श्रीराम सेंटर में हिंदी की किताबों की बहुत अच्छी दुकान है और वहाँ काम करने वाली महिला हमारी सहायता के लिए बहुत तत्पर थीं. नाटक की बहुत सारी किताबें थीं वहाँ पर लेकिन उनमें नौटंकी के नाटक की कोई किताब नहीं थी.
इतनी दूर आ कर भी बात नहीं बनी तो जी थोड़ा उदास हो गया. मैट्रो स्टेशन को ढ़ूँढ़ते हुए पैदल ही क्नाट प्लेस की तरफ चल पड़े. अचानक नज़र दाहिनी ओर की सड़क के नाम पर पड़ी, "हेली रोड". कुछ दिन पहले ही बात हो रही थी "उग्रसेन की बावली" की जब हमने घर में "हजारों ख्वाहिशें ऐसी" फिल्म देखी थी. इस फिल्म में एक दृष्य है जो इस बावली की नीचे जाती हुई सुंदर सीढ़ियों पर फिल्माया गया है. तो मेरी भतीजी बोली थी कि यह बावली मंडी हाऊज़ के पास हेली रोड पर है और वह अपने स्कूल के साथ वहाँ गयी थी.
"चलो, चल कर उग्रसेन की बावली देखते हैं", मैंने अपनी पत्नी से कहा और हम दोनो हेली रोड पर मुड़ गये. सड़क पूरी पार ली पर बावली तो कोई नहीं दिखाई दी, दोनो तरफ आलीशान घर और नयी गगनचुंबी ईमारतें दिख रहीं थी. आस पास कुछ लोगों से पूछा पर किसी को मालूम नहीं था. लगा कि हमारा दिन ही ठीक नहीं था और घर वापस चलना चाहिये. वापस बाराखम्बा रोड की तरफ जाते हुए एक अन्य व्यक्ति ने आखिरकार बताया कि वह बावली अंदर की तरफ जाती हुई एक छोटी सी गली में छुपी है जिसे हेली लेन कहते हैं.
तो खोजते खोजते आखिरकार हमने उग्रसेन की बावली का पता पा ही लिया. बावली बहुत सुंदर है और उसे देख कर मन प्रसन्न हो गया. वहाँ हमे मनोहर लाल जी मिले जो अपने आप को बावली का गाईड बताते हैं, कहते हैं कि उनका परिवार १२० सालों से उस बावली की रक्षा कर रहा है.
मनोहर लाल जी का कहना है कि बावली का पुराना हिस्सा करीब दो हजार साल पुराना है जो भगवान कृष्ण के चाचा राजा उग्रसेन द्वारा बनवाया गया था और यह भाग चूना, उड़द की दाल, गुड़, सिरका आदि मिलवा कर बनाया गया था. बाद का भाग तुगलक के जमाने का है यानि कि करीब पाँच सौ साल पुराना.
बावली के साथ एक छोटी सी मस्जिद है जिसमे उर्दू, फारसी और अरबी में कुछ लिखा है. मनोहर लाल जी को इनमे से कोई भाषा नहीं आती इसलिए वह उनका अर्थ नहीं बता पाये. बावली की ओर नीचे को सुंदर सीढ़ियाँ जाती हैं और बावली के पीछे एक दो सौ गज गहरा कूँआ है. दो अन्य रास्ते भी हैं जो बंद हैं और मनोहर लाल की विचार से एक दिल्ली आगरा सड़क की ओर जाता है, दूसरा जंतर मंतर की ओर.
इतनी सुंदर जगह है पर लगता है कि हमारे पुरात्तव विभाग के पास इसकी देखभाल करने के लिए पैसे नहीं हैं. वहाँ एक बोर्ड लगा है कि यह इतिहासिक धरोहर है और इसके २०० मीटर तक कुछ खुदाई वगैरा नहीं करनी चाहिये पर बावली से दस पंद्रह मीटर दूर ही नये भवन बन गये हैं. खैर अगर आप को दिल्ली में क्नाट प्लेस की तरफ आने का मौका मिले तो उग्रसेन की बावली देखना नहीं भूलियेगा.