दोपहर को कुछ और काम नहीं था तो साउथहाल की तरफ निकल गया. अगर भारत गये हुए कुछ समय हो गया हो तो, मुझे भारतीय और पाकिस्तानी मूल के लोगों से भरे साउथहाल में आना बहुत अच्छा लगता है. कुछ खरीदना न भी हो तो दूकानों में हिंदी में बातचीत करने को मिलती है. हलकी हलकी बारिश हो रही थी और मैं छतरी नहीं ले कर गया था इसलिए अधिक नहीं घूमा. सड़क के किनारे फुटपाथ पर करोल बाग की तरह लोगों ने सड़क को घेर रखा है, जहाँ हर तरफ से भारतीय संगीत सुनाई देता है. सड़क पर यातायात का बुरा हाल है और कई कारों से तेज स्वर में भारतीय संगीत ही आता है.
मुझे लगता है कि हम भारतीयों को गाड़ी में बैठ कर कहीं भी जाने की बहुत जल्दी होती है. लंदन में अगर आप सड़क पार करना चाहें तो अधिकतर पैदल पारपथ की धारियों के पास गाड़ियाँ अपने आप रुक जाती हैं जब कि भारतीय गाड़ी चलाने वाले इस नियम का पालन करने में कुछ कमजोर लगते हैं. मैंने साउथहाल से कुछ डीवीडी खरीदीं और एक भारतीय रेस्टोरेंट में खाना खाया और वापस होटल लौट आया. अभी रात को बहुत कागज़ देखने हैं, उनसे नींद भी जल्दी आ जायेगी.
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आज रात को सभा में आये सब लोग कोवेंट गार्डन में एक अफ्रीकी रेस्टोरेंट में खाना खाने गये. होटल से बस में बैठ कर चले. इन बीस सालों में जाने कितनी बार लंदन आया हूँ पर पहले कभी कोवेंट गार्डन नहीं गया था. जगह के नाम से मन में एक बाग की छवि थी लेकिन जब पहुँचे तो बहुत हैरानी हुई, आसपास बाग तो कोई नहीं था. कोवेंट गार्डन शहर के बीचों बीच सब्ज़ी और फ़ूलों की दूकानों की जगह है. वहाँ क्रिसमस के बाजारों और बच्चों के लगे खेलों से बहुत भीड़ भड़क्का था.
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दोपहर को सोचा कि हैमरस्मिथ के करीब जो थेम्स नदी बहती है, उसके किनारे सैर की जाये. नदी के किनारे सैर के लिए एक विषेश रास्ता बना है जो अधिकतर नदी के साथ साथ चलता है पर बीच में कई जगह घूम कर घरों के बीच पहुँच जाता है. घूमते घूमते कई मील दूर निकल गया. रास्ते में नदी के इलावा कई बाग भी देखे, एक में लड़के फुटबाल और अमरीकी सोक्कर खेल रहे थे. जब थक गया तो सोचा, बीच में से निकल कर सीधा वापस होटल पहुँच जाऊँगा पर बीच का रास्ता सीधा नहीं निकला. कुछ ही देर में घरों के बीच अनजान रास्तों पर खो गया था. बहुत देर तक सोचा कि किसी सी पूछूँ नहीं, पर जब दो घंटे के बाद भी समझ नहीं पा रहा था कि कहाँ आ गया, तो आखिर पूछना ही पड़ा. मालूम पड़ा जहाँ जाना था उसके बिल्कुल उल्टा आ गया था तो वापस आने के लिए बस लेनी पड़ी.
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अखबार में लिखा है कि कल लंदन से करीब ३० मील दूर पेट्रिल के बड़े भंडार में बहुत बड़ा विस्फोट हुआ और ७५ कि.मी. तक आसमान काले धूँए से भरा था. उसी से याद आया कि कल शाम को त्रफालगर स्कावयर में ओपेरा के भवन के पीछे बहुत काला घना बादल नज़र आ रहा था, शायद वह यही धूँआ था ? यहाँ तो हर बार कुछ न कुछ हो ही जाता है. मुझे तो घर वापस जाने की खुशी है!
प्रस्तुत हैं इसी यात्रा से दो तस्वीरें. अगर आप चाहें तो इस यात्रा की पूरी डायरी भी पढ़ सकते हैं.
मंगलवार, दिसंबर 13, 2005
सोमवार, दिसंबर 05, 2005
चिंडिया चमकेगी ?
कांग्रेस से आर्थिक विभाग के सदस्य जयराम रमेश ने अपनी नयी पुस्तक में एक नया शब्द बनाया है जो आने वाले सालों में शायद बहुत लोकप्रिय और जाना पहचाना बन जाये. यह शब्द है चिंडिया, यानि चीन और इंडिया को मिला कर नयी उभरती विश्व की महाशक्ति जिससे आज की विश्वशक्तियों, अमरीका, यूरोप, जापान को चिंता होने लगी है.
कहते हैं कि अभी कुछ दिन पहले जब चीन के प्रधान मंत्री भारत यात्रा पर आया थे तो उन्होंने कहा कि चीन विश्व का हार्डवेयर बादशाह बनेगा और भारत सोफ्टवेयर की रानी. एक शरीर की हड्डी और माँस पेशियाँ देगा और दूसरा उन्हे चलाने के लिए दिमाग. यानि, चीन और भारत का भविष्य एक दूसरे के विरुद्ध सोचना नहीं होना चाहिये, बल्कि उनके परस्पर संबंधों की प्रेरणा होनी चाहिये, भारतीय अर्धनारीश्वर या चीनी यिन और यांग, साथ मिल कर वह इतने मजबूत हो जायें कि उनके सामने कोई अन्य न टिक पाये.
इसी से विश्व महाशक्तियों के नीतिज्ञ इस समस्या का विवेचन कर रहे हें और इससे निपटने के मंसूबे बना रहे हैं. इतालवी पत्रिका लीमुस जो अंग्रेजी में भी इक पत्रिका निकालती है "हार्टलैंड", ने अपना एक पूरा अंक "चिंडिया" पर ही रखा है. चीनी इरादों के खिलाफ एक भारत और अमरीका की जोड़ी बनायी जाये का सुझाव बहुत लेखक और नीतिज्ञ देते हैं, विषेशकर अमरीका को. कहते हें कि भारत और अमरीका तो मनमोहन देसाई की फिल्म के बचपन में बिछुड़े अमर और एनथनी हैं जिन्हें अब मिल जाना चाहिये. दूसरी ओर कुछ लेख भारत और चीन के बीच बढ़ते राजनीतिक, अर्थिक संबंधों को देख कर कहते हें कि रुस के साथ मिल कर इन देशों ने अपना रास्ता अलग बनाना शुरु कर दिया है, और प्रगति और विकास की राह पर से इनका पीछे हटना कठिन है.
इस पत्रिका के विंडिया अंक को आप अंतरजाल पर मुफ्त पढ़ सकते हैं. अन्य लेखों के अतिरिक्त, मुझे इसमें श्री कें.पी एस.गिल का लेख जो सांप्रदायिक दंगो के ऊपर है, दिलचस्प लगा.
******
पिछले कुछ दिनों से मुझे ब्लागर.कोम पर संदेश और तस्वीर चढ़ाने में दिक्कत हो रही है. आज इसीलिए कोई तस्वीर नहीं जोड़ पाया. जाने क्या हो जाता है अचानक, बीच बीच में ! कल मुझे विदेश यात्रा पर ८ दिन के जाना है. शायद वापस आने तक यह ठीक हो जाये !
कहते हैं कि अभी कुछ दिन पहले जब चीन के प्रधान मंत्री भारत यात्रा पर आया थे तो उन्होंने कहा कि चीन विश्व का हार्डवेयर बादशाह बनेगा और भारत सोफ्टवेयर की रानी. एक शरीर की हड्डी और माँस पेशियाँ देगा और दूसरा उन्हे चलाने के लिए दिमाग. यानि, चीन और भारत का भविष्य एक दूसरे के विरुद्ध सोचना नहीं होना चाहिये, बल्कि उनके परस्पर संबंधों की प्रेरणा होनी चाहिये, भारतीय अर्धनारीश्वर या चीनी यिन और यांग, साथ मिल कर वह इतने मजबूत हो जायें कि उनके सामने कोई अन्य न टिक पाये.
इसी से विश्व महाशक्तियों के नीतिज्ञ इस समस्या का विवेचन कर रहे हें और इससे निपटने के मंसूबे बना रहे हैं. इतालवी पत्रिका लीमुस जो अंग्रेजी में भी इक पत्रिका निकालती है "हार्टलैंड", ने अपना एक पूरा अंक "चिंडिया" पर ही रखा है. चीनी इरादों के खिलाफ एक भारत और अमरीका की जोड़ी बनायी जाये का सुझाव बहुत लेखक और नीतिज्ञ देते हैं, विषेशकर अमरीका को. कहते हें कि भारत और अमरीका तो मनमोहन देसाई की फिल्म के बचपन में बिछुड़े अमर और एनथनी हैं जिन्हें अब मिल जाना चाहिये. दूसरी ओर कुछ लेख भारत और चीन के बीच बढ़ते राजनीतिक, अर्थिक संबंधों को देख कर कहते हें कि रुस के साथ मिल कर इन देशों ने अपना रास्ता अलग बनाना शुरु कर दिया है, और प्रगति और विकास की राह पर से इनका पीछे हटना कठिन है.
इस पत्रिका के विंडिया अंक को आप अंतरजाल पर मुफ्त पढ़ सकते हैं. अन्य लेखों के अतिरिक्त, मुझे इसमें श्री कें.पी एस.गिल का लेख जो सांप्रदायिक दंगो के ऊपर है, दिलचस्प लगा.
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पिछले कुछ दिनों से मुझे ब्लागर.कोम पर संदेश और तस्वीर चढ़ाने में दिक्कत हो रही है. आज इसीलिए कोई तस्वीर नहीं जोड़ पाया. जाने क्या हो जाता है अचानक, बीच बीच में ! कल मुझे विदेश यात्रा पर ८ दिन के जाना है. शायद वापस आने तक यह ठीक हो जाये !
गुरुवार, दिसंबर 01, 2005
साईकल छाप
मुझे अपनी पहली साईकल मिली जब मैं आठवीं कक्षा में पहुँचा. मेरा विद्यालय अंग्रेजों के जमाने का था. कहते थे कि अंग्रेजों के जमाने में सर्दियों में कक्षाएँ दिल्ली में लगतीं और गर्मियों में शिमला में. बिरला मंदिर से जुड़ा हुए विद्यालय का नाम ऐसा कि विद्यालय शब्द उस के साथ ठीक नहीं बैठता, हारकोर्ट बटलर स्कूल. अन्य विद्यालयों के बच्चे हमें छेड़ने के लिए बटलर यानि खानसामा बुलाते. श्रीमान बटलर जी १९१८ में उत्तरप्रदेश के राज्यपाल नियुक्त हुए थे और उनके नाम से कई संस्थाएँ बनी हैं. बेचारी हिंदी और बेचारा भारत वर्ष, आज से पचास पहले भी अंग्रेजी बोलने और कोनवेंट स्कूलों में पढ़ने का ही रोब था इसलिए जब किसी को स्कूल का नाम बताते, अच्छा असर पड़ता था.
खैर बात को वापस अपनी साईकल की ओर ले चलते हैं. मेरे सभी मित्रों के पास साईकल ही थी, एक साथ मिल कर पढ़ने और घूमने जाते. कितनी भी दूर क्यों न जाना हो, जब तक साईकल थी, कुछ अन्य चिंता नहीं होती थी. नयी दिल्ली की बहुत सी सड़कें जो आज दुगनी या तिगुनी चौड़ी हो कर भी, यातायात से नयी टथपेस्ट की तरह भरी रहती हैं, उस समय साईकलों पर घूमने के लिए बहुत अच्छीं थीं. न भीड़ भड़क्का, न यह डर कि तेज कार चलाने वाले आप को नीचे गिरा दें.
तब मन में कभी यह भाव नहीं आया कि साईकल चलाना हमारे सम्मान या शान को कम करता है. तब भी वेस्पा और लेम्बरेटा होते तो थे पर इतने कम कि उनके लिए लोगों में लालच नहीं बना था. स्कूल के बाद कोलिज जाना शुरु किया तो भी साईकल से ही जाते. पर जब कोलिज से निकले तो जमाना बदल चुका था. बजाज और चेतक जैसे स्कूटर बाजार में आ रहे थे. बहुत महीने पहले उनकी बुकिंग करानी पड़ती, तब जा कर मिलते. लगा जैसे अचानक साईकल चलाना हीन बन गया हो, गरीबी की निशानी, स्कूटर न खरीद पाने की निशानी. हमारी साईकल भी रख दी गयी और कुछ दिन खाली रहने के बाद, मां के विद्यालय का माली उसे ले गया.
कुछ और दस सालों के बाद दुनिया फिर बदली. बाजार में मारुती आयी थी और मध्यमवर्ग की आकांक्षाएँ और ऊपर बढ़ीं. गाड़ी होनी चाहिये साहब, वरना जीवन में क्या रुतबा है. हमारा बजाज भी गया और उसकी जगह आयी नयी मारुती. अब शायद दिल्ली जाऊँ तो साइकल पर चढ़ने की हिम्मत नहीं होगी. लगता है कि वहाँ का सबसे प्रमुख यातायात नियम है, "जिसका जोर उसी का अधिकार". शायद साइकल वाले भी पैदल चलने वालों पर धौंस जमाते हों, पर स्कूटर और कारों के सामने बेचारे साईकल वाले बहुत सावधान रहते हैं.
और आज इटली में ? नयी दुनिया और नये विचार. एक तरफ बढ़ता वजन और रक्तचाप, हर कोई यही सलाह देता है कि व्यायाम कीजिये और वजन कम कीजिये. दूसरी तरफ पर्यावरण प्रदूषण के बारे में जानकारी और समझ बढ़ी है. साईकल से बढ़िया इलाज क्या मिलता. गर्मियों में काम पर जाने के लिए साईकल पर ही जाता हूँ, आठ किलोमीटर का ही तो रास्ता है, जिसका बहुत सा भाग बागों और खेतों के बीच में गुजरता है. किसी लाल बत्ती पर एक के पीछे एक लगी गाड़ियों की कतार को देखता हूँ, हर गाड़ी में लोग गुस्से वाले चेहरे लिए बैठे होते हैं, तो मन को बहुत खुशी होती है, उनके बीच में से सीटी बजाते हुए गुजरते हुए फट से निकल जाने में ! साईकल छाप हूँ मैं और इसका गर्व है मुझे.
आज की तस्वीर भी बटलर स्कूल के साथियों की याद में.
खैर बात को वापस अपनी साईकल की ओर ले चलते हैं. मेरे सभी मित्रों के पास साईकल ही थी, एक साथ मिल कर पढ़ने और घूमने जाते. कितनी भी दूर क्यों न जाना हो, जब तक साईकल थी, कुछ अन्य चिंता नहीं होती थी. नयी दिल्ली की बहुत सी सड़कें जो आज दुगनी या तिगुनी चौड़ी हो कर भी, यातायात से नयी टथपेस्ट की तरह भरी रहती हैं, उस समय साईकलों पर घूमने के लिए बहुत अच्छीं थीं. न भीड़ भड़क्का, न यह डर कि तेज कार चलाने वाले आप को नीचे गिरा दें.
तब मन में कभी यह भाव नहीं आया कि साईकल चलाना हमारे सम्मान या शान को कम करता है. तब भी वेस्पा और लेम्बरेटा होते तो थे पर इतने कम कि उनके लिए लोगों में लालच नहीं बना था. स्कूल के बाद कोलिज जाना शुरु किया तो भी साईकल से ही जाते. पर जब कोलिज से निकले तो जमाना बदल चुका था. बजाज और चेतक जैसे स्कूटर बाजार में आ रहे थे. बहुत महीने पहले उनकी बुकिंग करानी पड़ती, तब जा कर मिलते. लगा जैसे अचानक साईकल चलाना हीन बन गया हो, गरीबी की निशानी, स्कूटर न खरीद पाने की निशानी. हमारी साईकल भी रख दी गयी और कुछ दिन खाली रहने के बाद, मां के विद्यालय का माली उसे ले गया.
कुछ और दस सालों के बाद दुनिया फिर बदली. बाजार में मारुती आयी थी और मध्यमवर्ग की आकांक्षाएँ और ऊपर बढ़ीं. गाड़ी होनी चाहिये साहब, वरना जीवन में क्या रुतबा है. हमारा बजाज भी गया और उसकी जगह आयी नयी मारुती. अब शायद दिल्ली जाऊँ तो साइकल पर चढ़ने की हिम्मत नहीं होगी. लगता है कि वहाँ का सबसे प्रमुख यातायात नियम है, "जिसका जोर उसी का अधिकार". शायद साइकल वाले भी पैदल चलने वालों पर धौंस जमाते हों, पर स्कूटर और कारों के सामने बेचारे साईकल वाले बहुत सावधान रहते हैं.
और आज इटली में ? नयी दुनिया और नये विचार. एक तरफ बढ़ता वजन और रक्तचाप, हर कोई यही सलाह देता है कि व्यायाम कीजिये और वजन कम कीजिये. दूसरी तरफ पर्यावरण प्रदूषण के बारे में जानकारी और समझ बढ़ी है. साईकल से बढ़िया इलाज क्या मिलता. गर्मियों में काम पर जाने के लिए साईकल पर ही जाता हूँ, आठ किलोमीटर का ही तो रास्ता है, जिसका बहुत सा भाग बागों और खेतों के बीच में गुजरता है. किसी लाल बत्ती पर एक के पीछे एक लगी गाड़ियों की कतार को देखता हूँ, हर गाड़ी में लोग गुस्से वाले चेहरे लिए बैठे होते हैं, तो मन को बहुत खुशी होती है, उनके बीच में से सीटी बजाते हुए गुजरते हुए फट से निकल जाने में ! साईकल छाप हूँ मैं और इसका गर्व है मुझे.
आज की तस्वीर भी बटलर स्कूल के साथियों की याद में.
बुधवार, नवंबर 30, 2005
मानव संबंध
रात को टीवी पर हम सब लोग एक इतालवी फिल्म देख रहे थे, "अब रोने के सिवाय क्या करें" (Non ci resta che piangere) जिसके प्रमुख कलाकार थे रोबेर्तो बेनिन्यी (Benigni) और मासिमो तरोईसी (Troisi). बेनिन्यी का नाम तो ओस्कर मिलने के बाद लोगों को कुछ मालूम है पर तरोईसी का नाम इटली के बाहर अधिकतर अनजाना है. तरोईसी का स्थान इतालवी सिनेमा में कुछ वैसा ही जैसे जेम्स डीन का अमरीकी सिनेमा. थोड़े से समय में जनप्रिय हो जाना और जवान उम्र में मृत्यु होना, इन दोनो बातें में इन दोनो अभिनेताओं का भाग्य एक जैसा था. तरोईसी की सबसे प्रसिद्ध, और मेरे विचार में सबसे सुंदर फिल्म थी "डाकिया" (Il postino).
रात की फिल्म में बेनिन्यी बने थे एक स्कूल के अध्यापक और तरोईसी थे स्कूल के अदना कर्मचारी जो स्कूल का गेट का ध्यान रखता है, पानी पिलाता है, इत्यादि. और फिल्म में दोनो बहुत पक्के मित्र दिखाये गये है. फिल्म देखते हुए मन में एक बात आयी कि भारत में विभिन्न स्तरों पर काम करने वाले लोगों में इस तरह की बराबरी और मित्रता होना बहुत कठिन है. अगर बचपन में मित्रता रही भी हो तो बड़े होने पर, स्तर बदलने के साथ दोस्ती भी बदल जाती है. यानि कृष्ण और सुदामा की दोस्ती की कहानी किताबों में ही हो सकती है, आम जीवन में नहीं ?
करीब ३५ साल पहले किशोरपन में एक बार एक अंग्रेजी किताब पढ़ी थी जिसमें एक प्रसिद्ध सर्जन का अस्पताल में काम करने वाली एक सफाई कर्मचारी से प्यार हो जाता है. तब पढ़ कर बहुत अजीब लगा था और विश्वास नहीं हुआ था. वह किताब आधी ही छोड़ दी थी, पूरी नहीं पढ़ी थी. आज मेरे मित्रों में से एक डाक्टर हें जो कि अपने विभाग के अध्यक्ष हैं और उनकी जीवनसंगिनी, मेरे आफिस में सफाई करती हैं. ऐसी बात भारत में आज भी सोचना असंभव ही लगता है.
क्यों है ऐसा ? क्यों हमारे मानव संबंध व्यक्ति से नहीं उसके वर्ण और वर्ग से बनते हैं ? मुझे लगता है कि आज शहरों में रहने वाले लोग वर्ण और जाति भेद से कम प्रभावित होते हैं पर अपने मित्र चुनते समय उसका पैसा, काम और जीवक स्तर अवश्य देखते हैं ? शायद भारत में शारीरिक काम को नीचा देखा जाता है क्योंकि ये काम "निम्न" वर्णों के लिऐ बने थे ?
*********
निर्मल वर्मा की किताब "चीड़ों पर चाँदनी" उनके १९६० के आसपास के उनके यूरोप निवास मे बारे में यात्रा संस्मरण हैं. इसमें उन्होंने बताया था कि आईसलैंड की भाषा में भी "संबंध" शब्द का बिलकुल वही उच्चारण और अर्थ है जो कि हिंदी में है.
इतालवी और हिंदी में भी कई शब्दों के स्वर और अर्थ कुछ कुछ मिलते हैं जैसे "मरना" और "मुओरे", "जवान" और "ज्योवाने", और इतालवी की व्याकरण के नियम संस्कृत से मिलते हैं. इसका कारण भारतीय और यूरोपीय भाषाओं के एक ही मूल से जन्म लेना है.
रमण जी, आज कल मैं सोचता कुछ हूँ और लिखता कुछ और. माफ कीजिये. लगता है अतुल के अमरीका आने वाले लेखों का मुझपे गहरा प्रभाव पड़ा है और इसीलिए उन्हीं का नाम लिख दिया!
आज दो तस्वीरें उत्तरी पूर्व अफ्रीका में इरित्रेया देश में एक यात्रा से.
रात की फिल्म में बेनिन्यी बने थे एक स्कूल के अध्यापक और तरोईसी थे स्कूल के अदना कर्मचारी जो स्कूल का गेट का ध्यान रखता है, पानी पिलाता है, इत्यादि. और फिल्म में दोनो बहुत पक्के मित्र दिखाये गये है. फिल्म देखते हुए मन में एक बात आयी कि भारत में विभिन्न स्तरों पर काम करने वाले लोगों में इस तरह की बराबरी और मित्रता होना बहुत कठिन है. अगर बचपन में मित्रता रही भी हो तो बड़े होने पर, स्तर बदलने के साथ दोस्ती भी बदल जाती है. यानि कृष्ण और सुदामा की दोस्ती की कहानी किताबों में ही हो सकती है, आम जीवन में नहीं ?
करीब ३५ साल पहले किशोरपन में एक बार एक अंग्रेजी किताब पढ़ी थी जिसमें एक प्रसिद्ध सर्जन का अस्पताल में काम करने वाली एक सफाई कर्मचारी से प्यार हो जाता है. तब पढ़ कर बहुत अजीब लगा था और विश्वास नहीं हुआ था. वह किताब आधी ही छोड़ दी थी, पूरी नहीं पढ़ी थी. आज मेरे मित्रों में से एक डाक्टर हें जो कि अपने विभाग के अध्यक्ष हैं और उनकी जीवनसंगिनी, मेरे आफिस में सफाई करती हैं. ऐसी बात भारत में आज भी सोचना असंभव ही लगता है.
क्यों है ऐसा ? क्यों हमारे मानव संबंध व्यक्ति से नहीं उसके वर्ण और वर्ग से बनते हैं ? मुझे लगता है कि आज शहरों में रहने वाले लोग वर्ण और जाति भेद से कम प्रभावित होते हैं पर अपने मित्र चुनते समय उसका पैसा, काम और जीवक स्तर अवश्य देखते हैं ? शायद भारत में शारीरिक काम को नीचा देखा जाता है क्योंकि ये काम "निम्न" वर्णों के लिऐ बने थे ?
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निर्मल वर्मा की किताब "चीड़ों पर चाँदनी" उनके १९६० के आसपास के उनके यूरोप निवास मे बारे में यात्रा संस्मरण हैं. इसमें उन्होंने बताया था कि आईसलैंड की भाषा में भी "संबंध" शब्द का बिलकुल वही उच्चारण और अर्थ है जो कि हिंदी में है.
इतालवी और हिंदी में भी कई शब्दों के स्वर और अर्थ कुछ कुछ मिलते हैं जैसे "मरना" और "मुओरे", "जवान" और "ज्योवाने", और इतालवी की व्याकरण के नियम संस्कृत से मिलते हैं. इसका कारण भारतीय और यूरोपीय भाषाओं के एक ही मूल से जन्म लेना है.
रमण जी, आज कल मैं सोचता कुछ हूँ और लिखता कुछ और. माफ कीजिये. लगता है अतुल के अमरीका आने वाले लेखों का मुझपे गहरा प्रभाव पड़ा है और इसीलिए उन्हीं का नाम लिख दिया!
आज दो तस्वीरें उत्तरी पूर्व अफ्रीका में इरित्रेया देश में एक यात्रा से.
मंगलवार, नवंबर 29, 2005
सही भाषा
हिंदी में कौन सा शब्द कैसे लिखें यह कौन निर्धारित करता है ? क्योंकि देश के विभिन्न भागों में हिंदी विभिन्न तरीके से बोली जाती है और हिंदी भाषा एक "फोनेटिक" भाषा है, जैसे बोली जायी वैसे ही लिखी जाये. न इसमें फ्राँसिसी और इतालवी भाषाओं जैसे कोई खामोश स्वर हैं, जो लिखे जायें पर बोले न जायें. न ही इसमें अंग्रेजी जैसे स्वर हैं जिन्हें एक शब्द में एक तरीके से बोला जाये और दूसरे शब्द में दूसरे तरीके से.
पिछले सप्ताह जब अपने पिता की १९५६ में ज्ञानोदय में छपी कहानी को क्मप्यूटर पर लिख रहा था तो देखा कि हर जगह "पहले" को "पहिले" लिखा था तो अचानक मेरठ की याद आ गयी, जहाँ कई लोग "मत करो" को "मति करो" कहते थे. सोचा कि यह उसी कारण से है कि देश के विभिन्न भागों में एक शब्द को अलग अलग तरह से बोलते हैं. इसमें सही गलत की बात नहीं.
हाँ इसमें मिलते जुलते स्वर अवश्य हैं जिनकी वजह से एक शब्द को आप विभिन्न तरीके से लिख सकते हैं जैसे "जायें" और "जाएँ", पर ऐसी स्थिति में इनमें शब्द को लिखने का एक प्रचलित तरीका हो सकता है जिसे हम सही मान सकते हैं. अतुल की टिप्पणीं पढ़ी तो यह सब सोचा. अतुल ने लिखा है कि मैं "टिप्पणीं" को "टिप्पड़ीं" क्यों लिखता हूँ ?
मैं तुरंत हिंदी का फादर कामिल बुल्के का शब्दकोष निकाल कर लाया. उसमें "टिप्पणीं" ही लिखा था. अच्छा, दूसरे शब्दकोष में देखते हैं, यह सोच कर मैं एलाईड का हिंदी शब्दकोष देखने लगा. उसमें भी टिप्पणीं ही लिखा था. फिर भी मैंने हार नहीं मानी. पुरानी सब किताबें घर के बेसमेंट के कमरे में बंद हैं, वहाँ से एक पुराना शब्दकोष ढ़ूँढ़ कर लाया, डा. भार्गव का अंग्रेजी शब्दकोष. उसमें भी टिप्पणीं ही पाया. आखिर हार माननी ही पड़ी. हो सकता है कि कुछ शब्द हिंदी में दो तरीकों से लिख सकते हैं पर टिप्पणीं उन शब्दों में नहीं है !
इसलिए अतुल को धन्यवाद. आगे से मेरी "टिप्पणियाँ" ही होगीं, "टिप्पड़ियाँ" नहीं.
एक सवाल अब भी है, क्या भारत में कोई ऐसी संस्था है जो यह निर्धारित करे कि हिंदी का कौन सा शब्द कैसे लिखना सही या गलत है, जिसकी सलाह मतभेद होने पर ली जा सके ?
++++++++
कई दिनों से चिट्ठा लिखने के कुछ विषय मेरे दिमाग में घूम रहे हैं और हर रोज रात को सोचता हूँ कि सुबह इस बात या उस बात पर लिखूँगा पर सुबह जब लिखने बैठता हूँ तो कुछ और ही बात लिखी जाती है. यानि कि लिखने में अनुशासन नहीं है !
आज की तस्वीरों का शीर्षक है चेहरे.
पिछले सप्ताह जब अपने पिता की १९५६ में ज्ञानोदय में छपी कहानी को क्मप्यूटर पर लिख रहा था तो देखा कि हर जगह "पहले" को "पहिले" लिखा था तो अचानक मेरठ की याद आ गयी, जहाँ कई लोग "मत करो" को "मति करो" कहते थे. सोचा कि यह उसी कारण से है कि देश के विभिन्न भागों में एक शब्द को अलग अलग तरह से बोलते हैं. इसमें सही गलत की बात नहीं.
हाँ इसमें मिलते जुलते स्वर अवश्य हैं जिनकी वजह से एक शब्द को आप विभिन्न तरीके से लिख सकते हैं जैसे "जायें" और "जाएँ", पर ऐसी स्थिति में इनमें शब्द को लिखने का एक प्रचलित तरीका हो सकता है जिसे हम सही मान सकते हैं. अतुल की टिप्पणीं पढ़ी तो यह सब सोचा. अतुल ने लिखा है कि मैं "टिप्पणीं" को "टिप्पड़ीं" क्यों लिखता हूँ ?
मैं तुरंत हिंदी का फादर कामिल बुल्के का शब्दकोष निकाल कर लाया. उसमें "टिप्पणीं" ही लिखा था. अच्छा, दूसरे शब्दकोष में देखते हैं, यह सोच कर मैं एलाईड का हिंदी शब्दकोष देखने लगा. उसमें भी टिप्पणीं ही लिखा था. फिर भी मैंने हार नहीं मानी. पुरानी सब किताबें घर के बेसमेंट के कमरे में बंद हैं, वहाँ से एक पुराना शब्दकोष ढ़ूँढ़ कर लाया, डा. भार्गव का अंग्रेजी शब्दकोष. उसमें भी टिप्पणीं ही पाया. आखिर हार माननी ही पड़ी. हो सकता है कि कुछ शब्द हिंदी में दो तरीकों से लिख सकते हैं पर टिप्पणीं उन शब्दों में नहीं है !
इसलिए अतुल को धन्यवाद. आगे से मेरी "टिप्पणियाँ" ही होगीं, "टिप्पड़ियाँ" नहीं.
एक सवाल अब भी है, क्या भारत में कोई ऐसी संस्था है जो यह निर्धारित करे कि हिंदी का कौन सा शब्द कैसे लिखना सही या गलत है, जिसकी सलाह मतभेद होने पर ली जा सके ?
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कई दिनों से चिट्ठा लिखने के कुछ विषय मेरे दिमाग में घूम रहे हैं और हर रोज रात को सोचता हूँ कि सुबह इस बात या उस बात पर लिखूँगा पर सुबह जब लिखने बैठता हूँ तो कुछ और ही बात लिखी जाती है. यानि कि लिखने में अनुशासन नहीं है !
आज की तस्वीरों का शीर्षक है चेहरे.
सोमवार, नवंबर 28, 2005
बेचारे आलोचक
किसी को बताना कि उसमें क्या कमी है, सबके बस की बात नहीं. खुले आम दो टूक बात करने के लिए पत्थर दिल चाहिये. मेरे पास कभी कभी वैज्ञानिक या चिकित्सा संबंधी पत्रिकाओं से रिव्यू करने के लिये लेख आते हैं. बहुत सी अंतर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं में बिना इस तरह के "पीयर रिव्यू" के बिना कुछ नहीं छपता. अंत में लेखक को सारी आलोचनाँए भेज दी जाती हैं ताकि वे अपने लेखों को सुधार सकें, हालाँकि उन्हें यह नहीं बताया जाता कि किन व्यक्तियों ने ये आलोचनाँए दी हैं. इसी अनुभव के बल पर जानता हूँ कि आम व्यक्तियों के लिए किसी की आलोचना करना कितना कठिन है.
आलोचना अगर आप लेखक की सहायता के लिए कर रहे हैं यानि आप चाहते हैं कि लेखक का लेखन सुधरे, तो उसे सृजनात्मक होना चाहिये. लेख के विभिन्न हिस्सों के बारे में, कहाँ क्या ठीक नहीं है या क्या कमजोर है, आदि बताना चाहिये और सुंदर, बोरिंग, बेकार जैसे शब्द नहीं इस्तेमाल करने चाहिये क्योंकि ये तो व्यक्तिगत अनुभूतियाँ हैं. पर ऐसा शायद वैज्ञानिक लेखों में करना आसान है और यह बात चिट्ठों पर लागू नहीं होती !
आलोचना करना अगर कठिन है तो अपनी आलोचना सुनना उससे भी अधिक कठिन. इसलिए जब वह अनाम संदेश पढ़ा कि किसी को मेरा लिखा नीरस लगता है तो धक्का सा लगा. पहले सोचा कि लिखूँ, "मैं भी आप की बात से बहुत सहमत हूँ, मुझे भी अपना लिखा नीरस लगता है और इसलिए अपना लिखा नहीं पढ़ता, अन्य दिलचस्प चिट्ठे बहुत हैं, उन्हे पढ़ता हूँ. आप भी ऐसा ही करिये." पर कुछ सोच कर लगा कि इस तरह आलोचना की हँसी उड़ाना ठीक नहीं, उसे गम्भीर सोच विचार कर दिये गये उत्तर की आवश्यकता है.
पर कल चिट्ठे के बाद जो संदेश आने शुरु हुए तो बंद ही नहीं हो रहे. सुहानूभूति और प्रोत्साहन के संदेश. आप सब को धन्यवाद.
पर मेरे मन में कुछ शक सा आ रहा है. पिछले दिनों कुछ "टिप्पड़ियाँ कम होने" पर बहस हो रही थी, यह कहीं कोई खुराफात तो नहीं है ? अगर है तो मैं सच कहता हूँ कि मेरा इसमे कोई हाथ नहीं था !
++++++
जेनेवा यात्रा के दौरान, शाम को खाली होटल में बैठे, दो पुरानी कहानियों को क्मप्यूटर पर टाईप किया. एक कहानी है मेरे पिता द्वारा लिखी "आँसू और इंद्रधनुष" जो १९५६ में ज्ञानोदय में छपी थी और दूसरी कहानी है, "जूलिया" जो मैंने १९८३ में लिखी थी और धर्मयुग में छपी थी.
आज दो तस्वीरें कल के हिमपात की.
आलोचना अगर आप लेखक की सहायता के लिए कर रहे हैं यानि आप चाहते हैं कि लेखक का लेखन सुधरे, तो उसे सृजनात्मक होना चाहिये. लेख के विभिन्न हिस्सों के बारे में, कहाँ क्या ठीक नहीं है या क्या कमजोर है, आदि बताना चाहिये और सुंदर, बोरिंग, बेकार जैसे शब्द नहीं इस्तेमाल करने चाहिये क्योंकि ये तो व्यक्तिगत अनुभूतियाँ हैं. पर ऐसा शायद वैज्ञानिक लेखों में करना आसान है और यह बात चिट्ठों पर लागू नहीं होती !
आलोचना करना अगर कठिन है तो अपनी आलोचना सुनना उससे भी अधिक कठिन. इसलिए जब वह अनाम संदेश पढ़ा कि किसी को मेरा लिखा नीरस लगता है तो धक्का सा लगा. पहले सोचा कि लिखूँ, "मैं भी आप की बात से बहुत सहमत हूँ, मुझे भी अपना लिखा नीरस लगता है और इसलिए अपना लिखा नहीं पढ़ता, अन्य दिलचस्प चिट्ठे बहुत हैं, उन्हे पढ़ता हूँ. आप भी ऐसा ही करिये." पर कुछ सोच कर लगा कि इस तरह आलोचना की हँसी उड़ाना ठीक नहीं, उसे गम्भीर सोच विचार कर दिये गये उत्तर की आवश्यकता है.
पर कल चिट्ठे के बाद जो संदेश आने शुरु हुए तो बंद ही नहीं हो रहे. सुहानूभूति और प्रोत्साहन के संदेश. आप सब को धन्यवाद.
पर मेरे मन में कुछ शक सा आ रहा है. पिछले दिनों कुछ "टिप्पड़ियाँ कम होने" पर बहस हो रही थी, यह कहीं कोई खुराफात तो नहीं है ? अगर है तो मैं सच कहता हूँ कि मेरा इसमे कोई हाथ नहीं था !
++++++
जेनेवा यात्रा के दौरान, शाम को खाली होटल में बैठे, दो पुरानी कहानियों को क्मप्यूटर पर टाईप किया. एक कहानी है मेरे पिता द्वारा लिखी "आँसू और इंद्रधनुष" जो १९५६ में ज्ञानोदय में छपी थी और दूसरी कहानी है, "जूलिया" जो मैंने १९८३ में लिखी थी और धर्मयुग में छपी थी.
आज दो तस्वीरें कल के हिमपात की.
रविवार, नवंबर 27, 2005
यात्रा और मंजिल
कहते हैं कि जीवन एक यात्रा है और मृत्यु हम सब की मंजिल. इसलिए यात्रा में यात्रा का ही आनंद लेना चाहिये, मंजिल के बारे में नहीं सोचना चाहिये. मंजिल के बारे में सोचने लग जायें तो यात्रा का आनंद भी खो बैठते हैं. शायद यह बात जीवन यात्रा के लिए ही ठीक बैठती है, अन्य रोजमर्रा की सामान्य यात्राओं के लिए नहीं ?
अपनी पहली हवाई यात्रा की हल्की सी याद है मुझे. दिल्ली से रोम की यात्रा थी वह, जापान एयरलाईनस् के जहाज पर. मेरी फुफेरी बहन के पति जापान एयरलाईनस् में काम करते थे, उन्होंने ही टिकट बनवाया था और पहले दर्जे की सीट पर बिठवा दिया था. तब से जाने कितनी यात्राएं होने के बाद, आज हवाई यात्रा में काम पर कहीं भी जाना पड़े तो कोई विशेष उत्साह महसूस नहीं होता. कितने घंटे कहाँ पर इंतजार करना पड़ेगा इसकी चिंता अधिक होती है. और जहाज के भीतर जा कर, सारा समय किताब पढ़ने या कुछ काम करने में निकल जाता है.
जब कभी यात्रा अप्रयाशित रुप में अपने तैयार रास्ते से निकल कर कुछ नया कर देती है तब याद आती है यात्रा और मंजिल की बात. ऐसा ही कुछ हुआ कल सुबह, जेनेवा से वापस बोलोनिया के यात्रा में. परसों जेनेवा में बर्फ गिरी थी और बहुत सर्दी थी. पर कल सुबह जब जागा तो आसमान साफ हो गया था. जेनेवा से म्यूनिख की यात्रा में कोई विशेष बात नहीं हुई पर म्यूनिख में तेज बर्फ गिर रही थी. पहुँच कर पाया कि बोलोनिया का जहाज एक घंटा देर से चलने वाला था. घर पर टेलीफोन करके देरी का बताया और फिर बैठ कर एक किताब पढ़ने लगा. आखिरकार बोलोनिया की उड़ान भी तैयार हुई. जहाज से दिखा कि पूरा उत्तरी इटली बादलों से ढ़का है. एल्पस् के पहाड़ एक क्षण के लिये भी नहीं दिखे. फिर बोलोनिया पहुँचे तो जहाज बहुत देर तक आसमान में ही चक्कर काटता रहा. काफी देर बाद घोषणा हुई कि वहाँ तेज हिमपात की वजह से जहाज पीसा हवाई अड्डे जायेगा और वहाँ से बस द्वारा हमें बोलोनिया लाया जायेगा.
उसके तुरंत बाद जहाज में झटके से लगने लगे. शायद बाहर तेज तूफान था और हमारे छोटे से जहाज में झटके अधिक महसूस होते थे. दस पंद्रह मिनट तक इतनी बार ऊपर नीचे हुए कि कई लोगों ने मतली कर दी, एक सज्जन बेचारी एयर होस्टेस से लड़ने लगे. एक झटका इतनी जोर से आया कि ऊपर से ओक्सीजन का बाक्स खुल गया और मास्क नीचे आ गये. लगा कि अपनी जीवन यात्रा की मंजिल आ गयी. पीसा उतरे तो तेज हवा के साथ बारिश हो रही थी.
अगर म्यूनिख से पीसा की यात्रा रोमांचक थी तो पीसा से बोलोनिया की बस यात्रा भी कम रोमांचक नहीं थी. बर्फीले तूफान में पहाड़ों के बीच में हो कर गुजरना किसी भी भौतिकवादी को आध्यत्मवादी बनाने के लिए अच्छा तरीका है. तीन घंटे बाद जब बोलोनिया पहुँचे तो जेनेवा से यात्रा प्रारम्भ किये ११ घंटे हो चुके थे.
++++++
"आपका लेखन कुछ नीरस टाइप का और एक ही ढर्रे पर रहने वाला है। कुछ नया क्यों नहीं ट्राई करते।" एक अनाम पाठक ने यह टिप्पड़ीं दी है. अनाम जी बहुत धन्यवाद क्यों कि आप ने मुझे यह सोचने पर मजबूर किया कि मैं चिट्ठा क्यों लिखता हूँ ? मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि मैं अपने लिए लिखना चाहता हूँ, जो मुझे भाये. मुझे लगता है कि अगर मैं यह सोच कर लिखूँ कि पढ़नेवालों को क्या अच्छा लगता है तो यह चिट्ठा लेखन के प्रति बेईमानी होगी. यह नहीं कि मैं उसे पढ़ने वालों के महत्व को छोटा करना चाहता हूँ पर अंतरजाल का यही तो मजा है कि आप के पास पढ़ने के लिए चुनने के लिए बहुत सारे चिट्ठे हैं.
आज की तस्वीरें जेनेवा यात्रा से.
अपनी पहली हवाई यात्रा की हल्की सी याद है मुझे. दिल्ली से रोम की यात्रा थी वह, जापान एयरलाईनस् के जहाज पर. मेरी फुफेरी बहन के पति जापान एयरलाईनस् में काम करते थे, उन्होंने ही टिकट बनवाया था और पहले दर्जे की सीट पर बिठवा दिया था. तब से जाने कितनी यात्राएं होने के बाद, आज हवाई यात्रा में काम पर कहीं भी जाना पड़े तो कोई विशेष उत्साह महसूस नहीं होता. कितने घंटे कहाँ पर इंतजार करना पड़ेगा इसकी चिंता अधिक होती है. और जहाज के भीतर जा कर, सारा समय किताब पढ़ने या कुछ काम करने में निकल जाता है.
जब कभी यात्रा अप्रयाशित रुप में अपने तैयार रास्ते से निकल कर कुछ नया कर देती है तब याद आती है यात्रा और मंजिल की बात. ऐसा ही कुछ हुआ कल सुबह, जेनेवा से वापस बोलोनिया के यात्रा में. परसों जेनेवा में बर्फ गिरी थी और बहुत सर्दी थी. पर कल सुबह जब जागा तो आसमान साफ हो गया था. जेनेवा से म्यूनिख की यात्रा में कोई विशेष बात नहीं हुई पर म्यूनिख में तेज बर्फ गिर रही थी. पहुँच कर पाया कि बोलोनिया का जहाज एक घंटा देर से चलने वाला था. घर पर टेलीफोन करके देरी का बताया और फिर बैठ कर एक किताब पढ़ने लगा. आखिरकार बोलोनिया की उड़ान भी तैयार हुई. जहाज से दिखा कि पूरा उत्तरी इटली बादलों से ढ़का है. एल्पस् के पहाड़ एक क्षण के लिये भी नहीं दिखे. फिर बोलोनिया पहुँचे तो जहाज बहुत देर तक आसमान में ही चक्कर काटता रहा. काफी देर बाद घोषणा हुई कि वहाँ तेज हिमपात की वजह से जहाज पीसा हवाई अड्डे जायेगा और वहाँ से बस द्वारा हमें बोलोनिया लाया जायेगा.
उसके तुरंत बाद जहाज में झटके से लगने लगे. शायद बाहर तेज तूफान था और हमारे छोटे से जहाज में झटके अधिक महसूस होते थे. दस पंद्रह मिनट तक इतनी बार ऊपर नीचे हुए कि कई लोगों ने मतली कर दी, एक सज्जन बेचारी एयर होस्टेस से लड़ने लगे. एक झटका इतनी जोर से आया कि ऊपर से ओक्सीजन का बाक्स खुल गया और मास्क नीचे आ गये. लगा कि अपनी जीवन यात्रा की मंजिल आ गयी. पीसा उतरे तो तेज हवा के साथ बारिश हो रही थी.
अगर म्यूनिख से पीसा की यात्रा रोमांचक थी तो पीसा से बोलोनिया की बस यात्रा भी कम रोमांचक नहीं थी. बर्फीले तूफान में पहाड़ों के बीच में हो कर गुजरना किसी भी भौतिकवादी को आध्यत्मवादी बनाने के लिए अच्छा तरीका है. तीन घंटे बाद जब बोलोनिया पहुँचे तो जेनेवा से यात्रा प्रारम्भ किये ११ घंटे हो चुके थे.
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"आपका लेखन कुछ नीरस टाइप का और एक ही ढर्रे पर रहने वाला है। कुछ नया क्यों नहीं ट्राई करते।" एक अनाम पाठक ने यह टिप्पड़ीं दी है. अनाम जी बहुत धन्यवाद क्यों कि आप ने मुझे यह सोचने पर मजबूर किया कि मैं चिट्ठा क्यों लिखता हूँ ? मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि मैं अपने लिए लिखना चाहता हूँ, जो मुझे भाये. मुझे लगता है कि अगर मैं यह सोच कर लिखूँ कि पढ़नेवालों को क्या अच्छा लगता है तो यह चिट्ठा लेखन के प्रति बेईमानी होगी. यह नहीं कि मैं उसे पढ़ने वालों के महत्व को छोटा करना चाहता हूँ पर अंतरजाल का यही तो मजा है कि आप के पास पढ़ने के लिए चुनने के लिए बहुत सारे चिट्ठे हैं.
आज की तस्वीरें जेनेवा यात्रा से.
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