शुक्रवार, जून 16, 2006

क्यों नहीं ?

"अंतर्राष्ट्रीय विकलाँग मानव" (Disabled Peoples International) के इतालवी प्रतिनिधि जाँपिएरो से बात कर रहा था. जाँपिएरो ने कहा, "विकलाँग लोगों के सामान्य जीवन अधिकारों का तो सदियों से उल्लँघन होता आया था पर तब उनमें इस अन्याय की चेतना नहीं थी. विकलाँग लोगों का घर से बाहर निकलना, अन्य विकलाँग लोगों से बात करना, कहीं आना जाना, आर्थिक दृष्टि से स्वतंत्र होना, आदि बहुत कठिन था. केवल द्वितीय विश्व महायुद्ध के आसपास जब उद्योगिक विकास से उत्तरी देशों की आर्थिक स्थिति मज़बूत हुई तो ऐसी संस्थाँए बनाई जाने लगीं जहाँ विकलाँग लोगों को अलग रखा जा सके और वह लोग आपस में मिलने जुलने लगे, एक दूसरे के जीवन अनुभव की बातें करने लगे. तब उन्हें पहली बार समझ में आया कि जिसे वह अपनी विकलाँगता की वजह से हुई कठिनाईयाँ समझते थे, वह उनकी विकलाँगता से नहीं, समाज की मानसिकता से जन्मी कठिनाईयाँ थीं और अगर वह सब मिल कर इस सामाजिक अन्याय और शोषण से लड़ें तो समाज बदल सकता है. अकेले मानव के शरीर के "नुक्स" देखने वाले मेडिकल कारणों की जगह उन्होंने विकलाँगता से सामाजिक कारणों की बात की."

इसी सोच की वजह से विकसित देशों में पटरी ऐसी बनाईये कि व्हील चेयर वाला व्यक्ति उसका इस्तमाल कर सके, सीढ़ियों के साथ लिफ्ट या रेम्प बनवाईये, मार्गदरशक बोर्ड ब्रेल में भी लिखिये, दूरदर्शन समाचार इशारों की भाषा में भी दिखाईये, जैसी बातें होनी लगीं.

जाँपिएरो की बात से मैं एक अन्य वर्ग की बात सोच रहा था जो शोषित है और जिसके मानव अधिकारों को सदियों से कुचला जाता है, दलित वर्ग. क्या हिंदी चिट्ठा जगत में दलित लेखक हैं और वह इस बारे में क्या सोचते हैं ?

ब्राज़ील और कीनिया जैसे देशों में गरीब इलाकों और झोपड़पट्टी में जाना बहुत कठिन है, वहाँ अगर आप अच्छे वस्त्र पहने हों तो आप को लूट लेने वाले बहुत मिल जायेंगे. कहते हैं कि वहाँ के गरीब वर्ग में सामाजिक विषमताओं के प्रति बहुत क्रोध है. जब गरीब, शोषित लोगों की हिंसा की बात होती है तो अक्सर मेरे मित्र मुझसे पूछते हैं कि तुम्हारे भारत में ऐसा क्यों नहीं होता ? क्यों वहाँ किसी गरीब कालोनी में तुम पर हमला नहीं करते, क्यों उनमें गुस्सा नहीं है? क्या कारण हैं इसके ?

मेरे कुछ विदेशी मित्रों का कहना है कि यह हिंदू धर्म की सोच की वजह से है, कि लोग कहते हैं, "किस्मत की बात है, पिछले जीवन में कोई पाप किया था उसकी सजा है". कुछ का कहना है कि अत्याचार से लड़ना चाहिये और अगर कोई धर्म तुम्हें अत्याचार से लड़ने के बजाय उसे स्वीकार करना सिखाता है और उसे तुम्हारी अपनी ही गलती बताता है तो वह धर्म गलत है.

मैं यह बात नहीं मानता. गरीब कालोनी में गुजरने वाले लोगों पर हमला कर या उन्हें लूटने से समाजिक विषमताँए नहीं बदलतीं. शायद हमें धर्म और प्रजातंत्र गरीब मन में यह आशा देता है कि मेहनत करके, कोशिश करके हम भी अपना जीवन बदल सकते हैं, जबकि हिंसा कुछ नहीं बदलती.
*****

कल की अतुल की टिप्पणी:

"पर मुद्दा यह है कि यह प्रसार होगा कैसे? गर इंटरनेट पर तीन सौ से बढ़कर तीन लाख
ब्लाग हो जायें उससे? कल कुछ हिंदी समाचार चैनल देख रहा था। एक छोटी सी घटना की
रिपोर्ट देने में कुल चार वाक्य बारह बार घुमाये गये, हर वाक्य के अस्सी प्रतिशत
शब्द अँग्रेजी के थे। यही हाल अभिनेताओं का है। बात सिर्फ इतनी नही कि ये लोग हिंदी
बोलने में शर्माते हैं, इन्हें ढँग से आती ही नही। "

पर सोच कर बताईये, क्या किया जा सकता है जिससे देश में अधिक चेतना आये कि अँग्रेज़ी जानने के साथ साथ हम अपनी भाषा पर गर्व कर सकें, उसे अच्छा समझना, बोलना बढ़ सके ?

3 टिप्‍पणियां:

  1. Bharat mein gareebon ki awaaz ko daba diya jaata hai... kya itihaas gawah nahi hai ke hamare desh mein aisa hi hua hai... yadi weh apna gussa zaahir karenge to apni mushkilon ko badaenge hi.... yeh dharm ki baat nahi hai... samaj ki baat hai...

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  2. प्रेमलता पांडे16 जून 2006 को 7:31 pm बजे

    १.जिस भाषा में हम सोच सकें वही भाषा हमारी अभिव्यक्ति (पढ़ना-लिखना और जन-संपर्क) का माध्यम होना चाहिए।
    अपनी भाषा में नूतन जानकारियाँ(ज्ञान-विज्ञान एवं तकनीकी) प्राप्य होने पर हरेक ज्ञानार्जन कर सकता है।
    २. भाषा लचीली होनी चाहिए, सर्वग्राह्य होनी चाहिए। जिस भाषा में किसी दूसरी भाषा के शब्दों को समाहित करने की ,अपनाने की क्षमता होती है वही भाषा जन-भाषा बन सकती है, बशर्ते जबरन शब्द ना लिए जाएँ, बल्कि सहज और स्वाभाविक रुप में आ गए हों।
    ३जब व्यवहारिक भाषा और व्यवसाय की भाषा एक होगी तो प्रसार स्वतः ही हो जाएगा। आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है।
    ४ सरल शब्दावलि प्रयोग में आनी चाहि ए। कम क़ीमत में हर विषय का साहित्य हिंदी में मिलना चाहिए , गाँव-गाँव में पहुँचना भी चाहिए।
    ५.जीवन के हर क्षेत्र से जुड़े प्रसिद्ध लोगों को अपनी भाषा में ही व्यवहार करके आदर्श प्रस्तुत करने चहिए।
    ६ मातृ-भाषा का फैशन चलाना चाहिए।

    प्रेमलता

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  3. प्रेमलता पांडे16 जून 2006 को 7:34 pm बजे

    फैशन केस्थान पर फ़ैशन समझें।

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"जो न कह सके" पर आने के लिए एवं आप की टिप्पणी के लिए धन्यवाद.

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