तीस पैंतीस साल पहले जगजीत सिंह का एक गीत था जो मुझे बहुत प्रिय था, "बात निकलेगी तो बहुत दूर तलक जायेगी ..". आज अचानक इटली के "फासीवाद" के बारे में छोटी सी बात से एक खोज शुरु की, वह मुझे ऐसे ही जाने कहाँ कहाँ घुमाते हुए बहुत दूर तक ले आयी. दरअसल बात शुरु हुई थी शहीद भगत सिंह से.
मैं पढ़ रहा था शहीद भगत सिंह के दस्तावेज़. लखनऊ की राहुल फाऊँडेशन ने 2006 में, श्री सत्यम द्वारा सम्पादित यह नया संस्करण छापा था जिसमें भगतसिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़ संकलित हैं. दिल्ली के क्नाट प्लेस की एक दुकान में इस किताब के मुख्यपृष्ठ ने मेरा ध्यान आकर्षित किया था जिस पर नवयुवक भगतसिंह हैं और तस्वीर देख कर सोचा था कि भारत में भगतसिंह का नाम जानने वाले तो थोड़े बहुत अब भी मिल जायेंगे, लेकिन उनकी तस्वीर देख कर पहचानने वाले मुश्किल से मिलेंगे. उनका नाम सोचो तो मन में मनोज कुमार या अजय देवगन या बोबी देवल द्वारा अभिनीत भगत सिंह की छवियाँ ही मन में आती हैं.
जेल में लिखी डायरियों में भगत सिंह ने कई बार इटली के स्वतंत्रता युद्ध और देश को जोड़ने वाले व्यक्तियों जैसे कि माजीनी (Mazzini), कावूर (Cavour) और गरीबाल्दी (Garibaldi) का भी नाम लिया था और उनसे प्रेरणा ले कर भारत का स्वतंत्र स्वरूप कैसे हो इस पर सोचा था. इनके अतिरिक्त, वे विभिन्न इतालवी कम्यूनिस्ट विचारक, जैसे कि अंतोनियो ग्रामशी और रोज़ा लक्समबर्ग, के विचारों से भी प्रभावित थे. इस प्रभाव का एक कारण यह भी था कि 1861 में जब इटली एक देश बना था उस समय उसकी हालत कुछ कुछ पराधीन भारत जैसी थी, छोटे छोटे राजों महाराजों में बँटा देश जो आपस में लड़ते मरते और जिन पर अन्य पड़ोसी देश शासन करते थे.
भगत सिंह की बात सोचते हुए मन में इटली के दूसरे प्रभाव का ध्यान आया, फासीवाद के प्रभाव का, जिससे नाता था भारत के एक अन्य स्वतंत्रता सैनामी का, यानि सुभाष चन्द्र बोस. बोस भी भगत सिंह की तरह इतालवी देश एकाकरण के प्रमुख व्यक्ति जैसे माजीनी और गरीबाल्दी से प्रभावित थे, लेकिन साथ ही वह मुसोलीनी के फासीवाद से भी प्रभावित थे. द्वितीय महायुद्ध के दौरान जब वह कलकत्ता में ब्रिटिश सिपाहियों से बच कर भाग निकले थे, काबुल में इतालवी दूतावास ने उन्हें काऊँट ओरलान्दो मात्जो़त्ता के नाम का झूठा इतालवी पासपोर्ट बनवा कर यूरोप में यात्रा करवायी थी. उनकी सहायता के पीछे, मुसोलीनी का भारत प्रेम नहीं था, बल्कि "दुश्मनों का दुश्मन हमारा दोस्त" का विचार था कि बोस की सहायता करके वह अपने और हिटलर के दुश्मन अंग्रेजों के लिए झँझट बढ़वा रहे थे, लेकिन उन दिनों कुछ समय के लिए सुभाष इटली में रहे थे.
मुसोलीनी के फासीवाद से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के निर्माता भी प्रभावित थे और उसी प्रेरणा से उन्होंने अपनी संस्था का निर्माण किया था. क्या अर्थ था फासीवाद का और कहाँ से आया था यह शब्द? फासीवाद को तीसरा मार्ग घोषित किया गया. पहले दो मार्ग थे पूँजीवाद और कम्युनिस्म. फासीवाद राष्ट्रवादी तानीशाही का रास्ता था, जिसमें आज्ञाकारी और अनुशासित प्रजा होना आवश्यक था.
फासीवाद या फाशिस्म शब्द इटली के स्वतंत्रता संग्राम और फ्राँस की क्राँती से ही आया था. इस कथा का प्रारम्भ हुआ 1789 में फ्राँस की गणतंत्र क्राँती से, जिसका नारा था सब लोगों को बराबर अधिकार और स्वतंत्रता. इस क्राँती के 7 वर्ष बाद नेपोलियन की फौज उत्तरी इटली में घुस आयी. उस समय बोलोनिया शहर कैथोलिक धर्म के पोप के साम्राज्य का हिस्सा था और उनका साथ आस्ट्रिया की फौज देती थी. बोलोनिया में आस्ट्रिया की फौज हार गयी, और पोप के निर्युक्त गवर्नर को शहर छोड़ कर भागना पड़ा. उत्तरी इटली में नये गणतंत्र की स्थापना हुई, जिसका नाम रखा गया चिसपादाना और जिसकी राजधानी थी बोलोनिया. फ्राँस की क्राँती के चिन्ह "फाशियो लितोरियो" (Fascio Littorio), यानि रस्सी से बँधी लकड़ियाँ जिनका अर्थ था कि "एकता में शक्ति है", को पोप के नियुक्त गवर्नर के भवन में, पुराने धार्मिक निशान हटा कर, हर तरफ़ बनाया गया. तभी इतालवी झँडे को बनाया गया और उसके तीन रंगों को, लाल सफ़ेद और हरे रंगों को भी भवन में हर तरफ़ बनाया गया. यह गणतंत्र केवल तीन वर्ष चला. फ़िर पोप की सैनायें जीत कर वापस आ गयीं और उन्होंने झँडे के तीन रंगो को ढक दिया. कुछ वर्ष के बाद, नेपोलियन की फौजें फ़िर लौट आयीं, और इस बार पहले से भी बड़ा गणतंत्र बना जिसका नाम रखा गया चिसअल्पाईन और जिसकी राजधानी मिलान बना. फ़िर कभी आस्ट्रिया की मदद से पोप की सैना दोबारा शासन में आती, कभी गणतंत्र वालों का पलड़ा भारी होता. (तस्वीर में बोलोनिया के पुराने गवर्नर के भवन में फाशियो लितोरियो के चिन्ह)
यही दिन थे जब माजीनी, कावूर, गरीबाल्दी जैसे लोगों ने इटली के एकीकरण और स्वतंत्रता का सपना देखना शुरु किया जो 1861 में जा कर पूरा हुआ. इस वर्ष इस एकीकरण की 150वीं वर्षगाँठ मनायी जा रही है. जब मुसोलीनी का समय आया और 1925 में उन्होंने फासीवाद की स्थापना की, तो उनकी प्रेरणा स्वतंत्रता और एकीकरण संग्राम के वही पुराने चिन्ह थे, फाशियो लितोरियो, यानि रस्सी से बँधी लकड़ियाँ, यानि देश की एकता का चिन्ह, उसी फाशियो से फ़ाशिस्तवाद का नाम रखा गया.
यानि बात जहाँ से शुरु हुई थी, घूम कर वहीं वापस आ गयी, और हम सब माजीनी, गरिबाल्दी के साथ जुड़े इतिहास के इन पन्नों को भूल गये, जिन्होंने भगत सिंह और सुभाष चन्द्र बोस को प्रेरणा दी थी.
कभी यूरोप में आने वाले भारतीयों के लिए इटली से हो कर जाना आवश्यक था, क्योंकि सुएज़ कनाल से हो कर आने वाले पानी के जहाज़ दक्षिण इटली के बारी शहर में रुकते थे, फ़िर बारी से बर्लिन, पेरिस और लंदन तक की यात्रा रेलगाड़ी से की जाती थी. महात्मा गाँधी, रविन्द्रनाथ टैगोर, सुभाषचन्द्र बोस, जवाहरलाल नेहरू, राम मनोहर लोहिया, मदन मोहन मालवीय, सरदार पटेल, सब लोग कभी न कभी इटली से गुज़रे थे. (तस्वीर में बारी की बंदरगाह)
तब बोलोनिया शहर का रेलवे स्टेश्न उत्तर तथा मध्य इटली को जोड़ता था, अक्सर यहीं पर गाड़ी बदलनी पड़ती थी. शहर में घूमते समय कभी सोचो कि शायद एक बार यहाँ सुभाष बाबू आये थे, कहाँ रुके होंगे? किसके साथ थे, क्या सोचते होगे? तब तो उन्हें यहाँ के लोग नहीं जानते थे, किसने सहारा दिया होगा ऊन्हें? मन करता है कि बीते हुए कल में जाने वाली चिड़िया बन जाऊँ, इस सारे इतिहास को देखने और समझने.
बातों से बातों का सिलसिला जुड़ता जाता है, और मन कभी एक ओर जाता है, कभी दूसरी. बात निकलेगी तो दूर तलक जायेगी ...
मैं पढ़ रहा था शहीद भगत सिंह के दस्तावेज़. लखनऊ की राहुल फाऊँडेशन ने 2006 में, श्री सत्यम द्वारा सम्पादित यह नया संस्करण छापा था जिसमें भगतसिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़ संकलित हैं. दिल्ली के क्नाट प्लेस की एक दुकान में इस किताब के मुख्यपृष्ठ ने मेरा ध्यान आकर्षित किया था जिस पर नवयुवक भगतसिंह हैं और तस्वीर देख कर सोचा था कि भारत में भगतसिंह का नाम जानने वाले तो थोड़े बहुत अब भी मिल जायेंगे, लेकिन उनकी तस्वीर देख कर पहचानने वाले मुश्किल से मिलेंगे. उनका नाम सोचो तो मन में मनोज कुमार या अजय देवगन या बोबी देवल द्वारा अभिनीत भगत सिंह की छवियाँ ही मन में आती हैं.
जेल में लिखी डायरियों में भगत सिंह ने कई बार इटली के स्वतंत्रता युद्ध और देश को जोड़ने वाले व्यक्तियों जैसे कि माजीनी (Mazzini), कावूर (Cavour) और गरीबाल्दी (Garibaldi) का भी नाम लिया था और उनसे प्रेरणा ले कर भारत का स्वतंत्र स्वरूप कैसे हो इस पर सोचा था. इनके अतिरिक्त, वे विभिन्न इतालवी कम्यूनिस्ट विचारक, जैसे कि अंतोनियो ग्रामशी और रोज़ा लक्समबर्ग, के विचारों से भी प्रभावित थे. इस प्रभाव का एक कारण यह भी था कि 1861 में जब इटली एक देश बना था उस समय उसकी हालत कुछ कुछ पराधीन भारत जैसी थी, छोटे छोटे राजों महाराजों में बँटा देश जो आपस में लड़ते मरते और जिन पर अन्य पड़ोसी देश शासन करते थे.
भगत सिंह की बात सोचते हुए मन में इटली के दूसरे प्रभाव का ध्यान आया, फासीवाद के प्रभाव का, जिससे नाता था भारत के एक अन्य स्वतंत्रता सैनामी का, यानि सुभाष चन्द्र बोस. बोस भी भगत सिंह की तरह इतालवी देश एकाकरण के प्रमुख व्यक्ति जैसे माजीनी और गरीबाल्दी से प्रभावित थे, लेकिन साथ ही वह मुसोलीनी के फासीवाद से भी प्रभावित थे. द्वितीय महायुद्ध के दौरान जब वह कलकत्ता में ब्रिटिश सिपाहियों से बच कर भाग निकले थे, काबुल में इतालवी दूतावास ने उन्हें काऊँट ओरलान्दो मात्जो़त्ता के नाम का झूठा इतालवी पासपोर्ट बनवा कर यूरोप में यात्रा करवायी थी. उनकी सहायता के पीछे, मुसोलीनी का भारत प्रेम नहीं था, बल्कि "दुश्मनों का दुश्मन हमारा दोस्त" का विचार था कि बोस की सहायता करके वह अपने और हिटलर के दुश्मन अंग्रेजों के लिए झँझट बढ़वा रहे थे, लेकिन उन दिनों कुछ समय के लिए सुभाष इटली में रहे थे.
मुसोलीनी के फासीवाद से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के निर्माता भी प्रभावित थे और उसी प्रेरणा से उन्होंने अपनी संस्था का निर्माण किया था. क्या अर्थ था फासीवाद का और कहाँ से आया था यह शब्द? फासीवाद को तीसरा मार्ग घोषित किया गया. पहले दो मार्ग थे पूँजीवाद और कम्युनिस्म. फासीवाद राष्ट्रवादी तानीशाही का रास्ता था, जिसमें आज्ञाकारी और अनुशासित प्रजा होना आवश्यक था.
फासीवाद या फाशिस्म शब्द इटली के स्वतंत्रता संग्राम और फ्राँस की क्राँती से ही आया था. इस कथा का प्रारम्भ हुआ 1789 में फ्राँस की गणतंत्र क्राँती से, जिसका नारा था सब लोगों को बराबर अधिकार और स्वतंत्रता. इस क्राँती के 7 वर्ष बाद नेपोलियन की फौज उत्तरी इटली में घुस आयी. उस समय बोलोनिया शहर कैथोलिक धर्म के पोप के साम्राज्य का हिस्सा था और उनका साथ आस्ट्रिया की फौज देती थी. बोलोनिया में आस्ट्रिया की फौज हार गयी, और पोप के निर्युक्त गवर्नर को शहर छोड़ कर भागना पड़ा. उत्तरी इटली में नये गणतंत्र की स्थापना हुई, जिसका नाम रखा गया चिसपादाना और जिसकी राजधानी थी बोलोनिया. फ्राँस की क्राँती के चिन्ह "फाशियो लितोरियो" (Fascio Littorio), यानि रस्सी से बँधी लकड़ियाँ जिनका अर्थ था कि "एकता में शक्ति है", को पोप के नियुक्त गवर्नर के भवन में, पुराने धार्मिक निशान हटा कर, हर तरफ़ बनाया गया. तभी इतालवी झँडे को बनाया गया और उसके तीन रंगों को, लाल सफ़ेद और हरे रंगों को भी भवन में हर तरफ़ बनाया गया. यह गणतंत्र केवल तीन वर्ष चला. फ़िर पोप की सैनायें जीत कर वापस आ गयीं और उन्होंने झँडे के तीन रंगो को ढक दिया. कुछ वर्ष के बाद, नेपोलियन की फौजें फ़िर लौट आयीं, और इस बार पहले से भी बड़ा गणतंत्र बना जिसका नाम रखा गया चिसअल्पाईन और जिसकी राजधानी मिलान बना. फ़िर कभी आस्ट्रिया की मदद से पोप की सैना दोबारा शासन में आती, कभी गणतंत्र वालों का पलड़ा भारी होता. (तस्वीर में बोलोनिया के पुराने गवर्नर के भवन में फाशियो लितोरियो के चिन्ह)
यही दिन थे जब माजीनी, कावूर, गरीबाल्दी जैसे लोगों ने इटली के एकीकरण और स्वतंत्रता का सपना देखना शुरु किया जो 1861 में जा कर पूरा हुआ. इस वर्ष इस एकीकरण की 150वीं वर्षगाँठ मनायी जा रही है. जब मुसोलीनी का समय आया और 1925 में उन्होंने फासीवाद की स्थापना की, तो उनकी प्रेरणा स्वतंत्रता और एकीकरण संग्राम के वही पुराने चिन्ह थे, फाशियो लितोरियो, यानि रस्सी से बँधी लकड़ियाँ, यानि देश की एकता का चिन्ह, उसी फाशियो से फ़ाशिस्तवाद का नाम रखा गया.
यानि बात जहाँ से शुरु हुई थी, घूम कर वहीं वापस आ गयी, और हम सब माजीनी, गरिबाल्दी के साथ जुड़े इतिहास के इन पन्नों को भूल गये, जिन्होंने भगत सिंह और सुभाष चन्द्र बोस को प्रेरणा दी थी.
कभी यूरोप में आने वाले भारतीयों के लिए इटली से हो कर जाना आवश्यक था, क्योंकि सुएज़ कनाल से हो कर आने वाले पानी के जहाज़ दक्षिण इटली के बारी शहर में रुकते थे, फ़िर बारी से बर्लिन, पेरिस और लंदन तक की यात्रा रेलगाड़ी से की जाती थी. महात्मा गाँधी, रविन्द्रनाथ टैगोर, सुभाषचन्द्र बोस, जवाहरलाल नेहरू, राम मनोहर लोहिया, मदन मोहन मालवीय, सरदार पटेल, सब लोग कभी न कभी इटली से गुज़रे थे. (तस्वीर में बारी की बंदरगाह)
तब बोलोनिया शहर का रेलवे स्टेश्न उत्तर तथा मध्य इटली को जोड़ता था, अक्सर यहीं पर गाड़ी बदलनी पड़ती थी. शहर में घूमते समय कभी सोचो कि शायद एक बार यहाँ सुभाष बाबू आये थे, कहाँ रुके होंगे? किसके साथ थे, क्या सोचते होगे? तब तो उन्हें यहाँ के लोग नहीं जानते थे, किसने सहारा दिया होगा ऊन्हें? मन करता है कि बीते हुए कल में जाने वाली चिड़िया बन जाऊँ, इस सारे इतिहास को देखने और समझने.
बातों से बातों का सिलसिला जुड़ता जाता है, और मन कभी एक ओर जाता है, कभी दूसरी. बात निकलेगी तो दूर तलक जायेगी ...