दिल्ली से एक मित्र कुछ किताबें ले आये हैं जिनमे मुणाल पांडे की किताब "परिधि पर स्त्री" (राधाकृष्ण प्रकाशन, १९९८) भी है. मुणाल पांडे जी सुप्रसिद्ध लेखिका दिवंगत शिवानी जी की पुत्री हैं और अंग्रेजी में एम.ए. हैं पर अधिकतर हिंदी में ही लिखती हैं. उनके बहुत से कहानी संग्रह, लेख संग्रह तथा उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं.
इस पुस्तक में मृणाल जी ने नारीवाद के विभिन्न पहलुओं के बारे में लिखा है. पढ़ते पढ़ते मैं कई बार रुक कर सोचने के लिए मजबूर हो जाता हूँ. उनकी कलम में तलवार की धार छिपी है जो ऊपर से बिठाये सुंदर मुखौटे को चीर कर अंदर छुपे धाव को नंगा कर के दिखाती है.
देश के विश्वविद्यालयों में स्त्री समस्याओं पर हो रहे शोध कार्य पर वह लिखती हैं, "यह हमारे देश के वर्तमान अकादमिक क्षेत्र की एक केंद्रीय विडंबना है कि गरीबी, असमानता तथा स्त्रियों की विषम स्थिति पर बड़े बड़े विद्वानों द्वारा जो भी बड़िया काम आज हो रहा है, उसके बुनियादी ब्यौरे तो वे अपने शोध सहायकों की मार्फत भारतीय भाषाओं में संचित करा रहे हैं, पर उनका अंतिम संकलन, माप जोख तथा विश्लेषण वे अंग्रेजी में ही प्रस्तुत करते हैं और उन्हें भी वे प्रिंसटन, हारवर्ड, आक्सफोर् अथवा येल जैसे विख्यात पश्चिमी विश्वविद्यालयों के अकादमिक पत्रों में छपवाने को ही वरीयता देते हैं जबकि उनके पैने विश्लेषणों और तर्कसंगत वैज्ञानिक सुझावों के मार्ग के मार्गदर्शन की सर्वाधिक दरकार भारत के उन समाजसेवी संगठनों को है जो इन ऊँचे शोध केंद्रों और अंग्रेजी भाषा से बहुत दूर चुपचाप अपना काम कर रहे हैं."
सच बात तो यह है कि अगर आप अंग्रेजी में नहीं लिखते तो दुनिया में आप का कोई अस्तित्व ही नहीं है. कितने लोगों ने सुना है मुणाल पांडे का नाम ? मुक्तिबोध जैसे कवि का नाम, भारत के बाहर की बात तो छोड़िये, अपने भारत में ही कितने लोग जानते हैं ?
अरुंधति राय कुछ लिखती हैं तो १० दिन के अंदर ही मैं उस लेख को इतालवी भाषा में पढ़ सकता हूँ. मृणाल जी का लिखा कभी कुछ नहीं आया इतालवी भाषा में. इतालवी गूगल से ढ़ूंढ़िये तो १० लाख पन्ने मिल जायेंगे अरुंधति राय के बारे में. मेरे नाम से ढ़ूंढ़िये तो भी कम से कम दो हजार पन्ने मिल जायेंगे. २० साल से लिख रहीं हैं मृणाल जी, उनके नाम से इतालवी गूगल से खोजो तो उत्तर आता है कि इस नाम से कुछ नहीं है.
मेरे कहने का यह अर्थ नहीं कि अरुंधति राय की प्रसिद्धि गलत है, वे बहुत बढ़िया लिखती हैं और मैं उनका प्रशंसक हूँ. न ही यह कहना चाहता हूँ कि गूगल की खोज में आना ही लेखक या पत्रकार के लिए सफलता का अकेला मापदंड है. मैं तो सिर्फ इतना कहना चाहता हूँ कि आज भी हिंदी चुनने वालों के लिए दुनिया में कोई जगह नहीं, अपने भारत में भी नहीं, लोग उन्हें दूसरी श्रेणी का समझते हैं.
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आपकी बातें सही हैं। फोटो खूबसूरत हैं । मृणाल पांडे का लिखा पढ़ना हो तो हिंदी का हिंदुस्तान का संपादकीय देखा करें -रविवार का।
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