बुधवार, दिसंबर 21, 2005

शुद्ध पृथ्वीवासी

शायद हर जगह लोग ऐसे ही प्रश्न पूछते हैं, कि आप कहाँ से हैं?

इटली में लोग, कोई नया मिले तो यह प्रश्न अवश्य पूछते हैं. जब परिवार सारा जीवन एक ही जगह पर बिताते थे तो इस प्रश्न का उत्तर देना कठिन नहीं था. आप कहाँ रहते पूछने का अर्थ यह जानना भी है कि आप विश्वासनीय हैं या नहीं. लोगों में रहने की जगह के साथ जुड़ी बातों की वजह से छोटा बड़ा सोचने की भी आदत होती है. जैसे कि उत्तरी इटली वाले अपने आप को दक्षिणी इटली वालों से ऊँचा समझते हैं. जब शुरु शुरु में इटली आया था और यहाँ अधिक प्रवासी नहीं थे, तो जो घर किराये पर मिला उसकी मकान मालकिन मुझसे यही बोली थी, "मैं तो अपना घर किराये पर या तो उत्तरी इटली वालों को दूँगी या विदेशियों को. "मेरिद्योनालि" लोगों (दक्षिण इटली के लोगों) को नहीं दूँगी."

पर आजकल सब कुछ बदल रहा है. बहुत से लोग उत्तर देते हैं, "मेरी माँ एक जगह से हैं, पिता दूसरी जगह से और हम बच्चे लोग तीसरी जगह में बड़े हुए, पर आजकल हम चौथी जगह रहते हैं." यानि यह किसी को यह बताना कि आप कहाँ से हैं, धीरे धीरे कठिन होता जा रहा है.

मुझसे लोग अक्सर जब मुझसे पूछते हैं कि मैं भारत में कहाँ से हूँ, तो मुझे भी उत्तर देने में ऐसी ही परेशानी होती है. ननिहाल तो अब पाकिस्तान में है, जबकि पिता का परिवार उत्तरप्रदेश में था, और हम सब बच्चे अलग अलग शहरों में पैदा हुए. लम्बा उत्तर न देने के लिए कहता हूँ दिल्ली से हूँ क्योंकि जीवन के बहुत से साल दिल्ली में ही कटे हैं.

हमारे परिवार के बड़े भाई बहनों ने विभिन्न दिशाओं में और भी मिलावट करनी शुरु कर दी. किसी की बहू बंगाली थी, किसी की मराठी तो किसी का पति कोंकणी. जब मैंने विवाह किया तो इस मिलावट की होली में धर्म का रंग भी जोड़ दिया, क्योंकि मेरी पत्नी कैथोलिक है. हिंदू व कैथोलिक परिवार में बड़े हुए हमारे बेटे की होनी वाली पत्नी सिख है. जब उसके बच्चे होंगे और कोई उनसे यह सवाल करेगा, तो सोचिये कि वे क्या जवाब देंगे कि वे कहाँ से हैं?

हम मिलावटी भारतीय हैं, या मिलावटी इतालवी? या फ़िर हम लोग मिलावटी हिंदू, सिख और कैथोलिक होंगे? पर सच में तो मेरे विचार में हम लोग शुद्ध पृथ्वीवासी हैं.

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ब्राजील मेरे विचार में मानव जाति की मिलावट का दुनिया में सबसे बड़ा उदाहरण है. यहाँ की मूल जनजाति के लोग इंडियोस, और अन्य देशों से आये यूरोपीय, अफ्रीकी, जापानी, चीनी, आदि जातियों के लोगों के मिलने से बना है यह देश. आज की तस्वीरें ब्राजील से ही हैं.

Belem, Brazil - images by Sunil Deepak

Belem, Brazil - images by Sunil Deepak

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सोमवार, दिसंबर 19, 2005

जरुरत से ज़्यादा समझदार माँ बाप

मेरी परेशानियाँ मेरे सब साथियों की परेशानियों से भिन्न थीं. आधुनिक और स्वतंत्र विचार रखनेवाले माता पिता मिलने का यही झंझट था. किशोरावस्था में सब साथियों के झगड़े होते अपने घरों में, बालों की लम्बाई पर, बैलबोटोम पैंट की चौड़ाई पर, रात को कितनी देर तक बाहर रह सकते हैं, जैसी बातों पर. हम थे कि तरसते ही रह जाते कि हमें कोई रोके या टोके, पूछे कि हमने ऐसा क्यों पहना है या वैसा क्यों किया है ?

उस जमाने में कान, नाक, माथे, होंठ आदि पर पिन घुसवाने या बालों को रंग बिरंगा बनवाने के फैशन नहीं आये थे, पर अगर आये होते तो हमने अवश्य उन्हें अपनाया होता और पक्का विश्वास है कि कोई हमसे नहीं पूछता कि हमने ऐसी बेहूदा हरकत क्यों की थी. हमारे साथी अपने माता पिता से प्रतिदिन लड़ते झगड़ते, और हम थे कि कोई हमें लड़ने का मौका ही नहीं देता था. क्या मालूम इससे हमारे व्यक्तित्व पर क्या गलत असर पड़ा हो ?

मेरा ख्याल है कि किशोरावस्था में हर बच्चे को माता पिता से लड़ने का अधिकार है, उसे अधिकार है कि उसके विचार माता पिता से न मिलें, और वह अपने विचारों के लिए लड़ कर अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व बनाये. अगर ऐसा न हो तो बच्चों के मन में लड़ाई करने की आकांक्षा दबी रह जाती है.

माता पिता को कभी कभी बच्चे का व्यक्तित्व ठीक बनाने के लिए कभी कभी तानाशाह बन कर कहना चाहिये, "नहीं, तुम यह नहीं कर सकते. क्यों का क्या मतलब है ? बस मैंने कह दिया, इसीलिए नहीं कर सकते. अब मैं इसके बारे में कोई बहस नहीं करना चाहता!"

आप सोच सकते हैं कि कितना कष्ट पहुँचता है बच्चों को जब उत्तर मिलता है, "बेटा, तुम अपने आप सोच कर निर्णय लो. तुम बड़े हो गये हो, अपने सभी निर्णयों की जिम्मेदारी भी तुम्हारी ही है." ऐसा उत्तर मिलने के बाद बेचारे बच्चों को गलती करने का मौका तक नहीं मिलता, जो कि हर बच्चे का जन्मसिद्ध अधिकार होना चाहिये.

खुशकिस्मती से मेरी पत्नी ऐसे परिवार से नहीं है. मैं तो आदत के मारे और अपने बचपन के अनुभव के मारे, समझदार और स्वतंत्र विचारों वाला पिता हूँ, पर मेरी पत्नी साधारण माँ है जिसे इन नये विचारों में खास दिलचस्पी नहीं है. जब माँ बेटे में लड़ाई होती है तो मुझे बहुत खुशी होती है कि मेरे बेटे को कम से कम माँ से लड़ने का मौका तो मिला!

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आज दो तस्वीरें दिल्ली की सड़कों सेः



रविवार, दिसंबर 18, 2005

बीत गये कितने दिन!

लगता है कि कल की बात है जब वह पैदा होने वाला था. डाक्टर ने तारीख दी थी १० जुलाई की. १० जुलाई आयी और चली गयी, पर उसके आने के लक्षण नहीं दिखाई दे रहे थे. मैं पत्नी के साथ उसके चेकअप के लिए अस्पताल गया. यह वही अस्पताल था जहाँ हमने इक्ट्ठे काम किया था इसलिए वहाँ के सब डाक्टरों और नर्सों को जानते थे.

"कुछ नहीं है, सब ठीक है. पर बच्चा अभी ऊपर है, बच्चेदानी में नीचे नहीं आया. तुम खूब चलो, भागो, सीढ़ियाँ चढ़ो, उतरो", डाक्टर बोले, "उससे बच्चा नीचे आ जायेगा."

इस बात को हम दोनो ने बहुत गम्भीरता से लिया. सारा दिन घूमते. पूर्वी इटली में स्कियो नाम के शहर में रहते थे, जो पहाड़ों के बीच बसा है. वहाँ चढ़ने, उतरने के लिए सीढ़ियों की कमी नहीं थी. पत्नी के फ़ूले हुए पेट को छू कर, उसका हिलना, लात मारना महसूस करना, मुझे बहुत अच्छा लगता. क्या नाम रखेंगे, इस पर लम्बी बहस होती. यह तो पहले से तय था कि बच्चे के दो नाम होंगे, एक इतालवी और एक भारतीय. यह भी तय था कि अगर बेटी होगी तो उसका पहला नाम भारतीय होगा और दूसरा इतालवी, बेटा होगा तो इसका उलटा.

दस दिन बीत गये इसी तरह. फिर अस्पताल चेकअप के लिए गये. "बच्चा अभी भी नीचे नहीं आया, पर सब कुछ ठीक ठाक है", डाक्टर बोले और पत्नी को और चलने, भागने की सलाह दी. आखिर 23 तारीख को शाम को पत्नी को हलका हलका प्रसव दर्द शुरु हुआ तो उसे ले कर अस्पताल वापस पहुँचे. "सब ठीक ठाक है, पर अभी समय लगेगा. कल सुबह से पहले कुछ नहीं होने वाला, आप अभी घर जा कर सोईये, कल सुबह आईये", उन्होंने मुझसे कहा.

अपनी सास के पास ठहरा था, वहाँ आ कर रात को सो गया. रात को अचानक नींद खुली, लगा कहीं टेलीफोन बज रहा था, थोड़ी देर यूँ ही लेटा सुनता रहा, पर जब टेलीफोन रुक कर फिर से बजने लगा तो उठ कर देखने की सोची. पहली मंजिल पर सोया था, टेलीफोन नीचे बज रहा था. नीचे आया तो देखा हमारा ही टेलीफोन था और हमारी साली साहिबा हमें आधे घँटे से टेलीफोन कर कर के परेशान हो गयीं थीं. "जल्दी अस्पताल जाओ, वहाँ से टेलीफोन आया था कि कुछ ठीक नहीं है और अभी ओपरेश्न करना होगा." रात को कार स्टार्ट होने में कुछ परेशानी हो रही थी इसलिए उसे अस्पताल के बाहर ही छोड़ आया था. जब टेलीफोन आया तो भागाभागी में कपड़े पहने और टैक्सी को बुलाया. अस्पताल पहुँचा तो करीब दो बज चुके थे.

पहले पत्नी को देखा, जिसे ओपरेश्न थियेटर से बाहर लाया जा रहा था, बेहोश सी थी पर फिर भी मुझे देख कर रोने लगी. दिल काँप सा गया. "लड़का हुआ है, पर उसकी हालत ठीक नहीं है. बच्चा इंटेन्सिव कैयर में है, नाल उसके गले को घेरे थी, इसलिए वह साँस ठीक से नहीं ले पा रहा था, इसलिए एमरजैंसी में ओपरेश्न करना पड़ा", मुझे बताया गया.

इंटेंसिव कैयर के बाहर शीशे से उसे देखा. इंक्यूबेटर में रखा छोटा सा वह, मुँह पर साँस लेने की नली लगी हुई. उसे वह पहली बार देखना अभी भी ऐसे याद है जैसे कल की बात हो. दो सप्ताह में उसकी शादी होने वाली है. बीत गये कितने दिन, कितनी जल्दी, पता ही नहीं चला.

Deepak family

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शनिवार, दिसंबर 17, 2005

इज्जत के लिए

हमारी संस्कृति में "इज्जत" का स्थान सर्वप्रथम है, कुछ भी हो जाये, इज्जत को बचा रखना चाहिये. इस इज्जत के बहुत से पक्ष हो सकते हैं, जिनमें से स्त्री के शरीर से जुड़े परिवार की इज्जत के प्रश्न सबसे प्रमुख हैं. बचपन में सुनी रानी पद्मनी की कहानी यही सिखाती है कि स्त्री की इज्जत उसके पति, उसके परिवार में है और बाहर का पुरुष उसके शरीर को छू ले तो उसकी इज्जत चली जायेगी. पराये मर्द के हाथ पड़ने से अच्छा है कि वह मर जाये. इसलिए जौहर या सती उसे पूजनीय बनाते हैं.

मानव के लिए जीवन का महत्व सबसे अधिक है, पैसे, इज्जत, खेल तमाशा, सबसे अधिक. पर यह नियम केवल पुरुष पर लागू होता है, क्योंकि इज्जत उसके शरीर में नहीं रहती. उसके शरीर को कोई भी देख ले, वह कितनी औरतों के साथ सहवास करे, उससे इसकी इज्जत बढ़ती है. उसकी पत्नी मरे तो और वह सती होने के सोचे, उसे सब पागल कहेंगे.

औरत और मर्द शरीरों के लिए इस तरह भिन्न सामाजिक नियम बना कर, हर समाज और तबका, अपनी इज्जत के मापदंड तैयार करता है. मुस्लिम समाज में इसका अर्थ बुरका बन जाता है, पाकिस्तान की उत्तर पश्चिमी प्रदेश में बेटियों और बहनों को "इज्जत बचाने" के लिए मारना, खून का जुर्म नहीं माना जाता. यानि परिवार की मर्जी के विरुद्ध किसी अन्य युवक से प्यार करने वाली लड़की को जान से मारना जुर्म नहीं है. भारत में बहुत से हिंदू परिवारों में इसका अर्थ है, लम्बा घूँघट रखो, सिर ढ़को, शरीर को ठीक से ढ़को, वगैरा. डिग्री का फर्क है, पर भीतर बात एक ही है.

कल पाकिस्तानी फिल्म निर्देशिका सबीहा सुमर की फिल्म "खामोश पानी" देखी तो यही सोच रहा था. फिल्म को देख कर विभिन्न बातें मन में आ रही थीं और बहुत सी बातों के बारे में मेरे अपने विचार कुछ स्पष्ट नहीं हैं. जैसे यह औरत शरीर की इज्जत की बात. आज तर्क के बूते पर सोच कर सोचता हूँ कि शरीर की इज्जत, जीवन के मूल्य से बड़ी नहीं हो सकती पर बचपन से सीखे सांस्कृतिक विचार इतनी आसानी से नहीं दबते या बदलते. बहुत बार पढ़ा था कि भारत विभाजन के समय बहुत से हिंदू और सिख परिवारों ने "इज्जत बचाने" के लिए बेटियों, बहनों, पत्नियों को कूँए में जान देना या जहर खा कर मरना बेहतर समझा, तो कभी यह गलत नहीं लगा, कभी यह नहीं सोचा, औरत की ही इज्जत क्यों खतरे में होती है और कौन निर्धारित करता है कि उसका मर जाना ही बेहतर है ?

"खामोश पानी" यही सवाल पूछती है. उसकी नायिका आयेशा सिख लड़की थी, जो कूँए में नहीं कूदी, जो पाकिस्तान मैं ही रह गयी और मुसलमान परिवार में मुसलमान बन कर जियी. सालों बाद जब उसका भारत में रहने वाला भाई उससे मिलने की कोशिश करता है और उसे पिता के बीमार होने की बात कहता है, वह यही पूछती है, इज्जत के नाम पर घर की सभी औरतों को कूँए में मरवा देने के बाद, क्यों उसे अपने ऐसे पिता या भाई की परवाह हो ?

शुक्रवार, दिसंबर 16, 2005

उत्तर विषेशज्ञ

पत्रिकाओं में "दुखयारी मौसियाँ" (Agony Aunts) होती हैं जिन्हें आप पत्र लिख कर अपने दुखों के उत्तर माँगते हैं. हर विषय की विषेशज्ञ होती हैं यह दुखियारी मौसियाँ, हर तरह के प्रश्न पूछ सकते हैं. चाहे उत्तर देने वाला पुरुष ही हो, उसे आँटी बुलाना ही ठीक समझा जाता है, शायद क्योंकि अंकल जी इतने बुद्धिमान उत्तर नहीं दे सकते ?

"मेरी शादी नहीं हो रही, मेरी नाक बहुत छोटी है उससे मुझमें हीनता की भावना आ रही है. मुझे लगता है नाक मेरी मर्दानगी की निशानी है और कोई लड़की मेरी तरफ कभी प्यार से नहीं देखेगी. मैं आत्महत्या की सोच रहा हूँ, अगर आप मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं देंगी तो मेरे पास कोई और चारा नहीं होगा सिवाय इसके कि मैं कुतुब मीनार से कूद जाऊँ."

इसका उत्तर मिलता है, "शादी बहुत झंझट की चीज़ है, आप शुक्र कीजिये कि आप इससे बचे हुए हैं. मुझसे ज़्यादा कौन जान सकता है, इसके बारे में? मेरे पहले ही दो तलाक हो चुके हैं और तीसरे की तैयारी में हूँ. अगर फिर भी आप आत्महत्या की सोचें तो मेरी सलाह होगी कि आप कुतुब मीनार के बारे में भूल जाईये. एक तो उसका टिकट बहुत महँगा है और दूसरे वहाँ से गिरने पर मरने की भी कोई गारंटी नहीं है."

खैर हमने कहाँ सोचा था कि एक दिन हमें भी दुखियारी मौसी बनने का मौका मिलेगा, पर पिछले कुछ महीनों से ऐसा ही हो रहा है. अपने इतालवी के "कल्पना" के अतंरजाल पृष्ठों की वजह से बहुत से इतालवी लोग हमें भारत विषेशज्ञ समझते हैं और प्रश्न पूछते हैं.

एक युवती को इंदौर के एक लड़के से प्यार हो गया है तो वह पूछतीं हैं कि भारत यात्रा के समय अपनी होने वाली सास ससुर के लिए क्या तौहफा ले जा सकती हैं ?


एक और यवती कहतीं हैं कि उनके एक भारतीय मित्र ने उन्हें अपने विवाह में बुलाया है, पर वह उसके घर पर नहीं ठहरना चाहती, तो पूछती हैं कि अगर वह मित्र को स्पष्ट कह दूँ तो क्या वह बुरा मान जायेगा ?

एक और युवती पूछतीं हैं कि उन्हें सत्यजित राय की फिल्मों में दिलचस्पी है, वह इन फिल्मों की इतालवी सबटाईटल्स वाली डीवीडी कहाँ से पा सकती हैं ?

आप ने गौर किया होगा कि यह सब प्रश्न युवतियाँ ही पूछती हैं, अभी तक कोई पुरुष कोई सवाल ले कर नहीं आया है. सोच रहा हूँ कि अपना एक अस्सिटेंट रखूँ, जो सब बातों के ठीक ठीक उत्तर ढ़ूँढ़ेगा.
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आज जून के बोलोनिया के ग्रीष्म फैस्टीवल से दो तस्वीरें:



गुरुवार, दिसंबर 15, 2005

पिंटर की आग

सन २००५ का साहित्य के लिए नोबल पुरस्कार अंग्रेजी नाटककार, लेखक और राजनीतिक कार्यकर्ता हेरोल्ड पिंटर को मिला है. मुझे आम तौर पर नाटक पढ़ने में दिलचस्पी नहीं है, कभी विजय तेंदुलकर या मोहन राकेश का कुछ पढ़ा था, पर हेरोल्ड पिंटर का कोई नाटक न पढ़ा था न देखा था. उन्हें पहली बार देखा और सुना दिसम्बर २००४, करीब एक साल पहले जब उन्होंने बीबीसी के कार्यक्रम "हार्डटाक" में कहा कि श्री बुश और श्री ब्लेयर दोनो को युद्ध अत्याचार का अपराधी मान कर उन पर मुकदमा करना चाहिये. वे बहुत अच्छा बोलते हैं और केवल भावुकता की ही बातें या भाईचारे और न्याय की किताबी बातें करते हों, ऐसा नहीं, वह अपनी बात को साबित करने के लिए स्पष्ट विचार, तर्क और प्रमाण के साथ बात करते हैं. अगर आप चाहें तो उनका वह साक्षात्कार देख सकते हैं.

नोबल पुरस्कार लेते समय भी उनका भाषण कम दमदार नहीं था. इस भाषण में एक तरफ तो उन्होंने अपने लेखन के तरीके की झलक दिखाई, तो दूसरी तरफ अपने राजनीतिक कार्यकर्ता होना का सक्षम परिचय दिया है. अपने नाटकों के चरित्रों के बारे में वह कहते हैं कि चरित्र एक बार बनने के बाद अपना स्वतंत्र जीवन ले लेते हैं और लेखक के बस में नहीं रहते बल्कि अपनी नियती स्वयं ढ़ूँढ़ते हैं.

पर असली आग है उनके भाषण में - अमरीकी विदेश नीति और उसके द्वारा बड़े बहुदेशी कोरपोरेशनों के सम्राज्य को स्थापित करने के खिलाफ़. वह कहते हें कि कम्यूनिस्ट शासन और सोवियत रुस में हुए अत्याचारों के बारे में तो बहुत बहस हुई है पर दुनिया में क्रूरता से अपने मुनाफे के पीछे लाखों मासूम लोगों के जान लेने के लिए अमरीकी योगदान का न तो ठीक से ज्ञान है और न इस पर ठीक से शोध हुआ है. यह भाषण पढ़ कर देखिये, तब बताईये कि आप को उनके विचार कैसे लगे.
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मैं मानता हूँ कि पिंटर जी ने जरुर अच्छा ही लिखा होगा और ऊपर दिये गये विवरण से स्पष्ट है कि मैं उनका प्रशंसक हूँ लेकिन यह भी कहना पड़ेगा कि साहित्य का नोबल पुरस्कार यूरोपीय भाषाओं की तरफ पक्षपात करता है. भारत की भाषाओं की इसमें पूरी अवहेलना की जाती है. वरना दलित, पीड़ित जन पर लिखने वाली और उनके साथ कदम से कदम मिला कर काम करने वाली महाश्वेता देवी जैसे लेखक को क्यों भूल जाते लोग? क्यों उनका और उनके जैसे अनेक लेखकों के बारे में भारत से बाहर बहुत कम लोग जानते हैं ?
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किसी भी यात्रा के दौरान, शाम को, रात को, खाली समय में हिंदी लिखने का मौका मिल जाता है. इस बार लंदन यात्रा के दौरान मैंने पापा की दो अधूरी कहानियों को क्मप्यूटर पर लिखा. अधूरी कहानी पढ़ने में आनंद नहीं आता पर मुझे उन्हें लिखना जरुर अच्छा लगा.

आज की तस्वीरें लंदन के ब्रिटिश म्यूजियम सेः


बुधवार, दिसंबर 14, 2005

सबसे बड़ी चिंता

बेटे के विवाह की तारीख करीब आ रही है. २५ दिसम्बर को तीन सप्ताह के लिए भारत जाना है. सबसे बड़ी चिता है कि ब्रांदो का क्या होगा ? ब्रांदो यानि हमारा कुत्ता.

है तो वह भोंदू, घर में आये किसी मेहमान पर नहीं भौंकता, बहुत छोटे बच्चों को छोड़ कर. हमें समझ नहीं आया कि क्यों वह छोटे बच्चों को देख कर कभी कभी भौंकने लगता है ? ऐसे में उन बच्चों के आहित माता पिता को मैं कहता हूँ कि छोटे बच्चे अक्सर इसकी पूँछ खींचते हैं इसलिए यह उनसे डरता है!

एक सप्ताह का था जब वह हमारे घर में आया था. उस समय हमारे घर में एक बिल्ला भी था, श्रीमान मारलोन उर्फ माऊँ. जब कुत्ता आया तो उसे मारलोन का साथी बनाने के लिए हमें ब्रांदो नाम रखने में बिल्कुल हिचकिचाहट नहीं हुई. तब से वह हम सब का लाड़ला है. बहुत आज्ञाकारी है, कुछ भी कहो तो तुरंत करता है. कभी कभी बाग में सैर करते समय किसी एक रास्ते से जाने या न जाने पर अड़ जाता है और पैर जमा लेता है, हिलाने से नहीं हिलता (तब हम उसे अंगद जी बुलाते हैं). अगर बरसात हो रही हो और सैर पर जाने के लिए उसे रेनकोट पहनाया जाये तो नीचे मुँह करके काँपने सा लगता है (तब हम कहते हें कि यह तो सीता मैया है जो कह रहीं हैं, धरती फट जा ताकि हम तुझमें समा जायें!).

पर उसके प्रेम की सबसे बड़ी हकदार है मेरी पत्नी, जिसके घर से बाहर कहीं जाने पर वह बिना लैला का मजनू बन जाता है और अपना अधिकतर समय दरवाजे के पास उसके वापस आने की आस में मुँह बना कर बैठा रहता है. अगर पत्नी कुछ दिनों के लिए कहीं चली जाये, तो दो दिनों में ही बेचारा कमजोर सा हो जाता है. इस बार भारत यात्रा में तीनों लोग उसे अकेला छोड़ कर चले जायेंगे तो क्या होगा, इसकी चिंता हम सबको परेशान कर रही है.

वे तीन सप्ताह उसे हमारी साली साहिबा के घर पर रहना है, जिन्हें वह अच्छी तरह से जानता है, पर वे भी कुछ डर रहीं हैं कि बेचारा परिवार के बिना कैसे रहेगा. जब जायेगा तो अपने साथ अपनी पुरानी चद्दर, मेरी पत्नी का पुराना स्वेटर, आदि ले कर जायेगा. आप शायद हँसें कि कुत्ते के बारे में इतना परेशान होना पागलपन है पर हमारे लिए तो वही इस शुभ अवसर पर हमारी सबसे बड़ी चिंता है.

आज कि तस्वीरों में ब्रांदो और हम लोगः


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