गुरुवार, फ़रवरी 15, 2007

कान खींचो

हर वर्ष एलास्का और केनेडा में रहने वाले एस्कीमो अपने ओलिम्पिक खेलों का आयोजन करते हैं जिसमें सभी प्रतियोगिताएँ पाराम्परिक एस्कीमो खेलों की होती हैं.

कुछ खेल जिनकी प्रतियोगिता इन ओलिम्पिक खेलों में होती हैं उनके नाम हैं एस्कीमो डँडा खींच, मशाल दौड़, मछली काटो, कँबल फ़ेंको, इत्यादि.

बहुत सी प्रतियोगियातिएँ ऊँचा कूदने, तथा कूद कर लात मारने की होती हैं. एक ऊँची कूद में लोगों द्वारा खींच कर पकड़ी हुई तनी हुई रेनडियर की त्वचा पर छलाँग लगाते हैं तो एक दूसरी प्रतियोगिता में 2 मीटर ऊँची रस्सी को कूद कर पैर से छूना होता है.

पर मेरे विचार में सबसे रोचक प्रतियोगिताएँ कानो को पीड़ा देने वाली होती हैं, जैसे कान खींचो और कान से बोझा उठाओ. कान खींचने की प्रतियोगिता में हिस्सा लेने वाले एक दूसरे की कान पर रस्सी लपेट देते हैं और आमने सामने बैठ कर रस्सी को खींचते हैं. जो पहले दर्द से घबरा कर सिर पीछे खिंच कर कान से रस्सी को निकाल दे, वह हार जाता है. खेल पहले एक तरफ़ के कान से खेला जाता है फ़िर दूसरी तरफ़ से. कान से बोझा उठाओ खेल में कान से भारी वजन बाँध कर यह देखते हैं कि खिलाड़ी उसे कितनी दूर तक खींचने में समर्थ है. इन कान वालों खेलों में खिलाड़ियों के आसपास बर्फ ले कर उनके साथी खड़े होते हैं जो कि बीच बीच में कानों पर बर्फ लगा कर उनको ठँडक और दर्द से राहत देने की कोशिश करते हैं.

खेलों में एस्कीमो मिस वर्ल्ड भी चुनी जाती है ( नीचे तस्वीर में २००6 की मिस एस्कीमो वर्ल्ड)



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ऐसे खेल और भी देशों में होते हैं जहाँ लोग अपने पाराम्परिक खेलकूद को सुरक्षित रखना चाहते हैं. जैसे कि मँगोलिया में नादाम का उत्सव हर वर्ष अगस्त में मनाते हैं. नादाम में छोटे छोटे चार पाँच साल के बच्चों को घोड़ों पर दौड़ लगाते देखना बहुत रोमाँचकारी लगता है.

अगर भारत में हम इसी तरह अपने पाराम्परिक खेलों की धरोहर को बचाना चाहें तो उनमें कौन से खेल रखेंगे? खो खो, कुश्ती, मुदगर, आँखें बंद करके शब्दभेदी बाण, और क्या क्या?

बुधवार, फ़रवरी 14, 2007

विवाह की धूम

हाल में ही दो हिंदी फ़िल्में देखने का मौका मिला, "विवाह" और "धूम 2". इन फ़िल्मों को देख कर मन में आज के भारतीय सिनेमा में पारिवारिक मूल्यों के चित्रण के बारे में सोच रहा था.

ताराचंद बड़जात्या और राजश्री फिल्मों का मैं बचपन से ही प्रशंसक था. उनके पुत्र सूरज बड़जात्या की फ़िल्में मुझे उतनी अच्छी नहीं लगतीं. उनकी नयी फ़िल्म "विवाह" के बारे में तो बहुत कुछ बुरा भला पढ़ चुका था कि बिल्कुल पुराने तरीके की फ़िल्म है.
यह सच भी है कि फ़िल्म के धनवान पर अच्छे दिल वाले अनुपम खेर और शाहिद कपूर का परिवार राजश्री फ़िल्मों का पुराना जाना पहचाना भारतीय परिवार है, जहाँ भाई, भाभी और देवर के साथ प्रेम से रहने वाले दृष्यों में इतना मीठा भरा है कि अच्छे खासे आदमी को डाईबीटीज़ हो जाये. ऐसे संयुक्त परिवार जहाँ सभी एक दूसरे से प्यार करते हों, आपस में कोई खटपट न हो, कोई ईर्ष्या न हो, अविश्वासनीय हैं पर हमारे मन में छुपी इच्छा "कि काश ऐसा हो" को संतुष्टी देते हैं.




शाहिद कपूर और अमृता राव की कहानी, लड़की देखने जाना, मँगनी होना और उनके बीच में पनपता प्यार, इस सब की आलोचना की गयी थी कि बिल्कुल पुराने तरीका का है. मुझे लगा कि शायद कुछ बातें बड़े शहरों में रहने वालों के कुछ पुरानी लग सकती हैं पर वह भी इतनी तो पुरानी नहीं हैं. शहरों में भी अधिकतर विवाह के प्रस्ताव आज भी माता पिता द्वारा ही जोड़े जाते हैं, लड़की देखने जाने की रीति भी बंद नहीं हुई है तो इसमें पुराना क्या है? शायद लड़की के परिवार का आपस में हिंदी में बात करना, यह कहना कि वह हिंदी की किताबें पढ़ती है, यह सब पुराने तरीके का है जो आजकल बड़े शहरों में बदल में रहा है?

दूसरी ओर, आलोक नाथ और सीमा विस्वास का परिवार कुछ सिंडरेला की कहानी पर आधारित है, सौतेली माँ के बदले में चाची बना दी गयी है. पर इस भाग में मुझे अच्छा लगा कि घर दो बेटियों का होना सकारात्मक तरीके से दिखाया गया है और आग में जली युवती से उसके मँगेतर का विवाह करने का निश्चय भी सकारात्मक तरीके से दिखाया गया है. उत्तरी भारत में जहाँ पढ़े लिखे, सम्पन्न राज्यों में जहाँ बच्चियों के जन्म से पहले उनकी भ्रूणहत्या करना बढ़ता जा रहा है, इस तरह के संदेश देना बहुत आवश्यक है. ऐसी तथाकथित आधुनिक फ़िल्में जिनमें आधुनिकता केवल सतही होती है, उनसे यह पुराने तरीके की फ़िल्म ही अधिक अच्छी है.

जहाँ "विवाह" में परिवारों की बात फ़िल्म का केंद्र है, दूसरी फ़िल्म "धूम 2" में परिवार हैं ही नहीं. फ़िल्म में किसी भी पात्र के माता पिता नहीं दिखाये गये हैं, न ही किसी के कोई भाई बहन है. परिवार के बंधन न होने से फ़िल्म के सभी पात्र अपना जीवन अपनी तरह से जीने के लिए स्वतंत्र हैं. सिर्फ एक जय दीक्षित का पात्र है जो विवाहित है और जिसकी पत्नी गर्भवति है पर उनकी पत्नी को कुछ क्षणों के लिए दिखा कर परदे से गुम कर दिया जाता है, जिससे अर्थ बनता है कि गर्भवति पत्नी को मायके भेज देना चाहिये ताकि अपने जीवन में कोई तकलीफ़ न हो.

फ़िल्म की एक नायिका सुनहरी, चोर है पर क्यों चोर बनी यह आप समझ नहीं पाते अगर उसे मिनी स्कर्ट पहन कर डिस्को में नाचने का शौक है. अनाथाश्राम में पली बड़ी हुई हो ऐसी नहीं लगती. हाँ, आधुनिक है, अँग्रेजी बोलती है, अकेली विदेश यात्रा पर जा सकती है और बिना विवाह के एक दूसरे चोर के साथ रह सकती है.




फ़िल्म की दूसरी नायिका, चूँकि रियो दी जेनेयिरो में समुद्र तट पर रहती हैं, इसलिए उनका बिकिनी पहनना तो स्वाभाविक है, पर आश्चर्य होता है उन पर फ़िदा श्री अली पर. भिण्डी बाज़ार के मेकेनिक से पुलिस वाला बना अली, अकेला पात्र है जो माँ का नाम ले कर उसे याद करता है पर वह भी आधुनिक है और अगर पत्नि बिकिनी पहने है तो वह भी कम नहीं, वह नेकर पहन लेता है, और दोनो कोपाकबाना के समुद्रतट पर नारियल का पानी पीते हैं.

जिस तरह की फ़िल्म की कहानी है इसमें परिवार की आवश्यकता है ही नहीं, न ही किसी बड़े बूढ़े की. होते तो केवल समय बरबाद करते!

मंगलवार, फ़रवरी 13, 2007

सीमाओं में बंद ऐश्वर्या

अँग्रेज़ी दैनिक हिंदुस्तान टाईमस् में सिनेमा पृष्ठ पर सुप्रसिद्ध सिनेमा समीक्षक और निर्देशक खालिद मुहम्मद का अभिषेख बच्चन से साक्षात्कार पढ़ रहा था कि उनका प्रश्न देख कर रुक गया. उन्होंने पूछा था, "क्या आप विवाह के बाद ऐश्वर्या को फिल्मों में काम करने देंगे?"




भारतीय पारम्परिक सोच के अनुसार लड़की का अपना कोई महत्व नहीं, वह शादी से पहले अपने पिता की होती है और शादी के बाद अपने पति की. शहरों में इस तरह की पाराम्परिक सोच से ऊपर उठने की कोशिश की जा रही है, पर इस प्रश्न से लगता है कि लड़कियाँ अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व बना सकें इसमें अभी बहुत सा काम करना बाकी है, वरना प्रतिष्ठित, संवेदनशीन फिल्में बनाने वाले इस तरह का प्रश्न पूछ पाते? जिससे वह प्रश्न कर रहे हैं उसके दादा प्रसिद्ध कवि थे, नाना जाने माने पत्रकार, माता पिता तो प्रसिद्ध हैं ही. और जिस लड़की की बात हो रही है वह कोई सामान्य युवती नहीं, मिस वर्ल्ड रह चुकी हैं, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जानी पहचानी अभिनेत्री हैं. अगर इन सब के बाद इस तरह का प्रश्न पूछा जा सकता है तो आप सोचिये कि साधारण युवतियों के लिए यह सोच कैसे बदलेगी?

शायद इस तरह का प्रश्न इस लिए पूछा गया क्योंकि पिछले दिनो में बच्चन राय विवाह के सम्बंध में आने वाले बहुत से समाचार पुराने दकियानूसी तरह के हैं जैसे कुण्डियाँ मिलवाना, मंदिरों में कन्या के माँगलिक होने के बुरे प्रभाव को हटाने के लिए पूजा करवाना और उसकी पेड़ से शादी करवाना? यानि कि जब सब कुछ पाराम्परिक सोच में है तो विवाह होने के बाद ऐश्वर्या के भविष्य की बात भी पाराम्परिक ही होनी चाहिये और इसलिए उन्हें विवाह के बाद काम करने के लिए पति की अनुमति चाहिये?

पर क्या जब हरिवँशराय बच्चन ने तेजी जी से प्रेमविवाह किया था तो क्या कुण्डली मिलवा कर किया था? या अमिताभ बच्चन ने जया भादुड़ी से विवाह के लिऐ कुण्डली मिलवायी थी? उनकी जो जनछवि है उसको सोच पर तो यह नहीं लगता पर शायद उस ज़माने में प्रेस इस तरह की बातों में इतनी दिलचस्पी नहीं लेती थी और शायद वह सभी इस तरह की परम्पराओं में विश्वास करते थे?

मैं यह नहीं कहता कि सभी युवतियों को विवाह के बाद काम करना चाहिये. पति और पत्नी दोनों काम करें या उनमें से कोई एक घर पर रहे, यह उनका आपस का निर्णय हो सकता है, उनकी अपनी इच्छा या आर्थिक परिस्थिति पर निर्भर हो सकता है. पर अगर पति को विवाह के बाद काम के लिए पत्नी की अनुमति नहीं लेनी पड़ती तो पत्नि को ही क्यों इसकी अनुमति लेनी चाहिये, यह समझ में नहीं आता?

कुछ समय पहले एक फ़िल्म आयी थी "लक्ष्य" जिसमें प्रीति जिंटा जो पत्रकार का भाग निभा रहीं थी कुछ ऐसी ही बात कहती हैं अपने मँगेतर से जब वह उसे कारगिल जाने से रोकता है, और वह इस बात पर शादी तोड़ देतीं हैं. परदे पर जो भी ही, असली जीवन में शायद ऐसा कम ही होता हो. यह भी सच है कि विषेशकर छोटे शहरों में और गावों में, आज भी नयी बहु को कुछ भी करने के लिए सास ससुर या पति की अनुमति चाहिये, पर क्या एश्वर्या जैसी लड़की के साथ यह हो सकता है?

फ़िल्मों में और सच के जीवन में यही फर्क होता है. यह सोच कर कि पढ़े लिखे परिवार से हैं, विदेश में पढ़े हैं, फ़िल्मों में उदारवादी और अन्याय से लड़ने वाले पात्रों का भाग निभाते हैं तो हम लोग सोचने लगते हैं कि शायद व्यक्तिगत जीवन में भी ऐसे ही हों. यही भ्रम है, सच और परदे के जीवन का!

शुक्रवार, फ़रवरी 09, 2007

रुकावटें

कुछ दिन पहले रवि ने एक टिप्पणी में लिखा थाः

"साथ ही, मेरे जैसे 50 वर्ष की सीमा की ओर पहुँच रहे लोगों की आँखों में श्याम पृष्ठभूमि पर सफेद अक्षर तो दिखाई ही नहीं देता..."

कुछ ऐसा ही हाल मेरा अपना भी था. कंप्यूटर का मोनिटर अधिक करीब हो तो ऐनक उतार कर पढ़ने की कोशिश करता, कुछ दूर हो तो ऐनक लगाता, पर अपने ही चिट्ठे के अक्षर ठीक से नहीं दिखते थे. झँझट यह था कि इस चिट्ठे के टैम्पलेट के रंगों को कौन ठीक करे? जब छायाचित्रकार वाले फोटो चिट्ठे के रंग ठीक करने थे तो राम ने मदद की थी, दुबारा किसी से कहने में शर्म आ रही थी. फ़िर मन में सोचा कि इतना भी क्या कठिन होगा, कोशिश करके देखें. कुछ दिनों तक सारा खाली समय टेम्पलेट से छेड़खानी में बिताया और आखिरकार कल रात को लगा कि अब कुछ ठीक दिख रहा है.

इतनी मेहनत करनी पड़ी, पर कुछ संतोष भी है कि आखिरकार काम हो ही गया. यह तो आप लोग ही बता सकते हैं कि इस चिट्ठे के नये रुप में क्या कमियाँ रह गयीं हैं.

उम्र के साथ साथ इस तरह की परेशानियाँ बढ़तीं जातीं हैं. दिखता कम है, सुनता कम है, अधिक चलना पड़े तो भी मुश्किल, सीढ़ियाँ हों तो भी मुश्किल. और दुनिया है कि दिन ब दिन तेज़ गति से चलती जा रही है, या शायद यह अपना भ्रम है क्योंकि अपनी गति धीमी हो रही है!

पर यह सच है कि उम्र के साथ ही समझ में आता है जब विकलाँग लोग कहते हैं कि दुनिया हर तरफ़ से रुकावटों से भरी हुई है. विकलाँगता को हमेशा से व्यक्तिगत या पारिवारिक समस्या की तरह देखा जाता था. यानि अगर आप विकलाँग हैं तो इसका अर्थ है कि आप के शरीर में कोई कमी है और उस कमी को ठीक करने की कोशिश की जाये.

कुछ दशक पहले विकलाँग लोगों की संस्थाओं ने एक दूसरा दृष्टिकोण पेश किया. उनका कहना था कि विकलाँगता व्यक्ति के शरीर में नहीं समाज में होती है क्योंकि यह समाज केवल अविकलाँग, जवान लोगों के लिए सोचा और बना है. यह समाज अन्य सभी लोगों के लिए उनके आस पास कुछ रुकावटें खड़ी कर देता है जिनके कारण वह लोग जीवन में ठीक से भाग नहीं ले पाते. उनका कहना था कि इलाज व्यक्ति का नहीं, समाज में बिखरी इन रुकावटों का होना चाहिये.

इस सोच ने कुछ सामाजिक परिवर्तनों को प्रेरित किया है जैसे कि पटरी से चढ़ने उतरने के लिए ढलानें बनाना, सीढ़ियों के साथ रेम्प बनाना, लाल बत्ती पर अँधे लोगों के लिए ध्वनि वाला सिगनल बनाना, लिफ़्ट में विभिन्न मंज़िलों के नम्बर ब्रेल में भी लिखना, इत्यादि. इनका लाभ केवल विकलाँग लोगों को नहीं मिलता बल्कि सारे समाज को मिलता है. जैसे कि अगर पटरी पर चढ़ने उतरने के लिए ढलान है तो व्हीलचेयर को चलाने में आसानी तो होगी ही पर साथ ही, बच्चे के साथ जा रहे परिवारों को भी होगी, उन बूढ़ों को भी होगी जिनके घुटनों मे दर्द हो.

अंतर्जाल पर ही उतना ही आवश्यक है कि हम जाल स्थलों को इस तरह बनाये कि विभिन्न विकलाँग लोग भी उनका प्रयोग कर सकें.

पर बहुत सी बातें कहना आसान है पर करना कठिन. एक उदाहरण हमारे शहर बोलोनिया से. यहाँ की सरकार विकलाँग लोगों के बारे में बहुत सचेत है., पर कुछ समय पहले यहाँ निर्णय लिया गया कि बहुत सी चौराहों पर लाल बत्ती के बदले में गोल चक्कर बना दिया जायेंगे क्योंकि उससे यातायात अधिक तेज़ चलता है. अगर कारों, ट्रकों को चलने में फ़ायदा होगा और लाल बत्ती पर नहीं रुकना पड़ेगा तो प्रदूषण कम होगा और पेट्रोल का खर्चा भी. पर यह देखा गया है कि गोल चक्कर बनने से यातायात की गति तीव्र हो जाती है और पैदल चलने वालों और साईकल पर जाने वालों को अधिक कठिनाई होती है. विकलाँग, वृद्ध, गर्भवति स्त्रियाँ आदि लोगों को सड़क पार करने में और भी कठिनाई होती है.

तो किसका सोचे सरकार, यातायात का या पैदल चलने वालों का? मेरा बस चले तो पहले पैदल चलने वालों का सोचा जाये पर अगर आप सरकार में हों तो आप क्या फैसला करेंगे?

बुधवार, फ़रवरी 07, 2007

36 का आँकणा

एक तरफ़ से आधुनिक दुनिया इतनी जानकारी हम सबके सामने रख रही है जैसा इतिहास में पहले आम लोगों के लिए कभी संभव नहीं था, दूसरी ओर, अक्सर हम लोग उस जानकारी की भीड़ में खो जाते हैं और उसका अर्थ नहीं समझ पाते.

जब कोई कुछ भी जानकारी आप को देता है तो पहला सवाल मन में उठना चाहिये कि कौन है और किस लिए यह जानकारी हमें दे रहा है? शायद इस तरह से सोचना बेमतलब का शक करना लग सकता है पर अक्सर लोग अपना मतलब साधने के लिए बात को अपनी तरह से प्रस्तुत करते हैं. अगर राजनीतिक नेता हैं तो अपनी सरकार द्वारा कुछ भी किया हो उसे बढ़ा चढ़ा कर बतायेंगे और विपक्ष में हों तो उसी को घटा कर कहेंगे. अगर मीडिया वाले बतायें तो समझ में नहीं आता कि यह सचमुच का समाचार बता रहे हैं या टीआरपी के चक्कर में बात को टेढ़ा मेढ़ा कर के सुना दिखा रहे हैं. अगर व्यवसायिक कम्पनी वाला कुछ कह रहा हो तो विश्वसनीयता और भी संद्दिग्ध हो जाती है.

आँकणे प्रस्तुत करना भी एक कला है. एक ही बात को आप विभिन्न तरीकों से इस तरह दिखा सकते हैं कि देखने वाले पर उसका मन चाहा असर पड़े.

उदाहरण के लिए मान लीजिये कि आप किसी नयी परियोजना के गरीब लोगों पर पड़े प्रभाव के बारे में बता रहे हैं कि 2005 में 10 प्रतिशत लोग लाभ पा रहे थे, और 2006 में परियोजना की वजह से लाभ पाने वाले गरीब लोगों की संख्या 12 प्रतिशत हो गयी.

अगर आप इस परियोजना के विरुद्ध हैं तो आप इसे नीचे बने पहले ग्राफ़ से दिखा सकते हैं, जिसमें लगता है कि लाभ पाने वालों पर कुछ विषेश असर नहीं पड़ा.


अगर आप इस परियोजना के बनाने वाले या लागू करने वाले हें तो आप इसे नीचे दिये दूसरे ग्राफ़ जैसा बना कर प्रस्तुत कर सकते हैं, जिसमें लगता है कि परियोजना का असर अच्छा हुआ.


यानि दोनो ग्राफ़ों में बात तो एक ही है पर उसे पेश करने का तरीका भिन्न है और अगर ध्यान से न देखें तो उनका असर भी भिन्न पड़ता है.

अधिकतर लोग जैसे ही विभिन्न खानों (tables) में भरे अंक देखते हैं, उनकी समझ में कुछ नहीं आता. आँकणे पेश करने वाला जिस बात को बढ़ा कर दिखाना चाहता है उसे वैसे ही दिखाता है, और वही लोग प्रश्न उठा सकते हैं जिन्हें सांख्यिकीय विज्ञान (Statistics) की जानकारी हो. इसीलिए कहते हैं कि झूठ कई तरह के होते हैं पर साँख्यिकीय झूठ सबसे बड़ा होता है.

अगर आप को अंतर्राष्ट्रीय या राष्ट्रीय स्तर पर देशों के बीच और एक ही देश में विभिन्न सामाजिक गुटों के बीच अमीरी-गरीबी, स्वास्थ्य-बीमारी, आदि विषयों पर आकँणो को समझना है तो स्वीडन के एक वैज्ञानिक हँस रोसलिंग के बनाये अंतर्जाल पृष्ठ गेपमाईंडर को अवश्य देखिये. कठिन और जटिल आँकणों को बहुत सरल और मनोरंजक ढंग से समझाया है कि बच्चे को भी समझ आ जाये. रोसलिंग जी कोपीलेफ्ट में विश्वास करते हें और उनकी सोफ्टवेयर निशुल्क ले कर अपने काम के लिए प्रयोग की जा सकती है.

मंगलवार, फ़रवरी 06, 2007

मानव का सफ़र

करीब दो वर्ष पहले इंडोनेसिया के फ्लोरेस द्वीप पर एक प्राचीन मानव शरीर मिला था. 12,000 साल पुराना यह शरीर अब तक मिले सभी आदि मानव शरीरों से भिन्न था. कद में करीब एक मीटर और छोटे से खरबूजे के बराबर सिर वाले इस स्त्री शरीर के बारे में कहा गया था कि वह अभी तक अनजाने, एक नये आदिम मानव गुट की थी जिसे होमो फ्लोरेसियंसिस (Homo floresiensis) का नाम दिया गया था. इस आदि मानव गुट के सभी सदस्य छोटे कद के छोटे दिमाग वाले थे.

चूँकि 12,000 साल पहले, आधुनिक मानव गुट, होमो सेपियंस (Homo sapiens), भी धरती पर रह रहा था, इसका अर्थ हुआ कि कुछ समय तक होमो सेपियंस तथा होमो फ्लोरेसियंसिस के मानव दल समाज साथ साथ रहे.

पर कुछ वैज्ञानिकों ने संदेह किया है कि होमो फ्लोरेसियंसिस का कोई अलग मानव गुट था. उनका विचार है कि जो शरीर फ्लोरेस में पाया गया वह एक बीमार आधुनिक मानव होमो सेपियंस स्त्री का है जिसे माईक्रोसिफेलिया यानि छोटे दिमाग की बीमारी थी.

इस तरह की बहसें वैज्ञानिकों में आम हैं क्योंकि प्राचीन आदि मानवों के शरीर बहुत थोड़े से मिले हैं और उनके आधार पर सारी बातें जानना और समझना कठिन है. कुछ माह पहले अँग्रेजी विज्ञान पत्रिका वेलकम साईंस में इस विषय पर एक लेख निकला था जिसमें मानव शरीर के सूक्षम कोषों (cells) के अंदर छुपे डीएनए (DNA) तथा जेनोम (genome) के अध्ययन से आदि मानव के विकास को बेहतर समझने के बारे में बताया गया था.

जेनोम शोध से यह पता चलता है कि आज से 70 लाख साल पहले अफ्रीका में मानव तथा चिमपैंज़ी के गुट एक दूसरे से अलग हो कर विकसित होने लगे. आज तक का पाया हुआ सबसे प्राचीन मानव शरीर अफ्रीका में चाद (Tchad) देश में सन २००२ में पाया गया था, करीब 65 लाख पुराने इस शरीर को साहेलआथ्रोपस चादेंसिस का नाम दिया गया और यह मानव जाति के विकास का प्रथम पग था, जो सीधा खड़ा हो कर भी चल सकता था और गोरिल्ला जैसा था. फ़िर कारीब 44 से ले कर 17 लाख साल पहले, सारे अफ्रीका में एक नयी मानव जाति फैली, दुबले पतले छोटे मानवों की जिन्हें आउस्ट्रालोपिथेसीन (Australopithecines) के नाम से जाना जाता है. 1974 में ईथिओपिया में पाये गये एक आदिम मानव शरीर जिसे लूसी के नाम से पुकारा गया था, इसी समय का प्रतीक था और बाद में इसी मानव जाति के पैरों के निशान भी मिले थे.

पहला आधुनिक मानव जिसे होमो नाम दिया गया, करीब 24 लाख साल पहले विकसित हुआ और वैज्ञानिक उसे होमो एबिलिस का नाम देते हैं जो कि हाथ का उपयोग करने लगा था. फ़िर 19 लाख पहले आया होमो इरेक्टस, जो केवल सीधा दो पैरों पर ही चलता था. इसी मानव विकास यात्रा में करीब 6 लाख से 2 लाख साल पहले यूरोप में निअंडरथाल मानव आया और फ़िर अफ्रीका में होमो सेपियंस जो दोनो बहुत लम्बे अर्से तक अर्से तक साथ साथ रहे. करीब 80 से 50 हज़ार साल पहले होमो सेपियंस अफ्रीका से बाहर निकला और यह सोचा जाता है कि अंत में आधुनिक मानव से हार कर निअंडरथाल मानव जाति करीब 30 हजार वर्ष पहले समाप्त हो गयी. यही वह समय है जब आधुनिक मानव में वाणी का विकास हुआ.

जिस विकास और परिवर्तन में लाखों साल लग जाते थे, वह आधुनिक मानव के आने के बाद तीव्र होने लगा और अब तो और भी तीव्र हो रहा है. 30 हजार साल पहले मानव को शब्द मिले, 4 हज़ार साल पहले मिस्र में पिरामिड बनने लगे और आज से करीब ढाई हजार साल पहले वेद लिखे गये. आज तो परिवर्तन को दशकों में गिना जाता है, कल सालों में फ़िर महीनो में गिना जायेगा. पर इस तीव्र परिवर्तन का यह अर्थ नहीं कि प्रकृति के विकास के नियम बदल गये हैं. वैज्ञनिकों के अनुसार आज से 70,000 हजार वर्ष पहले जब सुमात्रा द्वीप में माऊँट टोबा नाम के ज्वालामुखी का विस्फोट हुआ था तो एक हज़ार सालों तक पृथ्वी के आसपास धूल छाई रही थी और पृथ्वी बर्फ से ढक गयी थी, जिसमें अधिकतर मनाव और पशु मर गये थे. आज जब मानव के पर्यावरण पर पड़ते असर का सुनता हूँ कि सागरों के स्तर बढ़ रहे हें, प्रदूषण बढ़ रहा है, ऊँचे पर्वतों पर बर्फ पिघल रही है, तो यह सोचता हूँ कि जब प्रकृति करवट लेगी तो कौन बचेगा और कब तक!

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एनडीटीवी पर इस चिट्ठे की बात होने की बधाई के लिए आप सबको धन्यवाद. इतना प्रतिष्ठित चैनल हिंदी चिट्ठों की बात करे, यह तो अच्छा है, शायद चिट्ठा लिखने वालों की संख्या बढ़े.

रविवार, फ़रवरी 04, 2007

चीख

कल मैंने अपने तस्वीरों के चिट्ठे पर नोर्वे के सुप्रसिद्ध चित्रकार एडवर्ड मुँच की लंदन में हुई एक कला प्रदर्शनी की तस्वीर लगाई थी तो सोचा आज उनकी सबसे प्रसिद्ध तस्वीर चीख की बात करनी चाहिए. मुँच का जन्म हुआ 1863 में लोटन नाम के शहर में, जब वह एक वर्ष के थे तो उनका परिवार क्रिसतियाना शहर में, जिसका आधुनिक नाम है ओस्लो, वहाँ रहने आया. नवयुवक मुँच ने 1881 में नोर्वे के राजकीय कला विद्यालय में शिक्षा पाई और फ़िर पैरिस भी कला सीखने गये.

"चीख" नाम की कलाकृति उन्होंने 1893 में बनाई.





इस तस्वीर में सामने आकृति है कि अँडे जैसे सिर वाले व्यक्ति की जिसके चेहरे पर गहन पीड़ा है और जिसका मुँह अनंत चीत्कार में खुला है. यह व्यक्ति एक पुल पर चल रहा है. पुल के साथ समुद्र दिखता है जिसमें पीछे पानी का रंग पीला सा है जिसमें दो नावें दिखतीं हैं. पुल पर उस व्यक्ति के पीछे दो अन्य धूमिल आकृतियाँ हैं. उपर आकाश सुर्यास्त की लालिमा में रँगा है.

क्या कुछ देखा उस व्यक्ति ने जिसे उसे डरा दिया और वह चीखने लगा? कोई खून या दुर्घटना देखी उसने? जिस तरह से व्यक्ति ने अपने दोनो हाथ अपने चेहरे के दोनो ओर रखे हैं उससे लगता है कि यह चीख किसी बाहरी घटना को देख कर नहीं बल्कि अपने ही मन में उठ रहे विचारों का हाहाकार है. हालाँकि व्यक्ति के शरीर का केवल ऊपरी हिस्सा दिखता है पर उसकी रेखाएँ इस तरह से खिंचीं हैं कि उसमें गति दिखती है. यह तस्वीर आधुनिक जीवन के अकेलेपन, उदासी और त्रास को व्यक्त करती है.

"चीख" जल्दी ही बहुत प्रसिद्ध हो गयी और मुँच ने इसी चीख को कुछ फेर बदल कर तीन बार और बनाया पर कला विशेषज्ञ इस पहली "चीख" को सबसे बढ़िया मानते हैं. नार्वे में इस आकृति से प्रेरित खेल खिलौने बाज़ार में मिलते हैं.

मुँच नें इस चित्र के बारे में बताया कि "सँध्या का समय था, सूरज डूब रहा था, अचानक सारा आसमान लाल हो गया. मैं रुका, लगा कि शरीर में जान ही नहीं थी, ... खून था और अग्नि की लपलपाती लपटें सागर और शहर के ऊपर मँडरा रही थीं ... मैं डर कर काँपता हुआ वहाँ खड़ा रहा, और मुझे लगा कि जैसे सारी प्रकृति में एक चीख गूँज रही हो". यानि उनका कहना था कि यह चीख किसी व्यक्ति का हाहाकार नहीं, सारी प्रकृति का हाहाकार था.

शौधकर्ताओं ने बताया है कि इस चित्र को बनाने से दस वर्ष पहले, 1883 में इंडोनेसिया का कराकातोवा ज्वालामुखी फ़ूटा था और आसमान में धूल छाई थी तो ओस्लो में भी आकाश का रंग लाल कई दिनों तक लाल रहा था और शायद मुँच तब की बात कर रहे थे.

यह चित्र इसलिए भी प्रसिद्ध हुआ क्योंकि यह दो बार चोरी हो चुका है. पहले 1994 में जब नोर्वे में शीत ओलिम्पक खेल हो रहे थे तो यह चोरी हुआ और तीन महीने बाद मिला. फ़िर 2004 में इसे दिन दहाड़े ओस्लो कला संग्रहालय में दो मुँह ढके चोर बँदूक दिखा कर उठा ले गये. दो वर्ष के बाद इसके मिलने की कहानी भी बहुत अजीब है क्योंकि चोर को चाकलेट का लालच दे कर पकड़ा गया. पुलिस ने यह सुराग लगाया था कि इसका चोर चाकलेट का लालची है तो चाकलेट बनाने वाली कम्पनी एम एंड एम ने एलान किया कि जो इस तस्वीर का सुराग देगा उसे कई करोड़ रुपये की चाकलेट दी जायेगी.

कहते हैं कि चित्र के ऊपरी भाग में लाल रँग पर मुँच ने पैंसिल से छोटे अक्षरों में लिखा था "यह चित्र कोई पागल ही बना सकता था."

चित्र दुनिया में चाहे कितना ही प्रसिद्ध क्यों न हो, मुझे स्वयं अच्छा नहीं लगता. कुछ साल पहले ओस्लो के कला संग्रहालय में जब इसे देखा तो मन परेशान सा होने लगा. शायद यही इसकी प्रसिद्ध का कारण है कि यह हमें अपने अंतर्मन में छुपे अकेलेपन और उदासी के डर के सामने खड़ा कर देता है.

इस वर्ष के लोकप्रिय आलेख