सबसे पहले तो जितेंद्र की शिकायत को लें:
सुनील भाई, ब्लॉग की थीम बदलो यार! बहुत दु:खी लगती है।
असल में जाने क्यो मन की गहराई में कहीं छुपा हुआ है कि गम्भीर, उदास, फ़ीके रंगों से अपनी छवि बुद्धिजीवी की हो जायेगी, इसलिए जब भी चिट्ठे का कोई टेम्पलेट ढूँढ़ता हूँ तो रो धो कर ऐसे ही डिज़ाइन पर जा कर मन रुकता है जिसे देख कर मन से निकले, वाह कितना गम्भीर और दुखी है! खैर जीतू तुम्हारी मन से निकली इस आह को कैसे देख कर अनदेखा कर देता? तो नतीजा तुम्हारे सामने है. यह नहीं कि रँग बहुत खुशनुमा हो गयें हैं पर शायद थोड़ा सा फर्क पड़ा है? :-)
अब बात करें संजय की, जिन्होंने लिखा हैः
अपनी बात स्पष्ट करने के लिए एक ऐसे पुरूष की बात करता हूँ जो जन्म से तो पुरूष हैं मगर स्त्री बनना चाहता है, वह समलिंगी है. ऐसे लोगो के लिए मेरा मत है की-व्यक्तिगत स्वतंत्रता सर्वोत्तम है, मगर अपनी जिम्मेदारी से भागना कहाँ तक सही है. प्रकृति ने पुरूष बनाया है तो एक पुरूष का कर्तव्य निभाओ. कुछ कमी रही है तो ईलाज करवाओ. एक महिला बनने की कामना करते हुए उल्टा ईलाज करवाने से कहीं ज्यादा अच्छे परिणाम एक पुरूष बनने का ईलाज करवाना चाहिए. मन तो और भी बहुत कुछ करने को चाहता होगा, अच्छासंजय जैसा तुम सोचते हो, मेरे विचार में दुनिया के अधिकाँश लोग शायद ऐसा ही सोचते हैं. जो लोग इस द्वँद से गुज़रते हैं, उनमें से भी बहुत से लोग अपने मन और भावनाओं को दबा कर यही कोशिश करते हैं कि किसी को मालूम न चले, छुप कर दब कर रहो. जो लोग इतना साहस जुटा पाते हें कि दुनिया में अपना सच बता सकें, उन्हें कदम कदम पर तिरस्कार और परिहास का सामना करना पड़ता है. केवल उन पर ही नहीं, उनके सारे परिवार के लिए कितना कष्टदायक होता है इसका अंदाज़ इस बात से मिलता है कि उनमें से अधिकतर लोगों को घर परिवार से नाता तोड़ना पड़ता है. जब इतनी तकलीफ़ें उठानी पड़ती हैं तो भी क्यों कुछ लोग लिंग बदलाव की कोशिश करते हैं? शायद इसलिए कि "गलत" शरीर में रहने की पीड़ा उनसे सहन नहीं होती? जितना मैंने जाना है, वे कोई भी फैसला करें, भावनाओं को छुपाने और दबाने का या अपने सच के साथ सामने आने का, कोई भी आसान नहीं होता. बहुत से लोग मनोचिकित्सकों के पास ही जाते हैं पर आधुनिक सोच के अनुसार मनोचिकित्सक का काम यह नहीं कि वह किसी को बतायें क्या ठीक है या क्या गलत, बल्कि उनका काम है व्यक्ति को अपने अंतर्द्वंद को समझना और उसे स्वीकार करना. पहले किसी ज़माने में समलैंगिकता को बीमारी माना जाता था पर आज तो वह मानव प्रकृति की विविधता का ही एक हिस्सा है.
हो अन्य मामलो की तरह इसका भी ईलाज मनोचिकित्सक से करवाया जाय.यह सब नैतिक या धार्मिक प्रेरणाओं से नहीं बल्कि शारीरिक जटिलताओं को ध्यान में रख कर लिखा है.
घुघुटीबसूटी, मालूम नहीं कि यह नाम ठीक से लिखा है या नहीं, की बात से में बहुत कुछ सहमत हूँ पर उनकी इस बात परः
समलैंगिकता आदि व्यक्तिगत पसन्द हैं, और इसे आम व्यक्ति समझ नहीं सकता ।मैं कुछ जोड़ना चाहूँगा. समलैंगिकता व्यक्तिगत पसंद है या व्यक्ति के अंदर उसके व्यक्तित्व का अभिन्न अंग, इस पर बहस तो हमेशा से ही चलती आई है, पर यह सोचना कि आम आदमी इसे नहीं समझ सकता केवल आज की परिस्थिति को बताता है. मेरे विचार में इस विषय पर आम आदमी के लिए और जानकारी दी जानी चाहिये. बहुत से लोग इन विषयों पर बात करना पसंद नहीं करते क्योंकि उनको लगता है कि जब यह बात हमारे समाज में नहीं है तो इस पर बात करने से शायद इसे प्रोत्साहन मिले या नवयुवकों को गलत विचार मिलें. वैज्ञानिक शोध से पता चलता है कि करीब 10 प्रतिशत लोग इस श्रेणी में आते हैं, आप मान लें कि 10 न हो कर वे केवल 5 प्रतिशत हैं तो भी हम भारत में कितने करोड़ लोंगो की बात कर रहे हैं? जो बात इतने जीवन छूती है, उस पर आम आदमी को क्यों न जानकारी और समझ हो?
अंत में देखें ईस्वामी की टिप्पणियाँ:
१) मुझे समलैंगिकों से बस इतना कहना है की वे अपनी जीवनशैली जीने के लिए स्वतंत्रता का हक रखते हैं लेकिन वे "विवाह" शब्द की परिभाषा से छॆडछाड ना करें. विवाह एक स्त्री और एक पुरुष के बीच ही हो सकता है इस परिभाषा का सम्मान करें. अगर दो पुरुषों को या दो स्त्रीयों को अपनी जोडी को सामाजिक और न्यायिक मान्यता दिलवानी है तो अपने गठजोडों के लिए कोई नये शब्द गढें और सटीक परिभाषा गढें जैसे की
पुरुष-पुरुष का हो तो हीवाह और स्त्री-स्त्री का होतो शीवाह - विवाह कतई नहीं मैरिज कतई नहीं - इस बारे में मैं बहुत कट्टर हूं!
मेरे विचार में बात यह नहीं कि इसे क्या नाम दिया जाये, बात अधिकारों की है चाहे उसे कुछ भी नाम दें. अधिकार कई स्तरों पर हैं. एक आम युगल को विवाह एक दूसरे की सम्पत्ती की वसीयत से जुड़े अधिकार देता है, अगर उनमें से किसी एक को अस्पताल में दाखिल हो तो उससे मिलने का अधिकार देता है, उसका आपरेशन हो इसका फैसला करने का अधिकार देता है, जिस घर में रहते हैं एक की मृत्यु के बाद उसी घर में रहने का अधिकार देता है. समलैंगिक युगल जो सारा जीवन साथ रहें उन्हें यह अधिकार क्यों न मिलें?
बात केवल समलैंगिक युगलों की ही नहीं, उन स्त्री पुरुषों की भी है जो बिना विवाह के साथ रहते हैं, वह भी यही अधिकार चाहते हैं.
आज इन अधिकारों की बात दुनिया के अधिकतर देशों में नहीं मानी जाती और केवल कुछ ही देश हैं जहाँ इने माना गया है. बहुत से समलैंगिक लोग भी इस बारे में अलग अलग राय रखते हैं. मेरे जानने वाले एक समलैंगिक मित्र कहते हैं कि यह सब बेकार की बाते हैं क्योंकि अधिकतर समलैंगिक लोग एक ही आदमी के साथ सारा जीवन बिताना पसंद नहीं करते. मैं इस बात से सहमत नहीं हूँ, क्योंकि यह मानव अधिकारों की बराबरी की बात है फ़िर चाहे इससे केवल आधा प्रतिशत समलैंगिक युगल फ़ायदा उठाना चाहें और बाकी नहीं.
दीपक जी,
जवाब देंहटाएंविषय बहुत कुछ सोचने पर बाध्य करने वाला था । कुछ जख्मों को कुरेदने वाला भी था । किन्तु मैंने केवल यही कहा कि समलैंगिकता एक निजी मामला है ओर आम व्यक्ति की समझ से बाहर है । ऐसा नहीं है कि यदि हम चाहें तो भी नहीं समझ सकते । पर कितने लोग ऐसा प्रयत्न करेंगे ? ऐसे व्यक्तियों के माता पिता तक यह यत्न करने का कष्ट नहीं करते । मैं एक ऐसे ही नासमझ व असंवेदनशील अति पढ़े लिखे माता पिता और उनको न न कह सकने वाले अति पढ़े लिखे, विद्वान, जीनियस व्यक्ति को जानती हूँ जिसने समलैंगिक होते हुए भी एक कन्या से विवाह रचाया और उसके जीवन में विष घोल दिया । वह विष का प्याला आज भी उसे चाहने वाले पी रहे हैं । यह घटना तब की है जब यह विषय चर्चा का नहीं था । तब तो हम विक्टोरियन जीवन मूल्यों में जीने वाले किसी के पति या पत्नी के ऐसे होने के विषय में कल्पना भी नहीं कर सकते थे । अपनी बेटी के तलाक के विषय पर सोच भी नहीं सकते थे । सोचती हूँ यदि आज वह जीवित होती तो क्या कहती । सो मैंने एक बेहद कीमती जीवन इस विषय के प्रति अज्ञानता व निजी स्वार्थ की भेंट चढ़ते देखा है ।
इस सबके बावजूद मैं यही कहूँगी कि उस व्यक्ति को या किसी भी अन्य व्यक्ति को अपनी जीवन शैली चुनने का अधिकार है । बस वह किसी साधारण असमलैंगिक से विवाह न करे, उसे धोखा न दे । शायद इस घटना के लिए हम व हमारा समाज भी दोषी था जो वह कायर खुल कर न कह सका कि वह समलैंगिक है । या यह न कह सका कि वह विवाह नहीं करेगा ।
जहाँ तक इलाज का प्रश्न है तो यह कोई बीमारी तो है नहीं और यदि इसका कोई इलाज है तब भी व्यक्ति को अपने होने वाले साथी को इस विषय में बता देना चाहिए ।
अतः चर्चा तो हमें अवश्य करनी चाहिए पर संवेदना के साथ । न हम सही हैं न वे गलत, गलत है तो केवल धोखा ।
उनके परिवार बनाने के विषय में मैं पहले ही बोल चुकी हूँ । उन्हें अधिकार है इसका किन्तु बच्चे इस संसार में लाने से पहले उन्हें अपने समाज के विषय में सोच लेना चाहिये । क्या उन बच्चों का जीवन आम परिवारों के बच्चों से कहीं कठिन तो न होगा ?
दीपक जी,इस मुद्दे को उठाने के लिए धन्यवाद, चाहे इसने कुछ जख्मों को हरा कर दिया ।
घुघूती बासूती
सुनील भाई,
जवाब देंहटाएंथीम बहुत अच्छी बन पड़ी है। बहुत सुन्दर। मुझे बहुत खुशी है कि आपने मेरी आह को वाह! वाह! मे बदला।
सुनील भाई, एक परेशानी दिख रही है, यदि पोस्ट पर कोई कमेन्ट ना हो तो, कमेन्ट करने का लिंक नही दिखता। मतलब, पोस्ट पर पहली कमेन्ट कैसे की जाए, मुझे समझ मे नही आया। जरा देखिएगा।
घुघूती बासूती जी, तर्क और विचारों की बात करना बहुत आसान है, स्वयं अपने आप पर बीते तो बात बदल जाती है. मेरी बात ने आप के पुराने घाव कुरेदे, इसका मुझे दुख है. आप ने आपबीती के बाद भी, मानव अधिकारों की बात की, यह प्रशंसनीय है.
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