आजकल मैं स्टीवन लेविट (Steven D. Levitt) और स्टीफन डुबनर (Stephen J. Dubner) की किताब फ्रीकोनोमिक्स (Freakonomics) पढ़ रहा हूँ. स्टीवन लेविट अर्थशास्त्री हैं और डुबनर पत्रकार.
लेविट को उन बातों पर सवाल पूछना अच्छा लगता है जो हमारे लिए साधारण होती हैं और जिनके लिए हमारे मन में कोई संशय या सवाल नहीं उठते. अपने उत्तरों से लेविट कुछ अर्थशास्त्र के सिद्धांत और कुछ आम समझ का प्रयोग करके यह दिखाते हैं कि साधारण सोच में सही लगने वाली बहुत सी बातें गलत भी हो सकती हैं.
1990-94 के आसपास, अमरीका में अपराध दर बढ़ती जा रही थी और सभी चितिंत थे कि यह कम नहीं होगी, बढ़ती ही जायेगी. पर ऐसा हुआ नहीं और अपराध दर कम होने लगी. विशेषज्ञों का कहना था कि यह अपराध को रोकने की नयी नीतियों की वजह से हुआ. लेविट कहते हें कि नहीं, यह इसलिए हुआ क्योंकि 1973 में अमरीकी कानून ने गर्भपात की अनुमति दी जिससे गरीब घरों की छोती उम्र वाली माँओं को गर्भपात करने में आसानी हुई और इन घरों से अपराध की दुनिया में आने वाले नौजवानों की संख्या में कमी हुई.
एक अन्य उदाहरण में लेविट दिखाते हें कि विद्यालयों की पढ़ायी के स्तर में सुधार लाने के लिए बनाये गये कानून से शिक्षकों को गलत काम करने की प्रेरणा मिली जिससे उन्होनें इन्तहानों में बच्चों को झूठे नम्बर देना शुरु कर दिया. लेविट यह भी दिखाते हें कि कैसे घर बेचने का काम करने वाली व्यवसायिक कम्पनियाँ आप के घर को कम कीमत में बेचती हें जबकि आप को बाज़ार में उसके कुछ अधिक दाम मिल सकते थे.
कितना सच है लेविट की बातों में यह तो नहीं कह सकता, पर यह किताब बहुत दिलचस्प है. लेविट और डुबनर ने अपना एक चिट्ठा भी बनाया है जिसमें वह दोनो अपने पाठकों से बातें भी करते हैं और नयी जानकारी भी देते हैं.
*****
कल के चिट्ठे की सभी टिप्पणियों के लिए दिल से धन्यवाद.
अविनाश, तुम ठीक कहते हो, तुमसे मुलाकात चिट्ठों की दुनिया से बाहर हुई थी, पर कल सुबह काम पर देर हो रही थी और जल्दी में मेंने कुछ भी लिख दिया. :-)
नीलिमा, तुम्हारी पूरी बात समझ में नहीं आई, और शायद न समझने में ही भलाई है, हाँ हिंदी के बारे में विस्तार से बात करने के लिए मुझे बहुत खुशी होगी.
मंगलवार, फ़रवरी 27, 2007
सोमवार, फ़रवरी 26, 2007
सवाल जवाब
पिछले दिनों में काम में इतना व्यस्त था कि बहुत दिनों के बाद चिट्ठों को पढ़ने का समय अब मिल रहा है, देखा कि इस प्रश्नमाला के झपेटे में दो तरफ़ से आया हूँ, नीलिमा की तरफ़ से और बेजी की तरफ से. फायदे की बात यह है कि आप दोनो के प्रश्न भिन्न हैं इसलिए मुझे यह छूट है कि जो सवाल अधिक अच्छे लगें, उनका ही जवाब दूँ!
पहले तीन प्रश्न नीलिमा के हैं
आपकी चिट्ठाकारी का भविष्य क्या है ( आप अपने मुंह मियां मिट्ठू बन लें कोई एतराज नहीं)?
मेरी चिट्ठाकारी का भविष्य शायद कुछ विषेश नहीं है, जब तक लिखने के लिए मन में कोई बात रहेगी, लिखता रहूँगा, पर मेरे विचार में जैसा है वैसा ही चलता रहेगा. मेरे लिए चिट्ठाकारी मन में आयी बातों को व्यक्त करने का माध्यम है, जिन्हें आम जीवन में व्यक्त नहीं कर पाता, और साथ ही विदेश में रह कर हिंदी से जुड़े रहने का माध्यम है.
पर एक दिन इतना प्रसिद्ध चिट्ठाकार बन जाऊँ कि लाखों लोग मेरा लिखा पढ़े, जैसे कोई सपने मन में नहीं हैं, बल्कि ऐसा सोच कर ही डर लगता है.
आपके पसंदीदा टिप्पणीकार?
जब कहीं से कुछ टिप्पणी न मिल रही हो तब अक्सर केवल संजय ही है जो कुछ ढाढ़स देता है. मुझे एक टिप्पणी प्रियदर्शन की बहुत अच्छी लगी थी.
चूँकि मैं अधिकतर चिट्ठा लिखने का काम सुबह जल्दी उठ कर करता हूँ और फ़िर अगली सुबह तक दोबारा क्मप्यूटर पर बैठने का मौका नहीं मिलता, अक्सर टिप्पणियाँ एक दिन बाद में ही पढ़ता हूँ. कई बार सुबह कुछ देर हो जाती है तो कुछ लिखने की चिंता अधिक होती है, तो किसी ने क्या टिप्पणी दी, यह देखने का समय भी नहीं मिलता. शायद इसलिए जब किसी चिट्ठे पर देखता हूँ कि टिप्पणी के बाद तुरंत लेखक का उत्तर हो या टिप्पणियों से सवाल जवाब का सिलसिला बन गया हो तो थोड़ी ईर्श्या सी होती है. पर क्या करें, चिट्ठा लिखने के अलावा और भी काम हैं जीवन में!
किसी एक चिट्ठाकार से उसकी कौन सी अंतरंग बात जानना चाहेंगे ?
मुझे वह लोग जिनमें अपने जीवन की दिशा बदलने का साहस हो, वे लोग बहुत दिलचस्प लगते हैं और उनसे बातें करके उनके बारे में जानने की उत्सुक्ता रहती है. जैसे कि मसिजीवि जी जिन्होंने इंजिनियरिंग छोड़ कर साहित्य में आने का साहस किया.
मुझे लगता है कि हम सबके भीतर बहुत से मैं छुपे होते हैं पर जीवन एक धार पर चलने लगता है तो हम स्वयं को सीमाओं में बाँध लेते हैं. जिसमें मुझे उन सीमाओं से निकलने की कोशिश दिखे, वे मुझे अच्छे लगते हैं.
अन्य चिट्ठाकार जिन्हें जानना चाहूँगा वह हैं राकेश खँडेलवाल और बेजी, क्योंकि उनकी कविताँए मुझे बहुत अच्छी लगती हैं.
बेजी के प्रश्नः
आपकी सबसे प्रिय पिक्चर कौन सी है? क्यों?
मुझे बिमल राय, ऋषिकेश मुखर्जी, गुलज़ार, बासु चैटर्जी, गुरुदत्त जैसे निर्देशकों की फ़िल्में अच्छी लगतीं है. बंदिनी, सुजाता, अपने पराये, खामोशी, साहिब बीबी और गुलाम, सत्यकाम, आनंद, गाईड, अचानक, मेरे अपने, आदि मेरी प्रिय फ़िल्मों में से हैं. इनमें से किसी एक को चुनना मेरे लिए मुश्किल है.
कई आधुनिक फ़िल्म निर्देशक भी मुझे अच्छे लगते हैं जैसे विशाल भारद्वाज, अपर्णा सेन, आशुतोष गवारिकर, इत्यादि.
यह नहीं कि केवल गंभीर फ़िल्में ही अच्छी लगती हों, धूम जैसी समय निकालने वालीं हल्की फुल्की फ़िल्में भी अच्छी लगती हैं. कभी इस तरह की नासिर हुसैन और मनमोहन देसाई की फ़िल्में भी बहुत अच्छी लगती थीं. आज फ़िल्मों के लिये पहले जैसा दीवानापन नहीं लगता, पर इसमें फ़िल्मों का दोष नहीं, उम्र बदल गयी है तो इस तरह का होना स्वाभाविक है.
फ़िल्मों की पसंद समय के साथ साथ बदलती रहती है. एक समय था कि ज़रीना वहाब पर दिल फिदा था तो उनकी पहली फ़िल्म चित्तचोर जाने कितनी बार देखी थी. लेकिन किशोर मन बहुत वफादार नहीं था, कभी रेखा पर आता तो कभी शबाना आज़मी पर, और साथ ही साथ फिल्मों की पसंद बदलती रहती.
जो फिल्म सबसे अधिक बार सिनेमाघर में देखी वह है रमेश सिप्पी के शोले. एक समय था जब मीना कुमारी की रोने धोने वाली फ़िल्में भी मुझे अच्छी लगती थीं जैसे कि दिल एक मंदिर, पर आज उतनी अच्छी नहीं लगती.
इस उत्तर से यह समझना कठिन नहीं कि मुझे हिंदी फिल्मों में कितनी दिलचस्पी है!
क्या हिन्दी चिट्ठेकारी ने आपके व्यक्तिव में कुछ परिवर्तन या निखार किया?
हिंदी चिट्ठाकारी से मुझे हिंदी भाषा के करीब लौट आने का मौका मिला. जब लिखना शुरु किया था तो इतना सोचना पड़ता, शब्द याद ही नहीं आते थे और अक्सर शब्दकोश की सहायता लेनी पड़ती थी.
चिट्ठाकारी ने बहुत से लोगों से मिलने का मौका दिया विषेशकर प्रारम्भिक दिनों में. लाल्टू, प्रत्यक्षा, अनूप, रवि, रमण, ई स्वामी, जितेंद्र, देबाशीष, पंकज, संजय, अविनाश जैसे लोगों को बिना चिट्ठाकारी के कैसे जान पाता? बिना देबाशीष की सहायता के मैं हिंदी चिट्ठाजगत में आ ही नहीं पाता. इनमें से किसी से भी मिलने का मौका नहीं मिला है. अब तक मिला हूँ केवल अफलातून जी से, जिन्हें चिट्ठा जगत में आने से पहले से जानता हूँ और राम से, जो मुझे मिलने बोलोनिया आये थे. पर मेरा बस चले तो सब से मिलना पसंद करूँगा.
कुछ माह पहले दिल्ली में पसिद्ध लेखक और पत्रकार ओम थानवी के यहाँ था और उन्होंने सबसे मेरा परिचय लेखक के नाम से दिया, तो अजीब भी लगा और सुखद भी. मेरा चिट्ठा लिखने से पहले मेरी अपनी पहचान में "लेखक" शब्द नहीं था. लेखक बन गया हूँ यह तो नहीं कहता पर अपनी पहचान के दायरे कुछ बढ़ गये हें यह अवश्य कह सकता हूँ.
यह तो थे मेरे उत्तर. अब यह प्रश्नों का सिलसिला किस तरफ जाये? मैं चाहूँगा कि देबाशीष, रवि, रमण, ई स्वामी, अफलातून और पकंज भी इन प्रश्नों के उत्तर दें, पर अगर आप यह उत्तर पहले ही दे चुके हें तो मुझे कुछ दिन तक छुट्टियों का इंतजार करना पड़ेगा ताकि आप उन्हें पढ़ सकूँ. :-)
पहले तीन प्रश्न नीलिमा के हैं
आपकी चिट्ठाकारी का भविष्य क्या है ( आप अपने मुंह मियां मिट्ठू बन लें कोई एतराज नहीं)?
मेरी चिट्ठाकारी का भविष्य शायद कुछ विषेश नहीं है, जब तक लिखने के लिए मन में कोई बात रहेगी, लिखता रहूँगा, पर मेरे विचार में जैसा है वैसा ही चलता रहेगा. मेरे लिए चिट्ठाकारी मन में आयी बातों को व्यक्त करने का माध्यम है, जिन्हें आम जीवन में व्यक्त नहीं कर पाता, और साथ ही विदेश में रह कर हिंदी से जुड़े रहने का माध्यम है.
पर एक दिन इतना प्रसिद्ध चिट्ठाकार बन जाऊँ कि लाखों लोग मेरा लिखा पढ़े, जैसे कोई सपने मन में नहीं हैं, बल्कि ऐसा सोच कर ही डर लगता है.
आपके पसंदीदा टिप्पणीकार?
जब कहीं से कुछ टिप्पणी न मिल रही हो तब अक्सर केवल संजय ही है जो कुछ ढाढ़स देता है. मुझे एक टिप्पणी प्रियदर्शन की बहुत अच्छी लगी थी.
चूँकि मैं अधिकतर चिट्ठा लिखने का काम सुबह जल्दी उठ कर करता हूँ और फ़िर अगली सुबह तक दोबारा क्मप्यूटर पर बैठने का मौका नहीं मिलता, अक्सर टिप्पणियाँ एक दिन बाद में ही पढ़ता हूँ. कई बार सुबह कुछ देर हो जाती है तो कुछ लिखने की चिंता अधिक होती है, तो किसी ने क्या टिप्पणी दी, यह देखने का समय भी नहीं मिलता. शायद इसलिए जब किसी चिट्ठे पर देखता हूँ कि टिप्पणी के बाद तुरंत लेखक का उत्तर हो या टिप्पणियों से सवाल जवाब का सिलसिला बन गया हो तो थोड़ी ईर्श्या सी होती है. पर क्या करें, चिट्ठा लिखने के अलावा और भी काम हैं जीवन में!
किसी एक चिट्ठाकार से उसकी कौन सी अंतरंग बात जानना चाहेंगे ?
मुझे वह लोग जिनमें अपने जीवन की दिशा बदलने का साहस हो, वे लोग बहुत दिलचस्प लगते हैं और उनसे बातें करके उनके बारे में जानने की उत्सुक्ता रहती है. जैसे कि मसिजीवि जी जिन्होंने इंजिनियरिंग छोड़ कर साहित्य में आने का साहस किया.
मुझे लगता है कि हम सबके भीतर बहुत से मैं छुपे होते हैं पर जीवन एक धार पर चलने लगता है तो हम स्वयं को सीमाओं में बाँध लेते हैं. जिसमें मुझे उन सीमाओं से निकलने की कोशिश दिखे, वे मुझे अच्छे लगते हैं.
अन्य चिट्ठाकार जिन्हें जानना चाहूँगा वह हैं राकेश खँडेलवाल और बेजी, क्योंकि उनकी कविताँए मुझे बहुत अच्छी लगती हैं.
बेजी के प्रश्नः
आपकी सबसे प्रिय पिक्चर कौन सी है? क्यों?
मुझे बिमल राय, ऋषिकेश मुखर्जी, गुलज़ार, बासु चैटर्जी, गुरुदत्त जैसे निर्देशकों की फ़िल्में अच्छी लगतीं है. बंदिनी, सुजाता, अपने पराये, खामोशी, साहिब बीबी और गुलाम, सत्यकाम, आनंद, गाईड, अचानक, मेरे अपने, आदि मेरी प्रिय फ़िल्मों में से हैं. इनमें से किसी एक को चुनना मेरे लिए मुश्किल है.
कई आधुनिक फ़िल्म निर्देशक भी मुझे अच्छे लगते हैं जैसे विशाल भारद्वाज, अपर्णा सेन, आशुतोष गवारिकर, इत्यादि.
यह नहीं कि केवल गंभीर फ़िल्में ही अच्छी लगती हों, धूम जैसी समय निकालने वालीं हल्की फुल्की फ़िल्में भी अच्छी लगती हैं. कभी इस तरह की नासिर हुसैन और मनमोहन देसाई की फ़िल्में भी बहुत अच्छी लगती थीं. आज फ़िल्मों के लिये पहले जैसा दीवानापन नहीं लगता, पर इसमें फ़िल्मों का दोष नहीं, उम्र बदल गयी है तो इस तरह का होना स्वाभाविक है.
फ़िल्मों की पसंद समय के साथ साथ बदलती रहती है. एक समय था कि ज़रीना वहाब पर दिल फिदा था तो उनकी पहली फ़िल्म चित्तचोर जाने कितनी बार देखी थी. लेकिन किशोर मन बहुत वफादार नहीं था, कभी रेखा पर आता तो कभी शबाना आज़मी पर, और साथ ही साथ फिल्मों की पसंद बदलती रहती.
जो फिल्म सबसे अधिक बार सिनेमाघर में देखी वह है रमेश सिप्पी के शोले. एक समय था जब मीना कुमारी की रोने धोने वाली फ़िल्में भी मुझे अच्छी लगती थीं जैसे कि दिल एक मंदिर, पर आज उतनी अच्छी नहीं लगती.
इस उत्तर से यह समझना कठिन नहीं कि मुझे हिंदी फिल्मों में कितनी दिलचस्पी है!
क्या हिन्दी चिट्ठेकारी ने आपके व्यक्तिव में कुछ परिवर्तन या निखार किया?
हिंदी चिट्ठाकारी से मुझे हिंदी भाषा के करीब लौट आने का मौका मिला. जब लिखना शुरु किया था तो इतना सोचना पड़ता, शब्द याद ही नहीं आते थे और अक्सर शब्दकोश की सहायता लेनी पड़ती थी.
चिट्ठाकारी ने बहुत से लोगों से मिलने का मौका दिया विषेशकर प्रारम्भिक दिनों में. लाल्टू, प्रत्यक्षा, अनूप, रवि, रमण, ई स्वामी, जितेंद्र, देबाशीष, पंकज, संजय, अविनाश जैसे लोगों को बिना चिट्ठाकारी के कैसे जान पाता? बिना देबाशीष की सहायता के मैं हिंदी चिट्ठाजगत में आ ही नहीं पाता. इनमें से किसी से भी मिलने का मौका नहीं मिला है. अब तक मिला हूँ केवल अफलातून जी से, जिन्हें चिट्ठा जगत में आने से पहले से जानता हूँ और राम से, जो मुझे मिलने बोलोनिया आये थे. पर मेरा बस चले तो सब से मिलना पसंद करूँगा.
कुछ माह पहले दिल्ली में पसिद्ध लेखक और पत्रकार ओम थानवी के यहाँ था और उन्होंने सबसे मेरा परिचय लेखक के नाम से दिया, तो अजीब भी लगा और सुखद भी. मेरा चिट्ठा लिखने से पहले मेरी अपनी पहचान में "लेखक" शब्द नहीं था. लेखक बन गया हूँ यह तो नहीं कहता पर अपनी पहचान के दायरे कुछ बढ़ गये हें यह अवश्य कह सकता हूँ.
यह तो थे मेरे उत्तर. अब यह प्रश्नों का सिलसिला किस तरफ जाये? मैं चाहूँगा कि देबाशीष, रवि, रमण, ई स्वामी, अफलातून और पकंज भी इन प्रश्नों के उत्तर दें, पर अगर आप यह उत्तर पहले ही दे चुके हें तो मुझे कुछ दिन तक छुट्टियों का इंतजार करना पड़ेगा ताकि आप उन्हें पढ़ सकूँ. :-)
शुक्रवार, फ़रवरी 23, 2007
मानव और रोबोट
मैं एक बार पहले भी केनेडा के श्री ग्रेगोर वोलब्रिंग के बारे में लिख चुका हूँ. ग्रेगोर विकलाँग हैं, पहिये वाली कुर्सी से चलते हैं और कलगारी विश्वविद्यालय में जीव-रसायन विज्ञान पढ़ाते हैं. वह अंतरजाल पर "इंवोशन वाच" नाम के पृष्ठ पर नियमित रूप से लिखते भी हैं. उनके शोध का विषय है नयी उभरने वाली तकनीकों के बारे में विमर्श. उनसे पिछले वर्ष जेनेवा में विश्व स्वास्थ्य संस्थान की एक सभा में मुलाकात हुई थी.
ग्रेगोर से बात करो तो लगता है कि आसिमोव जैसे किसी लेखक की विज्ञान-उपन्यास (science fiction) पर बात हो रही हो, वह सब बातें सच नहीं कल्पना लगतीं हैं. पर ग्रेगोर का कहना है कि जिस भविष्य की वह बात करते हैं वह करीब है और इन दिनों में गढ़ा रचा जा रहा है. वह कहते हैं कि उस नये भविष्य का हमारे समाज पर गहरा प्रभाव पड़ेगा और इसलिए आवश्यक है कि हम सब लोग उसमें दिलचस्पी लें, उसके बारे में जाने, उस पर विमर्श करें.
अपने नये लेख में ग्रगोर ने लिखा हैः
****
इंडीब्लागीस 2006 पुरस्कार के लिए समीर जी को बहुत बहुत बधाई. रनरअप पुरस्कारों में मेरे साथी बिहारी बाबू को भी बधाई और आप सब पाठकों को धन्यवाद.
ग्रेगोर से बात करो तो लगता है कि आसिमोव जैसे किसी लेखक की विज्ञान-उपन्यास (science fiction) पर बात हो रही हो, वह सब बातें सच नहीं कल्पना लगतीं हैं. पर ग्रेगोर का कहना है कि जिस भविष्य की वह बात करते हैं वह करीब है और इन दिनों में गढ़ा रचा जा रहा है. वह कहते हैं कि उस नये भविष्य का हमारे समाज पर गहरा प्रभाव पड़ेगा और इसलिए आवश्यक है कि हम सब लोग उसमें दिलचस्पी लें, उसके बारे में जाने, उस पर विमर्श करें.
अपने नये लेख में ग्रगोर ने लिखा हैः
मानव संज्ञा और मस्तिष्क को क्मप्यूटर जैसे किसी अन्य उपकरण पर चढ़ाना संभव हो जायेगा जिससे वह शरीर पर उम्र के प्रभाव से बचे रहेंगे. हालाँकि इस तरह के आविष्कार से अभी हम बहुत दूर हैं पर इसकी बात हो रही है. दिमाग रखने वाली मशीनों की बातें तो हो रहीं हैं. जून में पिछली रोबोव्यवसाय (Robobusiness) सभा में माईक्रोसोफ्ट ने अपने रोबोटक सोफ्तवेयर की पहली झलक दिखाई. यह सोफ्टवेयर (Microsoft's Robotic Studio) शिक्षण के क्षेत्र में काम आयेगी. खाना बनाने वाला रोबोट 2007 में बाजार में आयेगा. रोबोवेटर, दाई रोबोट, बार में पेय पदार्थ डालने वाला रोबोट, गाना गाने वाले और बच्चों को पढ़ाने वाले रोबोट सब 2007 में तैयार होंगे. अगर यह प्लेन सफल होंगे तो 2015 और 2020 के बीच में हर दक्षिण कोरियाई घर में रोबोट होंगे. चौकीदार रोबोट 2010 तक तैयार होने चाहिये.इन सब मशीन और मानव के मिलने से बनी नयी खोजों के साथ साथ ग्रेगोर बहुत से प्रश्न उठाते हें जैसे कि यह नयी सज्ञा वाली मशीने, इनके क्या अधिकार होंगे? मानव होने की क्या परिभाषा होगी जब अलग मशीन में आप की यादाश्त और दिमाग रखे हों? क्या बिना शरीर के केवल मानव संज्ञा को मानव कह सकते हैं? किसी वस्तू के जीवित या अजीवित होने की क्या परिभाषा होगी? एक मशीन से उसकी यादाश्त लेने के लिए या बदलने के लिए हमें किससे आज्ञा लेनी पड़ेगी? और जिन मानव शरीरों को मशीनों के भागों से जोड़ कर बदल दिया जायेगा वह कब तक मानव कहलाँएगे और मानव तथा मशीन की सीमा कैसे निर्धारित की जायेगी? बीमार मानव जो मशीन की सहायता से सोचता है क्या वह मानव कहलायेगा?
****
इंडीब्लागीस 2006 पुरस्कार के लिए समीर जी को बहुत बहुत बधाई. रनरअप पुरस्कारों में मेरे साथी बिहारी बाबू को भी बधाई और आप सब पाठकों को धन्यवाद.
गुरुवार, फ़रवरी 22, 2007
मानव अधिकार
अमरीकी गैर सरकारी संस्था "मानव अधिकार वाच" (Human Rights Watch) की 2007 की नयी वार्षिक रिपोर्ट निकली है. इस रिपोर्ट में साल के दौरान विभिन्न देशों में मानव अधिकारों का क्या हुआ, इसकी खबर दी जाती है. कहाँ कौन से अत्याचार हुए रिपोर्ट में यह पढ़ कर झुरझुरी आ जाती है. सूडान के डार्फुर क्षेत्र और इराक में जो हो रहा है उसके बारे में तो फ़िर भी कुछ न कुछ पता चल जाता है पर अन्य बहुत सी जगहों पर क्या हो रहा है, इसकी किसी को खबर नहीं.
तुर्कमेनिस्तान और उत्तरी कोरिया में सख्त तानाशाह गद्दी पर बैठे हैं जहाँ कुछ भी स्वतंत्र कहने सोचने की जगह नहीं है. रूस में गैर सरकारी संस्थाओं पर हमले तो होते रहते हैं, प्रसिद्ध पत्रकार अन्ना पोलिटकोवस्काया जो सरकारी अत्याचारों के बारे में निर्भीक लिखतीं थीं, की हत्या ने सनसनी फ़ैला दी इसलिए भी कि अन्ना छोटी मोटी पत्रकार नहीं थीं, उनका नाम देश विदेश में मशहूर था. लोगों को डराना, धमकाना, उन्हें विभिन्न तरीकों से पीड़ा देना, पुलिस की जबरदस्ती और अत्याचार, कई देशों में निरंकुश बढ़ रहा है.
भारत के बारे में रिपोर्ट कहती है कि "भारत विश्व का सबसे बड़ा जनतंत्र है और यहाँ स्वतंत्र प्रेस और सामाजिक संस्थाएँ हैं, फ़िर भी कुछ बाते हैं जिनमें मानव अधिकारों की सुरक्षा नहीं होती. इनमें से सबसे बड़ी समस्या है पुलिस और विभिन्न सुरक्षा संस्थाओं के बड़े अधिकारियों को कुछ सजा नहीं मिल सकती, चाहे वह कुछ भी अत्याचार कर दें. लोगों को पकड़ कर उन्हें पीड़ा देना और सताना, बिना मुकदमे के लोगों को पकड़ कर रखना, उन्हें जान से मार देना आदि, जम्मु कश्मीर, उत्तर पूर्व और नक्सलाईट क्षेत्रों में आम बातें हैं... बच्चों के तथा अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा न कर पाना भी समस्या है, इन अल्पसंख्यकों में धार्मिक अल्पसंखयक, जनजाति के लोग और दलित भी शामिल हैं."
रिपोर्ट ने अमरीका की कड़ी आलोचना है. रिपोर्ट कहती है कि ग्वानतामा बे के कारागार में बिना मुकदमें के कैदियों को कई सालों से रखना और उन्हें यातना देने वाले अमरीका को मानव अधिकारों का रक्षक होने का गर्व त्यागना होगा, उसके अपने दामन पर दाग लगा है. यातना से भागने वाले लोगों को शरण देने से इन्कार करना भी अमरीका की कमजोरी है, और वह दूसरों पर मानव अधिकारों की रक्षा न करने का आरोप लगाता है.
किस देश ने कितना मानव अधिकारों को कुचला इसका अंदाज़ शायद रिपोर्ट में उस देश को कितनी जगह दी गयी है. रिपोर्ट में भारत को 7 पन्ने मिले हैं तो चीन को 12, नेपाल को 6, पाकिस्तान को 7 और अमरीका को 11.
2006 में जिन देशों ने मानव अधिकारों की दिशा में सराहनीय काम किया है उनमें सबसे ऊँचा नाम नोर्वे का है.
अगर आप पूरी रिपोर्ट पढ़ना चाहें तो वह अंतरजाल पर ह्यूमन राईटस वाच पर पढ़ सकते हैं.
तुर्कमेनिस्तान और उत्तरी कोरिया में सख्त तानाशाह गद्दी पर बैठे हैं जहाँ कुछ भी स्वतंत्र कहने सोचने की जगह नहीं है. रूस में गैर सरकारी संस्थाओं पर हमले तो होते रहते हैं, प्रसिद्ध पत्रकार अन्ना पोलिटकोवस्काया जो सरकारी अत्याचारों के बारे में निर्भीक लिखतीं थीं, की हत्या ने सनसनी फ़ैला दी इसलिए भी कि अन्ना छोटी मोटी पत्रकार नहीं थीं, उनका नाम देश विदेश में मशहूर था. लोगों को डराना, धमकाना, उन्हें विभिन्न तरीकों से पीड़ा देना, पुलिस की जबरदस्ती और अत्याचार, कई देशों में निरंकुश बढ़ रहा है.
भारत के बारे में रिपोर्ट कहती है कि "भारत विश्व का सबसे बड़ा जनतंत्र है और यहाँ स्वतंत्र प्रेस और सामाजिक संस्थाएँ हैं, फ़िर भी कुछ बाते हैं जिनमें मानव अधिकारों की सुरक्षा नहीं होती. इनमें से सबसे बड़ी समस्या है पुलिस और विभिन्न सुरक्षा संस्थाओं के बड़े अधिकारियों को कुछ सजा नहीं मिल सकती, चाहे वह कुछ भी अत्याचार कर दें. लोगों को पकड़ कर उन्हें पीड़ा देना और सताना, बिना मुकदमे के लोगों को पकड़ कर रखना, उन्हें जान से मार देना आदि, जम्मु कश्मीर, उत्तर पूर्व और नक्सलाईट क्षेत्रों में आम बातें हैं... बच्चों के तथा अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा न कर पाना भी समस्या है, इन अल्पसंख्यकों में धार्मिक अल्पसंखयक, जनजाति के लोग और दलित भी शामिल हैं."
रिपोर्ट ने अमरीका की कड़ी आलोचना है. रिपोर्ट कहती है कि ग्वानतामा बे के कारागार में बिना मुकदमें के कैदियों को कई सालों से रखना और उन्हें यातना देने वाले अमरीका को मानव अधिकारों का रक्षक होने का गर्व त्यागना होगा, उसके अपने दामन पर दाग लगा है. यातना से भागने वाले लोगों को शरण देने से इन्कार करना भी अमरीका की कमजोरी है, और वह दूसरों पर मानव अधिकारों की रक्षा न करने का आरोप लगाता है.
किस देश ने कितना मानव अधिकारों को कुचला इसका अंदाज़ शायद रिपोर्ट में उस देश को कितनी जगह दी गयी है. रिपोर्ट में भारत को 7 पन्ने मिले हैं तो चीन को 12, नेपाल को 6, पाकिस्तान को 7 और अमरीका को 11.
2006 में जिन देशों ने मानव अधिकारों की दिशा में सराहनीय काम किया है उनमें सबसे ऊँचा नाम नोर्वे का है.
अगर आप पूरी रिपोर्ट पढ़ना चाहें तो वह अंतरजाल पर ह्यूमन राईटस वाच पर पढ़ सकते हैं.
बुधवार, फ़रवरी 21, 2007
लिखाई से पहचान
बहुत से लोग सोचते हैं कि हाथ की लिखाई से व्यक्ति के व्यक्तित्व के बारे में छुपी हुई बातों को आसानी से पहचाना जा सकता है. कुछ लोग तो यहाँ तक कहते हैं कि हाथ की लिखाई से वह बता सकते हैं कि कोई खूनी है या नहीं.
कल जब इंग्लैंड के प्रधानमंत्री श्री टोनी ब्लेयर के हस्ताक्षर देखने को मिले तो यही बात मन में आयी कि इस हाथ की लिखाई से इस व्यक्ति के बारे में क्या बात पता चलती है?
हस्ताक्षर के नीचे की रेखा अपने आप में विश्वास को दर्शाती है और चूँकि यह रेखा नाम और पारिवारिक नाम दोनों के नीचे है, इसका अर्थ हुआ कि टोनी जी अपनी सफ़लता का श्रेय स्वयं अपनी मेहनत के साथ साथ, परिवार से मिली शिक्षा को भी देते हैं.
टोनी का "टी" जिस तरह से बड़ा और आगे की ओर बढ़ा हुआ लिखा है, इसका अर्थ है कि वह शरीर की भौतिक जीवन के बजाय दिमाग की दुनिया में रहने वाले अधिक हैं और उनके विचार भविष्य की ओर बढ़े हुए हैं. पूरा टोनी शब्द ऊपर की ओर उठा हुआ है, यानि वह आशावादी हैं, पर अंत का नीचे जाता "वाई" बताता है कि अपने बारे में कुछ संदेह है कि उन्होंने कुछ गलती की है.
ब्लेयर का ऊपर उठना, "आई" की बिंदी का आगे बढ़ना भी उनके आशावादी होने और भविष्य की ओर बढ़ी सोच का समर्थन करते हैं. प्रारम्भ के बड़े और खुले हुए "बी" से लगता है कि उनकी कल्पना शक्ति प्रबल है और वह खुले दिल, खुले विचारों वाले हैं.
यह सब उनके फरवरी 2007 में किये गये हस्ताक्षरों से दिखता है. अगर उनके कुछ साल पहले के हस्ताक्षर मिल जायें तो उन्हे मिला कर भी देखा जा सकता है कि उनके व्यक्तित्व में पिछले कुछ समय में कोई परिवर्तन आया है!
कल जब इंग्लैंड के प्रधानमंत्री श्री टोनी ब्लेयर के हस्ताक्षर देखने को मिले तो यही बात मन में आयी कि इस हाथ की लिखाई से इस व्यक्ति के बारे में क्या बात पता चलती है?
हस्ताक्षर के नीचे की रेखा अपने आप में विश्वास को दर्शाती है और चूँकि यह रेखा नाम और पारिवारिक नाम दोनों के नीचे है, इसका अर्थ हुआ कि टोनी जी अपनी सफ़लता का श्रेय स्वयं अपनी मेहनत के साथ साथ, परिवार से मिली शिक्षा को भी देते हैं.
टोनी का "टी" जिस तरह से बड़ा और आगे की ओर बढ़ा हुआ लिखा है, इसका अर्थ है कि वह शरीर की भौतिक जीवन के बजाय दिमाग की दुनिया में रहने वाले अधिक हैं और उनके विचार भविष्य की ओर बढ़े हुए हैं. पूरा टोनी शब्द ऊपर की ओर उठा हुआ है, यानि वह आशावादी हैं, पर अंत का नीचे जाता "वाई" बताता है कि अपने बारे में कुछ संदेह है कि उन्होंने कुछ गलती की है.
ब्लेयर का ऊपर उठना, "आई" की बिंदी का आगे बढ़ना भी उनके आशावादी होने और भविष्य की ओर बढ़ी सोच का समर्थन करते हैं. प्रारम्भ के बड़े और खुले हुए "बी" से लगता है कि उनकी कल्पना शक्ति प्रबल है और वह खुले दिल, खुले विचारों वाले हैं.
यह सब उनके फरवरी 2007 में किये गये हस्ताक्षरों से दिखता है. अगर उनके कुछ साल पहले के हस्ताक्षर मिल जायें तो उन्हे मिला कर भी देखा जा सकता है कि उनके व्यक्तित्व में पिछले कुछ समय में कोई परिवर्तन आया है!
मंगलवार, फ़रवरी 20, 2007
भारत में बनी दवाईयाँ
पिछले दशक में भारत में केंद्रित कई दवा बनाने वालों ने विश्व में सस्ती और अच्छी दवाएँ बनाने के लिए ख्याति पाई है. आज भारत की यह क्षमता खतरे में है, क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय दवा बनाने वाली कम्पनी नोवार्टिस (Novartis) ने भारत सरकार पर दावा किया है.
एडस की दवाएँ जो पहले केवल पश्चिमी देशों की दवा कम्पनियाँ बनाती थीं, उनके एक साल के इलाज की कीमत 20,000 डालर तक पड़ती थी, भारतीय सिपला जैसी कम्पनियों ने पर इन्हीं दवाओं को 2,000 डालर तक की कीमत में दिया. कुछ वर्ष पहले, जब दक्षिण अफ्रीका की सरकार ने पश्चिमी देशों के बजाय जब भारत से बनी इन सस्ती दवाओं को खरीदना चाहा तो 39 बड़ी दवा कम्पनियों ने मिल कर दक्षिण अफ्रीका की सरकार पर दावा कर दिया. इस पर सारी दुनिया में स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करने वाली गैर सरकारी और स्वयंसेवी संस्थाओं ने जनचेतना अभियान प्रारम्भ किया और दुनिया के विभिन्न देशों से लाखों लोगों ने इस अपील पर अपने दस्तखत किये. अपनी जनछवि को बिगड़ता देख कर घबरा कर अंतर्राष्ट्रीय दवा कम्पनियों ने दक्षिण अफ्रीका सरकार पर किया दावा वापस ले लिया.
इस तरह की सस्ती दवा बना पाने के लिए भारत के बुद्धिजन्य सम्पति अधिकारों (intellectual property rights) से सम्बंधित कानूनो ने बहुत अहम भाग निभाया था. यह कानून दवा बनाने के तरीको को सम्पति अधिकार (patents) देते थे जिसका अर्थ था कि वही पदार्थ अगर कोई किसी नये तरीके से बनाये तो उस पर यह अधिकार लागू नहीं होगा. इसका यह फायदा था कि कहीं पर कोई भी नयी दवा निकले, हमारे दवा बनाने वाले उसे बनाने के लिए नये और सस्ते तरीके खोज सकते थे. इस कानून का फायदा उठा कर भारतीय दवा बनाने वालों ने बहुत सी जान रक्षक दवाओं के नये और सस्ते संस्करण बनये और उन्हें कम कीमत पर बाज़ार में बेचा.
इन कानूनों से अंतर्राष्ट्रीय दवा बनाने वाली कम्पनियाँ बहुत परेशान थीं क्योंकि इससे उनके लाभ में कमी आती थी और उन्होंने भी भारत सरकार पर जोर डाला कि भारत विश्व व्यापार संस्थान (World Trade Organisation, WTO) का हिस्सा बन जाये और अंतर्राष्ट्रीय बुद्धिजन्य सम्पत्ति अधिकारों के कानूनों को मानने को बाध्य हो. सन 2005 में भारत डब्ल्यूटीओ का सदस्य बन गया.
पर जब भारत की सरकार ने WTO के हिसाब से अपने कानून बदला तो इस नये कानून के हिसाब से कोई पदार्थ बनाने के तरीका वाले कोपीराईट के साथ साथ पदार्थ पर भी कोपीराईट हो गया है ताकि कोपीराईट की अविधि तक कोई उस पदार्थ को किसी भी तरीके से न बना सके. अब भारतीय दवा बनाने वाले नयी दवाओं को बनाने के नये और सस्ते तरीके नहीं खोज सकते जब तक उस दवा की कोपीराइट अविधि न समाप्त हो जाये.
पर भारत सरकार इस नये कानून में अपनी दवा बनाने वाली कम्पनियों के पक्ष में कुछ कानून भी रखे हैं जैसे कि उसने यह कानून भी रखा कि कापीराईट करने के लिए बिल्कुल नया आविष्कार होना चाहिये. बहुत सी अंतर्राष्ट्रीय कम्पनिया अपनी दवाओं का कापीराईट बनावाती हैं पर कापीराईट की अविधि समाप्त होने से पहले उसी दवा में थोड़ा सा फेरबदल करके उसका नया कापीराईट बनवा लेती हैं (evergreeing of patents) ताकि वह दवा और बीस सालों तक केवल उनकी सम्पत्ति रहे. भारतीय कानून इसकी रोकथाम करने में सहायता देता है.
पिछले वर्ष स्विटज़रलैंड की नोवार्टिस कम्पनी ने कैसर के इलाज में प्रयोग की जाने वाली दवा ग्लीवेक (Glivec) के फारमूले में कुछ बदलाव करके उसके नये कोपीराईट के लिए अर्जी दी, जो भारत सरकार ने यह कह कर नामंजूर करदी कि यह नया आविष्कार नहीं बल्कि पुराने फारमूले में थोड़ी सी बदली करके किया गया है. इसी पर नोवार्टिस ने़ भारत सरकार पर दावा कर दिया है कि भारत का यह कानून डब्ल्यूटीओ के नियमों के विरुद्ध है और इस कानून को रद्द कर दिया जाना चाहिये.
अगर नोवार्टिस यह मुकदमा जीत जायेगा तो भारत सरकार का यह कानून कि केवल बिल्कुल नये आविष्कार की ही रजिस्ट्री होनी चाहिये, अपने आप ही रद्द हो जायेगा और भारत सरकार को अंतर्राष्ट्रीय दवा बनाने वाली कम्पनियों की बहुत सी पुरानी दवाओं के पेटेंट को मानना पड़ेगा. इससे कम कीमत पर भारतीय दवा बनाने वालों को रोक लग जायेगी जिसका असर केवल भारत पर ही नहीं, बहुत से देशों में रहने वाले गरीबों पर पड़ेगा.
भारत सरकार ने इस बात की जाँच के लिए अपनी एक अंदरूनी कमेटी बिठायी थी जिसके अध्यक्ष थे श्री मशालकर. गत दिसम्बर में मशालकर कमेटी ने नोवर्टिस की माँग को जायज बताया है और इस कानून को बदलने की सलाह दी है.
अंतर्राष्ट्रीय गैरसरकारी संस्थाओं तथा स्वास्थ्य क्षेत्र के बुद्धिजीवियों ने तुरंत श्री मशालकर कमेटी के निर्णय की आलोचना की. उन्होने बताया कि मशालकर कमेटी ने इंग्लैंड की एक कम्पनी की एक रिपोर्ट को ले कर वैसे ही नकल कर के अपनी रिपोर्ट में लिख दिया है. अँग्रेजी क्मपनी की वह रिपोर्ट अंतर्राष्ट्रीय दवा बनाने वाली कम्पनियों ने पैसा दे कर बनवायी थी. उनका आरोप है कि श्री मशालकर खुद वैसी ही कम्पनियों के सलाहकार के रुप में सारा जीवन बिता चुके हैं और उनसे इस विषय पर निक्षपक्ष राय की आशा नहीं की जा सकती.
इसी के विरुद्ध विभिन्न देशों में जनचेतना अभियान शुरु किये जा रहे हैं. लोगों से कहा जा रहा है कि नोवार्टिस पर दबाव डाला जाये कि वह यह मुकदमा वापस ले ले. अब तक करीब 3 लाख लोगों ने उस अपील पर दस्तखत किये हैं जिनमें स्विटज़रलैंड की पूर्व राष्ट्रपति श्रीमति रुथ ड्रैयफुस, नोबल पुरस्कार विजेता आर्चबिशप डेसमैंड टूटू, संयुक्त राष्ट्र संघ के अफ्रीका अधिकारी स्टीफेन लुईस जैसे लोग भी शामिल हैं. प्रसिद्ध अंतर्राष्ट्रीय कम्पनियों के लिए उनकी जनछवि बहुत महत्वपूर्ण होती है जिसके बलबूते पर उनकी बिक्री टिकी होती है. आशा है कि अपनी जनछवि बिगड़ती देख कर नोवार्टिस यह मुकदमा वापस ले लेगी.
आप भी इस अपील पर दस्तखत कीजिये और नोवार्टिस पर दबाव डालने में सहायता कीजिये. अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएँ जैसे कि "सीमाविहीन चिकित्सक" (Doctors without Borders) तथा "ओक्सफाम" (Oxfam) के अंतरजाल पृष्ठों पर इस अपील पर दस्तखत किये जा सकते हैं.
एडस की दवाएँ जो पहले केवल पश्चिमी देशों की दवा कम्पनियाँ बनाती थीं, उनके एक साल के इलाज की कीमत 20,000 डालर तक पड़ती थी, भारतीय सिपला जैसी कम्पनियों ने पर इन्हीं दवाओं को 2,000 डालर तक की कीमत में दिया. कुछ वर्ष पहले, जब दक्षिण अफ्रीका की सरकार ने पश्चिमी देशों के बजाय जब भारत से बनी इन सस्ती दवाओं को खरीदना चाहा तो 39 बड़ी दवा कम्पनियों ने मिल कर दक्षिण अफ्रीका की सरकार पर दावा कर दिया. इस पर सारी दुनिया में स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करने वाली गैर सरकारी और स्वयंसेवी संस्थाओं ने जनचेतना अभियान प्रारम्भ किया और दुनिया के विभिन्न देशों से लाखों लोगों ने इस अपील पर अपने दस्तखत किये. अपनी जनछवि को बिगड़ता देख कर घबरा कर अंतर्राष्ट्रीय दवा कम्पनियों ने दक्षिण अफ्रीका सरकार पर किया दावा वापस ले लिया.
इस तरह की सस्ती दवा बना पाने के लिए भारत के बुद्धिजन्य सम्पति अधिकारों (intellectual property rights) से सम्बंधित कानूनो ने बहुत अहम भाग निभाया था. यह कानून दवा बनाने के तरीको को सम्पति अधिकार (patents) देते थे जिसका अर्थ था कि वही पदार्थ अगर कोई किसी नये तरीके से बनाये तो उस पर यह अधिकार लागू नहीं होगा. इसका यह फायदा था कि कहीं पर कोई भी नयी दवा निकले, हमारे दवा बनाने वाले उसे बनाने के लिए नये और सस्ते तरीके खोज सकते थे. इस कानून का फायदा उठा कर भारतीय दवा बनाने वालों ने बहुत सी जान रक्षक दवाओं के नये और सस्ते संस्करण बनये और उन्हें कम कीमत पर बाज़ार में बेचा.
इन कानूनों से अंतर्राष्ट्रीय दवा बनाने वाली कम्पनियाँ बहुत परेशान थीं क्योंकि इससे उनके लाभ में कमी आती थी और उन्होंने भी भारत सरकार पर जोर डाला कि भारत विश्व व्यापार संस्थान (World Trade Organisation, WTO) का हिस्सा बन जाये और अंतर्राष्ट्रीय बुद्धिजन्य सम्पत्ति अधिकारों के कानूनों को मानने को बाध्य हो. सन 2005 में भारत डब्ल्यूटीओ का सदस्य बन गया.
पर जब भारत की सरकार ने WTO के हिसाब से अपने कानून बदला तो इस नये कानून के हिसाब से कोई पदार्थ बनाने के तरीका वाले कोपीराईट के साथ साथ पदार्थ पर भी कोपीराईट हो गया है ताकि कोपीराईट की अविधि तक कोई उस पदार्थ को किसी भी तरीके से न बना सके. अब भारतीय दवा बनाने वाले नयी दवाओं को बनाने के नये और सस्ते तरीके नहीं खोज सकते जब तक उस दवा की कोपीराइट अविधि न समाप्त हो जाये.
पर भारत सरकार इस नये कानून में अपनी दवा बनाने वाली कम्पनियों के पक्ष में कुछ कानून भी रखे हैं जैसे कि उसने यह कानून भी रखा कि कापीराईट करने के लिए बिल्कुल नया आविष्कार होना चाहिये. बहुत सी अंतर्राष्ट्रीय कम्पनिया अपनी दवाओं का कापीराईट बनावाती हैं पर कापीराईट की अविधि समाप्त होने से पहले उसी दवा में थोड़ा सा फेरबदल करके उसका नया कापीराईट बनवा लेती हैं (evergreeing of patents) ताकि वह दवा और बीस सालों तक केवल उनकी सम्पत्ति रहे. भारतीय कानून इसकी रोकथाम करने में सहायता देता है.
पिछले वर्ष स्विटज़रलैंड की नोवार्टिस कम्पनी ने कैसर के इलाज में प्रयोग की जाने वाली दवा ग्लीवेक (Glivec) के फारमूले में कुछ बदलाव करके उसके नये कोपीराईट के लिए अर्जी दी, जो भारत सरकार ने यह कह कर नामंजूर करदी कि यह नया आविष्कार नहीं बल्कि पुराने फारमूले में थोड़ी सी बदली करके किया गया है. इसी पर नोवार्टिस ने़ भारत सरकार पर दावा कर दिया है कि भारत का यह कानून डब्ल्यूटीओ के नियमों के विरुद्ध है और इस कानून को रद्द कर दिया जाना चाहिये.
अगर नोवार्टिस यह मुकदमा जीत जायेगा तो भारत सरकार का यह कानून कि केवल बिल्कुल नये आविष्कार की ही रजिस्ट्री होनी चाहिये, अपने आप ही रद्द हो जायेगा और भारत सरकार को अंतर्राष्ट्रीय दवा बनाने वाली कम्पनियों की बहुत सी पुरानी दवाओं के पेटेंट को मानना पड़ेगा. इससे कम कीमत पर भारतीय दवा बनाने वालों को रोक लग जायेगी जिसका असर केवल भारत पर ही नहीं, बहुत से देशों में रहने वाले गरीबों पर पड़ेगा.
भारत सरकार ने इस बात की जाँच के लिए अपनी एक अंदरूनी कमेटी बिठायी थी जिसके अध्यक्ष थे श्री मशालकर. गत दिसम्बर में मशालकर कमेटी ने नोवर्टिस की माँग को जायज बताया है और इस कानून को बदलने की सलाह दी है.
अंतर्राष्ट्रीय गैरसरकारी संस्थाओं तथा स्वास्थ्य क्षेत्र के बुद्धिजीवियों ने तुरंत श्री मशालकर कमेटी के निर्णय की आलोचना की. उन्होने बताया कि मशालकर कमेटी ने इंग्लैंड की एक कम्पनी की एक रिपोर्ट को ले कर वैसे ही नकल कर के अपनी रिपोर्ट में लिख दिया है. अँग्रेजी क्मपनी की वह रिपोर्ट अंतर्राष्ट्रीय दवा बनाने वाली कम्पनियों ने पैसा दे कर बनवायी थी. उनका आरोप है कि श्री मशालकर खुद वैसी ही कम्पनियों के सलाहकार के रुप में सारा जीवन बिता चुके हैं और उनसे इस विषय पर निक्षपक्ष राय की आशा नहीं की जा सकती.
इसी के विरुद्ध विभिन्न देशों में जनचेतना अभियान शुरु किये जा रहे हैं. लोगों से कहा जा रहा है कि नोवार्टिस पर दबाव डाला जाये कि वह यह मुकदमा वापस ले ले. अब तक करीब 3 लाख लोगों ने उस अपील पर दस्तखत किये हैं जिनमें स्विटज़रलैंड की पूर्व राष्ट्रपति श्रीमति रुथ ड्रैयफुस, नोबल पुरस्कार विजेता आर्चबिशप डेसमैंड टूटू, संयुक्त राष्ट्र संघ के अफ्रीका अधिकारी स्टीफेन लुईस जैसे लोग भी शामिल हैं. प्रसिद्ध अंतर्राष्ट्रीय कम्पनियों के लिए उनकी जनछवि बहुत महत्वपूर्ण होती है जिसके बलबूते पर उनकी बिक्री टिकी होती है. आशा है कि अपनी जनछवि बिगड़ती देख कर नोवार्टिस यह मुकदमा वापस ले लेगी.
आप भी इस अपील पर दस्तखत कीजिये और नोवार्टिस पर दबाव डालने में सहायता कीजिये. अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएँ जैसे कि "सीमाविहीन चिकित्सक" (Doctors without Borders) तथा "ओक्सफाम" (Oxfam) के अंतरजाल पृष्ठों पर इस अपील पर दस्तखत किये जा सकते हैं.
सोमवार, फ़रवरी 19, 2007
ज्वालामुखिँयों की राह
दक्षिण अमरीका में एक्वाडोर में उत्तर में देश की राजधानी कीटो से दक्षिण में कुएँका जाने वाला रास्ता "ज्वालामुखियों की राह" के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि दोनो तरह पहाड़ों के बीच में गुजरते हुए इस रास्ते पर बहुत से ज्वालामुखी हैं.
एक समय में इटली में भी कुछ ऐसे ही था, उत्तर से दक्षिण तक, पूरे देश के बीचों बीच रीड़ की हड्डी की तरह उठे पहाड़ों के बीच में बहुत से ज्वालामुखी थे. उत्तरी इटली के सभी ज्वालामुखी आदिकाल में ही ज्वाला फ़ैंक और लावा उगल कर शाँत हो गये और आज उन ज्वालामुखियों के मुखों में झींलें हैं. रोम से थोड़ी ही दूर उत्तरी दिशा में तीन इस तरह की ज्वालामुखियों वाली झीलें हैं - ब्राचानो, बोलसेना और वीको.
रोम के दक्षिण में पोमपेई के पास खड़ा वासूवियो ज्वालामुखी करीब दो हजार वर्ष पहले फूटा था और उसके लावे ने पोमपेई के रहनेवालों को अपनी कैद में बंद लिया था. उस लावे की खुदाई से निकला पोमपेई आज हमें दो हजार वर्ष पहले के जीवन की अनोखी झलक देखने का मौका देता है.
इटली के दक्षिणी कोने पर ऐत्ना पहाड़ का ज्वालामुखी आज भी आग और लावा उगलता है. बीच बीच में यह लावा उगलने की प्रक्रिया जब तेज होती है तो उसे देखने आने वाले पर्यटकों की सँख्या तुरंत बढ़ जाती है.
****
पिछले सप्ताह काम के सिलसिले में रोम जाना हुआ था, तो रोम के उत्तर में बसे प्राचीन शहर वितेर्बो को देखने का मौका मिला. शहर का मध्ययुगीन संकरी गलियों वाला हिस्सा मुझे बहुत अच्छा लगा. हालाँकि आज वितेर्बो छोटा सा शहर है पर इटली के इतिहास में इसका बहुत महत्व है. मध्ययुग में पोप को वेटीकेन छोड़ कर यही भाग कर आना पड़ा था और बहुत से सालों तक यह शहर दूसरा वेटीकेन बन गया था.
वितेर्बो से थोड़ी दूर ही है ब्राचानो की पुराने ज्वालामुखी के मुख में बनी झील. ब्राचानो शहर का नाम कुछ माह पहले अंतर्राष्ट्रीय समाचार पत्रों में आया था जब होलीवुड के अभिनेता टाम क्रूस ने यहाँ के किले में केटी होल्मस नाम की अभिनेत्री से विवाह किया था.
आज कुछ तस्वीरें वितेर्बो और ब्राचानो से.
एक समय में इटली में भी कुछ ऐसे ही था, उत्तर से दक्षिण तक, पूरे देश के बीचों बीच रीड़ की हड्डी की तरह उठे पहाड़ों के बीच में बहुत से ज्वालामुखी थे. उत्तरी इटली के सभी ज्वालामुखी आदिकाल में ही ज्वाला फ़ैंक और लावा उगल कर शाँत हो गये और आज उन ज्वालामुखियों के मुखों में झींलें हैं. रोम से थोड़ी ही दूर उत्तरी दिशा में तीन इस तरह की ज्वालामुखियों वाली झीलें हैं - ब्राचानो, बोलसेना और वीको.
रोम के दक्षिण में पोमपेई के पास खड़ा वासूवियो ज्वालामुखी करीब दो हजार वर्ष पहले फूटा था और उसके लावे ने पोमपेई के रहनेवालों को अपनी कैद में बंद लिया था. उस लावे की खुदाई से निकला पोमपेई आज हमें दो हजार वर्ष पहले के जीवन की अनोखी झलक देखने का मौका देता है.
इटली के दक्षिणी कोने पर ऐत्ना पहाड़ का ज्वालामुखी आज भी आग और लावा उगलता है. बीच बीच में यह लावा उगलने की प्रक्रिया जब तेज होती है तो उसे देखने आने वाले पर्यटकों की सँख्या तुरंत बढ़ जाती है.
****
पिछले सप्ताह काम के सिलसिले में रोम जाना हुआ था, तो रोम के उत्तर में बसे प्राचीन शहर वितेर्बो को देखने का मौका मिला. शहर का मध्ययुगीन संकरी गलियों वाला हिस्सा मुझे बहुत अच्छा लगा. हालाँकि आज वितेर्बो छोटा सा शहर है पर इटली के इतिहास में इसका बहुत महत्व है. मध्ययुग में पोप को वेटीकेन छोड़ कर यही भाग कर आना पड़ा था और बहुत से सालों तक यह शहर दूसरा वेटीकेन बन गया था.
वितेर्बो से थोड़ी दूर ही है ब्राचानो की पुराने ज्वालामुखी के मुख में बनी झील. ब्राचानो शहर का नाम कुछ माह पहले अंतर्राष्ट्रीय समाचार पत्रों में आया था जब होलीवुड के अभिनेता टाम क्रूस ने यहाँ के किले में केटी होल्मस नाम की अभिनेत्री से विवाह किया था.
आज कुछ तस्वीरें वितेर्बो और ब्राचानो से.
वितेर्बो की मध्ययुगीन संकरी गलियाँ
वितेर्बो का "मृत्यु का फव्वारा"
ब्राचानो की झील
ब्राचानो का किला
सदस्यता लें
संदेश (Atom)
इस वर्ष के लोकप्रिय आलेख
-
हिन्दू जगत के देवी देवता दुनिया की हर बात की खबर रखते हैं, दुनिया में कुछ भी ऐसा नहीं जो उनकी दृष्टि से छुप सके। मुझे तलाश है उस देवी या द...
-
अगर लोकगीतों की बात करें तो अक्सर लोग सोचते हैं कि हम मनोरंजन तथा संस्कृति की बात कर रहे हैं। लेकिन भारतीय समाज में लोकगीतों का ऐतिहासिक दृष...
-
अँग्रेज़ी की पत्रिका आऊटलुक में बँगलादेशी मूल की लेखिका सुश्री तस्लीमा नसरीन का नया लेख निकला है जिसमें तस्लीमा कुरान में दिये गये स्त्री के...
-
पिछले तीन-चार सौ वर्षों को " लिखाई की दुनिया " कहा जा सकता है, क्योंकि इस समय में मानव इतिहास में पहली बार लिखने-पढ़ने की क्षमता ...
-
पत्नी कल कुछ दिनों के लिए बेटे के पास गई थी और मैं घर पर अकेला था, तभी इस लघु-कथा का प्लॉट दिमाग में आया। ***** सुबह नींद खुली तो बाहर अभी ...
-
सुबह साइकल पर जा रहा था. कुछ देर पहले ही बारिश रुकी थी. आसपास के पत्ते, घास सबकी धुली हुई हरयाली अधिक हरी लग रही थी. अचानक मन में गाना आया ...
-
हमारे घर में एक छोटा सा बाग है, मैं उसे रुमाली बाग कहता हूँ, क्योंकि वो छोटे से रुमाल जैसा है। उसमें एक झूला है, बाहर की सड़क की ओर पीठ किये,...
-
हमारे एक पड़ोसी का परिवार बहुत अनोखा है. यह परिवार है माउरा और उसके पति अंतोनियो का. माउरा के दो बच्चे हैं, जूलिया उसके पहले पति के साथ हुई ...
-
२५ मार्च १९७५ को भी होली का दिन था। उस दिन सुबह पापा (ओमप्रकाश दीपक) को ढाका जाना था, लेकिन रात में उन्हें हार्ट अटैक हुआ था। उन दिनों वह एं...
-
गृत्समद आश्रम के प्रमुख ऋषि विद्यार्थियों को पढ़ा रहे थे, जब उन्हें समाचार मिला कि उनसे मिलने उनके बचपन के मित्र विश्वामित्र आश्रम के ऋषि ग...