कभी-कभी जीवन आप को बरसों पुरानी, एक पुरानी भूली-बिसरी याद के सामने ला कर खड़ा देता है, और आप चकित रह जाते हैं। मुझे कुछ ऐसा ही लगा जब अचानक एक दिन, एक पुरानी पत्रिका में कुछ खोजते हुए मेरी हिन्दी लेखिका सोमा वीरा से मुलाकात हो गई।
नीचे की इस तस्वीर में उन्नीस सौ पचास और नब्बे के दशकों की सोमा वीरा जी की तस्वीरें हैं (तस्वीरों को बड़ा करके देखने के लिए, उन पर क्लिक करें)।
सोमा जी की हिन्दी कहानियों का संग्रह, "धरती की बेटी", आत्माराम एण्ड सन्स ने १९६२ में प्रकाशित की थी। यह किताब मुझे बहुत प्रिय थी और मैंने इसे बचपन में पढ़ा था।
आज से करीब बीस साल पहले, २००६ में, मैंने अपने मन-पसंद हिन्दी लेखकों की बात करते हुए सोमा वीरा जी की इस किताब के बारे में लिखा था। उस आलेख के कुछ साल बाद, हिन्दी पत्रिका अभिव्यक्ति निकालने वाली लेखिका पूर्णिमा वर्मन जी ने मुझे ईमेल भेजा कि क्या उस किताब के कवर पर सोमा वीरा की कोई तस्वीर है? उन्होंने ही मुझे बताया था कि सोमा वीरा अमरीका चली गईं थीं, जहाँ उनकी २००४ में मृत्यु हुई थी, लेकिन उनकी कोई तस्वीर नहीं मिल रही थी। इस किताब के पीछे भी सोमा वीरा जी की तस्वीर नहीं थी, मैंने पूर्णिमा जी को लिखा था। लेकिन इतने वर्षों पहले की यह बात मैं भूला नहीं था, जब भी मेरी दृष्टि मेरी अलमारी में रखी "धरती की बेटी" की ओर जाती थी तो यह बात मुझे याद आ जाती थी।
फ़िर अचानक कुछ दिन पहले जब एक पुरानी पत्रिका में उनकी एक कहानी दिखी और साथ में उनकी तस्वीर भी दिखी, तो लगा कि कोई दुर्लभ वस्तु मिल गई हो। आज के मेरे इस आलेख में उसी पुरानी सोमा वीरा की कुछ बातें हैं। लेकिन सबसे पहले देखते हैं कि इंटरनेट पर उनके बारे में क्या जानकारी मिलती है।
सोमा वीरा का परिचय
इंटरनेट पर खोजें तो अभिव्यक्ति की वेबसाईट पर उनके बारे में एक पृष्ठ मिलता है, जिसके अनुसार उन्होंने अमरीका में विश्वविद्यालय स्तर पर कार्य किया, उन्हें अमरीकी लेखक के रूप में भी जाना और सम्मानित किया गया था।पचास के दशक की सोमा वीरा से मेरी मुलाकात
मैं अपनी वेबसाईट कल्पना पर हर साल अपने पिता ओमप्रकाश दीपक के कुछ पुराने लेख व कहानियाँ टाईप करके जोड़ता रहता हूँ। गुड़गाँव में मेरी छोटी बहन ने एक अलमारी में उनके कुछ कागज़ सम्भाल कर रखे हैं। कुछ सप्ताह पहले कुछ दिनों के लिए गुड़गाँव गया था तो उसी अलमारी में पापा के कागज़ देख रहा था कि अब किस आलेख को इंटरनेट पर डालना चाहिये।
तब हाथ में हिन्दी पत्रिका "सरिता" का एक अंक आया जिसमें पापा की एक कहानी छपी थी। उसके पन्ने पलट रहा था कि देखा कि उस अंक में सोमा वीरा की एक कहानी भी छपी थी, "ढहती कगारें" जो उनके कथा-संग्रह "धरती की बेटी" में भी थी। जुलाई १९५८ की सरिता के उस अंक के शुरु में "सरिता के लेखक" पृष्ठ पर सोमा वीरा जी की तस्वीर और उनका परिचय भी था। उस परिचय में लिखा था:
"पच्चीस वर्षीय सोमा वीर शाहजहांपुर में अपने परिवार के कामधंधों के बीच भी कहानियाँ लिखने के लिए भी कैसे समय निकाल लेती हैं इसके पीछे एक मनोरंजक घटना छिपी है। सातवीं क्लास में एक प्रसिद्ध लेखक की कहानी पढ़ने के बाद जब आप ने कहा कि ऐसी कहानी तो मैं भी लिख सकती हूँ तो आप के भाई ने व्यंग किया था: "पुस्तकें पढ़-पढ़ कर यदि दो-चार विचार मस्तिष्क में उभर भी आयें तो क्या! तुम्हें कहानी लिखने का सिर-पैर भी नहीं आता।"
तभी से सोमा वीर ने उच्चतम शिक्षा प्राप्त करने की ठान ली और प्रेमचंद व शरत जैसे महान लेखकों की कृतियों का अध्ययन करने लगीं। शिक्षा तो दसवीं से ज़्यादा न प्राप्त कर सकीं - विवाह हो गया - पर उच्चतम हिंदी साहित्य का अध्ययन चलता रहा। कुछ कहानियाँ लिखीं जो प्रकाशित न हुईं। उन्हें फाड़ कर फैंक दिया। निराशा हुई पर साहस नहीं छोड़ा। सरिता के नये अंकुर स्तम्भ में जब पहली बार कहानी छपी तो साहस बढ़ा। एक-दो कहानियाँ और भी छपीं, पाठकों ने उनका स्वागत किया। भाषा मंजती गई, विचार परिपक्व होते गये। आगे भी लिखते रहने का साहस बढ़ गया। इसी अंक में एक कहानी "ढहती कगारें" प्रकाशित हुई है। शीघ्र ही एक कहानी संग्रह भी प्रकाशित होने वाला है।"
सोमा वीरा की जीवन यात्रा
आत्माराम एण्ड संस द्वारा १९६२ में प्रकाशित "धरती की बेटी" की भूमिका प्रसिद्ध हिंदी लेखक विष्णु प्रभाकर ने लिखी थी और यह किताब वीरा जी ने अपने पिता को समर्पित करते हुए लिखा था - "महामना पिता श्री श्यामलाल को, जिनके युगान्तकारी विचारों ने मेरे व्यक्तित्व के 'अहम्' को जन्म दिया"।
अपनी भूमिका में प्रभाकर जी ने लिखा था, "सोमा बहन हार मानने में विश्वास नहीं करतीं। वह चुनौती को स्वीकार करती हैं। उनकी लेखनी में जीने की तीव्र आकांक्षा है। इसलिए वह प्रहार करती हैं ... वह कई वर्षों से अमरीका में अध्ययन कर रही हैं। उनका जीवन संघर्षों के बीच से गुज़रा है। अपने पैरों पर खड़े हो कर उन्होंने अंधकार के बीच से राह बनाई है।"
उनकी जीवन-यात्रा क्या थी, मुझे नहीं मालूम, मैं अटकलें ही लगा सकता हूँ। जुलाई १९५८ में जब सरिता में उनकी कहानी छपी थी, तब वह शाहजहांपुर में रहती थीं और १९६२ में जब उनका कहानी-संग्रह छपा तब वह "कुछ वर्षों से" अमरीका में पढ़ रही थीं। १९५८ में वह "दसवीं पास" ग्रहणी थीं तो अमरीका में पढ़ने कैसे गईं?
शायद उनके पति अमरीका में पढ़ने गये थे और वहाँ जा कर उन्होंने हाई स्कूल पूरा किया, फ़िर विश्वविद्यालय में पढ़ीं? और साईन्स फिक्शन के विषय पर लेखन की ओर वह कब व कैसे गईं?
अंत में
अपने प्रिय लेखकों के बारे में जानना-समझना सभी को अच्छा लगता है। जब खोई हुई जानकारी मिल जाये तो और भी खुशी होती है। बहुत साल पहले पूर्णिमा जी की ईमेल ने मेरे मन में जो जिज्ञासा जगाई थी, संयोगवश अब उसके कुछ उत्तर मिल गये। क्या जाने कि उनके परिवार का कोई सदस्य इस आलेख को पढ़ कर उनके बारे में और जानकारी साझा करे!