शनिवार, अगस्त 06, 2005

लोकारनो में मंगल पांडे

स्विटज़रलैंड तीन भाषाओं का देश है. देश के एक हिस्से में बोलते हैं फ्रांसिसी भाषा, दूसरे में जर्मन और तीसरे में इतालवी. लोकारनो का शहर इतालवी भाषा क्षेत्र में आता है जहाँ दो दिन पहले लोकारनो फिल्म फैस्टीवल प्रारम्भ हुआ और पहले दिन की फिल्म थी केतन मेहता की "मंगल पांडे". इस अवसर पर वहाँ के इतालवी भाषी टेलीविजन ने फिल्म निर्देशक और आमिर खान से साक्षातकार तो दिखाये ही, फिल्म के कई दृश्य भी दिखाये. उस पूरे समाचार को अगर आप चाहें तो यहाँ क्लिक कर के देख सकते हैं (उस पन्ने पर सबसे नीचे SFI1 का एक लिंक है उसमें ३ अगस्त की लिंक पर क्लिक कीजिये. रियल मीडिया की फोरमेट है. पहले इस फिल्म समारोह की एक सदस्य का साक्षातकार है, अगर उसे न देखना चाहें तो माउस की मदद से आप क्लिप को आगे बढा सकते हैं. फिल्म के बारे में पूरा समाचार, करीब दस मिनट का है और इतालवी भाषा में है केवल फिल्म के दृश्यों को नहीं डब किया गया है.)

ईस्वामी ने अपने ब्लाग में एक नये सर्च इंजन "सीक" के बारे में आज़माने की सलाह दी है, जिसके बारे में कहते हैं कि शायद यह गूगल से भी बेहतर है. बेहतर है या घटिया यह तो समय ही बतायेगा पर आजंमाने में बढिया लगा. गूगल से ही जुड़ी एक और बात है जिसकी कुछ चर्चा यूरोप में हो रही है. कहते हैं कि गूगल विभिन्न विश्वविद्यालयों से सम्पर्क कर के उनकी सभी पुस्तकों और दस्तावेज़ों को डिजिटल रुप में बदल रहा है और उनका उद्देश्य है कि कम से कम डेढ करोड़ पुस्तकें इस तरह अंतरजाल पर उपलब्ध करादें. इस बात से यूरोप के कुछ देशों में चिंता हो रही है कि एक बार फ़िर इस तरह से अंग्रेज़ी में लिखी किताबों को ही प्रमुखता मिलेगी और यूरोपीय भाषाँए पीछे रह जायेंगी. इसलिये फ्राँस, इटली आदि देशों ने एक नया समझोता किया है, अपनी भाषाओं की पुस्तकों को डिजिटल रुप में अंतरजाल पर उपलब्ध कराने के लिए. गूगल के इस पुस्तक संग्रह में हिंदी की किताबों को क्या कोई जगह भी मिलेगी ?

आज की तस्वीरें दक्षिण अफ्रीका से, उस जेल की जहाँ नेलसन मंडेला १८ वर्ष तक कैद रहे. इस जेल में ही मेरा परिचय हुआ एउजेनियो से, जो केवल सोलह वर्ष का था जब जेल में कैद हो कर आया था. उसकी सुनायी जेल जीवन की कहानियों ने मेरे रौंगटे खड़े कर दिये थे. ऊपर वाली तस्वीर में एउजेनियों जेल के बारे में समझा रहा हैं.

शुक्रवार, अगस्त 05, 2005

गाँधी जी और कम्प्यूटर

पिछले दिनों इटली की टेलीफोन कम्पनी "टेलीकोम" का यहाँ के टेलीविजन पर नया विज्ञापन आया जिसने कुछ हलचल सी मचा दी है और उसके बारे में बहुत सी बहसे हुई हैं.

विज्ञापन के शुरु का दृश्य है कि गाँधी जी धीरे धीरे चल कर अपनी कुटिया की ओर जा रहे हैं. कुटिया में वह पालथी मार कर बैठ जाते हैं और बोलना शुरु करते हैं.

गाँधी जी के सामने एक वेबकैम उनकी वीडियो तस्वीर ले कर उसे सारी दुनिया में दिखा रहा है. फिर दिखाते हैं कि सारी दुनिया में लोग गाँधी जी की बात को सुन और देख रहे हैं. न्यू योर्क और क्रैमलिन में विशालकाय पर्दों पर, इटली और चीन में मोबाईल टेलीफोन पर, अफ्रीका में रेगिस्तान में एक कम्प्यूटर पर. विज्ञापन के अंत में यह वाक्य उभरते हैं "अगर सारी दुनिया ने यह संदेश सुना होता तो आज यह दुनिया कैसी होती ?"

इस विज्ञापन में गाँधी जी को अंग्रेज़ी में बोलते दिखाया गया हैं. 2 अप्रैल 1947 को दिल्ली में दिया गये उनका यह भाषण "एशिया में आपसी संबध" नाम की अंतरराष्ट्रीय सभा में दिया गया था. जो अंश विज्ञपन में दिया गया है उसमें गाँधी जी कहते हैं "अगर आप दुनिया को कोई संदेश देना चाहते हैं तो प्रेम का संदेश दीजिये, सत्य का संदेश दीजिये. मैं आप के दिलों से माँग कर रहा हूँ. अपने दिलों की धड़कनों को मेरे शब्दों के साथ एक हो कर बजने दीजिये. एक मित्र ने मुझसे पूछा कि क्या मैं "एक दुनिया" की बात में विश्वास करता हूँ? यह कैसे हो सकता है कि मैं "एक दुनिया" के सिद्धांत से अलग कुछ और सोचूँ? मैं "एक दुनिया" में विश्वास करता हूँ."

विज्ञापन के बारे में कई सारी बहसे हो रही हैं.

एक बहस तो यह कि अगर गाँधी जी का संदेश अहिंसा का संदेश था तो फिर इस विज्ञापन को बनाने का काम होलीवुड के प्रसिद्ध निर्देशक स्पाईक ली को क्यों सौंपा गया जिन्होंने "मैलकोम एक्स" जैसी हिंसावादी फिल्में बनायी हैं?

दूसरी बहस यह है कि गाँधी जी तो उपभोक्तावादी (कोनस्यूमिस्टिक) संस्कृति के खिलाफ़ थे. इसलिए उनकी छवि और शब्दों को एक विज्ञापन में कम्प्यूटर और टेलीफोन बेचने के लिए उपयोग करना उनका अपमान करना हैं.

तीसरी बहस है इस विज्ञापन के संदेश की, जो कहता है कि अगर इस दुनिया के लोगों ने गाँधी जी की बातें सुनी होती तो शायद आज यह दुनिया भिन्न होती. लोग कहते हैं कि अगर गाँधी जी को स्वयं बन्दूक की गोली से मरना पड़ा तो उनके शब्द सुनने मात्र से दुनिया में हो रही हिंसा को कैसे रुकती?

इस बहस में आप कुछ भी कहिये या सोचिये, यह तो मानना ही पड़ेगा कि यह विज्ञापन बहुत सुंदर है. अगर आप इसे देखना चाहें तो यहाँ देख सकते हैं.



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गुरुवार, अगस्त 04, 2005

बंदर के बच्चे सा शहर

दो दिन के लिए काम से कोरतोना गया. कोरतोना एक छोटा सा शहर है रोम से करीब १०० किलोमीटर उत्तर में. कुछ अजीब सा नाम लगता है मुझे कोरतोना. "कोरता" का इतालवी भाषा में अर्थ है "छोटी". इतालवी भाषा में अगर आप किसी शब्द के साथ "ओना" जोड़ देते हैं तो उसका अर्थ होता है "बड़ी" या "मोटी". उस हिसाब से कोरताना का अर्थ हुआ "छोटी बड़ी" या "छोटी मोटी".

पूरे यूरोप में ऐसे कई शहर हैं जो मध्यम युग (तेहरंवी से सोलहंवी शताब्दी का युग) में पहाड़ियों पर किले की तरह बनाये गये थे ताकि बाहर से कोई हमला न कर सके. इटली में रोम से फ्लोरेंस के रास्ते में सड़के के दोनो तरफ ऐसे कई पुराने शहर हैं जहाँ पर ३००-४०० वर्ष पहले के घर, सड़कें इत्यादि सब कुछ अपने पुराने रुप में अभी भी बिल्कुल वैसे ही हैं. बहुत से ऐसे शहर आज भारत के फतह पुर सीकरी की तरह खाली शहर हैं जहाँ कोई नहीं रहता अब.

कोरतोना भी ऐसा ही शहर है, फर्क सिर्फ इतना है इस शहरवासियों को अपने शहर में देशी विदेशी पर्यटकों को घूमने के लिए बुलाने में सफलता मिली है, इसलिए यह शहर अभी भी आबाद है, खाली नहीं हुआ. जब कार से पहाड़ी के पास पहुँचो तो लगता है जैसे पहाड़ी के ऊपर बने घर पहाड़ी के कोने से कभी भी नीचे लुड़क सकते हैं. जाने क्यों उन घरों को देख कर मन में माँ के पेट से चिपके हुए बंदर के बच्चों की छवि उभर आती है. पहाड़ी के उपर पहुँच कर भी ऐसा ही लगता है, जैसे माँ के पेट से चिपका बच्चा हो जिसकी माँ पेड़ों के शाखाओं में, एक शाखा से दूसरी शाखा पर कूद रही हो. जिधर देखो घरों के बीच में से, पत्तों के बीच में से नीचे की वादी झलकती नजंर आती है.

नेपच्यून की मूर्ती का किस्सा अभी समाप्त नहीं हुआ लगता है. सुमात्रा से राजेश पूछते हैं कि क्या मूर्ती का क्लोसअप नहीं दिखा सकते. मेरे ख्याल से राजेश शायद शिवभक्त्त हैं इसलिए ऐसा पूछ रहे हैं. लगता है इस बार इतवार को इस मूर्ती की कुछ तस्वीरे लेने जाना ही पड़ेगा.

कुछ दिनों से कोई कविता नहीं प्रस्तुत की तो लीजिये आज महादेवी वर्मा की एक कविता की कुछ पंक्त्तियाँ:


"बीन भी हूँ तुम्हारी रागिनी भी हुँ.
नींद थी मेरी अचल निस्पंद कण कण में,
प्रथम जागृति थी जगत के प्रथम स्पंदन में.
प्रलय में मेरा पता पदचिन्ह जीवन में,
शाप हूँ जो बन गया वरदान बंधन में.
कूल हूँ मैं कूलहीन प्रवाहिनी भी हूँ."

आज की दो तस्वीरे हैं कोरतोना की.

मंगलवार, अगस्त 02, 2005

हँस कर कही बात

कुछ समय पहले फ्राँस में जनमत (रेफेरेंडम) हुआ था यूरोपीय संविधान के बारे में. इसमे जीत हुई संविधान को न कहने वालों की. जनमत से पहले कई हफ्तों तक बहुत बहस हुई फ्राँस में, यूरोप के बारे में. उनका सोचना था कि पूर्वी यूरोप में पोलैंड, हंगरी, रोमानिया, स्लोवाकिया जैसे देशों से गरीब यूरोपी लोग पश्चिम यूरोप के अधिक अमीर देशों में आ कर मुसीबत कर देंगे. कई बार उदाहरण देने के लिए कहा गया कि पोलैंड के कम पैसों में नल और पाईप ठीक करने वाले फ्राँस में आ कर फ्राँस वासियों से काम छीन लेंगे.

उस समय तो पोलैंड वालो ने अपने बारे में ऐसी बातें सुन कर कुछ नहीं कहा पर कुछ सप्ताह पहले वहाँ के पर्यटक विभाग ने इस बात पर एक नया इश्तहार निकाला जो नीचे प्रस्तुत है. इसमें नल ठीक करने वाले कपड़े पहना एक युवक कहता है "मैं तो पोलैंड में ही रहूँगा, आप भी यहाँ आईये".

बजाये गुस्सा हो कर लड़ाई करने के, इस तरह से हँस कर चुटकी ले कर अपनी बात समझाना कँही बहतर है.

अनूप ने परसों के ब्लाग में तुरंत टिप्पड़ी की कि बिना मूर्ती की तस्वीर के उसके बारे में बात करना अधूरा है. क्या करता, पास में उस मूर्ती की कोई फोटो नहीं थी. आज इंटरनैट से खोजी इस मूर्ती की एक तस्वीर प्रस्तुत है. १५६५ में बनी यह मूर्ती जानबोलोनिय ने बनायी थी, जिन्हें बोलोनिया के लोग प्यार से जानबोलोनिया कहते हैं और मूर्ती को प्यार से "फोरकेतोने" यानि बड़े फोर्क वाला (हाथ में पकड़ा त्रिशूल, फोर्क जैसा ही है) कहते हैं.



पोलैंड का बदला
बोलोनिया की नैपच्यून की मूर्ती

सोमवार, अगस्त 01, 2005

मारको पाओलीनी के नाटक

रात को "बोलोनिया इस्ताते" (ग्रीष्म ऋतु समारोह) के दौरान मारको पाओलीनी का नाटक देखने गया. पाओलीनी विषेश किस्म के कलाकार हैं. खुद लिखते हैं अपने नाटक, जिनमें वह स्वयं ही गाते, नाचते और बोलते हैं, अकेले. स्टेज पर उनके साथ केवल संगीतकार होते हैं. एक अन्य खासियत है उनकी कि सभी नाटक किसी न किसी आजकल की समस्या के बारे में होते हैं.

कुछ वर्ष पहले उनका एक नाटक इटली में हुई वेइयोन बाँध दुर्घटना पर देखा था तब से उनका प्रशंसक हो गया हूँ. दो घंटे के इस नाटक में उन्होंने सरकारी भर्ष्टाचार और लापरवाही के कच्चे पक्के चिट्ठे खोले थे, पहले बाँध के बनने के बारे में, फिर दुर्घटना की चेतावनियों को न सुनने के बारे में और फ़िर दुर्घटना से प्रभावित परिवारों के बारे में. एक अन्य नाटक था उनका भोपाल की गैस दुर्घटना के बारे में. उनके कई नाटक इतालवी टेलीविज़न के वेबपेज पर देखे जा सकते हैं पर सभी इतालवी भाषा में हैं.
कल रात के उनके नाटक का विषय था पानी और उसे प्राईवेट कम्पनियों को बेचने की कोशिश. नाटक खुली जगह पर हो रहा था, वह भी निशुल्क. इतनी भीड़ की घबराहट हो जाये. अधिकतर जवान लड़के लड़कियाँ थे जिनके बारे में अक्सर कहते हैं कि इन्हें आजकल की समस्याओं से कोइ दिलचस्पी नहीं है और ये केवल समय बिताने और आवारागर्दी की सोचते हैं. पाओलीनी का बात को कहने का अंदाज़ भिन्न है. वह रोना नहीं रोते, कहानियाँ सुनाते हैं. हँसते और हँसाते हैं और जब आप हँस हँस के बेहाल हो रहे हों तब अचानक हठौड़े की तरह कठोर शब्दों से अपनी बात कहते हैं. कल रात भी उनके नाटक में बार बार तालियों की गड़गड़ाहट गूँजती रही. (ऊपर तस्वीर में मारको पाओलीनी, कल रात को)

कल रिजु वापस चला गया. सुबह उसे बोलोनिया की पुरानी बंदरगाह दिखाने ले गया था. उसके बिना घर कुछ सूना सूना सा लगता है. अपने कम्प्यूटर से उसने परिवार की कई तस्वीरे दीं हैं. कुछ तस्वीरे प्रीता भाभी और सृष्टी की भी हैं जिनसे अभी तक नहीं मिल पाया हूँ, पर कम से कम अब उनको तस्वीरों में तो देखा !


बेलापहाड़ में विधु दादा, प्रीता भाभी और सृष्टी

रिजु बोलोनया में हम सब के साथ

रविवार, जुलाई 31, 2005

भूले हुए शहर

आज शाम को रिजु वापस जर्मनी चला जायेगा. आज सुबह, अगर वह जल्दी उठ जाये तो उसे बोलोनिया के पुराने बंदरगाह को दिखाने का वायदा किया है. समुद्र तट से १०० किलोमीटर दूर बोलोनिया में बंदरगाह भी होगा, कोई सोचता नहीं है.

बोलोनिया की नगर पालिका शहर के इतिहास के बारे में यहाँ के नागरिकों को बताने के लिए अक्सर "रिस्कोपरीरे बोलोनिया" यानि "बोलोनिया को फ़िर से जानिये" नाम से शहर के साईकल टूर की योजना करती है. जो लोग इसमे भाग लेना चाहें वे अपनी साइकल ले कर सुबह शहर के किसी भाग में मिलते हैं और शहर के बड़े बूढे इतिहासकारों की मदद से अपने शहर के इतिहास की छोटी बड़ी घटनाओं के बारे में जान पाते हैं.

ऐसे ही एक टूर में मैंने जाना कि बोलोनिया कभी नहरों के जाल से भरा शहर था. इन्हीं नहरों से आयी थी बोलोनिया की समृद्धी जब करीब चार सौ साल पहले बोलोनिया का सिल्क सारे विश्व में मशहूर था. तब शहर के बीचों बीच एक नहर पर बंदरगाह था जहाँ जहाज़ आते थे और यहाँ से सिल्क ले कर सारे संसार में जाते थे. फ़िर धीरे धीरे समय के बदलने के साथ इन नहरों और बंदरगाह की भूमिका बदलती गयी, उनका उपयोग कम होता गया और उन नहरों के ऊपर सड़कें बनती गयीं. आज बहुत से लोग नहीं जानते कि शहर के नीचे एक भूला हुआ शहर है, नहरों का शहर. बस कोई कोई जगह ही बची है जहाँ उस पुराने शहर के हिस्से दिख सकते हैं, पर वे भी इतनी आसानी से नहीं दिखते. पुरानी गलियों के पीछे, झाड़ झँखाड़ से ढके, इस अतीत को देखने के लिए, रास्ता ढूँढना आसान नहीं है.

जाने और कितने भूले हुए शहर होंगे, पुरानी दिल्ली की गलियों के पीछे, मुम्बई और बंगलौर के नये गगनचुम्बी भवनों के पीछे ?

बोलोनिया अपनी सहनशीलता और खुले विचारों के लिए भी प्रसिद्ध है, पर विभिन्न देशों से आये भिन्न सभ्यताओं के लोगों के विचारों की वजह से क्या यह सब बदल जायेगा ? इसके बात के दो उदाहरण. पहला यह कि यहीं पर खुला था इटली का सबसे पहला गै और लेसबियन सेंटर, यानि समलैंगिक जीवन के बारे में खुल कर बात करने का स्थान. पुरानी बंदरगाह के "सालारा" यानि नमक के गोदाम के प्राचीन और भव्य भवन में बना यह सेंटर अपने रेस्टोरेंट तथा डिस्को के लिए बहुत मशहूर है. दूसरा उदाहरण है कि शहर के बीच में लगी है नेपच्यून देवता की नंगी मूर्ती. सोलहवीं शताब्दी में बनी इस मूर्ती के बारे में कहा गया था कि यह अश्लील है और इसे शहर के बीच में नहीं लगा सकते और लोगों की राय माँगी गयी. लोगों ने कहा कि मूर्ती शहर के बीच में ही लगनी चाहिये. फ़िर भी शीलता अश्लीलता के बारे में चिंतित कुछ लोगों ने कहा कि मूर्ती के "अश्लील" भागों को ढक देना चाहिये, क्योंकि "यह बच्चों और औरतों के लिए ठीक नहीं है". पर जब बोलोनिया के लोगों की राय माँगी गयी तो उन्होंने मूर्ती के किसी भी भाग को ढकने से इन्कार कर दिया.


कुछ समय पहले एक बंगलादेशी माँस बेचने की दुकान वाले ने माँग की थी कि उनकी साथ की दुकान, जहाँ जाँघिये, तैरने के कपड़े इत्यादि मिलते हैं, से कहा जाये कि ऐसे भद्दे वस्त्र वे दुकान की शोविन्डो में न रखें. उनका कहना है कि ऐसे कपड़े बेशर्मी की निशानी हैं और उन्हें देख कर माँस की दुकान पर आने वाले ग्राहकों को परेशानी होती है. जब इन साहब का टेलीविज़न पर साक्षात्कार लिया गया तो वह समझ नहीं पा रहे थे कि उनकी माँग पर इतना हल्ला क्यों हो रहा है. बोले, "ऐसे कम कपड़े पहनना क्या स्त्रियों को शोभा देता है ?"

आज की दो तस्वीरे बोलोनिया के जीवन पर गै प्राइड के जलूस की एक झाँकी और सड़क के संगीतकार.

शनिवार, जुलाई 30, 2005

सतही सामानतायें और नफरत की जड़ें

हम लोग वेनिस में घूम रहे थे. मुख्य रास्ते को छोड़ कर घरों के बीच हम लोग उस वेनिस में पहुँच गये जहाँ थोड़े ही पर्यटक पहुँचते हैं. चलते चलते आ पहुँचे वेनिस के पुराने गेटो यानि उस भाग में जहाँ ज्यू रहते थे. खुले चकोर स्क्वायर में एक नल लगा हुआ था. सामने एक घर की बालकनी फ़ूलों के बोझ से दबी जा रही थी. तब तक सूरज आसमान में जोर शोर से चमक रहा था और हम लोग गरमी से पस्त हो रहे थे. नल देख कर तुरंत फुर्ती से बढ़े, हाथ मुँह पानी से भिगोने और ठंडा पानी पीने. तभी एक कमरे की खिड़की पर एक युवक प्रकट हुआ जो हमारी तरफ देख रहा था. दो पुलीस वाले भी आ गये जो हमें देख रहे थे. तुरंत कारण समझ में आ गया, रिजु कुरता जो पहने था. ज्यू कोलोनी में अनजानी पोशाक में लड़के को देख कर उन सब का चिंतित होना स्वाभाविक ही था. जाने कोई कट्टरपंथी हो जो कोई बम वगैरा फौड़ने की सोच रहा हो ! उसके बाद हम लोग वहाँ अधिक नहीं रुके.

कुर्ते को देख कर अक्सर ऐसा ही होता है. पिछले हफ्ते एक्वाडोर में जलूस के समय मैंने एक लम्बा नीले रंग का कुर्ता पहना था, गले में ढोलक थी और मैं बिना सुर और ताल की परवाह किये मस्त हो कर उसे बजा रहा था, जब दो व्यक्तियों को अपनी तरफ घूर कर बातें करते देखा. फ़िर उनमें से एक मेरे पास आया और पूछने लगा कि क्या मैं पाकिस्तानी हूँ, मेरे सिर हिलाने पर बोला कि तब तो मैं अवश्य अफगानी हूँ. चाहे उस समय तो मैंने मुस्कुरा कर कह दिया कि नहीं मैं भारतीय हूँ पर मन में कुछ खटक सी रह गयी. उनका यह सोचना कि मैं पाकिस्तानी या अफगानी हूँ मुझे अच्छा नहीं लगा.

शेनोय रिडिफ डाट काम पर अपने लेख में लिखते हैं कि आजकल लंदन में पाकिस्तानी होना बुरा है. स्वयं को लोगों के शक से बचाने के लिए उन्हें लोगों को कहना पड़ा कि वह भारतीय हैं और हिंदू हैं. किस को कहते फ़िरेंगे हम कि हम यह या वह नहीं हैं ? गले में तख्ती लगा लेंगे ? या क्या हम लोग अब अपने आप को अन्य लोगों से भिन्न साबित करने के लिए धोती पहनें या कोई और नयी पोशाक बनायेंगे अपनी ? जब अमरीकी गुंडे बिन लादन के धर्म का समझ कर एक सिख पैट्रोल पम्प के मालिक को मार सकते हैं, क्या उन्हें हमारे भिन्न देशों, सभ्याताओं और धर्मों का पता भी है ?

मेरी मौसी का परिवार पश्चिम बंगाल में पछले पचास सालों से रहता है. जब भारत की प्रधानमंत्री श्रीमति इंदिरा गाँधी का खून हुआ तो दिल्ली में तो सिख परिवारों पर हमले हुए ही, उनके एक बेटे पर भी हमला हुआ. बाँध कर ज़िंदा जलाने लगे थे उसे, जिसकी दहशत उसके मन में सालों तक बनी रही. वह चिल्लाता रहा कि वह सिख नहीं है पर किसी को उसकी बात सुनने में दिलचस्पी नहीं थी.

अगर शक और डर का वातावरण बनेगा तो इसमे हम सबका नुक्सान है. कट्टरपंथी और इस्लाम की जोड़ी बना कर उन्हें एक सोचना ठीक नहीं है, यह मालूम है मुझे. आधा बचपन मैंने अपने पड़ोसी साजिद भाई के परिवार के साथ बिताया है. जब दिल्ली में दंगे हुए थे तो माँ ने उन्हें कहा था कि आप लोग चिंता न करें, आप लोग हमारे यहाँ आ जाईये, कोई कुछ नहीं कर सकता. पर कल शाम को घर के पास बाग में जब कुत्ते को घुमा रहा था, पाँच लोगो को कोने वाले मकान से निकलते देखा. उनमें से एक को जानता हूँ, रहमान, बँगलादेश से है. सफेद तहमद, सफेद कुर्ता, सिर पर सफेद टोपी. सभी की एक जैसी पोशाक. शायद जुम्में की नमाज के बाद निकल रहे थे. उन्हें इस तरह इक्ट्ठे देख कर मन में कुछ भय सा हुआ. जल्दी से आगे निकल गया, इससे पहले कि रहमान मेरी तरफ देख कर मुस्कुराता या सलाम करने के लिए हाथ उठाता.

(कल के ब्लाग में अर्चना वर्मा की जिस कविता "सौख" का एक अंश दिया था, उसे आप पूरा पढ सकते हैं कल्पनापर.)

वेनिस के ज्यू गेटो में पुलिसवाला

एक्वाडोर में कुर्ता यानि पाकिस्तानी या अफगानी ?

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