कुछ दिन पहले इंटरनेट पर अँग्रेज़ी के अखबार हिन्दुस्तान टाईमस् पर सुप्रतीक चक्रवर्ती की लिखी नयी फ़िल्म "अजब ग़ज़ब लव" की आलोचना पढ़ रहा था तो एक वाक्य पढ़ते पढ़ते रुक गया. उन्होंने लिखा था "अब तो बोलीवुड का समझ लेना चाहिये कि सचमुच के जीवन में शेव किये हुए बिना दाढ़ी वाले पर सिर पगड़ी पहनने वाले सिख नहीं होते". मन में आया कि अगर सचमुच के जीवन में इस तरह के सिख नहीं होते तो इन फ़िल्मों को देख कर होने लगेंगे.
यानि कभी कभी मुझे लगता है कि इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि सचमुच के जीवन में कुछ होता है या नहीं, अगर फ़िल्मों में दिखने लगेगा, तो धीरे धीरे सचमुच के जीवन में भी होने लगता है. वैसे तो पिछले कई वर्षों में पत्रिकाओं में पढ़ा था कि पंजाब में बहुत से सिख नवयुवक सिर के बाल और दाढ़ी कटा रहे हैं. यह भी पढ़ा था कि कुछ सिख संस्थाओं ने सिर पर पगड़ी कैसे बाँधते हैं इसकी कक्षाएँ चलानी शुरु की हैं, क्योंकि बहुत से नवयुवक पगड़ी बाँधना ही नहीं जानते. इसके साथ यह भी सच है कि सिख धर्मियों में भी विभिन्न गुट हैं और उनमें से कुछ गुट जैसे कि नानकपंथी गुट, बाल और दाढ़ी नहीं बढ़ाते. इस सब की वजह से मुझे लगता है कि आम जीवन में बिना दाढ़ी वाले, लेकिन किसी विषेश अवसर पर पगड़ी पहनने वाले सिख भी हो सकते हैं. इसके बारे में पंजाब में रहने वाले लोग बता सकते हें कि यह होता है या नहीं?
इस बात पर सोचते हुए मन में फिल्मों के जीवन पर होने वाले प्रभाव की बात आयी. आज की स्थिति के बारे में उतना नहीं जानता, हाँ जब मैं किशोर हो रहा था उस समय की याद है.
जब 1960 में "लव इन शिमला" में साधना माथे पर सीधे कटे हुए बालों के साथ आयी थी तो सचमुच के जीवन पर उसका तुरंत प्रभाव पड़ा था, साधना कट बालों की ऐसी धूम चली थी कि छोटी बड़ी हर उम्र की लड़कियाँ उसी अन्दाज़ में बाल बनाती थीं. आज पचास साल बाद भी मेरी उम्र के लोग उस अन्दाज़ को साधना कट के नाम से ही जानते हैं.
कुछ वर्षों के बाद जब राजेश खन्ना, "बहारों के सपने" और "आनन्द" जैसी फ़िल्मों में नीचे जीन्स और ऊपर कुर्ता पहन कर आये तो हम सब नवयुवकों को नयी पोशाक मिल गयी और आज भी जब भी जीन्स पर कुर्ता पहनूँ तो कभी कभी अपने लड़कपन के राजेश खन्ना के प्रति दीवानेपन की याद आ जाती है. राजेश खन्ना ने ही "कटी पतंग" फ़िल्म में "थेंक्यू" के उत्तर में "मेन्शन नाट" कहा था तो आधे भारत को मुस्करा कर कुछ कहने वाले अंग्रेज़ी शब्द मिल गये थे. अमिताभ बच्चन जैसे बाल और जया भादुड़ी जैसे ब्लाउज़ भी अपने समय में बहुत छाये थे.
1975 में "जय सँतोषी माँ" फ़िल्म आयी तो अचानक कई जगह संतोषी माँ के मन्दिर बनने और दिखने लगे और एक ऐसी देवी जिसका नाम नहीं जानते थे, अचानक प्रसिद्ध हो गयी थी.
अगर विवाह के रीति रिवाज़ों के बारे में सोचे, या फ़िर करवाचौथ जैसे पाराम्परिक त्योहारों के बारे में, तो मेरे विचार में पिछले दो दशकों में सूरज बड़जात्या, करन जौहर और यश चोपड़ा जैसे फिल्म निर्देशकों की फ़िल्मों ने उत्तरी भारत के मध्यम वर्ग पर बहुत प्रभाव डाला है. मेहँदी और संगीत के रीति रिवाज़ों को जिस तरह से इनकी फ़िल्मों से मान्यता और बढ़ावा मिला उसका प्रभाव छोटे बड़े शहरों में दिखता है. विवाह के समय पर दुल्हन स्वयं नाचे, यह भी फ़िल्मों का ही प्रभाव लगता है.
कुछ अन्य प्रभाव पड़ा है कि बढ़ते बाज़ारवाद, मोबाईल टेलीफ़ोन और फेसबुक या गूगल प्लस जैसे सोशल नेटवर्कों से. बाज़ारवाद का प्रभाव है कि बेचने के लिए कोई न कोई बहाना होना चाहिये. वह भी अगर अंग्रेज़ी में कहा जा सके तो उसका प्रभाव और भी बढ़िया होगा. यानि "वेलेन्टाईन डे" हो या "मदर्स डे" या "फादर्स डे" या "फ्रैंडशिप डे", बेचने के कार्यक्रम शुरु हो जाते हैं. फ़िल्मों में इनके लिए कोई गाने या दृश्य बन जाते हैं. मोबाईल से एसएमएस भेजिये या फेसबुक, गूगल प्लस से सबको ग्रीटिँग भेजिये, बस आप बिना मेहनत के आधुनिक हो गये.
इन सब बातों को सोच कर ही बेचने वाली कम्पनियाँ फ़िल्मों में पैसा लगाती हैं ताकि हीरो उनके पेय की बोतल पीता दिखाया जाये, या हीरोइन उनकी कम्पनी के स्कूटर को चलाये या उनकी टूथपेस्ट से दाँत ब्रश करें. इतना पैसा लगाने वाली कम्पनियाँ जानती हैं कि इन दृश्यों का प्रभाव देखने वालों पर पड़ेगा और उनकी बिक्री बढ़ेगी.
यह प्रभाव केवल भारत में ही पड़ा हो यह बात नहीं. चीन में विवाह के समय पर लोगों को अधिकतर पश्चिमी तरीके की विवाह की पौशाक पहने देखा है, यानि वधु को सफ़ेद रंग का पश्चिमी गाउन पहनाते हैं, जबकि उनकी पाराम्परिक पौशाक लाल रंग की होती थी. चीन में बहुत से लोगों को अपने चीनी नामों के साथ साथ, पश्चिमी नामों के साथ भी देखा है जोकि इसलिए रखे जाते हैं ताकि विदेशी लोगों को उन्हें बुलाने में आसानी हो. इसमें से कितना प्रभाव विदेशी फ़िल्मों की वजह से है, यह नहीं कह सकता.
मुझे लगता है कि इस विषय पर मेरी जानकारी कुछ पुरानी हो गयी है. आजकल भारत के विभिन्न प्रदेशों में फ़िल्मों का सामान्य जीवन पर क्या प्रभाव पड़ा है, आप इसके बारे में क्या सोचते हैं और क्या इसके कुछ उदाहरण दे सकते हैं?
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यानि कभी कभी मुझे लगता है कि इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि सचमुच के जीवन में कुछ होता है या नहीं, अगर फ़िल्मों में दिखने लगेगा, तो धीरे धीरे सचमुच के जीवन में भी होने लगता है. वैसे तो पिछले कई वर्षों में पत्रिकाओं में पढ़ा था कि पंजाब में बहुत से सिख नवयुवक सिर के बाल और दाढ़ी कटा रहे हैं. यह भी पढ़ा था कि कुछ सिख संस्थाओं ने सिर पर पगड़ी कैसे बाँधते हैं इसकी कक्षाएँ चलानी शुरु की हैं, क्योंकि बहुत से नवयुवक पगड़ी बाँधना ही नहीं जानते. इसके साथ यह भी सच है कि सिख धर्मियों में भी विभिन्न गुट हैं और उनमें से कुछ गुट जैसे कि नानकपंथी गुट, बाल और दाढ़ी नहीं बढ़ाते. इस सब की वजह से मुझे लगता है कि आम जीवन में बिना दाढ़ी वाले, लेकिन किसी विषेश अवसर पर पगड़ी पहनने वाले सिख भी हो सकते हैं. इसके बारे में पंजाब में रहने वाले लोग बता सकते हें कि यह होता है या नहीं?
इस बात पर सोचते हुए मन में फिल्मों के जीवन पर होने वाले प्रभाव की बात आयी. आज की स्थिति के बारे में उतना नहीं जानता, हाँ जब मैं किशोर हो रहा था उस समय की याद है.
जब 1960 में "लव इन शिमला" में साधना माथे पर सीधे कटे हुए बालों के साथ आयी थी तो सचमुच के जीवन पर उसका तुरंत प्रभाव पड़ा था, साधना कट बालों की ऐसी धूम चली थी कि छोटी बड़ी हर उम्र की लड़कियाँ उसी अन्दाज़ में बाल बनाती थीं. आज पचास साल बाद भी मेरी उम्र के लोग उस अन्दाज़ को साधना कट के नाम से ही जानते हैं.
कुछ वर्षों के बाद जब राजेश खन्ना, "बहारों के सपने" और "आनन्द" जैसी फ़िल्मों में नीचे जीन्स और ऊपर कुर्ता पहन कर आये तो हम सब नवयुवकों को नयी पोशाक मिल गयी और आज भी जब भी जीन्स पर कुर्ता पहनूँ तो कभी कभी अपने लड़कपन के राजेश खन्ना के प्रति दीवानेपन की याद आ जाती है. राजेश खन्ना ने ही "कटी पतंग" फ़िल्म में "थेंक्यू" के उत्तर में "मेन्शन नाट" कहा था तो आधे भारत को मुस्करा कर कुछ कहने वाले अंग्रेज़ी शब्द मिल गये थे. अमिताभ बच्चन जैसे बाल और जया भादुड़ी जैसे ब्लाउज़ भी अपने समय में बहुत छाये थे.
1975 में "जय सँतोषी माँ" फ़िल्म आयी तो अचानक कई जगह संतोषी माँ के मन्दिर बनने और दिखने लगे और एक ऐसी देवी जिसका नाम नहीं जानते थे, अचानक प्रसिद्ध हो गयी थी.
अगर विवाह के रीति रिवाज़ों के बारे में सोचे, या फ़िर करवाचौथ जैसे पाराम्परिक त्योहारों के बारे में, तो मेरे विचार में पिछले दो दशकों में सूरज बड़जात्या, करन जौहर और यश चोपड़ा जैसे फिल्म निर्देशकों की फ़िल्मों ने उत्तरी भारत के मध्यम वर्ग पर बहुत प्रभाव डाला है. मेहँदी और संगीत के रीति रिवाज़ों को जिस तरह से इनकी फ़िल्मों से मान्यता और बढ़ावा मिला उसका प्रभाव छोटे बड़े शहरों में दिखता है. विवाह के समय पर दुल्हन स्वयं नाचे, यह भी फ़िल्मों का ही प्रभाव लगता है.
कुछ अन्य प्रभाव पड़ा है कि बढ़ते बाज़ारवाद, मोबाईल टेलीफ़ोन और फेसबुक या गूगल प्लस जैसे सोशल नेटवर्कों से. बाज़ारवाद का प्रभाव है कि बेचने के लिए कोई न कोई बहाना होना चाहिये. वह भी अगर अंग्रेज़ी में कहा जा सके तो उसका प्रभाव और भी बढ़िया होगा. यानि "वेलेन्टाईन डे" हो या "मदर्स डे" या "फादर्स डे" या "फ्रैंडशिप डे", बेचने के कार्यक्रम शुरु हो जाते हैं. फ़िल्मों में इनके लिए कोई गाने या दृश्य बन जाते हैं. मोबाईल से एसएमएस भेजिये या फेसबुक, गूगल प्लस से सबको ग्रीटिँग भेजिये, बस आप बिना मेहनत के आधुनिक हो गये.
इन सब बातों को सोच कर ही बेचने वाली कम्पनियाँ फ़िल्मों में पैसा लगाती हैं ताकि हीरो उनके पेय की बोतल पीता दिखाया जाये, या हीरोइन उनकी कम्पनी के स्कूटर को चलाये या उनकी टूथपेस्ट से दाँत ब्रश करें. इतना पैसा लगाने वाली कम्पनियाँ जानती हैं कि इन दृश्यों का प्रभाव देखने वालों पर पड़ेगा और उनकी बिक्री बढ़ेगी.
यह प्रभाव केवल भारत में ही पड़ा हो यह बात नहीं. चीन में विवाह के समय पर लोगों को अधिकतर पश्चिमी तरीके की विवाह की पौशाक पहने देखा है, यानि वधु को सफ़ेद रंग का पश्चिमी गाउन पहनाते हैं, जबकि उनकी पाराम्परिक पौशाक लाल रंग की होती थी. चीन में बहुत से लोगों को अपने चीनी नामों के साथ साथ, पश्चिमी नामों के साथ भी देखा है जोकि इसलिए रखे जाते हैं ताकि विदेशी लोगों को उन्हें बुलाने में आसानी हो. इसमें से कितना प्रभाव विदेशी फ़िल्मों की वजह से है, यह नहीं कह सकता.
मुझे लगता है कि इस विषय पर मेरी जानकारी कुछ पुरानी हो गयी है. आजकल भारत के विभिन्न प्रदेशों में फ़िल्मों का सामान्य जीवन पर क्या प्रभाव पड़ा है, आप इसके बारे में क्या सोचते हैं और क्या इसके कुछ उदाहरण दे सकते हैं?
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