गुरुवार, अगस्त 25, 2005

स्त्री, पुरुष या विकलांग ?

यह कैसा सवाल हुआ, विकलांग लोग क्या स्त्री या पुरुष नहीं होते?
मेरी एक मित्र है, अफ्रीका में डाक्टर है. वहीं एक कार दुर्घटना में उसका दाहिना हाथ और बाजू चले गये. उसने मुझे कहा, "जब मैंने बाजू खोयी तभी अपना स्त्री होना भी खो दिया. लोगों के लिए मैं अब औरत नहीं केवल विकलांग हूँ."
उसकी इसी बात से, मैंने अपने शौध का विषय चुना कि विगलांग होने का सेक्सुएल्टी यानि यौन जीवन पर क्या असर पड़ता है. इस शोध के लिए यौन जीवन का अर्थ केवल मेथुन क्रिया नहीं थी बल्कि दो व्यक्तियों के बीच आपस में जो भी सम्बंध, यानि स्पर्श, प्यार, दोस्ती, बातें, फैंटेसी, आदि सब कुछ था.
शौध के बारे में मैंने ई‍ग्रुप्स में विज्ञापन दिये और बालिग विकलांग व्यक्तियों को शोध में भाग लेने का निमंत्रण दिया. प्रारम्भ में 32 लोगों ने शौध में भाग लेने में दिलचस्पी दिखायी. अंत में करीब 20 लोगों ने भाग लिया. हर एक व्यक्ति से ईमेल के द्वारा बात होती थी. हर एक से बात कम से कम तीन चार महीने चली, किसी किसी से तो और भी लम्बे चली. सवाल मैं ही नहीं करता था वह भी मुझ से सवाल कर सकते थे.
सेक्स का हमारे जीवन में क्या अर्थ है? सोचता था कि अपने बारे में सब कुछ जानता हूँ पर दूसरों से बात करके ही मालूम पड़ा कि कितने अंधेरे कमरे छिपे हैं अपने मन के भीतर, जिनको मानना नहीं चाहता था क्यों कि वे मेरे अपने अस्तित्व की छवि से मेल नहीं खाते थे. आसान नहीं था पर मैंने कोशिश की कि अपनी हर बात को बिना किसी शर्म या झिझक से औरों से कह सकूं. शायद इसी लिए लगा कि शौध में भाग लेने वाले लोगों ने भी ईमानदारी से अपनी बातें कहीं.
कई बार शौध की आयी ईमेल पढ़ कर रोना आ जाता. कभी कभी पूरा संदेश नहीं पढ़ पाता था, क्मप्यूटर बंद कर के बाहर बाग में चला जाता. विश्वास नहीं होता कि लोग इतने अमानुष भी हो सकते हैं. शौध के एक वर्ष में उनमें से कई लोगों के साथ मित्रता के ऐसे बंधन बन गये जो आज भी बने हुए हैं. शौध के दौरान हुई बातों का एक छोटा सा भाग ही शौध की थीसिस में प्रयोग किया. लोगों ने अपनी भावनाओं और अनुभवों में जिस तरह मुझे देखने का मौका दिया था, उसे थीसिस में लिखना मुझे ठीक नहीं लगा. इस अनुभव ने मुझे हमेशा के लिए बदल दिया.
शौध का निष्कर्ष था कि विकलांग लोगों के जीवन रुकावटों से घिरे हुए हैं. ये रुकावटें भौतिक भी हैं जैसे सीड़ियां, लिफ्ट न होना, इत्यादि, और विचारों की भी हैं. ये समाज के विचारों की रुकावटें ही सबसे अधिक जटिल हैं, जिनको पार करना आसान नहीं.
यौन संपर्कों और यौन जीवन के बारे में बात करना आसान नहीं और विकलागंता के बारे में भी बात करना आसान नहीं है. जब दोनो बाते मिल जाती हैं, तो उसके बारे में तो कोई भी बात नहीं हो पाती.
मेरी थीसिस इस अनुभव के छोटे से भाग को अध्यापन की गम्भीर भाषा में घुमा फिरा कर व्यक्त करती है, पर अगर आप इसे पढ़ना चाहें तो यहाँ पढ़ सकते हैं.
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आज की तस्वीरें हैं दक्षिण इटली के शहर ओस्तूनी से, इस शहर को श्वेत शहर भी कहते हैं क्योंकि यहां के सब घर सफेद रंग के हैं.


5 टिप्‍पणियां:

  1. सुनीलजी,बहुत अच्छा काम किया है। नया शोध। बधाई। क्या इसे हिंदी में भी अनुदित करने का विचार है?

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  2. आप सही कह रहे हैं मित्र। विकलांग लोगों का कम से कम भारत में तो जीना आसान नहीं है। विकलांगों की उपेक्षा केवल समाज ही नहीं करता है बल्कि परिवार में भी उपेक्षा होती है। समाज की उपेक्षा को तो विकलांग सहन कर जाते हैं लेकिन परिवार की उपेक्षा उनका दिल तोड़ कर रख देती है।

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    1. राजीव, अपनी मित्रता देने के लिए धन्यवाद. तुमने इतने साल पहली लिखी इस पोस्ट को पढ़ा, उसने तुम्हारे दिल को छुआ, यह जान कर अच्छा लगा. :)

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    2. आपके विचार ही ऐस हैं मित्र कि 50सों सालों तक पुराने न होंगे।

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"जो न कह सके" पर आने के लिए एवं आप की टिप्पणी के लिए धन्यवाद.

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