना जी, मैं आप से सहमत हूँ कि वस्त्रहीन होने की परिकल्पना असहज है, बल्कि उत्तर भारत की सर्दी की सोचें तो वर्ष में कुछ महीनों के लिए कठिन भी.

    मैं फ़िल्म देख कर और संत अक्का महादेवी के बारे में जान कर यह नहीं सोच रहा था कि नारी मुक्ति का रास्ता वस्त्रहीनता है, बल्कि केवल इतना कि जिस समाज में और धर्म में इस तरह के असुविधाजनक व्यक्तित्वों को मान मिल सकता है, जहाँ उनके संदेश को सुना और सोचा जा सकता है, यह उस समाज और धर्म ले लिए गौरव की बात है.

    जवाब देंहटाएं
  4. याद नहीं कभी पढ़ा महादेवी 'अक्का' को ...अच्छा विचारोत्तेजक विवरण !

    जवाब देंहटाएं
  5. apne vicharon ya dharm ke prachaar prasar ke liye vastraheen ho jana koi sahi tarika nahi.. Apne bacchon ko agar hum sabhi dharmo ko samjhane lag jayen to wo bhi mansik rogi ho jaye.. insaniyat hi sarvochh dharm hai. aap in prakand vidwano se puchhe ki gadpati bappa morya ka meaning kya hai... Iske paschat katju ji ke kathan pe vichar kare jisme 90% bhartiyon ko unhone murkh kaha hai..

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. कमलेश जी, यह बात सच है कि समाज के स्थापित मूल्यों के विरुद्ध जाना आसान नहीं. जैसा आप ने लिखा, अधिकतर लोग इसे सही नहीं मानंगे. लेकिन आश्चर्य की बात है कि पुरातन कर्णाटक प्रदेश में लोगों ने महादेवी अक्का के संदेश को स्वीकारा और उसे आज भी मान्यता प्राप्त है.

      हटाएं

"जो न कह सके" पर आने के लिए एवं आप की टिप्पणी के लिए धन्यवाद.

लोकप्रिय आलेख