शनिवार, अगस्त 20, 2005

त्रुल्लीप्रदेश के त्रुल्लो

इटली के दक्षिण पूर्व में है पूलिया राज्य जहाँ की राजधानी है बारी. करीब ही ब्रिन्देसी का प्रसिद्ध बंदरगाह है. इसी राज्य में कुछ छोटे छोटे शहर हैं, एक वादी के आसपास, जिन्हें "तैर्रा देई त्रुल्ली" यानि के त्रुल्लीप्रदेश कहा जाता है. यह नाम यहाँ के पारमपरिक घरों की बजह से है क्योंकि इन घरों को त्रुल्लो कहते है (एक घर त्रुल्लो और अनेक हों तो त्रुल्ली).

यह घर वहाँ के आसपास पाये जाने वाले एक विषेश तूफो पत्थर से, जो कि लाइमस्टोन जैसा पत्थर है, बनाते हैं और इन घरों को बनाने की कला करीब दो हजार साल पुरानी है. पत्थरों को खूबी से काट कर ऐसे एक के साथ दूसरा रखा जाता है कि बिना रेता या सीमेंट के पूरा त्रुल्लो बस सिर्फ पत्थरों से ही बनता है. घरों का विशिष्ट आकार ऐसा है कि धूँआ और गर्मी दोनो से ही बचाता है.

पाओलो, मेरे मित्र और इस यात्रा में मेरे साथी, कहते हैं कि त्रुल्लों को बनाने की कला अब धीरे धीरे लुप्त हो रही है. किसके पास इतना समय है कि पत्थर काट कर धीरे धीरे अपने लिए यह घर बनाये. इसलिये इस्तरिया की वादी में लोग त्रुल्लियां तोड़ कर साधारण घर बना रहे हैं.

लेकिन इस कला को खोने से बचाने के लिए आ पहुँचे हैं बाहर के लोग, जो यहाँ पुराने त्रुल्लों को खरीद कर, उन्हें अन्दर से आधुनिक घरों की तरह सब सुविधाओं से भर देते हैं पर बाहर से घर का
कुछ पारमपरिक रुप बनाये रखते हैं, और इन घरों का छुट्टियों में इस्तमाल करते हैं.

आज की तस्वीरें में देखिये इस्तरिया वादी के आधुनिक त्रुल्लों को और मेरे मित्र पाओलो को.


शुक्रवार, अगस्त 19, 2005

बेतुके शीर्षक का रहस्य

कल सुबह हड़बड़ी में लिखा था चिट्ठा, इसलिए गड़बड़ हो गयी. चिट्ठे का शीर्षक लिखा "कैसे आऊँ पिया के नगर" पर उसमें बातें कम्प्यूटर, मोडम, सर्वर और कुत्तों की थीं, पिया के नगर का कोई नामोनिशान ही नहीं था. शायद ऐसा होने का कारण है कि कुछ सोच कर शीर्षक लिखता हूँ कि आज का चिट्ठा इस बारे में होगा, पर फिर जब लिखने लगता हूँ तो विचार कभी कभी किसी अन्य दिशा में चले जाते हैं. अगर हड़बड़ी न हो, तो अंत में कोई नया शीर्षक ढ़ूंढ़ा जाता है और चिट्ठा तैयार हो जाता है.

पर क्या सब बात केवल हड़बड़ी की थी ? अगर आप मनोविज्ञान जानते हैं तो समझ गये होंगे कि जल्दबाजी में की हुई गलती में मन की छुपी हुई बातें भी कई बार निकल कर आ सकती हैं. अगर इस दृष्टि से देखें तो इस शीर्षक से सपष्ट समझ में आता है कि शादीशुदा होने के वावजूद मेरी कहीं कोई छिपी हुई प्रेमिका है जिससे मैं मिलने को बेताब था. क्या खयाल है आप का ? या फिर इस शीर्षक में भक्त्ती भाव भी ढ़ूंढ़ा जा सकता है जैसे मन्नाडे जी के गीत "लागा चुनरी में दाग, छुपाऊँ कैसे" में था. यानी कि जिस "पिया" से मैं मिलने को बेचैन हूँ, वह इश्वर है. राम नाम सत्य!

कुछ वर्ष पहले मैंने एक कोर्स किया था कि कैसे हाथ कि लिखाई से लिखने वाले के व्यक्तित्व को समझें. यानी आप अगर कागज़ के दाहिने हाशिये की तरफ खाली जगह छोड़ देते हैं तो इसका अर्थ है कि आप को भविष्य से डर है और आप उसका सामना नहीं करना चाहते. अगर आप बायें हाशिये पर जगह छोड़ देते हैं तो आप अपने बीते हुए कल से भागने के चक्कर में हैं. अगर बिना लाइन के कागज पर आप सीधा एक लकीर में लिखते हैं तो, आप में भयंकर आत्मसंयम है, अगर शब्द ऊपर की ओर जा रहे हैं तो आप आशावादी हैं और अगर शब्द नीचे जा रहे हैं तो निराशावादी. इस कला के विशेषज्ञ तो केवल हाथ की लिखाई से पहचान लेते हैं कि आप असली खूनी हैं या नहीं. अगर आप सोचते हैं कि मैं यूँ ही लम्बी हाँक रहा हूँ तो पढ़िये इस बारे में. अमरीका में लिखाई विशेषज्ञ की गवाही कानून में भी स्वीकार की जाती है.

मेरे इस चिट्ठे से तो आप समझ ही गये होंगे कि मुझमें भयंकर आत्मसंयम है. तो इन कम्प्यूटर, एस एम एस, आदि की दुनिया में यह विशेषज्ञ शायद बेकार हो रहे होंगे ? नहीं, अब यह देखते हैं कि आप कौन सा फौंट इस्तेमाल करते हैं, छोटा फौंट पसंद करते हैं या बड़ा, इत्यादि. अगर आप यूनीफौंट में विश्वास रखते हैं तो आप प्रगतिवादी हैं ...

अगर आप के पास कोई नये विचार हों कि कैसे चिट्ठे से उसके लिखने वाले की बेवकूफी को मापा जाये तो मुझसे संपर्क करें. तब तक, आज की तस्वीरों से आप यह समझने की कोशिश कीजिये कि मैंने इन्हें क्यों चुना ?


गुरुवार, अगस्त 18, 2005

कैसे आऊँ पिया के नगर?

सोचा है कि अगर घर पर ही हूँ तो प्रतिदिन चिट्ठे में कुछ न कुछ तो अवश्य लिखने की कोशिश करनी चाहिये. इसलिए सुबह उठते ही पहला काम होता है कम्प्यूटर जी का बटन दबाना और कुछ देर तक सोचना कि क्या लिखा जाये. पर कभी कभी इसमें कुछ अड़चन भी आ सकती हैं, जैसे आज सुबह पाया कि मोडम जी को कुछ परेशानी थी और हमारे अंतरजाल के सर्वर जी उन्हें अपने से जुड़ने की अनुमति ही नहीं दे रहे थे.

शुरु शुरु में तो थोड़ी मायूसी हुई. फिर सोचा कि भाई आज अगर चिट्ठे से छुट्टी है तो कुछ और काम ही किया जाये. कई काम पिछले दिनों से रुके थे क्योंकि हमें चिट्ठा लिखने से ही फुरसत नहीं थी. कुछ देर काम किया फिर सोचा क्यों न काम पर जाने से पहले, कुत्ते को ही घुमा लाया जाये, इससे पत्नि जिसे कमर का दर्द हो रहा है, उसे कुछ आराम ही मिलेगा. अच्छा ही हुआ कि आज इसने हमें छुट्टी दे दी सोचते हुए हमने कहा बस एक बार और कोशिश कर के देख लेते हैं, शायद सर्वर जी का मिजाज़ अब ठीक हो गया हो. और यूँ ही हुआ.

बस हो गयी मुश्किल. क्या करें हम, आप ही कहिये ? अब हमें अपने कुत्ते के साथ सैर को जाना चाहिये या यहाँ बैठ कर चिट्ठा लिखना चाहिये ? दोनो काम तो हो नहीं सकते क्योंकि काम पर भी तो जाना है.

शाम को बेटे को डाँट रहा था. सारा दिन इस कम्प्यूटर के सामने. कुछ बाहर जाओ, छोड़ो इस मिथ्या दुनिया के मोह को, सच्ची दुनिया में जीना सीखो. बच्चों को उपदेश देना आसान है पर आप क्या सोचते हैं, क्या फैसला किया मैंने ?

आज की तस्वीर, कल रात को निकला चाँद.

बुधवार, अगस्त 17, 2005

दे दाता के नाम

इटली की सड़कों पर कुछ नये भिखारी आये हैं. पूर्वी यूरोप से आये इन भिखारियों के बारे में अखबार में निकला था कि इन्हें बसों द्वारा हर सप्ताह लाया जाता है और हर सप्ताह नये लोग आते हैं, भीख मांगने. काम पर जाते समय एक चौराहे पर आजकल एक जवान महिला दिखती हैं भीख मांगते हुए. करीब २५ या २६ वर्ष की उम्र होगी, सुनहरे बाल और सुंदर चेहरा. कल वे गुलाबी और सफेद धारियों वाली टी शर्ट और नीचे कसी हुई जीनस् पहने थीं. देख कर लगा कि अगर इन्हें दिल्ली के भिखारी देख लें तो कभी माने ही न कि यह भी भिखारी हैं.

आम तौर पर मैं पैशेवर भिखारियों को कुछ नहीं देना चाहता पर कैसे मालूम चले कि कौन पैशेवर है और कौन मुसीबत का मारा, जिसे सचमुच जरुरत है ? रेल के डिब्बे में अक्सर नवजवान युवक और युवतियां यह कह कर पैसे मांगते हैं कि उनका पर्स खो गया है और वह घर जाने का किराया इकट्ठा कर रहे हैं. डर लगता है कि शायद यह नशे के लिए पैसे जमा कर रहे हों. पर शायद कभी कभी उनमें कोई सचमुच ऐसा भी होगा जिसका पर्स खो गया हो ? कुछ वर्ष पहले, एक बार रेल में चढ़ने के बाद मैंने पाया कि जल्दी में अपना पर्स घर ही छोड़ आया था. उस दिन डर डर कर बिना टिकट ही यात्रा की और फिर जान पहचान के किसी से पैसे मांगे, घर वापस जाने के लिए. इसलिए लगता है कि अगर कोई बेझिझक, बिना शर्म के पैसे मांग रहा हो तो अवश्य ही पैशेवर भिखारी होगा.

कभी कभी पैशेवर भिखारियों पर भी दया आ जाती है. बोलोनिया रेलवे स्टेशन पर कुछ साल पहले तक एक वृद्ध इतालवी महिला दिखती थीं. उन्हें कई मैं रेलवे स्टेशन के रेस्टोरेंट में खाना खिलाने ले गया. उन पर दया इस लिए आती थी क्योंकि उन्हें देख कर मुझे अपनी दादी की याद आ जाती थी.

आप ने अगर नोबल पुरस्कार विजेता मिस्र के लेखक नगीब महफूज़ की किताब "मिदाक गली" पढ़ी हो तो भिखारियों को देखने का तरीका ही बदल जाता है. इस किताब में उन्होंने पैशेवर भिखारियों की दुनिया का बहुत अच्छा विवरण दिया है.

कभी कभी लगता है कि भीख मांगना भी एक काम है, अन्य कामों के सहारे. समृद्ध यूरोपीय जीवन में, वयस्त जीवनों में कभी कभी बहुत सूनापन सा लगता है. अनीता देसाई ने अपनी पुस्तक "फास्टिंग, फीस्टिंग" में उपभोक्तावादी जीवन के सूनेपन को बखूबी दिखाया है. इस सूनेपन में किसी भिखारी को पैसे दे कर लगता है कि हाँ हम भी अभी मानव है, दूसरों का दर्द महसूस कर सकते हैं.

आज की तस्वीर में मुम्बई में काम करने वाली डा. उषा नायर की (बीच में हरे कुर्ते में). यह तस्वीर चीता कैम्प स्लम से है. उनके दाहिने ओर हैं उनकी दो साथी, बीबीजान और वहां के पुजारी की बेटी, वसंती. यह तस्वीर मैंने इस लिए चुनी क्योंकि, गरीबी केवल भीख नहीं, विकास की इच्छा भी हो सकती है जिसमें बिना हिंदु मुसलमान के भेद के, हम साथ काम भी कर सकते हैं.

मंगलवार, अगस्त 16, 2005

पतझड़ के बसंती रंग

कल की बारिश से थोड़ी सर्दी आ गयी है. सुबह खिड़की से बाहर देखा तो सामने मेपल के पेड़ के पीले होते पत्ते दिखायी दिये. मन कुछ उदास हो गया. शामें भी छोटी होने लगीं हैं. जून में रात दस बजे तक सूरज की रोशनी रहती थी पर अब तो ८ बजते बजते अँधेरा सा होने लगता है. कुछ ही दिनों में, पेड़ों के सारे पत्ते पीले या लाल हो कर झड़ जायेंगे.

पतझड़ के रंग बसंत के रंगों से कम नहीं होते. घर के नीचे एक बाग है जहाँ होर्स चेस्टनट, मेपल, पलेन, इत्यादि के पेड़ हैं, सभी रंग बदल कर लाल पीले पत्तों से ढ़क जाते हैं, जिन्हें हवा के झोंके गिरा देते हैं. जमीन पर गिरे इन पीले या भुरे पत्तों पर चलना मुझे बहुत अच्छा लगता है. पतझड़ के इन रंगों से दिल्ली के बसंत की याद आती है जब सड़क के दोनों ओर लगे अमलतास और गुलमोहर खिलते हैं और लगता है कि पेड़ों में आग लगी है.

रंग बदलने में मेपल के पेड़ जैसा शायद कोई अन्य पेड़ नहीं. इन पेड़ों से ढ़की बोलोनिया के आस पास की पहाड़ियाँ बहुत मनोरम लगती हैं. अमरीका और कनाडा में मेपल के पेड़ के रस के साथ पेनकेक खाने का चलन है. कुछ कड़वा सा, कुछ शहद जैसा, यह रस मुझे अच्छा नहीं लगता पर बहुत से लोग इसे पसंद करते हैं. इटली के मेपल उन अमरीकी मेपल से भिन्न हैं, और इनमें से कोई रस नहीं निकलता.

मेपल को हिंदी में क्या कहते हैं ? लिखते लिखते ही शब्दकोश में देखने गया तो पाया कि इसे हिंदी में द्विफ़ल कहते हैं. शायद इसके बीजों की बजह से ? छोटा सा हवाई ज़हाज लगते हैं इसके बीज. बीच में दो उभरे हुए इमली के बीज जैसी गाँठें और उनसे जुड़े दो पँख.

आज की तस्वीरें हैं समुद्री चीड़ों की, जिनके पत्ते पतझड़ में भी यूँ ही हरे रहते हैं.

सोमवार, अगस्त 15, 2005

पहेलीः लोक कथा और सामाजिक सच्चाईयां

अगर आप समाज की किसी बात से सहमत नहीं हैं तो आप बात लोक कथाओं या लोक गीतों से कह सकते हैं. ऐसा ही कुछ अभिप्राय था मानुषी की संपादक मधु किश्वर का जिन्होंने अपने एक लेख में, गाँव की औरतों का अपने जीवन की विषमताओं का वर्णन और विरोध रामायण से जुड़े गीतों के माध्यम से करने, के बारे में लिखा था. अमोल पालेकर की निर्देशित "पहेली" देखी तो यही बात याद आ गयी.

क्योंकि "पहेली" भूत की बात करती है, एक लोक कथा के माध्यम से, इसलिए शायद अपने समाज के बारें कड़वे सच भी आसानी से कह जाती है और संस्कृति के तथाकथित रक्षकों को पत्थर या तलवारें उठा कर खड़े होने का मौका नहीं मिलता. फिल्म की नायिका, पति के जाने के बाद स्वेच्छा से परपुरुष को स्वीकार करती है और जब पति वापस आता है तो वह उसे कहती है कि वह परपुरुष को ही चाहती है. फिल्म की कहानी ऐसे बनी है कि पिता का आज्ञाकारी पुत्र ही खलनायक सा दिखायी देता है. यही कमाल है इस फिल्म का कि लोगों की सुहानभूती विवाहित नायिका और उसके प्रेमी की साथ बनती है, पति के साथ नहीं. सुंदर रंगों और मोहक संगीत से फिल्म देखने में बहुत अच्छी लगती है.

इस कहानी में अगर भूत की जगह हाड़ माँस का आदमी होता तो कहानी कुछ और ही हो जाती.

कल शाम को दुबाई से प्रसारित हम रेडियो सुनने लगा तो नुसरत फतह अली खान का गाया गीत "पाकिस्तान पाकिस्तान" सुन कर अच्छा नहीं लगा. कल उनका स्वतंत्रता दिवस था. ऐसा क्यों होता है कि जब रहमान जी "माँ तुझे सलाम" गायें तो अच्छा लगे और दूसरे "पाकिस्तान पाकिस्तान" गायें तो बुरा लगे ?

आज १५ अगस्त के अवसर पर, दो तस्वीरें फ़ूलों कीः


रविवार, अगस्त 14, 2005

छुट्टियों की थकान

छुट्टियों में मज़े उड़ाना कितना थका देता है. अभी तो इन तीन दिनों की छुट्टियों का केवल एक ही दिन बीता है पर अभी से थकान हो रही है. कल सारा दिन रिमिनी में बिताया. रिमिनी बोलोनिया के पूर्व में करीब १०० किलोमीटर पर स्थित है.

अगर आप इटली का नक्शा देखें तो सारा देश ही समुद्र तट से जुड़ा लगता है, पर पश्चिम समुद्र तट अधिक पथरीला है और रेत वाले बीच कहीं कहीं पर हैं. लेकिन, पूर्वी समुद्र तट, उत्तर में वेनिस से दक्षिण में बारी तक करीब एक हज़ार किलोमीटर तक रेत वाला बीच है, जहाँ समुद्र की लहरें अधिकतर शांत ही रहती हैं. इसलिए पूर्वी समुद्र तट छोटे छोटे शहरों से भरा है जहां गरमियों से पूरे उत्तरी यूरोप से पर्यटक छुट्टियां मनाने आते हैं.

रिमिनी को इन सब शहरों की रानी कहते हैं. महीन सफेद रेत वाले समुद्र तट के अतिरिक्त यहां छुट्टियों में मज़े करने के सभी साधन उपलब्ध हैं. सारी रात खुले रहने वाले डिस्को, सिनेमा, दुकाने, जलपार्क, थीमपार्क, डोलफिनारियम, और जाने क्या क्या. पूरा शहर एक मेला सा लगता है.

अगर आप कुछ और नहीं करना चाहते बस समुद्र तट पर ही आराम करना चाहते हैं, तो उसमें भी बहुत कुछ हैं करने और देखने के लिए. जगह जगह सुंदर लड़कियां आप को नाच सिखाने के लिए, संगीत की धुन पर कसरत करने को या खेलने के लिए प्रेरित करने के लिए नगरपालिका की तरफ से रखी गयीं हैं. पर शायद आप इस तरह समय बरबाद करने में विश्वास नहीं करते, बस आराम से आस पास देखना चाहते हैं ? हम समझ गये आप की बात. पिछले कुछ सालों से यहां समुद्र तट पर टोपलैस होने का फैशन है, इसलिए आस पास देखने का भी अपना आनन्द हैं. लगता है जैसे आप विश्वामित्र हों और मेनकांए आप की तपस्या को भंग करने की कोशिश कर हीं हों.

प्रस्तुत हैं दो तस्वीरें कल की रिमिनी यात्रा से.


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