बचपन में घर में दूसरे शहरों से मेहमान आते तो कहते, "बाप से बाप, यहाँ दिल्ली में रहना क्या आसान है!"
लखनऊ अधिक सभ्य है, हैदराबाद में लोग कितनी इज़्ज़त से बात करते हैं, बम्बई में यातायात किस तरह नियमों का पालन करते हुए चलता है जैसी बहुत सी बातें सुनने को मिलतीं, यह बतलाने के लिए कि उनके मुकाबले दिल्ली वाले सभ्यताविहीन थे, उनके बात करने में लड़ाकापन था, उनके यातायात में कोई नियम न पालन करने का ही नियम था.
"दिल्ली के लोग या तो पंजाब से आये शरणार्थी हैं जिनका सब कुछ पाकिस्तान में रह गया और सब कुछ खोने के बाद जिन्होंने जीने के लिए लड़ लड़ कर अपने जीने की जगह बनाई है, उनसे सभ्यता की आकाँक्षा रखना बेकार है. दूसरे दिल्ली के रहने वाले देश भर से आये बाबू लोग हैं जो सरकारी दफ्तरों में काम करते हैं, उन्हें दिल्ली अपना शहर ही नहीं लगता, उनके घर तो अन्य प्रदेशों में हैं जहाँ से वे आये हैं, उन्हें इसलिए दिल्ली की कुछ परवाह नहीं है."
तब कहते कि दिल्ली में सभ्यता तब आयेगी जब यहाँ पैदा होने वाली या यहाँ पलने वाली पीढ़ी बड़ी होगी. दिल्ली से उनका अपनापन होगा, दिल होगा उनका इस शहर में, दिल्ली उनका शहर होगा. वे लोग लायेंगे दिल्ली में सभ्यता.
उन बातों को गुज़रे चालीस साल हो गये हैं. कैसी है आज दिल्ली की सभ्यता? अगर कारों की गिनती से, फ्लाईओवरों और विदेशी सामान बेचने वाले मालस् से सभ्यता गिनी जाये तो दिल्ली बहुत सभ्य हो गयी है. व्यक्तिगत आमदनी के मापदँड पर भी दिल्ली ने बहुत तरक्की की है. पर दिल्ली का दिल, उसमें अपने शहर में रहने वालों का प्यार जागा है, इंसानियत जागी है?
दिल्ली के बारे में संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट निकली है जिसके अनुसार दिल्ली बच्चों के लिए दुनिया का सबसे खतरनाक शहर है और औरतों के लिए भी असुरक्षित शहरों के लिस्ट में बहुत ऊपर के स्थान पर है. एक तरफ़ अच्छी बात है कि दिल्ली में पाँच साल से कम वर्ष वाले बच्चों की मृत्यु दर का अनुपात बाकी देश के मुकाबले में बहुत कम है दूसरी तरफ़ बुरी बात कि छोटे बच्चों से काम करवाने में दिल्ली भारत में सबसे उच्च स्थान पर है. देश की राजधानी में पल कर बड़े होने वाले अक्सर यह काम करने वाले बच्चे कोई शिक्षा नहीं पाते. रिपोर्ट के अनुसार, उनमे से एक लाख अस्सी हज़ार बच्चे दिल्ली की सड़कों पर रहते हैं.
ढाबे में बरतन धोते, सड़क किनारे नटी दिखाते, जूते पालिश करने के डब्बे उठाये घूमते, प्लास्टिक तथा कागज़ जमा करते, या फ़िर बाज़ार में आप के पीछे पीछे चल कर भीख माँगते, हर तरफ़ यह बच्चे दिखते हैं. हर बार प्रश्न "भीख दूँ या न दूँ" यहीं तक आ कर रुक जाता है, एक अकेला और क्या कर सकता है? कुछ लोग है जो बाग में बच्चों को जमा कर उन्हें खेल के साथ पढ़ाते भी हैं, पर इन सब बच्चों तक पहुँचने के लिए उनके जैसे कई हज़ार अन्य चाहिये. मुझे बुरा तब लगता है जब किसी को भीख माँगते बच्चे को क्रोध से दुदकारते हुए या गाली देते हुए सुनता हूँ. कुछ भी न देना हो तो न दो, दुदकारते क्यों हो?
जिस घर में बच्चे कोनवेंट में या पब्लिक स्कूल में पढ़ने जाते हैं, उसी घर में सफाई करने वाला, खाना बनाने वाला बच्चा बिना पढ़ लिख कर बड़ा होता है, जो बाकी बच्चों के साथ खेलता नहीं, उनकी तरह खाता नहीं. कब सोता है, कब छुट्टी मिलती है उसे यह मालिक की दया पर निर्भर है, उसके अधिकार कुछ नहीं. कहते हैं कि उसे काम दे कर उस पर अहसान किया गया है, गाँव में जहाँ गरीबी में पैदा हुआ था वहाँ उसे शायद दो वक्त की रोटी न मिल पाती, न ही कोई शिक्षा, न शहर के करिश्मे देखने का मौका, न टीवी पर फ़िल्में आदि. पर उसे काम के साथ थोड़ा सा बचपन जीने का मौका नहीं मिलता और न ही घरेलू नौकर के जीवन से बाहर निकलने के लिए कोई सहारा.
दिल्ली का ही दिल निष्ठुर है शायद ऐसा नहीं है, सारे भारत में यही हाल है पर दिल्ली जैसे महानगरों में और भी अधिक है. हम सब के बीच में भूतों से घूमते यह बच्चे और बड़े, जिन्हें उनकी गरीबी ने पारदर्शी बना दिया है, उन्हें देख कर भी नहीं देख पाते.
शनिवार, सितंबर 16, 2006
गुरुवार, सितंबर 14, 2006
रायमोन पनिक्कर का प्रेम संदेश
आज के युद्ध, बम और आतंकवाद के वातावरण में मेरे विचार में भारत के विचारक और दर्शनशास्त्री दुनिया को विभिन्न धर्मों के आपसी सम्मान और समन्वय से साथ रहने का संदेश दे सकते हैं. बहुत दुनिया देखी है पर भारत जैसा विभिन्न धर्मों के साथ रहने का तरीका किसी अन्य जगह मिलना कठिन है.
बचपन से ही देखा था कि अपना धर्म कुछ भी हो, अन्य धर्मों के पूजनीय स्थलों पर हाथ जोड़ने और प्रार्थना करने में कभी झिझक नहीं होती थी. गुरुद्वारा जाना हो या मस्जिद या बड़े दिन के अवसर पर गिरजाघर, कभी यह नहीं सोचा कि यह हमारा धर्म नहीं है तो कम पूजनीय है. ईद की सेंवियाँ हों या गुरुपर्व की कच्ची लस्सी या फ़िर क्रिसमस का प्लम केक, खाने में भी बिल्कुल नहीं रुके. इसका यह अर्थ नहीं था कि अपने धर्म में विश्वास कम हो जाता था पर दूसरे धर्मों का आदर करना भारत में अधिकतर लोगों के लिए स्वभाविक सी बात है जिसके लिए न सोचना पड़ता है, न किसी को समझाना पड़ता है कि क्यों सिख न होते हुए भी गुरुद्वारे में हाथ जोड़े या ईसाई न होते हुए गिरजाघर में हाथ जोड़े.
अन्य देशों में जहाँ एक ही धर्म के बहुत्व हो, इसको समझना आसान नहीं है. यहाँ जब अन्य धर्मों के सम्मान की बात होती है तो वह तार्किक दृष्टि की बात लगती है उसमें वह भारतीय आत्मीयता की समझ कि सब रास्ते एक ही ओर जाते हैं और सभी रास्ते पूजनीय हैं वाली बात नहीं दिखती.
इटली में जब केथोलिक तथा विभिन्न धर्मों के बीच में वार्तालाप या संचार की बात होती है तो कभी कभी लगता है कि अन्य धर्मों को कुछ श्रेणियों में बाँट दिया गया हो. बात अधिकतर एक ईश्वरवादी धर्मों यानि ज्यू और इस्लाम तक ही रुक जाती है शायद क्योकि ईसाई धर्म की जड़ें इन दोनो धर्मों से करीब से जुड़ी हैं. लगता है कि पूर्वी विश्व में जन्मे धर्म, हिदु, बुद्ध, जैन इत्यादि को इनसे नीचा देखा जा रहा हो, उनकी बात न की जाती है और उनसे क्या सीखा जा सकता है उस पर विमर्श नहीं होता.
इसीलिए जब सुना कि शाम को एक गिरजाघर में भारत से आये फादर रायमोन पनिक्कर बोलने वाले हैं तो उन्हे सुनने बहुत शौक से गया. वृद्ध पनिक्कर सादा कुर्ता और लुँगी पहने, कँधे पर झोला उठाये, गाँधीवादी हैं. बहुत सी भाषाएँ बोलते समझते हैं और हालाँकि भारत में उनका नाम कभी नहीं सुना, यहाँ इटली और स्पेन में उनका लिखी किताबें बहुत पढ़ी जाती हैं.
उनके भाषण का विषय था "श्रद्धा, धर्म और सभ्यता" और बहुत बढ़िया बोले. ईसाई धर्म की बात करते हुए उन्होने बाईबल के साथ साथ वेदों, गुरु ग्रँथसाहब, महात्मा बुद्ध और महावीर तथा महात्मा गाँधी के संदेशों की भी बात की. हाल लोगों से खचाखच्च भरा था और बार बार तालियों की गड़गड़ाहट गूँज जाती.
मुझे लगा कि यही योगदान है जो भारतीय विचारकों ने, चाहे वह विवेकानंद हो या कृष्णामूर्ती, अलग अलग स्वरों में दिया था और जिसे पनिक्कर जैसे महात्मा आज दे रहे हैं. भारत के कैथोलिक ईसाई समाज में इस तरह की बात करने वाले पनिक्कर अकेले नहीं है. रुढ़िवादी गिरजाघर इसे ईसाईयत से दूर जाना समझते हैं और पनिक्कर को भी पादरी से हटाने की बात की गयी थी पर उनको सुनने वालों की भीड़ को देख कर स्पष्ट था कि इस भारतीय सोच को समझने वाले लोग दुनिया में हैं.
आज की तस्वीरों में रायमोन पनिक्कर जी.
बचपन से ही देखा था कि अपना धर्म कुछ भी हो, अन्य धर्मों के पूजनीय स्थलों पर हाथ जोड़ने और प्रार्थना करने में कभी झिझक नहीं होती थी. गुरुद्वारा जाना हो या मस्जिद या बड़े दिन के अवसर पर गिरजाघर, कभी यह नहीं सोचा कि यह हमारा धर्म नहीं है तो कम पूजनीय है. ईद की सेंवियाँ हों या गुरुपर्व की कच्ची लस्सी या फ़िर क्रिसमस का प्लम केक, खाने में भी बिल्कुल नहीं रुके. इसका यह अर्थ नहीं था कि अपने धर्म में विश्वास कम हो जाता था पर दूसरे धर्मों का आदर करना भारत में अधिकतर लोगों के लिए स्वभाविक सी बात है जिसके लिए न सोचना पड़ता है, न किसी को समझाना पड़ता है कि क्यों सिख न होते हुए भी गुरुद्वारे में हाथ जोड़े या ईसाई न होते हुए गिरजाघर में हाथ जोड़े.
अन्य देशों में जहाँ एक ही धर्म के बहुत्व हो, इसको समझना आसान नहीं है. यहाँ जब अन्य धर्मों के सम्मान की बात होती है तो वह तार्किक दृष्टि की बात लगती है उसमें वह भारतीय आत्मीयता की समझ कि सब रास्ते एक ही ओर जाते हैं और सभी रास्ते पूजनीय हैं वाली बात नहीं दिखती.
इटली में जब केथोलिक तथा विभिन्न धर्मों के बीच में वार्तालाप या संचार की बात होती है तो कभी कभी लगता है कि अन्य धर्मों को कुछ श्रेणियों में बाँट दिया गया हो. बात अधिकतर एक ईश्वरवादी धर्मों यानि ज्यू और इस्लाम तक ही रुक जाती है शायद क्योकि ईसाई धर्म की जड़ें इन दोनो धर्मों से करीब से जुड़ी हैं. लगता है कि पूर्वी विश्व में जन्मे धर्म, हिदु, बुद्ध, जैन इत्यादि को इनसे नीचा देखा जा रहा हो, उनकी बात न की जाती है और उनसे क्या सीखा जा सकता है उस पर विमर्श नहीं होता.
इसीलिए जब सुना कि शाम को एक गिरजाघर में भारत से आये फादर रायमोन पनिक्कर बोलने वाले हैं तो उन्हे सुनने बहुत शौक से गया. वृद्ध पनिक्कर सादा कुर्ता और लुँगी पहने, कँधे पर झोला उठाये, गाँधीवादी हैं. बहुत सी भाषाएँ बोलते समझते हैं और हालाँकि भारत में उनका नाम कभी नहीं सुना, यहाँ इटली और स्पेन में उनका लिखी किताबें बहुत पढ़ी जाती हैं.
उनके भाषण का विषय था "श्रद्धा, धर्म और सभ्यता" और बहुत बढ़िया बोले. ईसाई धर्म की बात करते हुए उन्होने बाईबल के साथ साथ वेदों, गुरु ग्रँथसाहब, महात्मा बुद्ध और महावीर तथा महात्मा गाँधी के संदेशों की भी बात की. हाल लोगों से खचाखच्च भरा था और बार बार तालियों की गड़गड़ाहट गूँज जाती.
मुझे लगा कि यही योगदान है जो भारतीय विचारकों ने, चाहे वह विवेकानंद हो या कृष्णामूर्ती, अलग अलग स्वरों में दिया था और जिसे पनिक्कर जैसे महात्मा आज दे रहे हैं. भारत के कैथोलिक ईसाई समाज में इस तरह की बात करने वाले पनिक्कर अकेले नहीं है. रुढ़िवादी गिरजाघर इसे ईसाईयत से दूर जाना समझते हैं और पनिक्कर को भी पादरी से हटाने की बात की गयी थी पर उनको सुनने वालों की भीड़ को देख कर स्पष्ट था कि इस भारतीय सोच को समझने वाले लोग दुनिया में हैं.
आज की तस्वीरों में रायमोन पनिक्कर जी.
शनिवार, सितंबर 09, 2006
बेतरतीब डॉयरी के पन्ने
लगता था कि हिंदी का प्रेम अपनी पीढ़ी तक आ कर ही रुक जायेगा. पापा, बुआ के परिवार में हिंदी जीवन यापन का माध्यम भी थी और सृजनात्मकत्ता का प्रेम भी. यही सिलसिला हमारी पीढ़ी में बहुत लोगों ने जारी रखा था. पर पिछले कुछ महीनों में हमारे बाद की नयी पीढ़ी ने हिंदी ने लिखना प्रारम्भ किया है इससे बहुत खुशी होती है और गर्व भी. पहले भाँजे मुकुल ने निरंतर के लिए फ़िल्मों तथा एडस् पर लिखना स्वीकार किया और अब भतीजी पियुली ने अपने चिट्ठे में कविता लिखी है "आशा के पथ पे"-
*****
कुरबान अली ने बीबीसी के नये हिंदी पृष्ठ के बारे में बताया जो हिंदी पत्रिका के रुप में आया है. इस नये रुप के पहले अतिथि सम्पादक है अभिनेता देव आनंद और पत्रिका की सम्पादक हैं सलमा ज़ैदी. बीबीसी जैसी प्रशिष्ठावान संस्था हिंदी लेखन को प्रोत्साहन दे तो खुशी होना स्वाभाविक ही है. पत्रिका का पहला अंक पठनीय है.
*****
बहुत दिनों के बाद बँगला फिल्म देखने का मौका मिला. फिल्म थी ऋतुपूर्ण घोष की "अंतरमहल". बचपन में घर के पास दुर्गा पूजा पर उत्तम कुमार और सुचित्रा सेन की रोने रुलाने वाली भावुक फिल्में मुझे बहुत पसंद थीं. कुछ बड़ा हो कर कभी फिल्म फेस्टिवल में और दूरदर्शन पर मृणाल सेन और सत्याजित राय के सिनेमा को जानने का मौका मिला था. हिंदी सिनेमा में भी बँगला साहित्य की सँवेदना लाने वाले निर्देशकों, बिमल राय, ऋषीकेष मूखर्जी, बासू चैटर्जी भी बहुत प्रिय थे.
ऋतुपूर्ण का सिनेमा जगत उसी समाज को देखता है पर उसकी दृष्टि ऊपर से केवल अच्छा अच्छा दिखने वाली, आसानी से रुलाने वाली भावनाओं जिन्हे भूलना आसान है, पर नहीं रुकती, वह अंदर घुस कर बाहर से सुंदर दिखने वाले उस समाज की परतें खोल कर अंदर सड़ते सच को अँधेरे से रोशनी में लाता है.
"अंतरमहल" को केवल "समय बिताने" को देख कर भुला पाना सँभव नहीं है. बार बार फिल्म में, गरीब घर से आई छोटी उम्र की सुंदर नयी बहु यशोमती (सोहा अली खान) को पुत्र की आशा में तड़पते, हाँफते हुए प्रोढ़ उम्र के राजा भुवनेश्वर चौधरी (जैकी श्रौफ़) के नीचे उनके बिस्तर में पिसता दिखाया जाता है, तब भी जब मँत्र पढ़ते, लार टपकाते पँडित जी बिस्तर के साथ बैठ कर उसके युवा शरीर को देख कर मजे ले रहे होते हैं. बड़ी बहु महामाया (रूपा गाँगुली) छोटी बहु को सलाह देती हैं कि रात को प्रोढ़ पति के सोने के बाद रात को उसे नीचे सो रहे युवा शिल्पकार (अभिशेख बच्चन) के बिस्तर में जाना चाहिए क्योंकि वह जानती है कि बच्चा न कर पाने का कमी पत्नियों में नहीं, स्वयं राजा साहब में हैं.
सोहा अली खान को देख कर लगता है मानो समय की सुई पीछे मुड़ गयी हो और उनकी माँ, "देवी" की शर्मीला टैगोर वापस लौट आईं हों. पर फिल्म समाप्त होने पर उस सड़न की गँध मन में रह जाती है.
निराशा का लिहाफ
आरामदायक है
अपने अन्धेरे आगोश मे
भर लेता है
असलियत की कडी धूप से
बचने का आसरा है
राह मे वही थम जाने का
बहाना है
आशा का सूरज
चुना है मैने
तपता तो है
मगर
राह नई दिखाता है
गर्म बाहो से सहला
हौसला दिलाता है
सूरज से अब तो
सारी उम्र का करार है
मन्ज़िल मिले ना मिले
सफर से मुझे प्यार है
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कुरबान अली ने बीबीसी के नये हिंदी पृष्ठ के बारे में बताया जो हिंदी पत्रिका के रुप में आया है. इस नये रुप के पहले अतिथि सम्पादक है अभिनेता देव आनंद और पत्रिका की सम्पादक हैं सलमा ज़ैदी. बीबीसी जैसी प्रशिष्ठावान संस्था हिंदी लेखन को प्रोत्साहन दे तो खुशी होना स्वाभाविक ही है. पत्रिका का पहला अंक पठनीय है.
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बहुत दिनों के बाद बँगला फिल्म देखने का मौका मिला. फिल्म थी ऋतुपूर्ण घोष की "अंतरमहल". बचपन में घर के पास दुर्गा पूजा पर उत्तम कुमार और सुचित्रा सेन की रोने रुलाने वाली भावुक फिल्में मुझे बहुत पसंद थीं. कुछ बड़ा हो कर कभी फिल्म फेस्टिवल में और दूरदर्शन पर मृणाल सेन और सत्याजित राय के सिनेमा को जानने का मौका मिला था. हिंदी सिनेमा में भी बँगला साहित्य की सँवेदना लाने वाले निर्देशकों, बिमल राय, ऋषीकेष मूखर्जी, बासू चैटर्जी भी बहुत प्रिय थे.
ऋतुपूर्ण का सिनेमा जगत उसी समाज को देखता है पर उसकी दृष्टि ऊपर से केवल अच्छा अच्छा दिखने वाली, आसानी से रुलाने वाली भावनाओं जिन्हे भूलना आसान है, पर नहीं रुकती, वह अंदर घुस कर बाहर से सुंदर दिखने वाले उस समाज की परतें खोल कर अंदर सड़ते सच को अँधेरे से रोशनी में लाता है.
"अंतरमहल" को केवल "समय बिताने" को देख कर भुला पाना सँभव नहीं है. बार बार फिल्म में, गरीब घर से आई छोटी उम्र की सुंदर नयी बहु यशोमती (सोहा अली खान) को पुत्र की आशा में तड़पते, हाँफते हुए प्रोढ़ उम्र के राजा भुवनेश्वर चौधरी (जैकी श्रौफ़) के नीचे उनके बिस्तर में पिसता दिखाया जाता है, तब भी जब मँत्र पढ़ते, लार टपकाते पँडित जी बिस्तर के साथ बैठ कर उसके युवा शरीर को देख कर मजे ले रहे होते हैं. बड़ी बहु महामाया (रूपा गाँगुली) छोटी बहु को सलाह देती हैं कि रात को प्रोढ़ पति के सोने के बाद रात को उसे नीचे सो रहे युवा शिल्पकार (अभिशेख बच्चन) के बिस्तर में जाना चाहिए क्योंकि वह जानती है कि बच्चा न कर पाने का कमी पत्नियों में नहीं, स्वयं राजा साहब में हैं.
सोहा अली खान को देख कर लगता है मानो समय की सुई पीछे मुड़ गयी हो और उनकी माँ, "देवी" की शर्मीला टैगोर वापस लौट आईं हों. पर फिल्म समाप्त होने पर उस सड़न की गँध मन में रह जाती है.
बुधवार, सितंबर 06, 2006
दुर्गा माँ की वापसी
बिनिल का टेलीफ़ोन आया, बोला कि एक बहुत आवश्यक काम के लिए उसे मेरी सहायता की आवश्यकता है, कब मिल सकते हैं? बिनिल यहाँ की "सनातन साँस्कृतिक परिषद" का सभापति है. इस परिषद के सदस्य हैं भारत और बँगलादेश से आये बोलोनिया में रहनेवाले करीब ४० बँगाली हिंदु परिवार. दिक्कत यह है कि परिषद में किसी को भी ठीक से बँगला के अलावा कोई अन्य भाषा नहीं बोलनी आती. जबसे बिनिल को मालूम हुआ कि मुझे कुछ कुछ बँगला की समझ है तो तब से मुझे उनकी परिषद में माननीय सलाहकार की पदवी मिल गयी है जिसका अर्थ है कि जब भी बिनिल को किसी काम के लिए इतालवी या अँग्रेज़ी में कुछ तैयार करना होता है या फ़िर क्मप्यूटर पर कुछ करना होता है तो वह मुझे ही टेलीफ़ोन करते हैं.
शाम को बिनिल हमारे घर आया तो मालूम हुआ कि आवश्यक काम है आनेवाली दुर्गा पूजा के लिए विभिन्न भाषाओं में कुछ पोस्टर आदि बनाना.
बिनिल बात करते समय कुछ शब्द हिंदी के बोलता है और बाकि सर्राटेदार बँगला में. मैं बार बार कहता हूँ, "बिनिल बाबू, बेशी बाँगला आमारके बोलते पाड़बे ना, ओल्पो ओल्पो जानिश", यानि कि अगर आप इस तरह तेजी से बोलेंगे तो कुछ नहीं समझ सकता, धीरे धीरे बोलिये. हाँ कह कर सिर हिलाता है पर थोड़ी देर में फ़िर यह भूल जाता है.
पूजा प्रारम्भ होगी २८ सितम्बर को अधिवास से और उस दिन तो बस अधिवास पूजा ही होगी जब दुर्गा माँ की मूर्ती ला कर स्थापित की जायेगी. पूजा का महूर्त उनके पँडित ने बताया है शाम छहः बज कर तीस मिनट से ले कर रात आठ बज कर उन्नतीस मिनट.
"पर प्रोग्राम में लिखेंगे कि पूजा रात आठ बज कर उन्नतीस मिनट तक होगी तो कुछ अजीब सा नहीं लगेगा? मैंने पूछा. बिनिल मेरी तरफ़ बहुत दया से देखता है जब मैं ऐसे बेवकूफ़ी वाले प्रश्न पूछता हूँ. जब पँडित जी ने महूर्त का समय बताया है तो इसमे अज़ीब क्या? उसके कहने का तात्पर्य है कि हिंदू धर्म के प्रति मेरी श्रद्धा में कुछ कमी है.
"अच्छा साईं बाबा के बारे में आप का क्या विचार है?", इस बार प्रश्न पूछने की बारी बिनिल की थी. साई बाबा! मुझे पहले तो समझ नहीं आया क्या कहूँ. बहुत साल पहले दिल्ली में मेरी सीमा मौसी को साई बाबा की भक्ति का भूत चढ़ा था. उनके घर में एक बहुत बड़ी तस्वीर लगी थी जहाँ घर में आनेवाले सभी को जा कर दर्शन कराये जाते थे. "बाबा जी की विभूति", तस्वीर के सामने उन्होंने मुझे इशारा किया था. "विभूति माने क्या?, मैंने पूछा.
"बाबा का चमत्कार. उनकी तस्वीर से यह विभूति अपने आप ही आ जाती है!" कहते हुए उन्होंने हाथ जोड़ दिये थे. शायद मौसा की सिगरेट की राख होगी जो हवा से उड़ कर वहाँ गिर गयी, मैंने मन ही मन कहा था और सोचा था कि भारत में उनके इतने गरीब भक्त हैं उनका जीवन सुधारते तो चमत्कार होता. खैर अपने परिवार की यह सब पुरानी बातें बिनिल को क्या सुनाता, बोला, "साई बाबा का क्या? वह तो बहुत चमत्कार करते है, सुना है."
साई बाबा की एसोशियेशन वाले दुर्गा पूजा में "भोजन" करना चाहते हैं. पिछले साल भी किया था पर यह बात परिषद के सभी सदस्यों को अच्छी नहीं लगी थी, जिनका विचार था कि साईबाबा मुसलमान हैं. बँगलादेश से आये हिंदू इस पूजा में मुसलमानों से जुड़ा कुछ भी नहीं चाहते. कुछ देर लगी मुझे समझने में कि बात भोजन की नहीं भजन की थी. पर मुझे क्या मालूम था साई बाबा के बारे में जो इसका उत्तर देता? वह केवल हिंदुओं द्वारा पूजे जाते हैं या फ़िर उनके भक्तों में मुसलमान भी हैं, यह मुझे नहीं मालूम. सोचा कि चुपचाप सिर हिलाने में ही भलाई है. नहीं साईंबाबा मुसलमान नहीं हैं, अंत में बिनिल ने निर्णय लिया.
पाँच दिन का प्रोग्राम लिखने में दो घँटे निकल गये. बस बिनिल बाबू अब आप जाईये, मैंने कहा. पत्नी मुझे तीखी नजर से देख रही थी. ड्राईंगरुम में बैठे थे हम, इसलिए आज उसने टीवी नहीं देखा था. मैंने खाना भी नहीं खाया था और अभी कुत्ते को सैर कराना बाकी था. बेमन से उठे बिनिल बाबू जैसे कि मुझे छोड़ते समय बहुत दुख हो रहा हो, फ़िर जाते जाते, दरवाजे पर रुक गये, "आप इस प्रोग्राम को बँगला में भी लिख सकते हैं क्या क्मप्यूटर पर?"
शाम को बिनिल हमारे घर आया तो मालूम हुआ कि आवश्यक काम है आनेवाली दुर्गा पूजा के लिए विभिन्न भाषाओं में कुछ पोस्टर आदि बनाना.
बिनिल बात करते समय कुछ शब्द हिंदी के बोलता है और बाकि सर्राटेदार बँगला में. मैं बार बार कहता हूँ, "बिनिल बाबू, बेशी बाँगला आमारके बोलते पाड़बे ना, ओल्पो ओल्पो जानिश", यानि कि अगर आप इस तरह तेजी से बोलेंगे तो कुछ नहीं समझ सकता, धीरे धीरे बोलिये. हाँ कह कर सिर हिलाता है पर थोड़ी देर में फ़िर यह भूल जाता है.
पूजा प्रारम्भ होगी २८ सितम्बर को अधिवास से और उस दिन तो बस अधिवास पूजा ही होगी जब दुर्गा माँ की मूर्ती ला कर स्थापित की जायेगी. पूजा का महूर्त उनके पँडित ने बताया है शाम छहः बज कर तीस मिनट से ले कर रात आठ बज कर उन्नतीस मिनट.
"पर प्रोग्राम में लिखेंगे कि पूजा रात आठ बज कर उन्नतीस मिनट तक होगी तो कुछ अजीब सा नहीं लगेगा? मैंने पूछा. बिनिल मेरी तरफ़ बहुत दया से देखता है जब मैं ऐसे बेवकूफ़ी वाले प्रश्न पूछता हूँ. जब पँडित जी ने महूर्त का समय बताया है तो इसमे अज़ीब क्या? उसके कहने का तात्पर्य है कि हिंदू धर्म के प्रति मेरी श्रद्धा में कुछ कमी है.
"अच्छा साईं बाबा के बारे में आप का क्या विचार है?", इस बार प्रश्न पूछने की बारी बिनिल की थी. साई बाबा! मुझे पहले तो समझ नहीं आया क्या कहूँ. बहुत साल पहले दिल्ली में मेरी सीमा मौसी को साई बाबा की भक्ति का भूत चढ़ा था. उनके घर में एक बहुत बड़ी तस्वीर लगी थी जहाँ घर में आनेवाले सभी को जा कर दर्शन कराये जाते थे. "बाबा जी की विभूति", तस्वीर के सामने उन्होंने मुझे इशारा किया था. "विभूति माने क्या?, मैंने पूछा.
"बाबा का चमत्कार. उनकी तस्वीर से यह विभूति अपने आप ही आ जाती है!" कहते हुए उन्होंने हाथ जोड़ दिये थे. शायद मौसा की सिगरेट की राख होगी जो हवा से उड़ कर वहाँ गिर गयी, मैंने मन ही मन कहा था और सोचा था कि भारत में उनके इतने गरीब भक्त हैं उनका जीवन सुधारते तो चमत्कार होता. खैर अपने परिवार की यह सब पुरानी बातें बिनिल को क्या सुनाता, बोला, "साई बाबा का क्या? वह तो बहुत चमत्कार करते है, सुना है."
साई बाबा की एसोशियेशन वाले दुर्गा पूजा में "भोजन" करना चाहते हैं. पिछले साल भी किया था पर यह बात परिषद के सभी सदस्यों को अच्छी नहीं लगी थी, जिनका विचार था कि साईबाबा मुसलमान हैं. बँगलादेश से आये हिंदू इस पूजा में मुसलमानों से जुड़ा कुछ भी नहीं चाहते. कुछ देर लगी मुझे समझने में कि बात भोजन की नहीं भजन की थी. पर मुझे क्या मालूम था साई बाबा के बारे में जो इसका उत्तर देता? वह केवल हिंदुओं द्वारा पूजे जाते हैं या फ़िर उनके भक्तों में मुसलमान भी हैं, यह मुझे नहीं मालूम. सोचा कि चुपचाप सिर हिलाने में ही भलाई है. नहीं साईंबाबा मुसलमान नहीं हैं, अंत में बिनिल ने निर्णय लिया.
पाँच दिन का प्रोग्राम लिखने में दो घँटे निकल गये. बस बिनिल बाबू अब आप जाईये, मैंने कहा. पत्नी मुझे तीखी नजर से देख रही थी. ड्राईंगरुम में बैठे थे हम, इसलिए आज उसने टीवी नहीं देखा था. मैंने खाना भी नहीं खाया था और अभी कुत्ते को सैर कराना बाकी था. बेमन से उठे बिनिल बाबू जैसे कि मुझे छोड़ते समय बहुत दुख हो रहा हो, फ़िर जाते जाते, दरवाजे पर रुक गये, "आप इस प्रोग्राम को बँगला में भी लिख सकते हैं क्या क्मप्यूटर पर?"
शुक्रवार, सितंबर 01, 2006
सांस्कृतिक भिन्नता
मैं अपनी मित्र के साथ बाग में बने केफ़े में बैठा था. बहुत समय के बाद मुलाकात हुई थी. वह यहाँ से करीब सौ किलोमीटर दूर रिमिनी शहर में रहती है. बोली, "तुम्हें 16 सितम्बर को रिमिनी आ सकते हो क्या, हम लोग एक सभा कर रहे हैं, तुम भी होगे तो अच्छा लगेगा."
सोचना नहीं पड़ा, बोला, "16 को तो शायद नहीं आ पाऊँगा, उस दिन भारत से मेरे दादा भाभी यहाँ आ रहे हैं, दादा की पेरिस में मीटिंग है और वहाँ से वे दोनो तीन चार दिनों के लिए यहाँ आएँगे."
"पर तुम्हारा तो कोई भाई नहीं है!" उसने कहा तो मैंने बुआ के परिवार के बारे में बताया और कुछ भारतीय परिवारों के बारे में कि बुआ या मामा के बच्चे अपने सगे भाई बहनों से कम नहीं होते.
"एक शाम की ही तो बात है, उन्हें कुछ घँटों के लिए घर के बाकी लोगों के साथ रहने देना, तुम्हारे बिना सभा अच्छी नहीं होगी", उसने ज़िद की.
मुझे हँसी आ गयी, "वाह, इतने सालों के बाद भाभी के साथ रहने का मौका मिलेगा, उसमे से एक पल भी नहीं खोना चाहूँगा." मैंने उसे उन दिनों के बारे में बताया जब दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ता था, तब दादा और भाभी का प्रेम चल रहा था, विवाह नहीं हुआ था, मुझे लगता था कि भाभी से सुंदर लड़की दुनिया में हो ही नहीं सकती. शादी के बाद कहता था कि भाभी जैसी लड़की मिलनी चाहिए!
"लगता है कि भाभी से कुछ विषेश ही प्यार है, उनकी बात करते हो तो तुम्हारी आँखों में चमक आ जाती है", मित्र बोली और मैंने सिर हिलाया. "क्या केवल मन ही मन प्यार करते थे या बात कुछ आगे भी बढ़ी कभी?" वह प्रश्न पूछते समय मुस्करायी.
स्तब्ध रह गया मैं. छीः, यह कैसा बेहूदा प्रश्न हुआ? अचानक गुस्सा आ गया, कुछ बोला नहीं पाया. शायद उसने मेरे चेहरे से भाँप लिया था कि उसका प्रश्न कुछ ठीक नहीं था, बोली, "क्या हुआ? नाजुक सवाल था शायद, इस बारे में बात नहीं करना चाहते?"
मैंने स्वयं को समझाया कि गुस्सा करना बेकार था, यह हमारी सोच की सांस्कृतिक भिन्नता थी. उसे भारतीय परिवार में देवर भाभी के रिश्ते की क्या समझ हो सकती थी? उसे क्या मालूम था रामायण के बारे में और सीता और लक्षमण के आदर्श के बारे में? उसे इसके बारे में कुछ तो बताया पर अंदर से लगा कि ठीक से समझाना कठिन होगा.
गुस्सा ठँडा हुआ तो शाम को घूमते समय, मन में छुपे सामाजिक और नैतिक निषेधों के बारे में सोचने लगा, जो बचपन से ही रामायण और अन्य कथाओं से, या फ़िर आम व्यावहार से हमारे विचारों में इस तरह घुलमिल जाते हैं. उन्हे छेड़ना सोते शेर को जगाना है. उसका इशारा मात्र ही हिला कर रख देता है.
संयुक्त परिवार में जहाँ विभिन्न भाई साथ रहते हैं, उस समाज में जहाँ किशोरावस्था के बाद युवक और युवतियों को मिलने का, साथ रहने का मौका मिलना कम हो जाता है या नहीं रहता, उस स्थिति में देवर भाभी के रिश्ते को निषेधों में इस तरह बाँधना कि रिश्ते की सीमाओं को पार करना का विचार भी पाप लगे, परिवार की शाँती और समाज की स्थिरता के लिए आवश्यक होगा, पर जब स्थिति बदल जाती है तो क्या पुराने निषेध भी बदल जाते हैं? जैसे आज जब संयुक्त परिवार टूट रहे हैं या कम हो रहे हें तो क्या भारतीय समाज में भी देवर भाभी के नाते बदल जायेंगे?
*****
बहुत साल पहले डेविड लीन की फ़िल्म रायन की बेटी (Ryan's Daughter) देखी थी. आयरलैंड के समुद्री तट पर बसे एक गाँव के पब मालिक रायन की बेटी रोज़ी (Sarah Miles) की कहानी थी. जीवन से भरी, चंचल रोज़ी का विवाह होता है गाँव के शाँत प्रौढ़ स्कूल मास्टर (Roberto Mitchum) से. रोज़ी की दोस्ती हो जाती है गाँव में आये एक अँग्रेजी सिपाही (Christopher Jones) से. बाद में जब आयरिश क्राँतीकारियों की बँदूकें पकड़ी जाती हैं तो सबका शक रोज़ी पर ही पड़ता है, गद्दार हो कर दुश्मन के पुरुष को प्यार करने के अपराध की सजा मिलती है उसे जब गाँव के लोग उसका सिर मूढ़ कर, मुँह काला कर देते हैं.
द्वितीय महायुद्ध के दौरान इतालवी और फ्राँसिसी महिलाओं के जर्मन सिपाहियों से प्यार और सम्बंधों को भी युद्ध के बाद ऐसी ही सजा दी गयीं थीं.
कल रात को समाचारों में जब चेचेन्या की मल्लिका को पुलिस द्वारा नँगा करके, सिर मूढ़ा कर, माथे पर हरा निशान बना कर मार खाने का वीडियो देखा तो रायन की बेटी की याद आ गयी. मल्लिका का कसूर है कि उस पर चेचेन्या की मुसलमान हो कर रुसी दुश्मनों के इसाई सिपाही से प्यार करने का शक है. यह वीडियो न्यू योर्क टाईमस के वेबपृष्ठ पर देखा जा सकता है.
सच है कि इतिहास नहीं बदलता, बार बार हम अपना सभ्य होना भूल कर पुरानी बर्बरता में गिर जाते हैं. कमज़ोर पर ही इस बर्बरता की भड़ास निकाल जाती है, सबसे अधिक औरतों पर. नेपाल में जब घर में होने वाली हिंसा की बात हो रही थी तो गाँव की औरते कहती थीं कि पतियों को गर्भवती स्त्री के पेट पर लात मारने में विषेश आनंद आता है. गर्भवती मल्लिका को लात मारने वाले पुलिस वालों को भी इसी आनंद की खोज है. कितने भिन्न हैं हम आपस में और कितने मिलते हैं एक दूसरे से!
सोचना नहीं पड़ा, बोला, "16 को तो शायद नहीं आ पाऊँगा, उस दिन भारत से मेरे दादा भाभी यहाँ आ रहे हैं, दादा की पेरिस में मीटिंग है और वहाँ से वे दोनो तीन चार दिनों के लिए यहाँ आएँगे."
"पर तुम्हारा तो कोई भाई नहीं है!" उसने कहा तो मैंने बुआ के परिवार के बारे में बताया और कुछ भारतीय परिवारों के बारे में कि बुआ या मामा के बच्चे अपने सगे भाई बहनों से कम नहीं होते.
"एक शाम की ही तो बात है, उन्हें कुछ घँटों के लिए घर के बाकी लोगों के साथ रहने देना, तुम्हारे बिना सभा अच्छी नहीं होगी", उसने ज़िद की.
मुझे हँसी आ गयी, "वाह, इतने सालों के बाद भाभी के साथ रहने का मौका मिलेगा, उसमे से एक पल भी नहीं खोना चाहूँगा." मैंने उसे उन दिनों के बारे में बताया जब दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ता था, तब दादा और भाभी का प्रेम चल रहा था, विवाह नहीं हुआ था, मुझे लगता था कि भाभी से सुंदर लड़की दुनिया में हो ही नहीं सकती. शादी के बाद कहता था कि भाभी जैसी लड़की मिलनी चाहिए!
"लगता है कि भाभी से कुछ विषेश ही प्यार है, उनकी बात करते हो तो तुम्हारी आँखों में चमक आ जाती है", मित्र बोली और मैंने सिर हिलाया. "क्या केवल मन ही मन प्यार करते थे या बात कुछ आगे भी बढ़ी कभी?" वह प्रश्न पूछते समय मुस्करायी.
स्तब्ध रह गया मैं. छीः, यह कैसा बेहूदा प्रश्न हुआ? अचानक गुस्सा आ गया, कुछ बोला नहीं पाया. शायद उसने मेरे चेहरे से भाँप लिया था कि उसका प्रश्न कुछ ठीक नहीं था, बोली, "क्या हुआ? नाजुक सवाल था शायद, इस बारे में बात नहीं करना चाहते?"
मैंने स्वयं को समझाया कि गुस्सा करना बेकार था, यह हमारी सोच की सांस्कृतिक भिन्नता थी. उसे भारतीय परिवार में देवर भाभी के रिश्ते की क्या समझ हो सकती थी? उसे क्या मालूम था रामायण के बारे में और सीता और लक्षमण के आदर्श के बारे में? उसे इसके बारे में कुछ तो बताया पर अंदर से लगा कि ठीक से समझाना कठिन होगा.
गुस्सा ठँडा हुआ तो शाम को घूमते समय, मन में छुपे सामाजिक और नैतिक निषेधों के बारे में सोचने लगा, जो बचपन से ही रामायण और अन्य कथाओं से, या फ़िर आम व्यावहार से हमारे विचारों में इस तरह घुलमिल जाते हैं. उन्हे छेड़ना सोते शेर को जगाना है. उसका इशारा मात्र ही हिला कर रख देता है.
संयुक्त परिवार में जहाँ विभिन्न भाई साथ रहते हैं, उस समाज में जहाँ किशोरावस्था के बाद युवक और युवतियों को मिलने का, साथ रहने का मौका मिलना कम हो जाता है या नहीं रहता, उस स्थिति में देवर भाभी के रिश्ते को निषेधों में इस तरह बाँधना कि रिश्ते की सीमाओं को पार करना का विचार भी पाप लगे, परिवार की शाँती और समाज की स्थिरता के लिए आवश्यक होगा, पर जब स्थिति बदल जाती है तो क्या पुराने निषेध भी बदल जाते हैं? जैसे आज जब संयुक्त परिवार टूट रहे हैं या कम हो रहे हें तो क्या भारतीय समाज में भी देवर भाभी के नाते बदल जायेंगे?
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बहुत साल पहले डेविड लीन की फ़िल्म रायन की बेटी (Ryan's Daughter) देखी थी. आयरलैंड के समुद्री तट पर बसे एक गाँव के पब मालिक रायन की बेटी रोज़ी (Sarah Miles) की कहानी थी. जीवन से भरी, चंचल रोज़ी का विवाह होता है गाँव के शाँत प्रौढ़ स्कूल मास्टर (Roberto Mitchum) से. रोज़ी की दोस्ती हो जाती है गाँव में आये एक अँग्रेजी सिपाही (Christopher Jones) से. बाद में जब आयरिश क्राँतीकारियों की बँदूकें पकड़ी जाती हैं तो सबका शक रोज़ी पर ही पड़ता है, गद्दार हो कर दुश्मन के पुरुष को प्यार करने के अपराध की सजा मिलती है उसे जब गाँव के लोग उसका सिर मूढ़ कर, मुँह काला कर देते हैं.
द्वितीय महायुद्ध के दौरान इतालवी और फ्राँसिसी महिलाओं के जर्मन सिपाहियों से प्यार और सम्बंधों को भी युद्ध के बाद ऐसी ही सजा दी गयीं थीं.
कल रात को समाचारों में जब चेचेन्या की मल्लिका को पुलिस द्वारा नँगा करके, सिर मूढ़ा कर, माथे पर हरा निशान बना कर मार खाने का वीडियो देखा तो रायन की बेटी की याद आ गयी. मल्लिका का कसूर है कि उस पर चेचेन्या की मुसलमान हो कर रुसी दुश्मनों के इसाई सिपाही से प्यार करने का शक है. यह वीडियो न्यू योर्क टाईमस के वेबपृष्ठ पर देखा जा सकता है.
सच है कि इतिहास नहीं बदलता, बार बार हम अपना सभ्य होना भूल कर पुरानी बर्बरता में गिर जाते हैं. कमज़ोर पर ही इस बर्बरता की भड़ास निकाल जाती है, सबसे अधिक औरतों पर. नेपाल में जब घर में होने वाली हिंसा की बात हो रही थी तो गाँव की औरते कहती थीं कि पतियों को गर्भवती स्त्री के पेट पर लात मारने में विषेश आनंद आता है. गर्भवती मल्लिका को लात मारने वाले पुलिस वालों को भी इसी आनंद की खोज है. कितने भिन्न हैं हम आपस में और कितने मिलते हैं एक दूसरे से!
गुरुवार, अगस्त 31, 2006
बदलती रुचियाँ
एक समय था जब रविवार के आनंद का महत्वपूर्ण भाग होता था बिस्तर में लेटे लेटे गर्म चाय की चुस्कियाँ लेते हुए, अखबार पढ़ना. पढ़ने का इतना शौक था कि अखबार भी पहले से आखिरी पन्ने तक पढ़ी जाती थी. आदत के मारे सुबह आँख जल्दी ही खुल जाती थी, पर रविवार को अखबार देरी से आता था. जैसे ही अखबार वाला बाहर से अखबार को फ़ैंकता तो उसके गिरने की आवाज़ सुनते ही अखबार उठाने के लिए बाहर भागता, फ़िर उसके पन्ने घर में सब लोगों में बँट जाते ताकि किसी को भी उसे पढ़ने के लिए अधिक इंतज़ार न करना पड़े.
बचपन में तो घर में अखबार हिंदी का ही आता था, "नवभारत टाईमस". पर किशोरावस्था में आते आते, उसके साथ अँग्रेज़ी का "इँडियन एक्सप्रैस" भी जुड़ गया था. बुआ जो करीब ही रहतीं थीं, के यहाँ आता था अँग्रेज़ी का "हिंदुस्तान टाईमस", पर उसके तीन चार पन्नों के शादियों, घरों और नौकरियों के विज्ञापनों को देख कर मुझे खीज आती थी. सोचता था यह भी कैसा अखबार है, अखबार कम विज्ञापन की दुकान है.
वे दिन थे जब अरुण शौरी और चित्रा सुब्रामणियम "इँडियन एक्सप्रैस" में प्रति दिन राजीव गाँधी के विरुद्ध बोफोरस के घपले की नयी पोल खोलते थे. अखबार पढ़ना तब रोमाँचक उपन्यास पढ़ने से कम नहीं था. उन दिनों में अरुण शौरी का कुछ भी छपता तो उसे पढ़ने की बहुत उत्सुक्ता रहती थी. तब उनके लिखने का ढ़ँग भी अलग था. आजकल जैसे बाल की खाल निकाल कर उसे हज़ार टुकड़ों में बाँट कर, यहाँ वहाँ से रेफेरेंस दे कर वह कुछ उबा सा देते हैं, तब वैसा नहीं लिखते थे. वही दिन थे जब "इंडियन एक्सप्रैस" के प्रति मन में इतना विश्वास बन गया था कि जब तक भारत में रहे वही अखबार घर में आया.
"इँडियन एक्सप्रैस" के प्रति श्रद्धा का एक अन्य कारण भी था. पापा की अक्समात मृत्यु के बाद श्री जयप्रकाश नारायण के कहने पर अखबार के मालिक गोयनका जी ने छात्रविती दे कर मेरी और मेरी छोटी बहन की मेडिकल कालिज की पढ़ाई पूरी कराई, वरना कम से कम मुझे तो पढ़ाई छोड़ कर काम खोजना पड़ता.
यहाँ आ कर अपने चहेते अखबारों और पत्रिकाओं से धीरे धीरे नाता टूट गया. जब सारिका, धर्मयुग और साप्ताहिक हिंदुस्तान के प्रकाशन रुक गये तो भारत से पत्रिकाएँ मँगवाना बस "हँस" तक ही सीमित रह गया.
केवल पिछले कुछ वर्षों में अंतर्जाल की सुविधा के साथ भारतीय लेखन से नाता दोबारा जुड़ा है पर यह नाता पिछले नातों से भिन्न है. समय सीमित होता है इसलिए उपयोग सिर्फ़ उस जगह होता है जहाँ अधिक आनंद और संतोष मिले. आज कल अधिकतर समय, ८० प्रतिशत तक समय तो चिट्ठों के साथ गुजरता है, हिंदी और अँग्रेजी के भारतीय मूल के छिट्ठाकारों के जगत में.
अखबारों में कभी "हिंदुस्तान टाईमस" के पृष्ठों को देख लेता हूँ पर भारत के राजनीतिक समाचारों में रुचि कम हो जाने से वहाँ भी कम ही पढ़ता हूँ. अंतर्जाल के संस्करणों में बाकी के अखबार उतने अच्छे नहीं लगते. इसलिए मन में अभी भी कृतज्ञता की भावना के होते हुए भी, अंतर्जाल पर "इंडियन एक्सप्रैस" पढ़ना नहीं अच्छा लगता.
हिंदी फिल्म जगत में दिलचस्पी अवश्य बनी हुई है पर जिन पत्रिकाओं को भारत में पढ़ना अच्छा लगता था जैसे फिल्मफैयर इत्यादि, अंतर्जाल पर उनको पढ़ने में उतना आनंद नहीं आता बल्कि इंडिया एफएम या रिडिफ कोम जैसे अंतर्जाल पृष्ठ अधिक अच्छे लगते हैं क्योंकि वहाँ हर दिन नये समाचार मिलते हैं. जबकि फिल्मफैयर जैसी पत्रिकाओं के अंतर्जाल पृष्ठ छपे कागजं से सीधे अंतर्जाल पर उतार दिये गये लगते हैं.
अँग्रेजी की पत्रिकाएँ आऊटलुक और द वीक जिन्हें भारत में पढ़ना अच्छा लगता था, कोशिश करता हूँ कि उन्हें पढ़ने के लिए समय नियमित रुप से निकाला जाये, पर समय चिट्ठों मे निकलने की वजह से कभी कभी उन्हे पढ़े भी हफ्ते हो जाते हैं.
प्रवासी भारतीयों ने भारतीय फिल्मों पर अपना प्रभाव छोड़ा है, प्रवास में बाज़ार का मूल्य बढ़ने से, फिल्में अब प्रवासियों की रुचि को देख कर भी बनायी जाती हैं, पर क्या प्रवासियों का प्रभाव अखबारों और पत्रिकाओं पर भी पड़ेगा? आज की बढ़ती नयी तकनीकों का क्या प्रभाव पड़ेगा भारतीय मीडिया पर?
आप लोगों के इसके अनुभव कैसे हैं मालूम नहीं पर अगर सभी लोग मेरी तरह के होने लगे तो भविष्य में हमारी रुचियों के इन बदलावों का भारतीय पत्रकारिता पर क्या असर होगा? आज भारत में अधिकतर लोगों के लिए अंतर्जाल केवल एक शब्द है जिसका उन्हें व्यक्तिगत अनुभव न हो, न ही शायद अधिकतर भारतीयों के जीवन इतनी तेज़ी से भाग रहे हैं कि उन्हें मेरी तरह रुक कर सोचने की फुरसत ही न हो, इसलिए हो सकता है कि निकट भविष्य में इसका असर शायद कुछ न हो?
बचपन में तो घर में अखबार हिंदी का ही आता था, "नवभारत टाईमस". पर किशोरावस्था में आते आते, उसके साथ अँग्रेज़ी का "इँडियन एक्सप्रैस" भी जुड़ गया था. बुआ जो करीब ही रहतीं थीं, के यहाँ आता था अँग्रेज़ी का "हिंदुस्तान टाईमस", पर उसके तीन चार पन्नों के शादियों, घरों और नौकरियों के विज्ञापनों को देख कर मुझे खीज आती थी. सोचता था यह भी कैसा अखबार है, अखबार कम विज्ञापन की दुकान है.
वे दिन थे जब अरुण शौरी और चित्रा सुब्रामणियम "इँडियन एक्सप्रैस" में प्रति दिन राजीव गाँधी के विरुद्ध बोफोरस के घपले की नयी पोल खोलते थे. अखबार पढ़ना तब रोमाँचक उपन्यास पढ़ने से कम नहीं था. उन दिनों में अरुण शौरी का कुछ भी छपता तो उसे पढ़ने की बहुत उत्सुक्ता रहती थी. तब उनके लिखने का ढ़ँग भी अलग था. आजकल जैसे बाल की खाल निकाल कर उसे हज़ार टुकड़ों में बाँट कर, यहाँ वहाँ से रेफेरेंस दे कर वह कुछ उबा सा देते हैं, तब वैसा नहीं लिखते थे. वही दिन थे जब "इंडियन एक्सप्रैस" के प्रति मन में इतना विश्वास बन गया था कि जब तक भारत में रहे वही अखबार घर में आया.
"इँडियन एक्सप्रैस" के प्रति श्रद्धा का एक अन्य कारण भी था. पापा की अक्समात मृत्यु के बाद श्री जयप्रकाश नारायण के कहने पर अखबार के मालिक गोयनका जी ने छात्रविती दे कर मेरी और मेरी छोटी बहन की मेडिकल कालिज की पढ़ाई पूरी कराई, वरना कम से कम मुझे तो पढ़ाई छोड़ कर काम खोजना पड़ता.
यहाँ आ कर अपने चहेते अखबारों और पत्रिकाओं से धीरे धीरे नाता टूट गया. जब सारिका, धर्मयुग और साप्ताहिक हिंदुस्तान के प्रकाशन रुक गये तो भारत से पत्रिकाएँ मँगवाना बस "हँस" तक ही सीमित रह गया.
केवल पिछले कुछ वर्षों में अंतर्जाल की सुविधा के साथ भारतीय लेखन से नाता दोबारा जुड़ा है पर यह नाता पिछले नातों से भिन्न है. समय सीमित होता है इसलिए उपयोग सिर्फ़ उस जगह होता है जहाँ अधिक आनंद और संतोष मिले. आज कल अधिकतर समय, ८० प्रतिशत तक समय तो चिट्ठों के साथ गुजरता है, हिंदी और अँग्रेजी के भारतीय मूल के छिट्ठाकारों के जगत में.
अखबारों में कभी "हिंदुस्तान टाईमस" के पृष्ठों को देख लेता हूँ पर भारत के राजनीतिक समाचारों में रुचि कम हो जाने से वहाँ भी कम ही पढ़ता हूँ. अंतर्जाल के संस्करणों में बाकी के अखबार उतने अच्छे नहीं लगते. इसलिए मन में अभी भी कृतज्ञता की भावना के होते हुए भी, अंतर्जाल पर "इंडियन एक्सप्रैस" पढ़ना नहीं अच्छा लगता.
हिंदी फिल्म जगत में दिलचस्पी अवश्य बनी हुई है पर जिन पत्रिकाओं को भारत में पढ़ना अच्छा लगता था जैसे फिल्मफैयर इत्यादि, अंतर्जाल पर उनको पढ़ने में उतना आनंद नहीं आता बल्कि इंडिया एफएम या रिडिफ कोम जैसे अंतर्जाल पृष्ठ अधिक अच्छे लगते हैं क्योंकि वहाँ हर दिन नये समाचार मिलते हैं. जबकि फिल्मफैयर जैसी पत्रिकाओं के अंतर्जाल पृष्ठ छपे कागजं से सीधे अंतर्जाल पर उतार दिये गये लगते हैं.
अँग्रेजी की पत्रिकाएँ आऊटलुक और द वीक जिन्हें भारत में पढ़ना अच्छा लगता था, कोशिश करता हूँ कि उन्हें पढ़ने के लिए समय नियमित रुप से निकाला जाये, पर समय चिट्ठों मे निकलने की वजह से कभी कभी उन्हे पढ़े भी हफ्ते हो जाते हैं.
प्रवासी भारतीयों ने भारतीय फिल्मों पर अपना प्रभाव छोड़ा है, प्रवास में बाज़ार का मूल्य बढ़ने से, फिल्में अब प्रवासियों की रुचि को देख कर भी बनायी जाती हैं, पर क्या प्रवासियों का प्रभाव अखबारों और पत्रिकाओं पर भी पड़ेगा? आज की बढ़ती नयी तकनीकों का क्या प्रभाव पड़ेगा भारतीय मीडिया पर?
आप लोगों के इसके अनुभव कैसे हैं मालूम नहीं पर अगर सभी लोग मेरी तरह के होने लगे तो भविष्य में हमारी रुचियों के इन बदलावों का भारतीय पत्रकारिता पर क्या असर होगा? आज भारत में अधिकतर लोगों के लिए अंतर्जाल केवल एक शब्द है जिसका उन्हें व्यक्तिगत अनुभव न हो, न ही शायद अधिकतर भारतीयों के जीवन इतनी तेज़ी से भाग रहे हैं कि उन्हें मेरी तरह रुक कर सोचने की फुरसत ही न हो, इसलिए हो सकता है कि निकट भविष्य में इसका असर शायद कुछ न हो?
शुक्रवार, अगस्त 25, 2006
जीवन मृत्यु
रोम के भारतीय दूतावास पर प्रवासी भारतीय नागरिकता के कार्ड के लिए अपने और पुत्र के कागज़ जमा करवाने थे, सुबह सुबह बोलोनिया से गाड़ी में हम लोग निकले, मैं, पुत्र और पुत्रवधु. तीन महीने हो गये पुत्रवधु को इटली आये, सोचा कि काम समाप्त होने के बाद रोम की सैर भी जाये तो चार घँटे की जाने की और चार घँटे की वापस आने की यात्रा का कुछ लाभ होगा.
भारतीय दूतावास पहुँचते पहुँचते ग्यारह बजने लगे थे. छोटे से तँग गलियारे से घुसने का रास्ता, अँदर वीसा लेने वाले विदेशियों और पासपोर्ट नये बनवाने वाले भारतीयों की भीड़, उमस भरी गर्मी में छत पर टँगा धीरे धीरे घूमता पँखा, और ऊपर दफ्तर में फाईलों के पहाड़ों के पीछे छुपे बाबू लोग, यानि अगर भारत जाने के लिए पैसे न हों और मातृभूमि की बहुत याद आ रही हो तो दूतावास में घुसते ही लगता है कि दिल्ली के किसी सरकारी दफ़्तर में ही पहुँच गये हों. पर एक महत्वपूर्ण अंतर था, प्रवासी भारतीय नागरिकता के जिम्मेदार व्यक्ति का हमसे इज्जत से बात करना और सब कुछ ठीक से समझाना. हालाँकि भीड़ बहुत थी पर इंतज़ार भी बहुत अधिक नहीं करना पड़ा सब काम पूरा करने में.
काम पूरा करके सारी दोपहर और शाम रोम घूमने में निकल गयी. पहले कोलोसियम, फ़िर रोम के प्राचीन सम्राट के महलों के खँडहर, फ़िर मार्को आउरेलियो का भव्य भवन काम्पी दोलियो जहाँ आजकल नगरपालिका का दफ़्तर है और कला सँग्रहालय भी है, फ़िर युद्ध में मरे सैनिकों की याद में बने विटोरियानो, फ़िर नाव के आकार में बना नवोना चौबारा और त्रेवी का फुव्वारा, फ़िर वेटीकेन में सेंट पीटर. पाँच छहः घँटों में रोम के एक कोने से दूसरे कोने तक पर्यटकों के लिए सभी महत्व वाले स्थानों को बाहर बाहर से देख चुके थे. बस अब और कुछ नहीं होगा, वापस बोलोनिया की ओर चलना चाहिए सोच कर उस कार पार्क की तरफ़ लौटे जहाँ गाड़ी रखी थी.
चलते चलते तो मालूम नहीं हुआ था पर गाड़ी में बैठते ही दर्द की आह को नहीं रोक पाया. हल्का सा थैला था कँधे पर जिसमें दूतावास के कागज़ और कैमरा थे, वह दर्द से जकड़ गया था, दोनों घुटनों का बाजे अलग बज रहे थे. पुत्र और पुत्रवधु थके अवश्य थे पर मेरी तरह दर्द से नहीं कराह रहे थे. घर पहुँचते रात के ग्यारह बज रहे थे और शरीर का कोई अंग ऐसा नहीं था जहाँ दर्द न हो रहा हो, सी सी करते सीढ़ियाँ चढ़ीं. रात को पत्नी ने बाम लगा कर कँधे, कमर और टाँगों की मालिश की और बोली, "अब बचपना छोड़ो और अपनी उम्र को याद रखो. अब बच्चे नहीं हो कि कुछ भी भागा दौड़ी कर लो, हड्डियाँ माँस पेशियाँ अपनी उम्र दिखाने लगी हैं, उनका नहीं सोचेगो तो रहे सहे से भी जाते रहोगे."
*****
शायद यह जोड़ों में हो रहे दर्द का असर था, या फ़िर बिना वजह कभी कभी अचानक मन में आ जाने वाली उदासी का असर था. ओम थानवी जी का निर्मल वर्मा की मृत्यू पर लिखे आलेख को पढ़ कर मन बार बार मृत्यु और गुजरते समय के बारे में सोच रहा था. भारत में रहते हुए मृत्यु को भुलाना आसान नहीं है, जीवन और मृत्यु दोनो ही अपनी पूरी शक्ति के साथ जीवन के हर पहलू में घुले मिले हैं. किसी के दाह संस्कार पर जाईये तो अग्नि में भस्म होते शरीर को देख कर समझ आता है कि मृत्यू जीवन का ही दूसरा पहलू है, उसका अभिन्न अंग.
पर किसी के दाह संस्कार में गये बरसों बीत गये हैं. हर बार भारत जाओ तो मालूम है ये नहीं रहे या वे नहीं रहे. नाना नानी, बुआ फूफा, मौसी, मित्र. पर सबके समाचार मिले जब भारत से दूर था. और इटली में पत्नी के परिवार में या फ़िर जान पहचान के लोगों में जब भी किसी की मृत्यु हुई तो मैं कहीं विदेश यात्रा में था. हालाँकि इसाई कब्र में रखते शरीर की छवि में मुझे वह दाह संस्कार वाली "यही अंत है, धूल में मिल गया सब फ़िर से" जैसी बात कम लगती है पर यहाँ भी मुझे किसी प्रियजन की मृत्यु पर साथ रहने का मौका नहीं मिला.
ओम जी ने अपने आलेख में लिखा है, "हम चिता की बगल में एक पत्थर की बैंच पर बैठे हुए थे. चिता की राख और आँच रह रह कर इसी तरफ़ आती थी. हर झोंका आग की लपटों के साथ यादों के अनगिनत थपेड़े साथ लाता था. मेरी सूनी नज़र चिता पर टिकी थी, बल्कि उनके कपोल पर..." . पढ़ कर झुरझुरी सी आ गयी.
यहाँ जीवन में लगता है कि मौत जैसे है ही नहीं, जैसे हम सब शास्वत अंतहीन जीवन का वरदान पाये हुए हैं, यह करो, वह बनाओ, इसको कैसे काटो, उसको कैसे नीचा दिखाओ, जवान लगो, पतले लगो, स्वस्थ रहो, यह खाओ, यह न खाओ, अंतहीन चक्कर जिसमें मृत्यु कहीं भूलभुल्लियाँ में छुपी हुई है, उसकी कोई बात न करो, लगना चाहिए कि वह है ही नहीं और शायद वह सचमुच खो ही जायेगी!
यमराज का नचिकेता को उत्तर, "सस्यमिव मर्त्यः पच्यते सस्यमिवाजायते पुनः" मानो हमारे ऊपर नहीं लागू होता, वह तो केवल अन्य लोगों के लिए बना है. पर जब शरीर आने वाली वृद्धावस्था के संकेत महसूस करने लगता है, तो शायद हमें उस आने वाले अंतिम पल के बारे में भी सोचना चाहिए, उसकी तैयारी करनी चाहिए?
जब तक कमर, कँधे और टाँगों का दर्द कम हुआ तो बिस्तर पर लेटे लेटे यही सब विचार मन में आ रहे थे.
*****
पुस्तकालय जा रहा था तो बस स्टाप वह दिखा. करीब आ कर उसने धीरे से पूछा, "आप पाकिस्तान से हैं क्या?"
"नहीं मैं भारत से हूँ, क्या आप पाकिस्तान से हैं?" मैंने पूछा. यहाँ बोलोनिया में भारतीय बहुत कम हैं और पाकिस्तानी बहुत अधिक इसलिए अपने जैसा चेहरा दिखे तो पहला विचार यही मन में आता है कि "पाकिस्तानी होगा". वह मुस्कुरा कर बोला, "नहीं मैं भी इंडिया से हूँ, होशियार पुर से".
साथ में बस में सफ़र करते करते उसने अपनी कहानी सुनाई. दसवीं पास है वह और मेटल का काम जानता है. 29 साल का है पर देखने में बहुत छोटा लगता है. सोलह महीने की यात्रा की है उसने यहाँ पहुँचने के लिए. पंजाब में बरोड़ नाम के किसी एँजेंट को पाँच लाख रुपये दिये और रूस में मोस्को पहुँचा, जहाँ पाँच महीने जेल में रहा. फ़िर एँजेंट के किसी आदमी ने जेल से निकलवाया. फ़िर यूक्रेन पहुँचा, वहाँ अन्य पाँच महीनो के लिए जेल. फ़िर किसी ने जेल से निकलवाया. यात्रा उसे अन्य कई देश ले गयी जिनके बारे में वह कुछ अधिक नहीं बता पाता. अंत में समुद्र में लहरों से लड़कर छोटी सी नाव में पहुँचा इटली की सीमा रक्षा करने वालों के हाथ यहाँ की एक जेल में. किसी मानव अधिकारों की बात करने वाले ने बाहर निकलने में सहायता की और शरणार्थी के फोर्म भरने की सहायता की. अब उसे कोई भारत वापस नहीं भेज सकता, क्योंकि वह किसी को नहीं बताता कि उसका पासपोर्ट और कागज़ कहाँ हैं और बिना कागजों के न तो भारत उसे स्वीकारेगा न पाकिस्तान. आजकल श्रीलँका के एक व्यक्ति के साथ रहता है और काम खोज रहा है. तब तक भूखा न मरने के लिए घर से पाँच सौ यूरो मँगवाये हैं.
उसकी आँखों में आशावान जीवन चमकता है, "एक बार काम मिल जायेगा तो घर की दरिद्री दूर हुई समझो, सब ठीक हो जायेगा. सब काम करने को तैयार हूँ, कुछ भी थोड़ा सा दे दो. कोई काम हो तो बताईयेगा."
साथ आने वाले कितने मरे और कितनों ने यह यात्रा पूरी की, पूछने का साहस नहीं हुआ. हर रोज़ टीवी पर समुद्र में गैरकानूनी आने वालों के मरने के समाचार बताते हैं, वह किसमत वाला है, मरा नहीं, जीवित पहुँच गया. जीवन जीवित रहने के लिए हिम्मत नहीं हारता, एक मुठ्ठी भर जगह चाहिए उसे, बस खड़ा होने भर की, जिंदा रहने के लिए पत्थर में भी जड़े खोद कर पानी खोज लेगा.
*****
रोम यात्रा से कुछ तस्वीरें प्रस्तुत हैं.
भारतीय दूतावास पहुँचते पहुँचते ग्यारह बजने लगे थे. छोटे से तँग गलियारे से घुसने का रास्ता, अँदर वीसा लेने वाले विदेशियों और पासपोर्ट नये बनवाने वाले भारतीयों की भीड़, उमस भरी गर्मी में छत पर टँगा धीरे धीरे घूमता पँखा, और ऊपर दफ्तर में फाईलों के पहाड़ों के पीछे छुपे बाबू लोग, यानि अगर भारत जाने के लिए पैसे न हों और मातृभूमि की बहुत याद आ रही हो तो दूतावास में घुसते ही लगता है कि दिल्ली के किसी सरकारी दफ़्तर में ही पहुँच गये हों. पर एक महत्वपूर्ण अंतर था, प्रवासी भारतीय नागरिकता के जिम्मेदार व्यक्ति का हमसे इज्जत से बात करना और सब कुछ ठीक से समझाना. हालाँकि भीड़ बहुत थी पर इंतज़ार भी बहुत अधिक नहीं करना पड़ा सब काम पूरा करने में.
काम पूरा करके सारी दोपहर और शाम रोम घूमने में निकल गयी. पहले कोलोसियम, फ़िर रोम के प्राचीन सम्राट के महलों के खँडहर, फ़िर मार्को आउरेलियो का भव्य भवन काम्पी दोलियो जहाँ आजकल नगरपालिका का दफ़्तर है और कला सँग्रहालय भी है, फ़िर युद्ध में मरे सैनिकों की याद में बने विटोरियानो, फ़िर नाव के आकार में बना नवोना चौबारा और त्रेवी का फुव्वारा, फ़िर वेटीकेन में सेंट पीटर. पाँच छहः घँटों में रोम के एक कोने से दूसरे कोने तक पर्यटकों के लिए सभी महत्व वाले स्थानों को बाहर बाहर से देख चुके थे. बस अब और कुछ नहीं होगा, वापस बोलोनिया की ओर चलना चाहिए सोच कर उस कार पार्क की तरफ़ लौटे जहाँ गाड़ी रखी थी.
चलते चलते तो मालूम नहीं हुआ था पर गाड़ी में बैठते ही दर्द की आह को नहीं रोक पाया. हल्का सा थैला था कँधे पर जिसमें दूतावास के कागज़ और कैमरा थे, वह दर्द से जकड़ गया था, दोनों घुटनों का बाजे अलग बज रहे थे. पुत्र और पुत्रवधु थके अवश्य थे पर मेरी तरह दर्द से नहीं कराह रहे थे. घर पहुँचते रात के ग्यारह बज रहे थे और शरीर का कोई अंग ऐसा नहीं था जहाँ दर्द न हो रहा हो, सी सी करते सीढ़ियाँ चढ़ीं. रात को पत्नी ने बाम लगा कर कँधे, कमर और टाँगों की मालिश की और बोली, "अब बचपना छोड़ो और अपनी उम्र को याद रखो. अब बच्चे नहीं हो कि कुछ भी भागा दौड़ी कर लो, हड्डियाँ माँस पेशियाँ अपनी उम्र दिखाने लगी हैं, उनका नहीं सोचेगो तो रहे सहे से भी जाते रहोगे."
*****
शायद यह जोड़ों में हो रहे दर्द का असर था, या फ़िर बिना वजह कभी कभी अचानक मन में आ जाने वाली उदासी का असर था. ओम थानवी जी का निर्मल वर्मा की मृत्यू पर लिखे आलेख को पढ़ कर मन बार बार मृत्यु और गुजरते समय के बारे में सोच रहा था. भारत में रहते हुए मृत्यु को भुलाना आसान नहीं है, जीवन और मृत्यु दोनो ही अपनी पूरी शक्ति के साथ जीवन के हर पहलू में घुले मिले हैं. किसी के दाह संस्कार पर जाईये तो अग्नि में भस्म होते शरीर को देख कर समझ आता है कि मृत्यू जीवन का ही दूसरा पहलू है, उसका अभिन्न अंग.
पर किसी के दाह संस्कार में गये बरसों बीत गये हैं. हर बार भारत जाओ तो मालूम है ये नहीं रहे या वे नहीं रहे. नाना नानी, बुआ फूफा, मौसी, मित्र. पर सबके समाचार मिले जब भारत से दूर था. और इटली में पत्नी के परिवार में या फ़िर जान पहचान के लोगों में जब भी किसी की मृत्यु हुई तो मैं कहीं विदेश यात्रा में था. हालाँकि इसाई कब्र में रखते शरीर की छवि में मुझे वह दाह संस्कार वाली "यही अंत है, धूल में मिल गया सब फ़िर से" जैसी बात कम लगती है पर यहाँ भी मुझे किसी प्रियजन की मृत्यु पर साथ रहने का मौका नहीं मिला.
ओम जी ने अपने आलेख में लिखा है, "हम चिता की बगल में एक पत्थर की बैंच पर बैठे हुए थे. चिता की राख और आँच रह रह कर इसी तरफ़ आती थी. हर झोंका आग की लपटों के साथ यादों के अनगिनत थपेड़े साथ लाता था. मेरी सूनी नज़र चिता पर टिकी थी, बल्कि उनके कपोल पर..." . पढ़ कर झुरझुरी सी आ गयी.
यहाँ जीवन में लगता है कि मौत जैसे है ही नहीं, जैसे हम सब शास्वत अंतहीन जीवन का वरदान पाये हुए हैं, यह करो, वह बनाओ, इसको कैसे काटो, उसको कैसे नीचा दिखाओ, जवान लगो, पतले लगो, स्वस्थ रहो, यह खाओ, यह न खाओ, अंतहीन चक्कर जिसमें मृत्यु कहीं भूलभुल्लियाँ में छुपी हुई है, उसकी कोई बात न करो, लगना चाहिए कि वह है ही नहीं और शायद वह सचमुच खो ही जायेगी!
यमराज का नचिकेता को उत्तर, "सस्यमिव मर्त्यः पच्यते सस्यमिवाजायते पुनः" मानो हमारे ऊपर नहीं लागू होता, वह तो केवल अन्य लोगों के लिए बना है. पर जब शरीर आने वाली वृद्धावस्था के संकेत महसूस करने लगता है, तो शायद हमें उस आने वाले अंतिम पल के बारे में भी सोचना चाहिए, उसकी तैयारी करनी चाहिए?
जब तक कमर, कँधे और टाँगों का दर्द कम हुआ तो बिस्तर पर लेटे लेटे यही सब विचार मन में आ रहे थे.
*****
पुस्तकालय जा रहा था तो बस स्टाप वह दिखा. करीब आ कर उसने धीरे से पूछा, "आप पाकिस्तान से हैं क्या?"
"नहीं मैं भारत से हूँ, क्या आप पाकिस्तान से हैं?" मैंने पूछा. यहाँ बोलोनिया में भारतीय बहुत कम हैं और पाकिस्तानी बहुत अधिक इसलिए अपने जैसा चेहरा दिखे तो पहला विचार यही मन में आता है कि "पाकिस्तानी होगा". वह मुस्कुरा कर बोला, "नहीं मैं भी इंडिया से हूँ, होशियार पुर से".
साथ में बस में सफ़र करते करते उसने अपनी कहानी सुनाई. दसवीं पास है वह और मेटल का काम जानता है. 29 साल का है पर देखने में बहुत छोटा लगता है. सोलह महीने की यात्रा की है उसने यहाँ पहुँचने के लिए. पंजाब में बरोड़ नाम के किसी एँजेंट को पाँच लाख रुपये दिये और रूस में मोस्को पहुँचा, जहाँ पाँच महीने जेल में रहा. फ़िर एँजेंट के किसी आदमी ने जेल से निकलवाया. फ़िर यूक्रेन पहुँचा, वहाँ अन्य पाँच महीनो के लिए जेल. फ़िर किसी ने जेल से निकलवाया. यात्रा उसे अन्य कई देश ले गयी जिनके बारे में वह कुछ अधिक नहीं बता पाता. अंत में समुद्र में लहरों से लड़कर छोटी सी नाव में पहुँचा इटली की सीमा रक्षा करने वालों के हाथ यहाँ की एक जेल में. किसी मानव अधिकारों की बात करने वाले ने बाहर निकलने में सहायता की और शरणार्थी के फोर्म भरने की सहायता की. अब उसे कोई भारत वापस नहीं भेज सकता, क्योंकि वह किसी को नहीं बताता कि उसका पासपोर्ट और कागज़ कहाँ हैं और बिना कागजों के न तो भारत उसे स्वीकारेगा न पाकिस्तान. आजकल श्रीलँका के एक व्यक्ति के साथ रहता है और काम खोज रहा है. तब तक भूखा न मरने के लिए घर से पाँच सौ यूरो मँगवाये हैं.
उसकी आँखों में आशावान जीवन चमकता है, "एक बार काम मिल जायेगा तो घर की दरिद्री दूर हुई समझो, सब ठीक हो जायेगा. सब काम करने को तैयार हूँ, कुछ भी थोड़ा सा दे दो. कोई काम हो तो बताईयेगा."
साथ आने वाले कितने मरे और कितनों ने यह यात्रा पूरी की, पूछने का साहस नहीं हुआ. हर रोज़ टीवी पर समुद्र में गैरकानूनी आने वालों के मरने के समाचार बताते हैं, वह किसमत वाला है, मरा नहीं, जीवित पहुँच गया. जीवन जीवित रहने के लिए हिम्मत नहीं हारता, एक मुठ्ठी भर जगह चाहिए उसे, बस खड़ा होने भर की, जिंदा रहने के लिए पत्थर में भी जड़े खोद कर पानी खोज लेगा.
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रोम यात्रा से कुछ तस्वीरें प्रस्तुत हैं.
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