"जब उससे पूछा गया कि इंजीनियर ही क्यों और कोई पेशा क्यों नहीं तो उसका जवाब था-इंजीनियर इसलिये बनना चाहती हूं ताकि मैं ऐसी मशीने और औजार बना सकूं जो किसी को अपाहिज न बनायें।"एक बात मेरे दुस्वपनों में बहुत सालों से आती है और में भी यही प्रश्न पूछना चाहता हूँ कि ऐसी मशीने और औज़ार जिनसे लोग अपाहिज न हों क्यों नहीं बना सकते हम? शायद इस बात पर पहले भी कुछ लिख चुका हूँ और स्वयं को दोहरा रहा हूँ, तो इसके लिऐ क्षमा चाहता हूँ.
बात है 1977-78 की जब मैं दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में ओर्थोपीडिक्स (orthopaedics) यानी हड्डियों के विभाग में काम कर रहा था. हाऊससर्जन होने का मतलब होता कि 36 घँटों तक लगातार ड्यूटी करो. तब फसल की कटाई के दिनों में कटे हाथों का मौसम आता था. बिजली की कमी की वजह से ग्रामीण क्षत्रों में बिजली केवल रात को दी जाती और चारे को या फसल को मशीन में काटने का काम जवान युवकों का होता. चारे को मशीन में घुसाते समय अगर नींद में होते तो साथ ही उनका हाथ भी भीतर चला जाता. कटे हाथों वाले पहले युवक करीब रात को दस बजे के आसपास आने शुरु होते और सुबह तक आते.
रात की ड्यूटी पर एक वरिष्ठ रेजिडेंट होता, कुछ स्नातकोत्तर छात्र होते और दो हाऊससर्जन. हममें से हाथ जोड़ने का काम, माँसपेशियों को साथ जोड़ कर हाथ को ठीक करना वरिष्ठ रेज़ीडेंट या किसी स्नातकोत्तर छात्र को ही आता था, हम कम अनुभव वाले लोगों को हाथ काटना आता था. हाथ जोड़ने के काम में तीन चार घँटे लगते, हाथ काटना एक घँटे से कम में हो जाता. सुबह हमारी ड्यूटी समाप्त होने से पहले, रात में आये सब मरीजों का काम जाने से पहले समाप्त करना हमारी जिम्मेदारी थी.
इन सब बातों का अर्थ यह होता कि पहले आने वाले एक या दो युवकों को हाथ जोड़ने के लिए रखा जाता, जिसके लिए वरिष्ठ रेज़ीडेंट सारी रात काम करते. उसके बाद में आने वाले अधिकतर लोगों के हाथ काटने पड़ते.
हाथ कटने के बाद, घाव भरने में बहुत दिन नहीं लगते, और कुछ दिन की पट्टी के बाद उन्हें घर भेज दिया जाता. जिनके हाथ जोड़े जाते थे, उनकी हड्डियों और माँसपेशियों को जोड़ कर उसे ढकने के लिए चमड़ी पेट से ली जाती, इसलिए उनका हाथ कुछ सप्ताह के लिए पेट से जोड़ दिया जाता. यह लोग महीनों अस्पताल में दाखिल रहते और रोज़ पट्टी की जाती. कई साल तक फिसियोथेरेपी आदि के बाद भी हाथ बिल्कुल ठीक तो नहीं होते थे, अकड़े, टेढ़े मेढ़े रह जाते थे. रात को ओप्रेशन थियेटर में काम करके, सुबह मेरा काम होता था वार्ड में भरती लोगों की पट्टियाँ करना. दर्द से चिल्लाते लोगों की आवाज़े देर तक मेरे दिमाग में घूमती रहतीं. हर नाईट ड्यूटी में नये लोग भरती होते और आधा वार्ड इन्हीं लोगों से भरा रहता था.
बहुत गुस्सा आता था कि क्या यह मशीने बदली नहीं जा सकतीं? क्या करें यह लोग, जिन्हे रात भर इस तरह का खतरनाक काम करना पड़ता है? कितने सारे तो 13 या 14 साल के बच्चे होते थे. सोचता था कि अखबारें यह बात क्यों नहीं छापतीं? खैर ओर्थोपीडिक में मेरे दिन बीते और मैं उस वातावरण से दूर हो गया. फ़िर 1991 या 1992 की बात है. एक मीटिंग में दिल्ली के एक ओर्थोपीडिक सर्जन से बात हुई. वह बोले कि फसल की कटाई के दिनों में तब भी वही मशीनें, वही कटे हाथों का सिलसिला चलता था. गरीब किसानों की तकलीफ थी, किसी को क्या परवाह होती! मालूम नहीं कि तीस साल के बाद आज क्या हाल है? इतने सारे समाचार चैनल बने हैं जो बेसिर पैर की बातों में समय गवाँते हैं, अगर आज भी यह हो रहा है तो शायद वह इस बात को उठा सकते हैं?
****
पिछले कुछ माह से पैर में घूमने के पहिये लगे हैं जो रुकते ही नहीं. एक जगह से आओ और दूसरी जगह जाओ, बीच में रुक कर कुछ सोचने लिखने का भी समय नहीं मिलता. जो लोग पूछते हें कि इन दिनों मैं कम क्यों लिख रहा हूँ, यही कारण है उसका. आज मुझे फ़िर नयी यात्रा पर निकलना है, पश्चिमी अफ्रीका की ओर.